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Monday, April 30, 2018

An essay on research scholar and research guide : शोधार्थी एवं गाइड पर एक निबंध





गाइड -
गाइड एक सरकारी पालतु प्राणी है। यह आम तौर पर सरकारी बाडों में पाया जाता है। कुछ गाइड गैर सरकारी प्रजाति के भी होते हैं। लेकिन वहां भी एक प्रकार के बाडे में विचरण करते हैं। पुस्तकें चबाना इसका प्रमुख शोक है। हालांकि गाइड बनने के बाद अधिकतर गाइड चबाने के बजाय पुस्तकें चाटते या सूंघते हैं। आम तौर पर इनके दो आंखे, दो कान, एक नाक और एक मुंह होता है। हालांकि गाइड, गाइड बनने से पहले व बाद में भी एक मनुष्य ही होता है। लेकिन वह शोधार्थी के सामने अपने आप को भगवान की तरह प्रस्तुत करता है या अपने आप को उसका भगवान मानता है। हालांकि गाइड शब्द में गाय जैसी ध्वनि नादित होती है, लेकिन इसके आचरण में गाय जैसा स्वभाव कहीं नहीं होता है। कुछ अपवादों को छोडकर। 
गाइड के प्रकार
1 गाय की तरह सीधे
2 सांड की तरह घुस्सेल
गाय की तरह सीधे प्रजाति के गाइड मात्रा में कम पाये जाते हैं। ये लुप्त होते जा रहे हैैं। इनकी संख्या पूरे देश में बहुत ही कम है। लेकिन फिर भी अनेक लोग को इन संख्या में कम गाय की तरह सीधे वाली प्रजाति से बहुत डर लगता है। ये अपना काम समय पर करने व करवाने की राय देते हैं और स्वयं भी ऐसा करते हैं। 
सांड की तरह घुस्सेल प्रजाति वाले गाइड हमारे देश में बहुतायत में पाये जाते हैं। सांड की तरह घुसेल प्रजाति के गाइड की अनेक उपजातियां होेती हैं। जैसे-गुस्सा, घमंड, दादागिरी, रोब, अकड, ऐंठ आदि। ये आम तौर पर ना तो अपना समय पर खुद करते हैं और ना दूसरे का करने देते हैं। ये अपने जो भी काम करवाते हैं अपने डर से करवाते हैं। ये पढाने और शोध करवाने के अलावा बाकि सब काम करते हैं। 
कुछ गाइड तो अपने यहां ड्राइवर तक नहीं रखते हैं। और यहां तक की सब्जी भाजी, कपडे, राशन आदि का जीवन उपयोगी ज्ञान भी गाइड एक शोधार्थी को इसी एक एम.फिल/पीएच.डी. वाली डिग्री में ही नत्थी करके दे देता है। एक के साथ एक फ्री या वन बाई एंड वन गेट फ्री वाला सिद्धांत गाइड की ही मूलभूत खोज है। कूटनीति से लेकर राजनीति तक की जीवन की इतनी सारी उपयोगी कलाएं गाइड एक शोधार्थी को पीएच.डी. जैसे डिग्री के बहाने सिखा देता है। यह कला गाइड जैसे विशेष प्राणी में ही होती है। 
शोधार्थी-
शोधार्थी एक घुमंतु प्राणी है। किन्तु यह एक स्वछंद प्राणी होते हुए भी एक पातलु प्राणी है। यह आम तौर पर एक खास प्रकार के बाड़े में पाया जाता है, जिसे पढे़ लिखे लोग विश्वविद्यालय कहते हैं। कॉलेज नाम के तबेलों में भी कुछ शोधार्थी नामक प्राणी रखे जाते हैं। मुख्यतः ़़़़किताबें खाना इसका प्रमुख शोक है। पुस्तकालय इसका विशेष खाद्य स्थल माना जाता है। यह जहां भी कहीं पुस्तकें देखता है वहीं मुंह मारना शुरू कर देता है। और आम तौर पर परिक्षाओं, कालांशों, सेमिनारों तथा व्याख्यानों में उनकी जुगाली करता रहता है। यह शीत, उष्ण, शीतोष्ण व उष्णकटिबंधिए लगभग सभी क्षेत्रों व मौसमों में पाया जाता है। यह गाइड रूपी सरकारी पालतु प्राणी