हास्य पर भारी करुण
अंतर्राष्ट्रीय रंगमंच दिवस पर आयोजित मत्स्य
थियेटर फेस्टिवल के अंतर्गत प्रताप ऑडिटोरियम में 27 मार्च से 29 मार्च तक 4
नाटकों की प्रस्तुति हुई। रंग संस्कार थिएटर ग्रुप, अलवर इकाई राज लोक विकास संस्थान के द्वारा आयोजित मत्स्य थियेटर फेस्टिवल
की गूंज निसंदेह लोगों की स्मृति में अनेक दिनों तक गूंजेगी। चारों नाट्य
प्रस्तुतियों ने लोगों को अपने से इस तरह से जोड़ लिया कि लोग मंच पर घटित होने
वाली घटना का हिस्सा अपने आपको समझने लगे। इस तरह से साधारणीकरण जब होता है तो
नाटक एक सामाजिक कला है, यह सार्थक होता है। जिस उद्देश्य के
लिए नाटक किया जाता है किसी हद तक वह अपने उद्देश्य में दर्शकों को प्रभावित करने
में कामयाब होता है।
नौ रसों में से सबसे ज्यादा प्रस्तुतियां यदि
किसी रस की होती हैं तो वह है हास्य रस। चाहे यह कलात्मक, साहित्यिक, सांस्कृतिक, सामाजिक या किसी भी प्रकार की
प्रस्तुतियां हों या फिर लेखन की विधाओं के अंतर्गत भी हास्य अधिक प्रभावी, प्रमुख और अधिक लोकप्रिय है। यहां तक
कि संसद सत्र के दौरान नेताओं के भाषणों में भी अनेक बार हास्य की प्रधानता एवं
प्रमुखता देखी जा सकती है। कहने का तात्पर्य यह है कि हास्य रस विश्व में सबसे
अधिक प्रचारित-प्रसारित और लोकप्रिय है। उसके पीछे यह कारण हो सकता है कि तमाम तरह
के दुख, अवसाद, कष्ट एवं पीड़ा से निजात पाने की कोशिश में हर व्यक्ति रहता है। वह
चाहता है कि जो भी पल या अवसर उसे हास्य का मिल जाए वह उसका भरपूर लाभ उठाए।
व्यक्ति अपने अवसादों के सदनों से बाहर निकलकर हास्य की पर्णकुटी में कुछ देर ही
सही मगर एक निश्चल, स्वछंद और उन्मुक्त जीवन की कल्पना में
जीना चाहता है। यथार्थ के समानांतर कल्पना में रहकर सब कुछ भुला कर कुछ देर ही सही
पर वह आनंद का जीवन जीना चाहता है। यह आनंद वह हास्य में तलाशता है। इसीलिए वह
हास्य पसंद करता है।
कलाओं एवं विधाओं में हास्य रस की प्रधानता एवं
लोकप्रियता होने के बावजूद भी वह हृदय की गहराई में नहीं उतरता है। वह सिर्फ मन को
उथला-उथला प्रभावित करता है। हास्य रस सिर्फ ऊपरी तौर पर ही व्यक्ति को प्रभावित
करता है। हृदय को गहरे से प्रभावित करना एवं गंभीर चोट करना हास्य रस का उद्देश्य
भी नहीं है एवं उसके बूते की बात भी नहीं है। हृदय के अंतस्तल की कोमल भावनाओं को
झंकृत कर व्यक्ति को देर तक एवं दूर तक प्रभावित करने की क्षमता यदि किसी रस में है
तो वह करुण रस है। करुण रस का तीर जब मंचासीन कलाकार के तरकश से निकलता है श्रोता
या दर्शक के हृदय के अंतर्मन की कोमल एवं कठोर दोनों भावनाओं को भेदता है। जिस तरह
