रंगमंच एवं कलात्मक गतिविधियां कहीं पर भी होती हैं तो उसके प्रेमी एवं रुचि वालों को बहुत खुशी होती है और यह खुशी और भी दुगनी तब हो जाती है जब रंगमंच की गतिविधियां अपने स्थानीय शहर में हों एवं करने वाले परिचित हों। पूर्व की तुलना में कहीं पर भी इन कलात्मक सांस्कृतिक गतिविधियों का आयोजन कम होता जा रहा है। इसके अनेक कारण हैं। जिनसे अनेक लोग परिचित हैं।
अतः उनकी चिंता होती है कि इस तरह के आयोजनों में बढ़ोतरी कैसे हो। इस तरह के आयोजनों को लगभग हर जगह पर स्थानीय लोगों के द्वारा अनेक स्तरों पर आयोजित किया जाता है। लेकिन सवाल यह है कि इस तरह की नाटक, रंगकर्म एवं कलात्मक गतिविधियां या कार्यक्रमों की अनिवार्यता कैसे बने? इस बारे में विचार होना जरूरी है। क्योंकि नाटक एक बहुत ही सामूहिक समावेशी आयोजन है। अतः उसमें सभी की भागीदारी हो, सभी अपने आपको एवं एक-दूसरे को जोडे़ रखें, इसके लिए जो भी आवश्यकताएं हैं उनकी पूर्ति की जाये। हालांकि राजनैतिक या सामाजिक रूप से सांस्कृतिक-कलात्मक आयोजन होते रहते हैं। लेकिन मूल सवाल यह है कि साल में कोई एक बड़ा आयोजन हो और उसमें अत्यधिक संसाधन तथा पैसा खर्च किया जाए वह ज्यादा बेहतर है या अपेक्षाकृत साल में लगभग 8-10 आयोजन हों और उसमें बहुत अधिक पैसा न लगे, कुछ सरकार का सहयोग हो, कुछ स्थानीय प्रशासनिक नेताओं का, कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं का, कुछ औद्योगिक घरानों का एवं अन्य लोगों का, वह?
5 नवंबर 2017 को अलवर के प्रताप ऑडिटोरियम में दर्शकों की संख्या देख कर मन बहुत प्रफुल्लित हुआ। लगभग 700-800 की संख्या में दर्शकों का हुजूम जब एक नाटक देखने के लिए आता है तो निसंदेह नाटक प्रेमियों, साहित्य, कला एवं सांस्कृतिक गतिविधियों को सक्रिय रखने वाले लोगों के हाैंसले बुलंद हो जाते हैं। शरीर में बांछें कहां होती हैं, पता नहीं लेकिन वो खिल जाती हैं। यह अवसर था अनुपम कुमार द्वारा लिखित नाटक ‘मृगतृष्णा’ के मंचन का। इस नाटक की कथा 500 ई. पूर्व के आर्यवृत की है। लेकिन 500 ई. पूर्व का इस नाटक में ऐसा कुछ भी नहीं है जो आज 21 वीं सदी में न हो। इसमें पात्रों के नाम, वेशभूषा एवं किसी हद तक सिर्फ संवाद ही ऐसे हैं जो बौद्ध काल के लगते हैं। व्यवहार, कार्य एवं परिणति तो बिल्कुल आज के ही लगते हैं। फिर भी कथानक एवं संवादों के अनुसार महात्मा बुद्ध और बौद्ध धर्म के उद्भव तथा प्रसार का काल है। करालक नामक पात्र मत्स्य घातक है। लेकिन वह एक पूर्व विद्वान है जिसे तक्षशीला से निष्कासित कर दिया गया है। अतः वह अशांत होकर उचित पद एवं सम्मान न मिलने के कारण भटक रहा है। नगर का एक महाश्रेष्ठि (व्यापारी) और उसकी पत्नी दोनों ही वैभव की लालसा में अत्यधिक लिप्त हैं। वे अपने प्रयत्नों से धन और वैभव को प्राप्त भी कर लेते हैं। लेकिन इसकी एवेज में जो उन्हें सुख मिलना चाहिए वह नहीं मिल पाता है। उनकी तृष्णा शांत नहीं होती है। महाश्रेष्ठि की पत्नी रत्नवल्लरी वह सुख तलाश करती है अपने पति के मित्र अमात्य के सानिध्य में। महाश्रेष्ठि अपनी तृष्णा शांत करने का प्रयास करते हैं नगर गणिका के अंगों की थिरकरन एवं सिहरन में। अमात्म अपनी तृष्णा शांत करते हैं सत्ता के वरिष्ठ पद की लालसा में। गणिका नगर वधु है। विवाहित है। लेकिन उसे समाज से उपेक्षित कर रखा है। अतः उसे भी सम्मान नसीब नहीं होता है। अंत में गणिका भी सब कुछ त्यागकर साधवी बन जाती है। एक युवक स्थिरता एवं शांती तलाश करने के लिए सांसारिक मोह के त्याग में अपनी पत्नी को त्याग कर बौद्ध चीवर धारण करता है। लेकिन वह जिस शांती की तलाश में यह सब