के ही काबू में आता है। यह अमूमन हिंसक प्रवृति का नहीं होता है। लेकिन फिर भी इसको संग्रहित व संरक्षित करके रखा जाता है। जब तक यह विश्वविद्यालय रूपी बाडे में रहता है तब तक गाईड नामक दो हाथ, दो पैर वाले व्यक्ति को ही यह अपना कर्ता धर्ता व भगवान मानता है। यहां तक कि कुछ विशिष्ट प्रकार के व क्षेत्र विशेष से आए हुए शोधार्थी अपने गाइड के छायाचित्र को अपने पूजा स्थल में रखते हैं और सुबह शाम धूप छांव की बती करते हैं। जो शोधार्थी ऐसा नहीं करते हैं और ऐसा नहीं मानते हैं उनका उद्धार संभव नहीं है। गाइड चाहे वजन व डील डौल में शोधार्थी से कितना भी हलका, नाटा, पतला, कमजोर या मरियल सा हो, फिर भी इसके नीचे शोधार्थी की दुम दबी होती है। वैसे इसके दुम होती नहीं है, लेकिन फिर भी यह इसे अपने गाइड नामक ओनर के आगे-पीछे ही हिलाता है। यह प्रमुखतः विश्वविद्यालय रूपी बाडे और गाइड के घर रूपी अखाडे में ही विचरण करता है। जब तक इसको डिग्री नहीं मिल जाती तब तक इसकी पूर्ण निष्ठा का केन्द्र गाइड ही होता है। 
पुस्तकें नामक खाद्य पदार्थ को यह जितना खाता नहीं उससे ज्यादा सिर्फ देखता है। हालांकि इसका यह भी आरोप है कि आजकल पुस्तक नामक खाद्य पदार्थ बनाने वाली कंपनियां उत्तम क्वालिटी का खाद्य पदार्थ नहीं बना रही हैं। ऊपर ठप्पा किसी का है अंदर माल किसी का है। आजकल इस खाद्य पदार्थ में वह स्वाद रहा ही नहीं जो पूर्व में था। मिलावट हो रही है। विश्वसनिए सूत्रों से पता चला है कि कुछ गाइड साल के बारह महीने में तेरह किताबें लिखते हैं। इतनी तेज गति के उत्पादन में तो इसी स्वाद व क्वालिटी का माल तैयार हो पायेगा। 
शोधार्थी के प्रकार। शोधार्थी कई प्रकार के होते हैं। 
1 तुलसी की तरह दास्य भाव
2 सूर की तरह सखा भाव
3 कबीर की तरह अक्खड भाव
4 नानक की तरह फक्कड भाव 
प्रजाति के अनुसार यह अपने गाइड को तन से, मन से व धन से समर्पित होता है। कुछ प्रजाति के शोधार्थी गाइड की सिर्फ तन और धन से ही आराधना करते हैं। मन नामक स्थल में या तो उनके कोई और रहता है या रहती है या उनकी गाइड के प्रति कोई विशेष श्रद्धा नहीं होता।
दास्य भाव वाली प्रजाति के शोधार्थी इस भगवान की आराधना में अपने श्रद्धा सुमन या पुष्पम् पत्रम समर्पित करते रहते हैंं। इससे इन शोधार्थियों का समय समय पर कल्याण होता रहता है। 
दास्य भाव वाली प्रजाति के शोधार्थी आम तौर पर व खास तौर पर तो निश्चित रूप से  विश्वविद्यालय रूपी बाडे के बजाय गाइड के घर रूपी अखाडे में ही ज्यादा मिलता है। इस प्रजाति के शोधार्थियों को मानसिक परिश्रम की तुलना में शारीरिक परिश्रम अधिक करना पडता है। कुछ लोग तो यहां तक कहते हैं कि इस प्रजाति में मानसिक वैचारिक जैसे कोई चीज होती ही नहीं है। इसलिए इन्हें मानसिक परेशानी होगी ही क्यों। लेकिन फिर भी इस प्रजाति की खास बात यह होती है कि ये गाइड के परिवार को अच्छी तरह से जानते हैं। विशेष रूप से गाइड के बच्चों के स्कूल का रास्ता, उनके स्कूल आने जाने की समय सारणी, उनका स्वभाव, खान-पान, रूचियां। बच्चों के साथ साथ ये गाइड के कुत्ते की भी इन सारी अभिरूचियों से वाकिफ होते हैं। गाइड के घर में लगे हुए अनेक पौधों की वृद्धि में इनका बहुत बडा योगदान होता है। इन सब कामों में गाइड के ही निर्देश से एक शोधार्थी निपुण हो पाता है। शोध के अतिरिक्त शोधार्थी के कंधे पर और अनेक जिम्मेदारियां होती हैं। जिनका निर्वहन करना शोध के करने के लिए अतिआवश्यक है।  