(पौराणिक, ऐतिहासिक एवं सामाजिक समस्या नाटक)
भारतेन्दु युग के बाद एवं प्रसाद युग के पूर्व अर्थात् इन दोनों के मध्य का काल जिसे हिन्दी साहित्य में द्विवेदी युग कहा जाता है, इस युग में नाटकों का प्रायः अभाव दिखाई देता है। जहां भारतेन्दु युग में नाटकों की आधुनिक रंगमंच के संदर्भ में एक विशिष्ट पहचान व परम्परा बनी थी वहीं इस युग में नाटक पारसी रंगमंच एवं मात्र उपदेश कथा तक ही सीमित हो गए। मुख्यतः रोमांचकारी तथा अलौकिक कथाओं को ध्यान में रखते हुए ज्यादातर नाटक लिखे गए। ये नाटक अधिकतर पौराणिक एवं ऐतिहासिक पात्रों व कथाओं को लेकर लिखे गए किन्तु इनमें वह ऐतिहासिक माहौल व नाट्यकला नहीं दिखाई देती जो भारतेन्दु युग के नाटकों में परिलक्षित होती है। इस युग के कुछ प्रमुख नाटक हैं-‘शिवनंदन सहाय’ का ‘सुदामा’, ‘ब्रजनंदन सहाय‘ का ‘उद्धव‘, ‘लक्ष्मीप्रसाद‘ का ‘उर्वशी‘, ‘हरिदास माणिक‘ का ‘पांडव प्रताप‘, ‘सदानंद अवस्थी‘ का ‘नागानंद‘ आदि। डॉ. ओमप्रकाश सिंहल कहते हैं-इस युग के ‘‘नाटकों में पौराणिक आख्यानों एवं चरित्रों के माध्यम से जनता को उपदेश देने की प्रवृत्ति ही प्रधान है। प्रायः नाट्यकला का उपयुक्त विकास इनमें नहीं मिलता और अभिनय तत्व भी गौण है।’’1
प्रसाद युग के पौराणिक नाटक
भारतेन्दु के पश्चात जयशंकर प्रसाद का प्रादुर्भाव हिन्दी नाटकों के लिए एक बहुत ही महत्वपूर्ण उपलब्धि है। जयशंकर प्रसाद ने एक मात्र पौराणिक नाटक ‘जनमेजय का नागयज्ञ‘ लिखा। डॉ. बालेन्दु शेखर तिवारी कहते हैं-‘‘जनमेजय का नागयज्ञ में उन्हांेने केवल पुराख्यान ही नहीं प्रस्तुत किया है अपितु जातीय संघर्ष की चेतना को वाणी देने का यत्न भी किया है। नवीनता की दिशा में ऐसा प्रस्थान प्रसाद कालीन अन्य पौराणिक नाटकों में नहीं लक्षित होता है।‘‘2
प्रसाद युग के पौराणिक नाटकों में केवल पुरातन आदर्शों को ही व्याख्यायित नहीं किया बल्कि नये विचार एवं नई चेतना को इन नाटकों का केन्द्र बनाकर समसामयिक जीवन तथा उससे संबंधित समस्याओं की व्याख्या करते हुए जीवन का विश्लेषण भी किया गया है। इन नाटकों केे कथानक यद्यपि पुराणों के हैं परन्तु फिर भी नाटककारों ने अपनी कल्पना शक्ति के द्वारा इनमंे नवीनता एवं मौलिकता का उद्भव किया है। इस काल के अन्य पौराणिक नाटक हैं-उदयशंकर भट्ट के ‘विद्रोहिणी अम्बा‘, ‘मत्स्यगंधा‘, ‘विश्वामित्र‘, ‘सागर विजय‘, हरिकृष्ण प्रेमी का ‘पाताल विजय‘, सेठगोविन्द दास का ‘कर्तव्य कर्ण‘, कैलाशनाथ भटनागर के ‘भीष्म प्रतिज्ञा‘, ‘श्रीवत्स‘, देवराज दिनेश का ‘रावण‘, लक्ष्मीनारायण मिश्र का ‘नारद की वीणा‘, सुदर्शन का ‘अंजना‘, गोविन्द वल्लभ पंत का ‘वरमाला‘, आचार्य चतुरसेन शास्त्री के ‘मेधना‘ व ‘श्रीराम‘ आदि विशेष उल्लेखनीय हैं।
प्रसाद युग के ऐतिहासिक नाटक
