हिंदी साहित्य में प्रेमचंद एक युग के नाम से
जाने जाते हैं –विशेषत:-कहानी व उपन्यास के क्षेत्र में| प्रेमचंद को कथा सम्राट व
उपन्यास सम्राट तक की उपाधियां दी जाती हैं | कहानी व उपन्यास के क्षेत्र में एक
विशिष्ट कार्य प्रेमचंद करते हैं –जिसे सामाजिक सरोकार कहा जाता है |
साहित्य या काव्य की परिभाषा काव्य शास्त्रियों
ने भिन्न भिन्न दी है | किन्तु फिर भी सर्वमान्य व सुलभ परिभाषा –सबके हित सहित,
सबके भले के लिए, व्यक्ति व समाज के हित, उत्थान व मार्गदर्शन के लिए लिखा गया –काव्य,
कहानी, कविता, उपन्यास, नाटक आदि साहित्य है | यश प्राप्ति, अर्थ प्राप्ति, आनंद
प्राप्ति व शिवेतरक्षतये आदि का भी प्रयोजन काव्य व साहित्य के लिए शास्त्रियों ने
बताया है | किन्तु मुख्य रूप हुआ, उस साहित्य से समाज में व्याप्त अनैतिकता व
अवमुल्यों को मिटा कर, श्रेष्ठ व अच्छे
मनुष्य के माध्यम से समाज की निर्मिति करना | इसमें कोई संदेह या दोराय नहीं है की
प्रेमचंद की कहानियों में मनुष्य व समाज की वे सभी उत्कृष्टताएं व आदर्शताएं
परिलक्षित होती हैं जो समाज में व्याप्त थी व हैं ,तथा न केवल परिलक्षित होती हैं
बल्कि प्रेमचंद अपनी कहानियों के अंत में समाज के प्रति उत्तरदाई व जवाबदेही
सन्देश, मर्म स्पर्श भाव व परिवर्तन की चिंगारी उदग्रत करते हैं –की वह पात्र अंत
में खलनायक की खोल से निकल कर नायकत्व प्राप्त कर लेता है | यह सामाजिक सरोकार व
कला ही प्रेमचंद को एक युग व कथा नायक सम्राट के रूप में दर्शाती है |
प्रेमचंद की कहानियों में कोई विशिष्ट या सुनियोजित
प्रख्यात पात्र नहीं होते हैं, बल्कि वे तो समाज में रह रहे –इधर उधर से जैसा अवलोकन
करते हैं उन्ही पात्रों को उठाकर अपनी कहानी में पिरो देतें हैं | उस पात्र के
द्वारा कितना भी निम्न व निकृष्ट कार्य वे करवाते हैं ,परन्तु अंत में समाज हित व
सन्देश के लिए उसका परिवर्तन ही, सद्चरित्र में बदलना ही- समाज के लिए व उस पात्र
के लिए एक बहुत बड़ी बात है | स्वयं प्रेमचंद के अनुसार –“चरित्र को उत्कृष्ट व
आदर्श बनाने के लिए यह जरूरी नहीं है की वह निर्दोष हो | महान से महान पुरुषों में
भी कुछ कमजोरियां होती हैं | चरित्र को सजीव बनाने के लिए उसकी कमजोरियों का
दिग्दर्शन करने से कोई हानि नहीं होगी | बल्कि यही कमजोरियां चरित्र को मनुष्य बना
देती हैं | निर्दोष चरित्र तो देवता हो जायेगा और हम उसे समझ ही न सकेंगे | ऐसे
चरित्र का हमारे ऊपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता |”(प्रतियोगिता साहित्य सीरीज-डॉ.अशोक
तिवारी, पृ.-१५४ )
प्रेमचंद कहते हैं कमजोरी विहीन चरित्र या निर्दोश
चरित्र देवता होगा व जो दोषी है वह मनुष्य है और साहित्य इस पृथ्वी रूपी देवता
(मनुष्य) को उसे उसके दोषों से मुक्त कर देवत्व प्राप्त करा कर उसका मान बढ़ाता है
| अर्थात समाज में व्याप्त बुराइयों व उन बुराइयों में संलिप्त मनुष्य को प्रेमचंद
अपने चरित्रों के माध्यम से अनैतिक, अवमूल्यन, अत्याचार, बेईमानी, विसंगति –या जो
भी असत् के प्रतीक के रूप में देखे जाते हैं-उन पर विजय दिखातें हैं |
‘नेकी’ कहानी में तखत सिंह ठाकुर –हीरामणि की जान
बचाते हैं और बिना किसी प्रकार की साहानुभूती के वे चले जाते हैं | अर्थात हीरामणि
की माँ रेवती को यह पता भी नहीं चलता की उसके पुत्र की जान बचाने वाला वह भल मानुष
कौन था ? उस नेक व्यक्ति के दर्शन न कर पाने के पछतावे में रेवती जिंदगी भर बेचैन
व अनमंस की स्थिति में रहती है तथा हर वर्ष हीरामणि की सालगिरह पर उस अज्ञात देवता
के लिए भी दुआ व शुभ कामनाओं सहित सौ रूपये पृथक से जमा करके रखती है | श्रीपुर की
जमींदारी मिलने पर हीरामणि तखत सिंह को बहुत सताता है और अंत में समय व जमींदार का
मारा ठाकुर तखत सिंह मर जाता है | परन्तु हीरामणि को बचाने का भेद वह अपनी पत्नी
से भी उजागर करने से मना कर जाता है | मगर जो सामाजिक सरोकार प्रेमचंद हीरामणि के