यह सब बातें गाइड एक शोधार्थी को सिखाता है। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि गाइड कुछ नहीं सिखाता है। बल्कि ऐसा विपक्षी व जलेसी लोग कहते हैं। कहना यह चाहिए कि शोधार्थी को अनेक ऐसी बातें सिखाने में गाइड की बहुत बडी भूमिका होती है। काम चौरी, बेइमानी, झूठ, समय पर काम न करना, लालच, लोभ, आदि अनेक काम गाइड बिना किसी अतिरिक्त फीस के ही सिखा देता है। 
कुछ शोधार्थी विशेष रूप से दास्य प्रजाति वाले पुस्तकों को देखने भर से ही उनकी आंतरिक बातों को जान लेते हैं। इसी प्रजाति के शोधार्थियों के कारण ‘खत देखते ही मजबून का पता चलना’ वाली कहावत का इजात हुआ था। इस प्रजाति के शोधार्थी महीने में दो दिन शोध का कार्य करते हैं और बाकि दिन भौतिक जीवन के काम में व्यस्त रहते हैं। दो दिनों में बडे से बडा आलेख तैयार करने की कला का इजात भी इसी प्रजाति के पूर्वजों द्वारा किया गया था। कट/पेस्ट नामक जो नई तकनिकी पारिभाषिक शब्दावली है उसका भी उचित उपयोग इस प्रजाति के शोथार्थी भरपूर मात्रा में करते हैं। 
दास्य स्वभाव वाली प्रजाति के शोधार्थी व कुछ क्षेत्र विशेष के शोधार्थी -सीखने की प्रक्रिया में बहुत विश्वास करते हैं। इसलिए वे अपने गाइड के प्रत्येक क्रिया कलाप के साथ जुडे रहते हैं। गाइड का बैग उठाना, उसके लिए गाडी का दरवाजा खोलना, पुस्तकालय से उसके लिए पुस्तकें लाना व जमा करवाना, उनकी कापियों चैक करना, उनके लिए पानी लाना, सेमिनारों में उनके लिए खाने की प्लेट सबसे पहले लगाना, उनको मिले-शाल, श्रीफल, प्रतीक चिन्ह आदि को उठाकर गाडी में रखना आदि आदि कार्य वे करते रहते हैं। इस सब कार्यों को करने से शोध की एक विशिष्ट पद्धति समझ में आती है। जो शोध के साथ साथ जीवन में आगे व ऊपर बढ़ने में साहयक होती है। वह पद्धति कौनसी होती है ये तो इसी प्रजाति के शोधार्थी या लोग अधिक जानते हैं। जो लोग इस पद्धति के बारे में नहीं जानते हैं वे इससे अभी दूर हैं। और जैसे ही उन्हें पता लगता है या जो लोग इस पद्धति के बारे में जान लेते हैं। वे इसे जीवन में अपना लेते हैं। आम तौर पर अक्खड और फक्कड प्रजाति के शोधार्थी इस पद्धति से तालुक नहीं रखते हैं। और ना ही वे इसमें विश्वास करते हैं। ऐसा करने से और कुछ का तो पता नहीं लेकिन इन अक्खड और फक्कड प्रजाति के शोधार्थियों के शोध कार्य की सीमा बढ़ जाती है और साथ ही विश्वविद्यालय व कालेज रूपी बाडों में होने वाली प्रतियोेगिताओं में मिलने वाले इनामों से भी इस प्रजाति के शोधार्थी वंचित हो जाते हैं। दास्य भाव वाली प्रजाति के शोधार्थियों को इन कामों के प्रतिफल के रूप में विशेष लाभ के अलावा इनका शोध कार्य समय पर पूरा हो जाता है और गाइड बनने के लिए इनकों बाडों में पीछे के रास्तों सेे प्रवेश दिला दिया जाता है। 
