भारतीय संविधान के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सबको है लेकिन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में यह ध्यातव होना चाहिए कि किसी दूसरे का अहित न हो. अर्थात जहां पर आपकी स्वतंत्रता किसी अन्य की स्वतंत्रता का हनन करती हो वहां आपकी स्वतंत्रता स्वत: ही समाप्त हो जाती है. अतः अपने लाभ के लिए किसी दूसरे का अहित करना न तो व्यवहारिक रुप से और न ही सामान्यतः ही उचित है और न ही इस तरह की बात को भारतीय संविधान तरजीह देता है. लेकिन इतिहास गवाह है की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अनेक बार ताले लगें हैं, फिर चाहे वह आपातकाल में अखबारों का प्रतिबंध हो या नाटकों का या फिल्मों का या उसके बाद अनेक साहित्यिक कृतियों का या कलात्मक कार्यों का. जहाँ तक मुझे लगता है इस विरोध के पीछे अपने अस्तित्व के खतरे को भांप कर उसे बचाने की कवायत होती है. समाज, देश तथा मनुष्य के हित एवं नुकशान बाद में होते हैं या अनेक जगह होते ही नहीं हैं. आईए जानते हैं फिल्मों को लेकर भारत में किए गए इसी तरह के विरोध के बारे में.
हाल ही में ‘पद्मावती’ फिल्म को लेकर पहले राजस्थान के राजपूत संगठनों के द्वारा एवं बाद में धीरे-धीरे संपूर्ण भारत में राजपूत समाज एवं अन्य लोगों के द्वारा इसका विरोध किया गया. इसी तरह ‘टाइगर जिंदा है’ फिल्म को लेकर महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (एमएनएस) एवं शिवसेना ने विरोध करना प्रारंभ कर दिया. शिवसेना एवं मनसे का विरोध टाइगर जिंदा है को लेकर पद्मावती जैसा विरोध नहीं है. टाइगर जिंदा है की कहानी, नायक, नायिका, संवाद या किसी विशेष तथ्य को लेकर उसका विरोध नहीं हो रहा है. उसके विरोध का जो कारण बताया गया है वह है यह फिल्म 22 दिसंबर को रिलीज हुई है और इसी दिन रिलीज हुई है मराठी भाषा में बनी फिल्म ‘देवा’. महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के प्रमुख नेता राज ठाकरे ने मुंबई के सिनेमाघर मालिकों को एक धमकी भरा पत्र भेजा है। इस पत्र में उन्होंने कहा है कि यदि मराठी फिल्म 'देवा' को प्राइम टाइम में नहीं दिखाया गया तो वे लोग 'टाइगर जिंदा है' फिल्म को किसी भी सिनेमाघर में नहीं चलने देंगे।
इन दोनों ही दलों का कहना है कि महाराष्ट्र में मराठी भाषा को प्राथमिकता दी जानी चाहिए. चाहे वह किसी भी रुप में हो. महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के प्रमुख राज ठाकरे के अनुसार, 'सलमान की फिल्म टाइगर जिंदा है की वजह से देवा को सिनेमाघरों में जगह नहीं मिल रही है। ऐसी स्थिति में अगर महाराष्ट्र में ही मराठी फिल्मों को जगह नहीं दी जाएगी तो हम यहां पर कोई भी हिन्दी फिल्म चलने नहीं देंगे।' मनसे की नेता शालिनी ठाकरे ने मीडिया को बताया की, 'मराठी फिल्मों को प्राइम टाइम शोज मिलने चाहिए। मराठी फिल्म 'देवा' को 'टाइगर जिंदा है' के मुकाबले स्क्रीन स्पेस नहीं दिया जा रहा था।’ इन दोनों ही संगठनों का मानना है कि इस तरह से मराठी भाषा की अनदेखी करना उसका अपमान है. अब सवाल यह है की यह विरोध उचित है या अनुचित? भारत में इस तरह से सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, जातिगत एवं लिंग के आधार पर फिल्मों का विरोध होता रहा है.