से हास्य रस को आत्मसात करके या उसका आनंद लेने के पश्चात व्यक्ति अपने आपको एक
अवसाद से परे, बहुत हल्का, उत्साहित, आनंदित महसूस करता है, ठीक उसी प्रकार करुण रस से संबद्ध होने
के बाद भी श्रोता या दर्शक अपने आप को उसी प्रकार से कुछ पृथक या हल्का महसूस करता
है। लेकिन यह पृथक एवं हल्कापन हास्य रस के बाद पैदा हुई स्थिति से कुछ भिन्न होता
है और इसकी भिन्नता ही करुण रस की प्रमुखता एवं विशिष्टता को रेखांकित करती है।
इसका सबसे बड़ा कारण है कि मानव करुणामय जीवन को जब देखता है तो तुरंत रूप से उसकी
संवेदनाएं संगठित होकर संप्रेषित होती हैं और करुण रस का संप्रेषण हास्य की
अपेक्षा अधिक गहरी चोट करता है। करुण रस का प्रभाव मनुष्य के हृदय में उद्वेलन
पैदा करता है। करुण रस ही एक ऐसा रस है जिस से प्रभावित हुए बिना कोई रह ही नहीं
सकता। अर्थात करुण रस अपना प्रभाव व्यापक रूप से प्रसारित करता है। हो सकता है
किसी हास्यास्पद स्थिति या प्रस्तुति के अंतर्गत कोई व्यक्ति न हंसे लेकिन करुणामय
प्रस्तुति या स्थिति के अंतर्गत व्यक्ति का हृदय झंकृत न हो ऐसा संभव नहीं। इसे
ठीक ऐसे ही समझे कि हास्य रस की चोट एक लोहे के हथौड़े की चोट है जो कि दिखाई देती
है एवं स्वर तेज होता है इसलिए सुनाई भी देती है जबकि करुण रस की चोट ऐसे काठ के
हथौड़े की चोट है जो न दिखाई देती है और न सुनाई देती है। लेकिन वह जितना अंदर
चोटिल और प्रभावित करती है,
उसकी वेदना उसकी टीस बहुत दूर तक तथा
देर तक रहती है।
हास्य के साधारणीकरण में कई बार थोड़ा मस्तिक भी
लगाना पड़ता है। परंतु करुण मूलतः हृदय के संवेग का ही रस है। वह पूर्ण रूप से हृदय
से अनुभूत होती है एवं हृदय को ही प्रभावित करती है। अतः करुणा से जुड़ने के बाद
व्यक्ति उससे बहुत सहज पृथक नहीं हो पाता है। जब-जब बिखरे हुए को संगठित करने का
प्रयास किया गया है तब-तब,
चाहे किसी भी रस का थोड़ा बहुत सहयोग
लिया गया हो किन्तु सबसे ज्यादा कारगर और प्रभावी रस यदि कोई साबित हुआ है तो वह
अंततोगत्वा करुण रस हुआ है। करुण रस की एक सबसे बड़ी खास बात यह भी है कि जैसे जैसे
व्यक्ति उम्र के अनुसार परिपक्व होता जाता है करुण रस की गंभीरता, ठहराओ, समझ, प्रभाव तथा आकर्षण और ज्यादा प्रभावी
उसके अंदर होते जाते हैं। जबकि हास्य के साथ उल्टा होता है। अर्थात परिपक्वता के
साथ करुण रस की समझ और अधिक परिपक्व होती है। क्योंकि कलाओं का एवं मनुष्य का
दोनों का ही उससे बहुत निकट का संबंध है। हर देश, समाज, परिवार एवं व्यक्ति के जीवन में अनेक
जगह पर करुण रस व्याप्त रहता है। करुण रस की एक विशेषता यह भी है की वह कभी भी
तोड़ने का काम नहीं करता, वह जोड़ने का काम करता है।