दास्य स्वभाव वाली प्रजाति के शोधार्थी किसी सेमिनार या व्याख्यान के बाद मुख्यवक्ता को यह जरूर कहते हैं-‘‘सर आपने जो कहा है वह क्या खूब कहा है, बहुत खास कहा है, आपने अपने व्याख्यान और विचारों में जो प्रगतिवादी चिंतन है वह इस दौर की बहुत बडी समीक्षा है, इस बात को प्रमुख रूप से आपने ही पहली बार उठाया है।’’ किसी भी सेमिनार या व्याख्यान में आपको इस तरह के वाक्य बोलने वाले प्राणी मिल जाएं, फिर वे शोधार्थी हो या गाइड तो झट से पहचान जायेंगे कि ये दास्य प्रजाति के शोधार्थी हैं या थे। और यह वाक्य ये हर वक्ता के लिए प्रयोग करते हैं। यदि वक्ता दलित चिंतक है तो वाक्य ज्यों को त्यों रहेगा बस प्रगतिवाद शब्द की जगह दलित शब्द आ जायेगा। और यदि स़्त्रीवादी है तो उसकी जगह स़्त्रीवादी लगा दिया जायेगा। आदिवासी या आदर्शवादी है तो शब्द भी आदिवासी या आदर्शवादी ही हो जायेगा। इस प्रजाति के शोधार्थी विभिन्न विषयों पर लेख भी इसी तकनीक का प्रयोग करते हुए लिखते हैं। एक लेख अनेक विषयों के लिए। ये एक ही लेख लिख कर बस उसमें कुछ शब्दों को परिवर्तित करके अनेक पत्रिकाओं में प्रकाशित करवा लेते हैं। ‘एक पंथ दो (अनेक) काज’ वाली कहावत इन्हीं ने ही रची थी। हालांकि इन्होंने तो ‘एक पंथ अनेक काज’ इस तरह का काम किया था लेकिन कहावत लिखने वाले ने या प्रिंट की गलती की वजह से ‘एक पंथ दो काज’ ही छपा और चर्चित हो गया। इसी बात को ध्यान में रखते हुए व्याकरण शास्त्रियों ने हिन्दी में द्विवचन खत्म किया और सिर्फ एकवचन और बहुवचन ही रखा गया। इसलिए यह दो अनेक ही है। सखा भाव वाले शोधार्थियों व गाइडों की प्रजाति बहुत कम है। यह लुप्त होती जा रही है। इस  प्रजाति का कम होना राष्ट्रीय ही नहीं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी यह एक बडी समस्या के रूप में उभर कर सामने आया है। इस बात पर चिंतन मनन तो नहीं लेकिन बहस बहुत हो रही है। यहां तक की अनेक शोधार्थी तो इसी बात पर शोध कर रहे हैं कि ये कम क्यों हो रहे हैं। इस गंभीर सवाल को लेकर सेमिनार भी बहुत हो रही हैं। लेकिन ये सब बात करने के मुद्दे हैं। वास्वत में इस प्रजाति को उन्नति देने व विकसित करने की कोई योजना ना तो सरकार कर रही है और ना ही गैर सरकार कर रही है। हां इसके नाम पर काम बहुत हो रहे हैं। फिर भी यदि इस प्रजाति के लिए कोई वास्तव में काम करना चाहता है तो इसके लुप्त होने के कारण खोजने के बजाय, इसे संवृद्धित व विकसित करने में अपना योगदान दे अर्थात वह स्वयं इसे अपनाए और ओरों को भी ऐसा करने के लिए कहे। एक दूसरे के साथ हर पद व कद पर सखा भाव से पेश आए। 
कुछ शोधार्थियों पर राजनीति नामक व्याधी भी इसी वय में अपना प्रभाव तीव्र करती है। और अनेक लोगों को अपना शिकार बना लेती है। राजनीतिक रूग्ण से संक्रमित कुछ शोधार्थी इसी वय में लैफ्ट राइट करने लग जाते हैंं। और बाद में कोई राइट में चला जाता है कोई लैफ्ट में। कुछ लोग दक्षिण पंथ की ओर भी चले जाते हैं। सबई भूमि गोपाल की। चाहे जहां विचरण करो। 