करता है, वह उसे इस वेश में भी नहीं मिलती है। फिर वह सुरापान करने लग जाता है। अंत में उसकी पत्नी उसे खोज लेती है। ये सभी पात्र एक दूसरे से कहीं न कहीं नत्थी हैं। लेकिन सभी की तृष्णा अधूरी है। अतः सभी भटक रहे हैं, उस मृगतृष्णा की तलाश में जो इनके पास है पर फिर भी अप्राप्य है। अर्थात जिसके पास जो है वह उससे संतुष्ट नहीं है। उस असंतुष्टि के भाव में ठहराव की अपेक्षा भटकाव है। धन, धर्म, सत्ता, वैराग्य, सौंदर्य आदि की दौड़ में सब भाग रहे हैं लेकिन कोई कहीं पहुंच नहीं रहा है। यह अथाह कामना की तृष्णा वह ‘मृगतृष्णा’ है जो शांत हो ही नहीं सकती। यह स्थिति आज के युग में भी प्रासंगिक है।
अतः उनकी चिंता होती है कि इस तरह के आयोजनों में बढ़ोतरी कैसे हो। इस तरह के आयोजनों को लगभग हर जगह पर स्थानीय लोगों के द्वारा अनेक स्तरों पर आयोजित किया जाता है। लेकिन सवाल यह है कि इस तरह की नाटक, रंगकर्म एवं कलात्मक गतिविधियां या कार्यक्रमों की अनिवार्यता कैसे बने? इस बारे में विचार होना जरूरी है। क्योंकि नाटक एक बहुत ही सामूहिक समावेशी आयोजन है। अतः उसमें सभी की भागीदारी हो, सभी अपने आपको एवं एक-दूसरे को जोडे़ रखें, इसके लिए जो भी आवश्यकताएं हैं उनकी पूर्ति की जाये। हालांकि राजनैतिक या सामाजिक रूप से सांस्कृतिक-कलात्मक आयोजन होते रहते हैं। लेकिन मूल सवाल यह है कि साल में कोई एक बड़ा आयोजन हो और उसमें अत्यधिक संसाधन तथा पैसा खर्च किया जाए वह ज्यादा बेहतर है या अपेक्षाकृत साल में लगभग 8-10 आयोजन हों और उसमें बहुत अधिक पैसा न लगे, कुछ सरकार का सहयोग हो, कुछ स्थानीय प्रशासनिक नेताओं का, कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं का, कुछ औद्योगिक घरानों का एवं अन्य लोगों का, वह?
5 नवंबर 2017 को अलवर के प्रताप ऑडिटोरियम में दर्शकों की संख्या देख कर मन बहुत प्रफुल्लित हुआ। लगभग 700-800 की संख्या में दर्शकों का हुजूम जब एक नाटक देखने के लिए आता है तो निसंदेह नाटक प्रेमियों, साहित्य, कला एवं सांस्कृतिक गतिविधियों को सक्रिय रखने वाले लोगों के हाैंसले बुलंद हो जाते हैं। शरीर में बांछें कहां होती हैं, पता नहीं लेकिन वो खिल जाती हैं। यह अवसर था अनुपम कुमार द्वारा लिखित नाटक ‘मृगतृष्णा’ के मंचन का। इस नाटक की कथा 500 ई. पूर्व के आर्यवृत की है। लेकिन 500 ई. पूर्व का इस नाटक में ऐसा कुछ भी नहीं है जो आज 21 वीं सदी में न हो। इसमें पात्रों के नाम, वेशभूषा एवं किसी हद तक सिर्फ संवाद ही ऐसे हैं जो बौद्ध काल के लगते हैं। व्यवहार, कार्य एवं परिणति तो बिल्कुल आज के ही लगते हैं। फिर भी कथानक एवं संवादों के अनुसार महात्मा बुद्ध और बौद्ध धर्म के उद्भव तथा प्रसार का काल है। करालक नामक पात्र मत्स्य घातक है। लेकिन वह एक पूर्व विद्वान है जिसे तक्षशीला से निष्कासित कर दिया गया है। अतः वह अशांत होकर उचित पद एवं सम्मान न मिलने के कारण भटक रहा है। नगर का एक महाश्रेष्ठि (व्यापारी) और उसकी पत्नी दोनों ही वैभव की लालसा में अत्यधिक लिप्त हैं। वे अपने प्रयत्नों से धन और वैभव को प्राप्त भी कर लेते हैं। लेकिन इसकी एवेज में जो उन्हें सुख मिलना चाहिए वह नहीं मिल पाता है। उनकी तृष्णा शांत नहीं होती है। महाश्रेष्ठि की पत्नी रत्नवल्लरी वह सुख तलाश करती है अपने पति के मित्र अमात्य के सानिध्य में। महाश्रेष्ठि अपनी तृष्णा शांत करने का प्रयास करते हैं नगर गणिका के अंगों की थिरकरन एवं सिहरन में। अमात्म अपनी तृष्णा शांत करते हैं सत्ता के वरिष्ठ पद की लालसा में। गणिका नगर वधु है। विवाहित है। लेकिन उसे समाज से उपेक्षित कर रखा है। अतः उसे