रंग संस्कार थिएटर ग्रुप, अलवर इकाई राज लोक विकास संस्थान
द्वारा अंतर्राष्ट्रीय रंगमंच दिवस के उपलक्ष पर आयोजित तीन दिवसीय 27 मार्च से 29
मार्च तक इस मत्स्य थियेटर फेस्टिवल के अंतर्गत प्रस्तुत हुए इन 4 नाटकों के
अंतर्गत प्रमुख रूप से करुण रस का प्रभाव दिखाई दिया। चारों ही प्रस्तुतियों से
करुण की प्रधानता के कारण दर्शकों का तादात्मय अधिक रहा। पहली प्रस्तुति ‘किंग ऑफ ट्रेजेडी’ जिस व्यक्ति के जीवन चरित्र के ऊपर
आधारित यह नाटक है, मोटा मोटी रूप से एक तरह से उसके कार्य
के विपरीत यह शीर्षक है। चार्ली चैप्लिन का नाम आते ही लोग हंसते हैं, मुस्कुराते हैं। वे गंभीर नहीं होते
हैं, करुणामय नहीं होते हैं, रोते नहीं। दुनिया के सबसे बड़े हंसाने
वाले कलाकार के संबोधन में यदि ‘किंग
ऑफ कॉमेडी’ की बजाय ‘किंग ऑफ ट्रेजेडी’ कहा जाए तो आप सोच सकते हैं कि कॉमेडी
की तुलना में ट्रेजेडी कितनी प्रभावी और व्यापक है। जहां आज आपको हास्य दिखाई दे
रहा है। कल उसकी नींव में कहीं न कहीं करुणा व्याप्त थी। करुणा की कोख से ही हास्य
पैदा होता है। करुणा का ही विकसित और वृद्ध हुआ रूप हास्य है। करुणा रूपी जमीन पर
ही हास्य का पौधा पनपता है। हम उसमें लगी हुई हास्य की कोंपलें एवं पत्तियां तो
देखते हैं लेकिन उसकी जड़ में मौजूद करुणा की वेदना को अनदेखा कर देते हैं या देख
ही नहीं पाते हैं। या कई बार हम इतने करुणामय होते हैं कि देखना ही नहीं चाहते।
जिंदगी में कितने कष्ट, दुख, संताप और पीड़ा वहन की है चार्ली चैप्लिन ने। दुख के हजारों-लाखों
आंसू बहा करके या छुपाकरके वह लोगों के चेहरे पर मुस्कान लाने की कोशिश करता है। ‘किंग ऑफ ट्रेजडी’ नाटक हमें यह सोचने के लिए मजबूर करता
है कि उसकी हल्की सी मुस्कुराहट के पीछे कितने आंसू हैं जो अभी भी प्रस्फूटित होने
के लिए बेताब हैं। चार्ली चैप्लिन की गुरु एवं प्रेरणा रही उसकी मां का यह संवाद
बार-बार पूरे नाटक की नींव सिद्ध होता है-‘मुस्कुराओ, मुस्कुराने से गम नहीं दिखाई देते हैं।
हंसों, हंसने से लोगों को आपके आंसू नहीं
दिखाई देते हैं। मुस्कुराहट गमो को छुपा देती है।’ हर व्यक्ति अपने गम छुपाना चाहता है और मुस्कुराहट दिखाना चाहता है।
वह इसलिए मुस्कुराहट नहीं दिखाना चाहता कि उसे अच्छा लगता है। अपितु इसलिए
मुस्कुराहट दिखाना चाहता है कि लोग मुस्कुराहट ही देखना चाहते हैं। क्योंकि गमों
के मारे तो स्वयं लोग हैं। और आप गम दिखाओगे तब भी लोग हंसेंगे और हंसी दिखाओगे तब
भी हंसेंगे तो क्यों न हंसी दिखाकर हंसाये जाए। गम दिखाकार स्वयं को और लोगों को
क्यों परेशान किया जाए। अपने एवं दूसरे लोगों के गमों की भी दवा चार्ली चैप्लिन की