कुछ लोगों का तो यहां तक कहना है कि राजनीति के संक्रमित जीवाणु विश्वविद्यालय व कालेज रूपी बाडों में कुछ विशेष राजनीतिक संगठनों से ही आयात होते हैं। राजनीतिक संगठन इन बाडों को अपनी नर्सरियां समझते हैं। इसलिए यहां अपनी अपनी प्रजाति के बीच डाल जाते हैं। और समय समय पर वर्ग, वर्ण, धर्म, क्षेत्र, जाति, परिवार, रंग-रूप, गरीब, अमीर का भेद बताकर-झगडे, दंगे, विवाद, रैली, आंदोलन रूपी खाद, पानी, हवा आदि से उनके अंकुरण व संवर्द्धन के लिए उपयुक्त जलवायु तैयार करते रहते हैं। और इन्हीं नर्सरियों से तैयार हुए कुछ पौधे बाद में राजनीति के वट वृक्ष या महावृक्ष बनते हैंं। हालांकि इन नर्सरियों से कुछ ऐसे खांटी पौधे भी तैयार होते हैं। जो इस प्रकार की जलवायु में भी इनका असर बेअसर कर अपने ही खास स्वभाव स्वाभिमानी, खुद्दारी, इमानदारी, सच्चाई  की बयार में बडे होते हैं। जिनमें बाहर से कांटे अधिक होते हैं। ये जहां पर भी असंगत, अन्याय देखते हैं वहीं जाके चुब जाते हैं। कई दिनों तक दर्द करते हैं। लेकिन इन कांटेदार खांटी वृक्षों की संख्या बहुत कम होती है। इसलिए अनेक बार तेज आंधी तूफान में ये अपने कांटो के नुकिलेपन की वजह से किसी में अटक जाते हैं और या तो खुद टूट जाते हैं या फिर किसी अन्य को तोड फोड या चीर फाड देते हैं। आम तौर पर या खास तौर पर अक्खड या फक्खड स्वभाव वाली प्रजाति के शोधार्थी ही अपने शोध काल में या बाद में ऐसे खांटी पौधे या वृक्ष होते हैं या बनते हैं। 
सखा भाव वाले शोधार्थियों व गाइडों की प्रजाति बहुत कम है। यह लुप्त होती जा रही है। इस  प्रजाति का कम होना राष्ट्रीय ही नहीं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी यह एक बडी समस्या के रूप में उभर कर सामने आया है। इस बात पर चिंतन मनन तो नहीं लेकिन बहस बहुत हो रही है। यहां तक की अनेक शोधार्थी तो इसी बात पर शोध कर रहे हैं कि ये कम क्यों हो रहे हैं। इस गंभीर सवाल को लेकर सेमिनार भी बहुत हो रही हैं। लेकिन ये सब बात करने के मुद्दे हैं। वास्वत में इस प्रजाति को उन्नति देने व विकसित करने की कोई योजना ना तो सरकार कर रही है और ना ही गैर सरकार कर रही है। हां इसके नाम पर काम बहुत हो रहे हैं। फिर भी यदि इस प्रजाति के लिए कोई वास्तव में काम करना चाहता है तो इसके लुप्त होने के कारण खोजने के बजाय, इसे संवृद्धित व विकसित करने में अपना योगदान दे अर्थात वह स्वयं इसे अपनाए और ओरों को भी ऐसा करने के लिए कहे। एक दूसरे के साथ हर पद व कद पर सखा भाव से पेश आए। 
कुछ लोगों का तो यहां तक कहना है कि राजनीति के संक्रमित जीवाणु विश्वविद्यालय व कालेज रूपी बाडों में कुछ विशेष राजनीतिक संगठनों से ही आयात होते हैं। राजनीतिक संगठन इन बाडों को अपनी नर्सरियां समझते हैं। इसलिए यहां अपनी अपनी प्रजाति के बीच डाल जाते हैं। और समय समय पर वर्ग, वर्ण, धर्म, क्षेत्र, जाति, परिवार, रंग-रूप, गरीब, अमीर का भेद बताकर-झगडे, दंगे, विवाद, रैली, आंदोलन रूपी खाद, पानी, हवा आदि से उनके अंकुरण व संवर्द्धन के लिए उपयुक्त जलवायु तैयार करते रहते हैं। और इन्हीं नर्सरियों से तैयार हुए कुछ पौधे बाद में राजनीति के वट वृक्ष या महावृक्ष बनते हैंं। हालांकि इन नर्सरियों से कुछ ऐसे खांटी