भी सम्मान नसीब नहीं होता है। अंत में गणिका भी सब कुछ त्यागकर साधवी बन जाती है। एक युवक स्थिरता एवं शांती तलाश करने के लिए सांसारिक मोह के त्याग में अपनी पत्नी को त्याग कर बौद्ध चीवर धारण करता है। लेकिन वह जिस शांती की तलाश में यह सब करता है, वह उसे इस वेश में भी नहीं मिलती है। फिर वह सुरापान करने लग जाता है। अंत में उसकी पत्नी उसे खोज लेती है। ये सभी पात्र एक दूसरे से कहीं न कहीं नत्थी हैं। लेकिन सभी की तृष्णा अधूरी है। अतः सभी भटक रहे हैं, उस मृगतृष्णा की तलाश में जो इनके पास है पर फिर भी अप्राप्य है। अर्थात जिसके पास जो है वह उससे संतुष्ट नहीं है। उस असंतुष्टि के भाव में ठहराव की अपेक्षा भटकाव है। धन, धर्म, सत्ता, वैराग्य, सौंदर्य आदि की दौड़ में सब भाग रहे हैं लेकिन कोई कहीं पहुंच नहीं रहा है। यह अथाह कामना की तृष्णा वह ‘मृगतृष्णा’ है जो शांत हो ही नहीं सकती। यह स्थिति आज के युग में भी प्रासंगिक है।
‘मृगतृष्णा’ नाटक राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एन.एस.डी.) नई दिल्ली रेपर्टरी का बहुमंचित प्रसिद्ध नाटक है। इस समीक्षा को पढ़ने वाले एवं इस नाटक के साक्षी रहे लोग यह सवाल उठा सकते हैं कि पांच नवंबर 2017 को प्रताप ऑडिटोरियम, अलवर में नाटक तो हुआ लेकिन वह ‘मृगतृष्णा नहीं था। वह तो कुहासा था। दरअसल यह भी एक सच है लेकिन अधूरा। जिसे अलवर के दर्शक संभवत नहीं जानते हों। पांच नवंबर को जो नाटक खेला गया, जिसका नाम ‘कुहासा’ बताया गया, वह अनुपम कुमार द्वारा लिखित ‘मृगतृष्णा’ नाटक का बदला हुआ नाम है। ‘कुहासा’ नाम का नाटक जहां तक मेरी जानकारी है हिन्दी में है ही नहीं। यहां मैं एक बात और बिल्कुल स्पष्ट कर दूं कि यह सिर्फ पांच नवंबर को हुए नाटक की समीक्षा ही नहीं है बल्कि उससे पूर्व की स्थितियों की व्यक्तिगत एवं सामूहिक व्यवहार की कार्यसिद्धि के उपरांत लोगों के द्वारा एवं मेरे द्वारा किये गये अनुभव का लेखन है। जिसका इस नाट्य प्रस्तुति पर प्रभाव भी है एवं संबंध भी। मृगतृष्णा कब, क्यों और कैसे कुहासा में तब्दील हुआ इसका कोई प्रमाणिक जवाब तो मेरे पास नहीं है और न ही इस संदर्भ को लेकर मेरी निर्देशक या नाटक में काम करने वाले कलाकारों से विधिवत रूप से कोई विशेष बात हुई है। किंतु सूत्रात्मक बातें मुझे पता लगी हैंं। जिनका हवाला यहां लाजमी है। एक बात मैं और स्पष्ट कर दूं, जहां तक मुझे याद है गोविन्द सिंह ने अलवर में इस नाटक यानी ‘मृगतृष्णा’ की रिहर्सल को 2005 में शुरू किया था। इसका मैं साक्षी हूं। उस समय इस नाटक की रिहर्सल ‘मृगतृष्णा’ के नाम से ही हो रही थी और मैं भी इस नाटक का एक अंग था। लेकिन यह नाटक उस समय मंचित नहीं हो सका। मंचित क्या रिहर्सल ही ठीक से नहीं हो पाई थी। उससे पूर्व भी इसका पूर्वाभ्यास हुआ हो ऐसा मुझे ज्ञात नहीं है। परंतु मुझे यह ज्ञात है कि उसके बाद भी इसकी रिहर्सल कई बार हुई और कई बार बंद हुई। लेकिन यह मंचित फिर भी नहीं हो पाया। मेरी तरह अनेक लोग इससे जुडे़ और फिर विच्छेदित हुए। गोविन्द सिंह के निर्देशन में इसका पहला मंचन हुआ 2016 में। हिमाचल प्रदेश, शिमला में आयोजित एक नाट्य प्रतियोगिता के दरमियान। गोविंद सिंह के निर्देशन में इसका दूसरा मंचन हुआ 5 नवंबर 2017 को प्रताप ऑडिटोरियम अलवर में। लेकिन दोनों ही जगह पर नाटक का नाम ‘कुहासा’ था। अर्थात लगभग 10-11 वर्षों की लंबी रिहर्सल के बाद यह नाटक मंचित होता है वह भी अपने मूल नाम से नहीं। इस बीच अनेक कहानियां एवं कड़ियां जुड़ी एवं टूटी। इस नाटक के नाम बदलने में, मंचन न होने तथा बार-बार रिहर्सल पूरी न होने के कारणों में यह बताया जाता है कि कुछ मित्रों के साथ या उनके परिवार में दुर्घटनाएं हो गई, इसलिए ऐसा हुआ। अतः एक तरह से यह नाटक अशुभ मान लिया गया। फिर बताया गया नाटक नहीं, नाटक का नाम अशुभ है। अतः उस अशुभ को शुभ करने अर्थात उसके शुद्धिकरण के लिए निर्देशक ने इस नाटक का नाम ‘मृगतृष्णा’ से ‘कुहासा’ परिवर्तित कर दिया। लेकिन नाटक के नाम बदलने एवं इतने वर्षों तक मंचन न होने के इन कारणों से पूर्णतः सहमत नहीं हुआ जा सकता। 