मां हंसी को बताती है। कुलदीप कुणाल द्वारा लिखित एवं के डी. उर्फ कशिश देवगन
द्वारा निर्देशित नाटक ‘किंग ऑफ ट्रेजेडी’ की बेहतरीन परिकल्पना, संवाद, नृत्य एवं अभिनय क्षमता ने लोगों को बहुत प्रभावित किया। नाटक चार्ली
चैप्लिन की जीवन यात्रा को बयां करता है।
दूसरी प्रस्तुति हुई ‘दो वर्दियां’। ‘दो
वर्दियां’ नाटक अपने हल्के-फुल्के अंदाज में समाज
की अनेक विसंगतियों पर कटाक्ष करता है। सोचने के लिए विवश करता है कि
महत्वाकांक्षा ने व्यक्ति को इतना निकृष्ट कर दिया है कि बाप-बेटे और भाई-बहन का
रिश्ता भी उसके सामने बौना हो गया है। हर प्रकार के रिश्ते की चौखट लांधकर
प्रसिद्धि, पैसा, प्रतिष्ठा और पद की चाहत में व्यक्ति पतन की ओर जा रहा है। ‘दो वर्दियां’ नाटक में अनेक जगह पर हास्य की
प्रमुखता रहती है। किन्तु करुणा की अभिव्यक्ति में यदि एक पंक्ति भी आई है तो उसके
लिए बजी तालियां अनेक बार,
अनेक जगह हास्य पर भारी पड़ी हैं। समाज
के अनेक पक्षों पर गंभीर बात यह नाटक हास्य के माध्यम से कहने का प्रयास करता है।
पुलिस स्टेशन के माध्यम से आर्मी, पुलिस, आज के युवा एवं बाबाओं के बढ़ते वर्चस्व
को ‘दो वर्दियां’ नाटक में अभिव्यक्त किया गया है। डॉ.
जगबीर राठी एवं करण सैनी द्वारा लिखित एवं जगबीर राठी द्वारा निर्देशित नाटक ‘दो वर्दियां’ अपने हरियाणवी संवाद एवं कुछ कलाकारों
की अभिनय क्षमता के आधार पर लोगों को हंसाने के बाद भी अंत में रुलाने के लिए
मजबूर करता है। अर्थात यहां भी हास्य पर करुणा प्रभावी नजर आती है। जगबीर राठी, करण सिंह, राजकुमार धमकड, विश्वदीप तिरका का अभिनय काफी काबिले
तारीफ रहा। शेष कलाकारों का भी प्रयास सराहनीय रहा लेकिन अनेक जगह पर उनके अभिनय
में कच्चापन नजर आया।
तीसरे प्रस्तुति थी-‘राजपूताना’। यह नाटक कहने को राजस्थान की दास्तां
बयां करता है लेकिन उसके अंदर वह प्रमुखता देता है स्त्री को। उस स्त्री को जो दया, माया, ममता, कोमलता, करुणा, प्रेम एवं सहजता की प्रतीक होती है।
परंतु इसी स्त्री का इन सभी प्रतीकों एवं बिंबों के विपरीत भी एक दायित्व, एक अस्तित्व और एक चरित्र है। ‘राजपूताना’ नाटक उसी चरित्र को प्रकट करने की
कोशिश करता है। इस खूबसूरत संगीतबद्ध प्रस्तुति का भी सबसे ज्यादा प्रभावित करने
वाला पक्ष उसका करुणामय प्रसंग है। जब पन्ना उदय की रक्षा के लिए अपने चंदन को
न्यौछावर करती है, हाडी रानी अपने कर्तव्य एवं राष्ट्र के
हित हेतु अपने शीश की बलि देती है, मीरा
प्रभु अनुराग में गरल तक का सेवन कर जाती है, पद्मिनी
अपने स्वाभिमान की रक्षा एवं राष्ट्र की सुरक्षा के लिए स्वयं को आहूत कर देती है।