पौधे भी तैयार होते हैं। जो इस प्रकार की जलवायु में भी इनका असर बेअसर कर अपने ही खास स्वभाव स्वाभिमानी, खुद्दारी, इमानदारी, सच्चाई  की बयार में बडे होते हैं। जिनमें बाहर से कांटे अधिक होते हैं। ये जहां पर भी असंगत, अन्याय देखते हैं वहीं जाके चुब जाते हैं। कई दिनों तक दर्द करते हैं। लेकिन इन कांटेदार खांटी वृक्षों की संख्या बहुत कम होती है। इसलिए अनेक बार तेज आंधी तूफान में ये अपने कांटो के नुकिलेपन की वजह से किसी में अटक जाते हैं और या तो खुद टूट जाते हैं या फिर किसी अन्य को तोड फोड या चीर फाड देते हैं। आम तौर पर या खास तौर पर अक्खड या फक्खड स्वभाव वाली प्रजाति के शोधार्थी ही अपने शोध काल में या बाद में ऐसे खांटी पौधे या वृक्ष होते हैं या बनते हैं। 
प्राचीन समय में शोधार्थी नामक प्राणी वास्तव में शोध के लिए ही गुरूकुल व आश्रम (ये विश्वविद्यालय रूपी बाडे शब्द के तत्सम रूप हैं।) नामक बाडों में आता था। किन्तु आज कल यह शोध की मात्र जुगाली करता है और वास्वत में आर.ए.एस, आई. ए. एस., आई. पी. एस., आई. आई. टी., सी. टैट., आर. टैट., जी.  टैट., पी. टैट., एम. टैट. व न जाने इसी प्रकार की कौन कौन सी टी व टैट रूपी चिवंगम चबाता रहता है। इसलिए बहार से झाग तो शोध के ही दिखाई देते हैं। लेकिन अंदर से कुछ ओर ही होता है। इसकी गुणवता के विकास के लिए सरकार इसका राष्ट्रीयकरण व केन्द्रीयकरण कर रही है। 
बाडों की विशेषताएं-
हमारे देश में ही नहीं वरन विदेशों में भी कुछ विशेष प्रकार के बाडे अधिक ख्याति प्राप्त हैं। या वो हो गए हैं या उन्हें किसी योजना के तहत कर दिया गया है। विदेश का तो पक्का पता नहीं लेकिन हमारे यहां के गाइड नामक प्राणी तो उन बाडों में भी इसी प्रकार के पाये जाते हैं। इसलिए अधिकतर प्रजाति के शोधार्थी इन बाडों में रहना व जाना पसंद करते हैं। लेकिन इन बाडों में रहने की अनुमति एक विशेष चयन प्रक्रिया के बाद ही मिलती है। 
गाइड और शोधार्थी के मध्य संबंध-
गाइड के कोई सींग, बडे बडे दांत, पूंछ, पूरे शरीर में लंबे घने बाल जैसे विशेष पहचान वाले अव्यव होते नहीं है। लेकिन फिर भी शोधार्थी इससे डरता है। शोधार्थी के लिए यह  शायद दुनिया का ऐसा सबसे खतरनाक प्राणी है जिससे उसको भय लगता है। 
गाइड और शोधार्थी के मध्य प्रेम नामक वायरल भी अनेक जगह पर फैल जाता है। समय, परिस्थिति, स्वभाव, प्रजाति व लिंग के आधार पर इसकी कम व ज्यादा मात्रा तय होती है। गाइड में एक प्रकार का विशेष बैलनसिंग चुबंकिए गुण होता है। इसलिए यह प्रजाति के अनुसार शोधार्थी की अपने से दूरी व नजदीकी बना के रखता है। यह जिस शोधार्थी को अपने से चिपका लेता है उसे जल्दी से छोडता नहीं है। कुछ मादा शोधार्थियों को नर गाइड अपने से जीवनभर उन्हें चिपकाएं रखते हैं। कुछ ऐसे भी प्रमाण मिले हैं कि कुछ गाइड ऐसे सीधे सच्चे, अच्छे साधु होते हैं कि उनके और शोधार्थियों के मध्य किसी प्रकर का पर्दा नहीं होता है। एक स्वच्छ रिश्तें के लिए यह पारदर्शिता आवश्यक भी है। ऐसा संत महात्मा व बडे विद्धान लोग कह गए हैं। 

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