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र से प्र्रारम्भ हुआ ऐतिहासिक नाटक प्रसाद के यहां आकर एक पूर्ण रूप ग्रहण करता है। ऐतिहासिक नाटक पूरी रमणियता से प्रसाद के प्रासाद में आकर ही खिलता व प्रस्फुटित होता है। तात्कालिक ब्रिटिश शासन का विरोध जयशंकर प्रसाद अपने ऐतिहासिक नाटकों के माध्यम से करते हैं। जयशंकर प्रसाद अपने ऐतिहासिक नाटकों से भारतीय जनता में स्वतंत्रता तथा संघर्ष की भावना भी व्याप्त करते हैं। वे स्वयं विशाख नाटक की भूमिका में लिखते हैं-‘‘मेरी इच्छा भारतीय इतिहास के अप्रकाशित अंश में से उन प्रकांड घटनाओं का दिग्दर्शन कराने की है, जिन्होंने हमारी वर्तमान स्थिति को बनाने का बहुत कुछ प्रयत्न किया है, और जिन पर कि वर्तमान साहित्यकारों की दृष्टि कम पड़ती है।’’3 जयशंकर प्रसाद ने अपने ऐतिहासिक नाटकों के माध्यम से कोरा इतिहास वर्णन नहीं किया है बल्कि उन ऐतिहासिक घटनाओं एवं पात्रों के माध्यम से तत्समय को पुर्नउल्लेखित किया है। जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित ऐतिहासिक नाटक हैं-‘राज्यश्री‘, ‘अजातशत्रु‘, ‘स्कदगुप्त‘, ‘चन्द्रगुप्त‘, ‘ध्रुवस्वामिनी‘। प्र्रसाद ने अपने नाटकों में इतिहास प्रसिद्ध पात्रों के माध्यम से वर्तमान समय की अव्यवस्था के खिलाफ लड़ने के लिए आम जन को प्रेरित किया है। आम जनता मंे उत्साह तथा जोश का प्रचार प्रसार किया है। प्रसाद के समान राष्ट्रीय चिंतन को प्रमुखता देते हुए हरिकृष्ण प्रेमी ने भी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि वाले नाटक लिखे जैसे-‘रक्षा बंधन‘, ‘शिवा साधना‘, ‘प्रतिशोध‘ और ‘शतरंज के खिलाड़ी‘ आदि। इन नाटकों मंे हरिकृष्ण प्रेमी ने हिन्दु मुस्लिम एकता को बढ़ावा दिया एवं मुगल, मराठा और राजपूतों के स्वर्णिम संघर्ष पूर्ण इतिहास को लिखा है। ऐतिहासिक नाटकों की कड़ी में उदयशंकर भट्ट का भी विशेष योगदान रहा है। इनके प्रमुख ऐतिहासिक नाटक हैं-‘विक्रमादित्य‘, ‘मुक्ति दूत‘, ‘दाहर‘, ‘सिंध पतन‘ आदि।
प्रसाद युग के अन्य ऐतिहासिक नाटक हैं-लक्ष्मीनारायण मिश्र के ‘गरूड़ ध्वज‘, ‘अशोक‘, ‘वितस्ता की लहरें‘, सेठ गोविन्ददास के ‘कुलीनता‘, ‘महात्मा गांधी‘, गोविन्द वल्लभ पंत का ‘राजमुकुट‘, चन्द्र गुप्त वेदालंकार का ‘अशोेक‘, पाण्डेय बेचन शर्मा उग्र का ‘महात्मा ईसा‘, उपेन्द्रनाथ अश्क का ‘जय पराजय‘, सुदर्शन का ‘सिकन्दर‘ आदि इस काल की उल्लेखनीय रचनाएं हैं।
इन नाटकों की सामान्य विशेषता है-इतिवृत्तात्मकता, सहज भाषा, चरित्रों का असहज विकास, लम्बे संवाद, पात्रों की बहुसंख्या, स्वसंवादों की अत्यधिकता। अधिकांश नाटकों पर प्रसाद के नाटकों की छाया दिखाई देती है।
प्रसाद युग के सामाजिक नाटक