तपन भट्ट द्वारा लिखित एवं निर्देशित नाटक ‘राजपूताना’ अपने संगीत, गीत, डिजाईन एवं अभिनय के साथ-साथ अपने करुणामय संवाद एवं दृश्यों के कारण
लोगों को तुरंत अपने से जोड़ लेता है। मंच पर एवं मंच परे दोनों ही कलाकारों ने
प्रस्तुति को बेहतर बनाने में अपना बहुत सहयोग दिया है। हालांकि इस नाटक में
स्त्री पात्रों को अभिनीत करने के लिए जिन महिला कलाकारों का चयन निर्देशक ने किया
है वे उम्र में काफी छोटी हैं लेकिन फिर भी अपने अभिनय के माध्यम से किरदार के
अनुरूप ढलने की उन्होंने पुरजोर कोशिश की है। शेष कलाकारों का अभिनय भी सराहनीय
रहा।
चौथी प्रस्तुति रही ‘नटसम्राट’। ‘नटसम्राट’ नाटक की करुणामय प्रस्तुति लोगों को
इतनी प्रभावित करती है कि लोग उससे पृथक नहीं हो पाते हैं। मंच पर नटसम्राट एवं
उनकी सरकार अश्रु बहा रही है तो करुणा का साधारणीकरण होने के कारण दर्शकदीर्घा में
दर्शक अश्रु बहा रहे हैं। आधुनिक परिवेश की चकाचौंध में उम्र के पड़ाव के अनुसार व्यक्ति
के साथ होने वाली पारिवारिक उहापोह की स्थिति में वृद्ध व्यक्ति का जीवन जैसे आउट
ऑफ डेटेड, आउट ऑफ परिवार, आउट ऑफ समाज हो गया है। जिस व्यक्ति को
अपने परिवार के सबसे ज्यादा सहारे की आवश्यकता जिस उम्र में होती है उस उम्र में
ही जब उसे वह नहीं मिलता है तो उसकी पीड़ा किस तरह की होती है, इसी पीड़ा को, इसी करुणा को बयां करता है ‘नटसम्राट’। नटसम्राट कि यह पीड़ा एवं करुणा जब
मंच पर प्रस्तुत होती है तो दर्शकों को ऐसा लगता ही नहीं कि यह सिर्फ नटसम्राट की
पीड़ा है, बल्कि दर्शकों का नाटक के साथ ऐसा
तादात्मय होता है कि जैसे उनकी पीड़ा उन्हीं के सामने चित्रित हो रही है। अपनी पीड़ा
एवं करुणा की तस्वीर देख कर के व्यक्ति की स्थिति क्या हो सकती है, उसकी मनोदशा क्या हो सकती है, यह ‘नटसम्राट’ देखते हुए दर्शकों की स्थिति थी।
‘नटसम्राट’ एक नाट्य अभिनेता की कहानी है। मंच पर
हजारों-लाखों दर्शकों के दिलों को जोड़ने एवं प्रभावित करने वाला कलाकार नटसम्राट
की उपाधि से अलंकृत होता है तो सबको अच्छा लगता है। लेकिन वह कलाकार अपने परिवार
के लोगों को प्रभावित नहीं कर पाता। बेहतरीन अभिनय एवं अदाकारी के माध्यम से
हजारों-लाखों लोगों उससे जुड़ते हैं लेकिन उसके परिवार के अपने ही उससे नहीं जुड़
पाते हैं। उसके बच्चे उससे नहीं जुड़ पाते हैं। वेदना की पराकाष्ठा में जब वृद्ध
दंपत्ति बहू, बेटा एवं बेटी, दामाद दोनों के घर से अलग हो जाते हैं
तो उन्हें कितना कष्ट होता है यह अनुमान लगाने की आवश्यकता नहीं है। इसलिए नहीं है
क्योंकि लगभग हर परिवार इस करुणामय वेदना के साक्षी एवं भुक्तभोगी हैं। अतः उसे
आत्मसात करना बहुत ही आसान दिखता है। दुख, दर्द, पीड़ा को किसी शब्द के माध्यम से