मोटा मोटी रुप से देखा जाए तो फिल्म उद्योग एक मनोरंजन का माध्यम है लेकिन थोड़ा सा बारीकी से देखा जाए तो मात्र मनोरंजन का कार्य फिल्में नहीं करती हैं. जहां तक मेरा दृष्टिकोण है मनोरंजन करना फिल्मों का द्वितीय कार्य है बल्की प्राथमिक कार्य देश एवं समाज तथा मानवीय भावनाओं को प्रेरित एवं विकसित करने में किसी भी प्रकार का संदेशात्मक योगदान कलात्मक माध्यम से देना प्राथमिक कार्य है. इसीलिए फिल्में ऐतिहासिक संदर्भ तथा यथार्थ घटनाक्रमों को लेकर के किसी व्यक्ति विशेष या समुदाय विशेष पर अक्सर बनाई जाती है और विशिष्ट रुप से सामाजिक व राजनीतिक रुप से पिछड़े हुए किसी विशेष तबके या वर्ग को लेकर के फिल्म बनाने के पीछे फ़िल्मकार का उदेश्य समाज में एक चेतना जागृत करना होता है. ऐतिहासिक, धार्मिक या राजनीतिक संदर्भ को लेकर के फिल्म बनाने का मकसद किसी का अहित करना नहीं है और न ही यह किसी वर्ग विशेष की भावनाओं को आहत करना है बल्कि उसके पीछे उस पक्ष, वर्ग या सोच की, उन्नति की एवं संदेश की भावना निहित होती है. हालाँकि यह भी सच है की आजकल अनेक फ़िल्मकार समाज या देश हित के बारे में बाद में सोचते हैं अपने मुनाफे के बारे में पहले सोचते हैं. इसलिए अनेक फ़िल्मकार फ़िल्में मुनाफे के लिए बनाते हैं. इस तरह का सिनेमा वास्तव में मात्र मनोरंजन देता है और कुछ नहीं. क्योंकि ऐसे लोग व्यवसायिक दृष्टि से हो सोचते हैं.
लेकिन अनेक कारणों से कुछ संगठन, वर्ग या राजनीतिक दल के लोगों के द्वारा फिल्मों का विरोध किया जाता है. जिनके कारण कई बार तो विरोध की हुई फिल्में अक्सर रुचि पैदा करती है और लोग उसे अधिक देखने को उत्साहित होते हैं और वह जब भी प्रसारित होती है जबरदस्त हिट हो जाती है. समसामयिक संदर्भों को ध्यान में रखते हुए कई बार तो विरोध किसी राजनीतिक व सामाजिक संगठनों के द्वारा या विशेष वर्ग के द्वारा पूर्व नियोजित तरीके से करवाया जाता है और इस तरह का विरोध अक्सर फिल्म के प्रति लोगों का उत्साह जगाता है और ऐसी फिल्में जब प्रसारित होती हैं तो हिट होती है लेकिन कई बार यह विरोध समसामयिक संदर्भ को देखकर तत्कालीन रुप से किया जाता है लेकिन इसके विरोध में अक्सर कोई संगठन, कोई दल या विशेष वर्ग अपना हित महसूस करता है, तभी वह विरोध जताता है. लेकिन पूर्ण रूप से किसी फिल्मकार के द्वारा उस वर्ग विशेष का अहित करना फिल्म निर्माण के पीछे उसका मकसद नहीं होता है. कुछ अपवादों को छोड़ दे तो.