10-11 वर्षों की रिहर्सल के बाद कोई नाटक मंचित होता हो तो उसके कारणों में सिर्फ यही कारण निहित हों ऐसा संभव नहीं। हालांकि ऐसा भी नहीं है कि यह कोई पहला नाटक है जो इतने वर्षों की रिहर्सल के बाद मंचित हो रहा है। संभवत इस तरह की स्थिति दूसरे नाटकों, निर्देशकों या कलाकारों के साथ भी हुई हो। परंतु बात यहां मृगतृष्णा की हो रही है। अतः उसे ही केन्द्र में रखते हैं। इस नाटक के केंद्र में सबसे प्रमुख एक बात रही, वह इस नाटक का निर्देशक। क्योंकि निर्देशक प्रारम्भ से नाटक के केन्द्र में रहे एवं नाटक से जुड़े रहे। जबकि बाकी कलाकार, नाटक का नाम एवं अन्य बहुत कुछ बदलता गया। अगर हम यह मानें कि जब-जब निर्देशक ने प्रयास किया है नाटक करने का तब-तब किसी कारण से कोई न कोई कलाकार इससे पृथक होता रहा तो उसका भी कारण निर्देशक है या वह जानता है। अतः इस नाटक के मंचित न होने में कलाकारों का पृथक होना या अन्य कारण गोण एवं स्वयं निर्देशक प्रमुख लगता है।
साहित्यकार कलाकार अन्य की अपेक्षा अधिक संवेदित, भावुक, ईमानदार, मूल्यवान तथा नैतिक होता है। ऐसी अपेक्षा की जाती है और वास्तव में होता भी है और होना चाहिए। इसका तात्पर्य यह कतई नहीं है कि अन्य के अंदर ये गुण या भाव नहीं होते हैं। उनमें भी होते हैं और कुछ लोगों में तो कलाकारों से भी अधिक होते हैं। बल्कि कुछ लोग तो लेखक या कलाकार होने के बावजूद भी इन गुणों से परे होते हैं। लेकिन साहित्यकार और कलाकारों का अधिक भावुक और भावनात्मक संबंध एवं जुड़ाव होना ऐसा एक आदर्श वातावरण भी बना हुआ है और किसी हद तक है भी। अपवादों या तथाकथित लोगों को छोड़कर। क्योंकि ये लोग समाज को वह आईना दिखाने का प्रयास करते हैं जो कई बार अनदेखा कर दिया जाता है या जिसमें समाज अनेक त्रुटियां करता है या भविष्य में क्या स्थिति हो सकती है इस और आगाह करने का भी प्रयास करते हैं। अतः जब यह साहित्यकार-कलाकार स्वयं ही यदि नैतिक रुप से सही, ईमानदार, सद्चरित्र या सच्चा नहीं होगा तो समाज को क्या रास्ता दिखाएगा? इसी तरह के अनेक सवाल खड़े होते हैं ‘कुहासा’ नाटक एवं गोविन्द सिंह को लेकर। पहला तो ऊपर वर्णित हो चुका है-नाटक का नाम बदलना। दूसरा इस नाटक के प्रचार के दौरान एवं प्रस्तुति से पूर्व व बाद में नाटक का मूल नाम, लेखक एवं कलाकारों को महत्त्व न देना? निर्देशक का केन्द्र में रहना? स्नेह कला मंच द्वारा अनेक नाटक प्रस्तुत करना? प्रताप ऑडिटोरियम अलवर में अलवर के कलाकारों द्वारा पहली बार कोई नाटक प्रस्तुत करना? गोविंद सिंह श्रीराम सेंटर दिल्ली, जो एक गैर सरकारी संस्था हैं, नाटक में डिप्लोमा का कोर्स एवं प्रशिक्षण देता है, वहां से प्रशिक्षित हैं। सवाल यह भी उठता है कि इस तरह से प्रोफेशनल कोर्स करने के बाद भी अपनी कला, कलाकार, लेखक एवं नाटकों के प्रति ईमानदार न होना उचित नहीं है। आम तौर पर यह कहा जाता है कि हिन्दी में अच्छे रंगमंचीय नाटकों का अभाव है। जबकि यह पूर्णतः सत्य नहीं है। लेकिन फिर भी मानलें तो दिक्कत यह है कि जब इस तरह से हिन्दी नाटक एवं नाटककार को उपेक्षित किया जायेगा तो कौन हिन्दी में नाटक लिखेगा?