परिभाषित करना या किसी के माध्यम से उसे बांधना सहज नहीं है। आलोक चटर्जी एक बहुत
ही प्रखर और मंजे हुए अभिनेता हैं। नटसम्राट के रूप में लगभग सवा 2 घंटे की
प्रस्तुति में कहीं पर भी आलोक चटर्जी, आलोक
चटर्जी नहीं नजर आते हैं। पूर्ण रूप से उस किरदार को आत्मसात करने वाले आलोक
चटर्जी का अभिनय मंच पर गणपतराव बेलवलकर की भूमिका को गति देता हुआ नजर आता है। इस
अभिनय की यात्रा में हर दर्शक अपने आप को वहां मौजूद पाता है। नटसम्राट के सारे
अभिनेताओं के अभिनय की लगभग यही क्षमता होती है। वे एक-एक दर्शक को अपने से ऐसे
बांध लेते हैं जैसे कि यह कहानी उनकी स्वयं की चल रही है। जैसे की यह घटना उनके
स्वयं के साथ घट रही है और इस करुणामय घटना को आत्मसात करता हुआ दर्शक ‘नटसम्राट’ की यात्रा का साक्षी बनता है। इसीलिए
दर्शक नाटक के अंत में आंसुओं से लबरेज होकर उठता है। अब इसे आप अरस्तु की
शब्दावली में दुख का विरेचन कहें या करुणा के साथ दर्शक का तादात्मय। लेकिन इतना
जरूर है कि ‘नटसम्राट’ एक नाटक नहीं जीवन यात्रा का वृतांत
प्रस्तुत करता है। रश्मि मजूमदार, ज्योति
दुबे, अंजली सिंह, एंजेल चंदनानी, जैकी भावसार, गौरव सराठे का अभिनय भी लोगों को बहुत
आकर्षित करता है। वि वा शिरवाडकर द्वारा लिखित एवं जयंत देशमुख द्वारा निर्देशित ‘नटसम्राट’ की इस बेहतरीन प्रस्तुति को अलवर के
दर्शक बरसों तक याद करेंगे।
प्रस्तुति-
डॉ. प्रदीप कुमार
ग्राम/पोस्ट-बास कृपाल नगर,
तहसील-किशनगढ़-बास, जिला-अलवर,
राजस्थान, पिन
नं. 301405, मोबाईल नं.-9460142690,
ब्लॉग-दृश्य अदृश्य- http://pradeepprasann.blogspot.in,
youtube chainal-pradeep
prasann
भाईसाहब !आपने अपने शब्दों में करुण रस का बेहतरीन परिचय दिया । निश्चित रूप से करुण रस व्यक्ति के ह्रदय की सबसे कोमल और पवित्र परत को उद्वेलित करता है तथा किसी भी स्वभाव एवं व्यवहार वाले व्यक्ति को उसके हृदय की कोमलता से परिचित कराता है ।
ReplyDeleteबहुत ही उपयोगी समीक्षा के लिए धन्यवाद!
धन्यवाद हितेश जी. आपके स्नेह के लिए.
DeleteBahut khub likhte raho
DeleteBahut Sarthak Samiksha......Pradeep ji....
ReplyDeleteधन्यवाद सर, आपना नाम लिख देते तो और अच्छा होता.
DeleteBahut Sarthak Samiksha......Pradeep ji....
ReplyDeleteGood reviews
ReplyDeleteआभार भरद्वाज जी.
DeleteVery nice review with beautiful explanation
ReplyDeleteअभिषेक जी बहुत बहुत धन्यवाद.
Deletenice to see you here.
ReplyDeletethanks dash sir.
Deleteबहुत सटीक और सार्थक समीक्षा की है सर । बधाई आपको💐💐💐💐💐
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