‘टाइगर जिंदा है’ फिल्म में किसी वर्ग विशेष या राजनीतिक दल के ऊपर किसी तरह की टिप्पणी नहीं है. लेकिन फिर भी इसका विरोध किया जा रहा है. इससे पूर्व भारत में अनेक ऐसी फिल्में रही हैं, जिनका विरोध किया गया है. जैसे कि गुजरात दंगों के ऊपर बनी फिल्म ‘परजानिया’. जिसमें नसीरुद्दीन शाह ने काम किया था एवं राहुल ढोलकिया ने इस फिल्म का निर्देशन किया था. ‘फायर’. दो बहनों के शरीरिक संबंध पर बनी फिल्म ‘फायर’ दीपा मेहता के निर्देशन में बनी थी. इसका विरोध किया गया था. हिंदी साहित्य के यशस्वी उपन्यासकार कमलेश्वर के उपन्यास ‘आंधी’ पर बनी इमरजेंसी की घटनाक्रमों को लेकर इसी नाम से बनी फिल्म ‘आंधी’ का विरोध किया गया था. अमृत नाहटा के बेहद ही चर्चित कथानक ‘किस्सा कुर्सी का’ की स्क्रिप्ट को उन्होंने स्वयं निर्देशित करके ‘किस्सा कुर्सी का’ नाम से फिल्म बनाई. यह भी आपातकाल के घटनाक्रमों के ऊपर आधारित फिल्म थी, इसका भी विरोध किया गया. बाद में इसे नाटक के रूप में अमृत नाहटा ने प्रकाशित करवाया. मीरा नायर की फिल्म ‘कामसूत्र’ का विरोध किया गया. बेहद उत्तेजक दृश्यों के कारण इस फिल्म का विरोध किया गया. अनुराग कश्यप की फिल्म ‘पांच’ जोकि साइको थ्रिलर और बेहद उत्तेजक दृश्यों के कारण प्रतिबंधित हो गई. हुसैन जैदी के उपन्यास ‘मुंबई ब्लास्ट’ पर आधारित अनुराग कश्यप की फिल्म ‘ब्लैक फ्राइडे’ सेंसिटिव मुद्दे के कारण प्रतिबंधित हो गई. इस तरह से प्रतिबंध होने वाली फिल्मों की एक लंबी फेहरिस्त है. समय-समय पर अनेक विषयों को लेकर एवं अनेक कारणों से फिल्मों का विरोध किया गया है और उन्हें प्रतिबंधित किया गया है. काशीनाथ सिंह के उपन्यास ‘काशी का अस्सी’ के अंदर बनारस की संस्कृति एवं वहां की यथार्थ स्थिति को दिखाने का प्रयास करने वाली सनी देओल अभिनीत फिल्म ‘मोहल्ला अस्सी’ भी पहले प्रतिबंधित कर दी लेकिन संभवत अब शायद रिलीज हो जाए.
इस तरह से फिल्मों को प्रतिबंधित करना उचित नहीं है. क्योंकि फिल्मों में उचित या अनुचित गलत एवं सही तथा समाज के लिए जो हानिकारक है उसे देखने के लिए एक सेंसर बोर्ड नाम की बॉडी बनाई गई है. जिसमें अनेक क्षेत्रों से जुड़े हुए बौद्धिक लोग हैं जो फिल्म को रिलीज करने से पहले उसको अनेक पहलुओं से देखते हैं. उसका निरीक्षण करते हैं और उसके बाद ही किसी विशेष वर्ग या श्रेणी में रखते हुए उसे प्रसारित करने की अनुमति देते हैं. अतः सीधा-सीधा फिल्म का विरोध न किया जाए बल्कि यदि किसी व्यक्ति विशेष समाज और समुदाय को किसी विशेष फिल्म से आपत्ति भी है तो है सर्वप्रथम सेंसर बोर्ड को लिखित में यह संज्ञान लेने के लिए कहें कि ‘इस फिल्म में इस तरह की स्थितियां हैं, अतः इसे गंभीरता से देखा जाए, उसके बाद ही रिलीज किया जाए’. यह एक संवैधानिक तरीका हो सकता है और ऐसा ही होना चाहिए.
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