मृगतृष्णा नाटक का आलेख बहुत ही अच्छा है। कलाकारों ने मेहनत भी बहुत की है। लेकिन जिन विचारों को लेखक नाटक के माध्यम से प्रस्तुत करना चाहते हैं वो पूर्णतः प्रस्तुति में साकार नहीं हो पाये। क्योंकि इस प्रस्तुति में कलाकारों की मेहनत तो दिखाई दी पर उनके पीछे निर्देशक की दृष्टि इस दृश्य माध्यम में अनेक जगह अदृश्य थी। हां स्वयं निर्देशक अनेक जगह पर दृष्यमान थे। चाहे वह हॉडिंग हो या प्रोजेक्टर हो या नाटक का ब्रोसर हो या प्रत्यक्ष मंच हो।
नाटक का आलेख बहुत ही अच्छा है। अर्थात अच्छे की परिभाषा, मापदंड तथा पसंद भी अलग-अलग हो सकती है। जरूरी नहीं हर किसी को हर नाटक अच्छा लगे। क्योंकि सबकी पृथक-पृथक रुचि होती है। यही कारण होते हैं भिन्न भिन्न नाटकों को निर्देशित करने के। अलग-अलग निर्देशक जब एक ही नाटक को प्रस्तुत करते हैं तो उनकी प्रस्तुति में बहुत अंतर होता है। क्योंकि यही उनके निर्देशकिय का कमाल है। लेकिन इस नाटक (मृगतृष्णा) का कथासूत्र अच्छा है, संवाद बहुत खूबसूरत हैं। नाटक के अनेक पात्रों के नाम जिन संवेगों या मनोवृतियों को लेकर लेखक ने बड़ी खूबसूरती से गढ़ें हैं, उनके चरित्र उसी तरह से फलीभूत होते हैं। इस तरह की परीकल्पना बहुत अद्भुत है और ये सब स्थितियां आज प्रासंगिक भी हैं। अत: इन कारणों से नाटक अच्छा है। बहुत सी बातों को लेखक या अभिनेता नहीं देख पाता है या लेखक जिनकी और इशारा करता है उसे अभिनेता नहीं पकड़ पाता है। उसे निर्देशक देखता है। अभिनेता जिस किरदार को अभिनीत करता है वह प्रमुख रुप से उस पर ही ध्यान देता है या अपने सहयोगी कलाकार पर थोड़ा बहुत ध्यान दे सकता है। जबकि एक निर्देशक संपूर्ण नाटक पर ध्यान देता है। वह अपने कलाकारों के साथ भेदभाव वाली नीति नहीं अपनाता है। यदि वह ऐसा करता है तो न तो वह एक निर्देशक अच्छा है और न ही व्यक्ति। हां विशेष परिस्थितियों में कुछ चीजें संभव हो सकती हैं। मृगतृष्णा नाटक में कुछ ऐसी ही स्थिति बिंबित हो रही थीं।
नाटक प्रारंभ होने का समय शाम छह बजे का रखा गया था लेकिन नाटक 8 बजे के बाद प्रारंभ हुआ। कुछ दर्शक छह बजे से पूर्व लगभग पांच बजे या 5.30 बजे आ गए थे और पूरा नाटक देखकर गए। अर्थात डेढ़ दो घंटे के नाटक के लिए उन्होंने अपने पांच छह घंटे दिए तो सवाल यह उठता है कि हम इससे नाटक के दर्शकों को जोड़ रहे हैं या तोड़ रहे हैं? एक तरफ तो हम यह कहते हैं कि नाटक के लिए दर्शक नहीं है। यह समस्या सिर्फ अलवर में नहीं बल्कि अनेक शहरों एवं महानगरों में भी है। अतः हमें उसका बहुत ध्यान रखना होगा। जबकि कुहासा नाटक के निर्देशक गोविंद सिंह नाटक के पहले एवं बाद में इस बात पर जोर देते हुए नाट्यशास्त्र का हवाला देकर कहते हैं कि 'नाटक के लिए दर्शक बहुत महत्त्वपूर्ण है। नाटक में दर्शकों की बड़ी भूमिका है। दर्शकों के बिना नाटक संभव ही नहीं है। आपका सहयोग अपेक्षित है।’ कहने के लिए कहना एवं करने के लिए कहना दोनों बातों में अंतर होता है।
मृगतृष्णा नाटक में करालक की भूमिका निभाई वरिष्ठ रंगकर्मी नीलाभ पंडित जी ने। इस पूरी टीम में सबसे वरिष्ठ रंगकर्मी नीलाभ पंडित जी थे। नीलाभ पंडित जी करालक की भूमिका के साथ बहुत अच्छा न्याय नहीं कर पाए। नीलाभ पंडित जी की भाषा में भारीपन होने के कारण उच्चारण में अस्पष्टता झलकती है। दूसरा जिस तरह की असमंजस या द्वंद्व की स्थिति की आवश्यकता करालक के किरदार में होनी चाहिए थी वह भी नीलाभ पंडित जी के अभिनय के माध्यम से निकलकर नहीं आई। करालक में एक आंतरिक विक्षोभ और बाह्य प्रेम की जटिलता का द्वंद्व है। प्रेम आम नागरिकों के प्रति है, जबकि