जयशंकर प्रसाद एवं इस युग के नाटककारों ने मूलतः ज्यादातर ऐतिहासिक, सांस्कृतिक व राष्ट्रीय चेतना वाले नाटक लिखे। किन्तु इन मंे समाज में व्याप्त तात्कालिक समस्याओं को ही उठाना उनका मुख्य उद्देश्य रहा। उस समय मंे परिवार का विघटन, रिश्तों का टूटना, वैवाहिक संबंधों में विच्छेदिता का प्रभाव, जीवन पद्धति मंे परिवर्तन, परम्पराओं, जाति संबंधों, वर्गों एवं वर्णाें में बंटा समाज आदि समस्याएं प्रमुख रूप से उभर रही थीं। अतः तत्समय के नाटककारों ने इन्हीं समस्याओं को अपने नाटकों का केन्द्र बिंदु बनाया। प्रसाद का नाटक ध्रुवस्वामिनी ऐतिहासिक नाटक के साथ-साथ सामाजिक समस्या नाटक की श्रेणी मंे भी रखा जा सकता है। स्त्री विवाह, पुनर्विवाह, धर्म की व्याख्या और स्त्री की रक्षा आदि समस्याएं इस नाटक मंे प्रमुख रूप से आती हैं। प्रसाद युग मंे सामाजिक समस्याओं के नाटकों को प्रधानता लक्ष्मीनारायण मिश्र ने दी। उन्हांेने समस्या प्रधान नाटकों को पृथक-पृथक विषयों के द्वारा खूब मंडित किया। डॉ. दशरथ ओझा कहते हैं-‘‘समस्या नाटक के आधुनिक जन्मदाता मिश्र जी माने जाते हैं। इस पद्धति का पहला नाटक ‘सन्यासी‘ 1927 ई. में लिखा गया है।’’4
प्रसाद के अतिरिक्त पृथ्वीनाथ शर्मा ने ‘दुविधा‘, ‘साध‘ और ‘अपराधी‘ आदि नाटकों मंे व्यक्तिवादी समस्याओं को स्थान दिया है। कानून और नैतिकता के मध्य व्यक्ति कैसे अपने आप को असहाय महसूस करता है, यह इन नाटकों मंे दर्शाया गया है। राजनीति की दखल भी इन सामाजिक समस्या प्रधान नाटकों में परिलक्षित होती है। स्वार्थ के लिए एक दूसरे को नीचा दिखाना एवं अपने लाभ के लिए दूसरे का अहित करना आदि समस्याओं को ‘सिद्धांत स्वातंन्न्य‘, ‘सेवापथ‘, ‘त्याग का ग्रहण‘, ‘संतोष कहां‘, ‘पतित सुमन‘, ‘पाकिस्तान‘ तथा ‘प्रेम और पाप‘ आदि नाटकों मंे सेठ गोविन्द दास ने उठाया है। वृन्दावनलाल वर्मा ने ‘धीरे धीरे‘, ‘राखी की लाज‘, ‘बांस की फांस‘ एवं ‘मंगलसूत्र‘ आदि नाटकों मंे स्त्री-पुरूष के संबंधों की समस्या को अपना विषय बनाया है।
इनके अलावा-हरिकृष्ण प्रेमी के ‘छाया‘, ‘बंधन‘, उपेन्द्रनाथ अश्क के ‘स्वर्ग की झलक‘, ‘छठा बेटा‘, ‘कैद और उड़ान‘, कृपानाथ मिश्र का ‘मणि गाोस्वामी‘, प्रेमसहाय सिंह का ‘नवयुग‘, पाण्डेय बेचन शर्मा उग्र के ‘डिक्टेटर‘, ‘चुम्बन‘, ‘आवारा‘, सूर्यनारायण शुक्ल का ‘खेतिहर देश‘, गणेश प्रसाद द्विवेदी का ‘सोहाग बिंदी‘ आदि इस युग के प्रमुख सामाजिक समस्या प्रधान नाटक हैं।
संदर्भ सूची-
1. डॉ. नगेन्द्र व डॉ. हरदयाल, सं., ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास‘, प्रकाशन मयूर, ए-95, सेक्टर-5, नौएडा-201301, सैंतीसवां पुनर्मुद्रण संस्करण-2010, डॉ. गोपाल राय, ‘छायावाद युग: गद्य साहित्य’, पृ.-495
2. बालेन्दु शेखर तिवारी व बादामसिंह रावत, सं. ‘हिन्दी नाटक के सौ वर्ष‘, गिरनार प्रकाशन, पिलाजीगंज, महेसाना, उ. गुजरात-384001, प्रथम संस्करण-1990, पृ.-73
3. जयशंकर प्रसाद, ‘प्रसाद वाऽ्.मय रचनावली-द्वितीय खण्ड‘, प्रसाद प्रकाशन, प्रसाद मंदिर, गोवर्द्धन सराय, वाराणसी, प्रथम संस्करण-1990-91, पृ.-160
4. डॉ. दशरथ ओझा, ‘हिन्दी नाटक उद्भव एवं विकास‘, राजपाल एण्ड सन्स, कश्मीरी गेट, दिल्ली-110006, संस्करण-2008, पृ.-264
प्रदीप कुमार
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