विक्षोभ सत्ता, वैभव, सम्पति एवं प्रतिभा का अपमान एवं उचित सम्मान न देने वालों के प्रति है। यह द्वन्द्वात्मक स्थिति नीलाभ पंडित जी के वाचिक एवं शारीरिक दोनों ही प्रकार के अभिनय से अभिनीत नहीं हो रही थी। नीलाभ पंडित जी एक बहुत अच्छे नाट्य निर्देशक, कवि एवं समीक्षक हैं। लेकिन अभिनेता के रूप में इस भूमिका में वे अधिक प्रभाव नहीं छोड़ पाये। मणिभद्र की भूमिका निभाई संदीप शर्मा ने। संदीप शर्मा का अभिनय काफी प्रशंसनीय रहा। संदीप शर्मा के साथ एक अच्छी विशेषता यह है कि वे अपने किरदार के साथ स्वयं ही (भी?) परिश्रम करते हैं और वह परिश्रम उनका मंच पर दिखाई देता है। संदीप शर्मा के अभिनय की संप्रेषणियता में उतार चढ़ाव के मध्य मणिभद्र का किरदार काफी रोचक एवं रसिक लगा। अनंग मेखला की भूमिका में थी शीतल सैनी। शीतल सैनी एक संभावनाशील अदाकारा लगीं। उसमें अभिनय की अप्रतिम क्षमता दिखाई देती है। गणिका की भूमिका के लिए जिस तरह की भाव-भंगिमा एव वाक् पटुता की आवश्यकता होनी चाहिए वह शीतल सैनी के अभिनय में निहित थीं। इसके साथ ही वाणी की चंचलता एवं अंगों का संचालन भी शीतल सैनी ने किरदार के अनुरूप दर्शाया। इसी तरह की प्रभावी छवि को प्रस्तुत किया रत्नवल्लरी अर्थात अनामिका ने अपने अभिनय के माध्यम से। अनामिका के अभिनय में भी एक अस्थिर स्थिति दिखाई देती है, जो निसंदेह उसके किरदार की मांग थी। अनामिका ने अपने किरदार के साथ काफी तालमेल बैठाते हुए उसे मंच पर साकार किया। शीलत एवं अनामिका दोनों ही अभिनेत्रियों ने अपने किरदार के साथ न्याय किया। जिस तरह के किरदार की जरूरत थी उसी रूप में उसे मंच पर अभिनीत करके का प्रयास किया। चाहे वे प्रेम के निजी क्षण हों या उपालंभ से क्रोधित रूप वाले दृश्य। शीलत सैनी एवं अनामिका दोनों ने भी अपने किरदार को जीवंत करने के लिए काफी परिश्रम किया, ऐसा उनके अभिनय से प्रदर्शित हो रहा था। चंद्रकेतु की भूमिका में राजीव शर्मा थे। राजीव शर्मा का भी भाषा की अस्पष्टता वाला उच्चारण दोष है जो कि स्वाभाविक है। किन्तु उसका प्रभाव किरदार पर एवं दर्शक पर पड़ता है। जो कि कभी कभी तो सकारात्मक हो सकता है लेकिन हमेशा नहीं। इसलिए उनके अभिनय में वह असर नहीं आ पाया जो एक सत्ता लोलुप एवं पर स्त्री गमन पुरूष के चरित्र में दिखाई देना चाहिए। जिस तरह के प्रभाव की संभावना लेखक ने करालक एवं चंद्रकेतु के किरदार के साथ उत्पन्न करने की कोशिश की है, वह दोनों ही कलाकार उत्पन्न नहीं कर पाये। सोमदेव की भूमिका में थे राजेश महीवाल उर्फ एम.डी। राजेश महीवाल अपने किरदार में अप-डाउन होते हुए दिखाई दिए। एक-दो दृश्यों को छोड़ दें तो राजेश महीवाल ने सोमदेव के किरदार में अच्छी छाप छोड़ी है। हालांकि थोड़ी मेहनत की जरूरत और थी। उनके किरदार में भी निर्देशकिय अभाव दृष्टिगोचर होता है। निर्देशक के साथ-साथ उनसे भी अपने किरदार पर मेहनत की अपेक्षा है।
नाटक में अन्य कलाकारों में सुप्रिया एवं नृतकी के रूप में मीनाक्षी चौहान, मदनाक्ष के रूप में अमन सतीजा, चारूकेशी के रूप में मंजू चौहान, कुण्डले एवं नृतकी के रूप में नेहा मोदी, शौण्डिक एवं श्रेष्ठीपुत्र के रूप में भागीरथ मीणा, बौद्ध भिक्षु के रूप में महेन्द्र सिंह, अन्य बौद्ध भिक्षु एवं नागरिक के रूप में चन्द्रप्रकाश, दिनेश, सीताराम, प्रदीप, रवि एवं मनोज ने भी अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिकाओं से नाटक को प्रवाहमय बनाया। नाटक में बहुत सारी चीजें नेपथ्य से होती हैं। जिन्हें मंचित करने वाला दिखाई नहीं देता लेकिन उसका कार्य दिखाई देता है और वह कार्य नाटक को बहुत अधिक प्रभावित करता है। जैसे वस्त्र सज्जा परिकल्पना नीरू मेवाड़ा की थी जो निसंदेह बहुत ही खूबसूरत थी। वेशभूषा ने सभी कलाकारों की प्रस्तुति को काफी प्रभावी बनाने में सहयोग दिया। ब्रोसर-पोस्टर भी नीरू मेवाड़ा ने ही परिकल्पित किया। प्रकाश व्यवस्था को संभाला चन्द्रेश जैन ने एवं संगीत संचालित किया विजय शर्मा एवं सीताराम बेडा ने। प्रकाश, संगीत की अपेक्षा बेहतर था। लेकिन प्रकाश में कुछ जगहों पर तालमेल की कमी खल रही थी। संगीत काफी कमजोर भी था एवं उसका संचालन तो अनेक जगह प्रस्तुति को बाधित भी कर रहा था। संगीत से नाटक को जहां गति मिलनी चाहिए थी, वहीं वह नाटक का कमजोर पक्ष साबित हुआ। सैट एवं प्रोपटी को संभाला मुकेश शर्मा ने, प्रोडक्शन मैनेजर नीलाभ ठाकुर, मेकअप शालिनी यादव एवं राहुल चतुर्वेदी ने किया, स्टेज मैनेजर राजीव शर्मा थे। इन सभी कलाकारों के सहयोग को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। उनकी छोटी-छोटी भूमिकाओं के माध्यम से ही यह प्रस्तुति साकार हो पाई है।
मंच पर कलाकारों में कुछ जगह पर तालमेल का अभाव दिखाई दे रहा था। जैसे गणिका के कक्ष के बाहर दासी दाईं ओर की विंग्स से बाहर से आने वाले की सूचना दे रही थीं और आने वाले बाईं ओर की विंग्स से आ रहे थे। नाटक का पहला ही दृश्य अनेक कलाकारों के रेंगते हुए आगे बढ़ने का था जो यह संकेत देता था की तृष्णाएं बढ़ती ही जाती हैं वे खत्म नहीं होती हैं। लेकिन इस दृश्य में भी कलाकार कुछ समय बाद पीछे हटते हुए दिखाये गए थे। जो नाटक के कथ्य, चरित्र एवं रस के अनुरूप नहीं था। जिस तरह का कथानक इस नाटक का है उसमें तृष्णाएं रुकती नहीं है बल्कि अलग-अलग माध्यमों से अग्रसर होती हैं। इन सबके पीछे निर्देशक की दृष्टि एवं व्यवहार कुशलता का अभाव प्रकट होता है। जैसे नाटक समाप्त होने के बाद सभी पात्र जब मंच पर आते हैं और उसके बाद जब निर्देशक मंच पर आता है तो वह कलाकारों के साथ नहीं बल्कि उनके आगे खड़ा होता है। यह अपने आप को प्रमुख और दूसरे को गोण दिखाने का दृष्टिकोण जिस तरह से एक दृश्य के माध्यम से प्रताप ऑडिटोरियम में नाटक के अंत में दिखाई दिया संभवत उसी तरह की अनेक चीजें इस नाटक के पूर्वाभ्यास से लेकर मंचन तक प्रकट हो रही थीं। जिसका एक प्रभाव तो संभवतः यह रहा कि नाटक के प्रारंभ में दर्शकों का जो हुजूम था वह नाटक प्रारंभ होने के तीस मिनट के अंतराल में ही कम होने लग गया और अंत तक तो बहुत ही कम संख्या में दर्शक रह गए। नाटक दर्शकों को बहुत अधिक बांध नहीं पाया। हां नाटक के लिए दर्शक एवं आयोजक तलाश करने में निर्देशक सफल रहे, इसके लिए उन्हें बधाई। क्योंकि ये दोनों ही अंग नाटक के लिए अभिन्न हैं लेकिन आसान नहीं।
एक बात ओर पता लगी है। नाटक के ब्रोसर में जो कथासार लिखा गया था, वह एक वर्ष पूर्व शिमला में हुई प्रस्तुति के समय लिखे गए कथासार का ही परिवर्तित रूप है। एक बड़ा अंतर है तो यह कि नीचे नाम दोनों अलग-अलग लिखे गए हैं। इसी के साथ एक सवाल यह भी नत्थी है की शिमला में आयोजित अखिल भारतीय नाट्य प्रतियोगिता में इस नाटक यानी 'कुहासा' ने प्रथम पुरस्कार अर्जित किया। यह बात मौखिक एवं लिखित दोनों रूप से अनेक बार अनेक जगह प्रचारित की गई। जबकि यह भी अधूरा सत्य है। शिमला में यह नाटक पुरस्कृत तो हुआ, पर अनेकों में से एक नहीं चुना गया। बल्कि यह एक में से एक चुना गया और चुना क्या गया अपनी श्रेणी का यह इकलोता नाटक था, अर्थात कोई विकल्प ही नहीं था इसके अलावा। अत: विशेष श्रेणी के अंतर्गत इसे पुरस्कार दिया गया।मूलतः सवाल यह नहीं है कि कथासार को परिवर्तित क्यों किया गया या इस नाटक को प्रथम पुरस्कार मिला यह प्रचारित क्यों किया गया? सवाल यह है कि स्पष्टता और ईमानदारी क्यों नहीं है? कथासार जिसने लिखा है उसका नाम देने में बुराई क्या थी? हां यदि उस कथासार का सहारा लेकर कुछ भिन्न लिखा जाता तो कोई दिक्कत नहीं होती। जिस व्यक्ति ने जो काम किया है उस काम का श्रेय उसे मिलना चाहिए। यहां तक की इस नाटक का नाम ‘कुहासा’ भी जिन्होंने सुझाया है उनके प्रति धन्यवाद तो दूर उनका नाम तक निर्देशक ने कहीं भी नहीं दिया। एक सजग एवं समर्पित रंगकर्मी से इस तरह की अपेक्षा नहीं होती है। जैसा कि मैंने पूर्व में कहा कि अपेक्षाकृत दूसरी विधाओं या क्षेत्रों से जुड़े हुए लोगों से, एक कलाकार-साहित्यकार अधिक नैतिक, ईमानदार और करुणामय होता है और होना भी चाहिए। इन्हीं अपेक्षाओं और संभावनाओं की वजह से ही तो ये मूल्य जिंदा हैं। अतः दूसरों से अपेक्षा के साथ-साथ हमें स्वयं भी इसी तरह का होना चाहिए, ऐसी आशा और उम्मीद की जा सकती है। नाटक करके वाहवाही लूटना या पैसे कमाना लगभग वैसा ही व्यापार हो गया जैसा कि अन्य लोग मुनाफे की दृष्टि से अन्य कार्य करते हैं। अनेक खूबियों एवं खामियों के साथ अनेक प्रश्नों को खड़ा करता हुआ एवं हल करता हुआ यह नाटक (जिसे मृगतृष्णा कहा जाये या कुहासा यह भी एक प्रश्न है?) प्रस्तुत हुआ, यह एक अच्छी बात है। एक बहुत अच्छी बात इस प्रस्तुति की यह रही की इस नाटक में अनेक नवोदित कलाकार नजर आये। जिसमें महिला कलाकार भी अनेक थीं । यह एक बड़ी उपलब्धि इस नाटक की रही। इतनी बड़ी संख्या में कलाकारों के साथ काम करना भी अपने आप में एक चुनौती है। इस चुनौती को गोविन्द सिंह ने एक निर्देशक के रूप में स्वीकार किया एवं अलवर में नाटकों की प्रस्तुति को बरकार रखने में अपनी भूमिका निभाई इसके लिए वे बधाई के पात्र हैं।
प्रस्तुति -प्रदीप कुमार
बहुत खूब प्रदीप जी
ReplyDeleteधन्यवाद सोनू जी।
DeleteBahut kuch seekhne layak hai apki sameeksha me sir, dhanyawad
ReplyDeleteशुक्रिया हितेश जी
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ReplyDeleteश्रीमान आपकी समीक्षा बहुत ही अच्छी लगी | इस तरह से बेबाकी से लिखी गयी समीक्षा जिसने नाटक से जुड़े कई राज खोल कर रख दिए, हमें आपसे ऐसे ही लेख की उम्मीद थी | पूरा पढने के के बाद एक बात तो समझ आई कि आजकल कुछ लोग नाटक को कला की भावना से नहीं करते है बल्कि उसे एक व्यापार समझने लगे है | लेकिन लेखक ने जो नाटक को नाम दिया था उसे नाटक के रचियता से बिना अनुमति लिए अशुभ मानकर बदल देना उचित नहीं लगा ये बात लेखक तक पंहुचनी चाहिए जिसके लिए मैं भी पूरी कोशिश करूँगा | बहुत बहुत शुक्रिया आपका हमें एक सच्चाई बताने के लिए आपसे आशा है कि भविष्य ,में भी ऐसा ही कुछ पढने को मिलता रहेगा |
ReplyDeleteधन्यवाद योगेन्द्र जी।
Deleteयोगी भाई इस नाटक के ओर भी कई पहलू है जो समीक्षक प्रदीप जी ने शायद किसी कारण से छोड़ दिए हैं उनकी भी समीक्षा होनी चाहिए जैसे कि गोविंद सिंह ने निजता की पराकाष्ठा तो उस समय की जब उसने कहा कि इस नाटक की पूर्व प्रस्तुति जो शिमला में हुई थी वह बाहर के कलाकारों ने की थी जबकि सारे कलाकार अलवर के थे और उस समय ऑडिटोरियम में मौजूद थे.
ReplyDeleteबजरंग भाई ऐसा इसलिए होता है की लोग खामोश रहते है और कुछ भी सह लेते है हर कोई प्रदीप जी की तरह बेबाक नहीं होता
Deleteशुक्रिया बजरंग जी। वह बात मैं उस समय सुन नहीं पाया। अन्यथा लिखने में क्या दिक्क्त थी।
Deleteनीचता की पराकाष्ठा
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