परिवर्तन से दिखाते हैं वो ही उनकी कहानियों का विशेष उपहार है | हीरामणि तखत सिंह
की मृत्युपरांत उसकी पत्नी जो मृत्यु के बिलकुल निकट है –के बुलाने पर स्वयं जाता
है | “हीरामणि ने जब देखा अम्मा नहीं जाना चाहती तो खुद चला | ठकुराइन पर उसे कुछ
दिनों से दया आने लगी थी |”(प्रेमचंद कहानी रचनावली :खंड एक –संपादक –कमल किशोर
गोयनका, पृ. १७६, नेकी- कहानी) इस तरह से हीरामणि के अहं व क्रोध का नष्ट करते हैं
प्रेमचंद |
प्रेमचंद अपनी कहानियों में समाज में व्याप्त
विद्रूपता व वैमनस्यता पर चोट करते हैं | वे मात्र चोट ही नहीं करते बल्कि उसे
बदलने की कौशिश भी करते हैं | यही कारण है की उनकी कहानी के निकृष्ट से निकृष्ट
पात्र भी अंत में सदमार्गानुगामी हो जाते हैं | इसी बात को बाबू गुलाबराय इस तरह
से कहते हैं, “मुंशी जी का मनुष्यत्व पर घोर विश्वास है | नीच से नीच मनुष्य में
भी वे मानवता की झलक पा जाते हैं | उनके पात्र गिरते हैं पर सुधरते जाते हैं
|”(प्रतियोगिता साहित्य सीरीज-डॉ.अशोक तिवारी, पृ.-१६१)
मुख्यतः यदि देखे तो साहित्य समाज को क्या देता
है ? समाज में व्याप्त बुराइयों को चिन्हित करना और उन्हें मिटाने व दूर करने का
प्रयत्न करना व प्रेरणा देना | प्रेमचन्द की कहानियों में यही सामाजिक सरोकार
पूर्ण रूप से व बहुप्रतिशत –परिलक्षित होता है | प्रेमचन्द अपने पात्रों को स्वर्ग
से उठाकर नहीं घड़ते हैं | वे सामान्य जीवन के इसी धरती के पात्रों को उठाते हैं और
उन्हीं के परिवेश में उन्हें विकसित कर समाजोन्मुखी धारा में जोड़ देते हैं | जिसके
कारण उनके पात्र जीवंत हो जाते हैं | ‘बड़े घर की बेटी’ में आनंदी के चरित्र का जिस
तरह से वे पतन-उत्थान दिखाते हैं –वह चरित्र अपने आप में अविस्मरणीय हो जाता है व
समाज स्वीकृत हो जाता है | “आनंदी ने लालबिहारी शिकायत तो की थी, लेकिन अब मन में
पछता रही थी | वह स्वभाव से ही दयावती थी | उसे इसका तनिक भी ध्यान न था की बात इतनी
बढ़ जायेगी | वह मन में अपने पति पर झुंझला रही थी की यह इतने गरम क्यों हो जाते
हैं | उस पर यह भी लगा हुआ था की मुझसे इलाहाबाद चलने को कहें, तो कैसे क्या
करुँगी | इसी बीच में जब उसने लालबिहारी को दरवाजे पर खड़े यह कहते सुना की अब मैं
जाता हूँ, मुझ से जो कुछ अपराध हुआ, उसे क्षमा करना, तो उसका रहा सहा क्रोध भी
पानी हो गया | वह रोने लगी |” (प्रेमचंद कहानी रचनावली :खंड एक –संपादक –कमल किशोर
गोयनका, पृ.-१८३, बड़े घर की बेटी ,कहानी )
आज के कहानी चरित्र व वास्तविक चरित्र इतने लघु व
सीमित हो गये हैं की पछतावा से उनका जायज-नाजायज किसी भी तरह का संबंध रहा ही नहीं
हैं | यूँ मुगालते में हम वसुदेव कुटुम्बकं या सूचना प्रोधोगिकी (मोबाईल,
अंतर्जाल(इंटरनेट)) के बल पर दुनिया बहुत छोटी हो गई या हम सबके पास पहुंच गये
जैसी बात करले, परन्तु वास्तविकता तो यह है की अहं ने आज के व्यक्ति को एड्स की तरह
घेर लिया है | यह लाईलाज बिमारी इतनी संक्रामक व इंटरनेट से भी तीव्रगामी है की
सात क्या दस मुल्कों की सामान्य पुलिस क्या सी बी आई तक नहीं पकड पाती है इसे और
यह फैलती ही जा रही है | व्यक्ति को यदि इन सब जंजालो से निकलना है या उसे
परिवर्तित करना है तो उसके लिए कोई लवणभास्कर या रामबाणच्वनप्राश जैसी बनी बनाई
जड़ी बूटी नहीं आएगी –घोली और पीला दी बीमारी ठीक ,बल्कि स्वयं उस व्यक्ति को ही
बदलना होगा और वह जब तक स्वयं नहीं बदलेगा, परिवर्तन संभव ही नही है | और यही
व्यक्ति का परिवर्तन प्रेमचंद अपनी कहानियो में दर्शाते हैं | मात्र दर्शाते ही
नहीं उस व्यक्ति के परिवर्तन को सर्वमान्य व सामाजिक प्रतिष्ठा की मोहर भी लगवाते
हैं | “गाँव में जिसने भी यह वृतांत सुना, उसी ने इन शब्दों में आनंदी की उदारता
को सराहा –“बड़े घर की बेटियां एसी ही होती हैं |” (प्रेमचंद कहानी रचनावली :खंड एक
–संपादक –कमल किशोर गोयनका, पृ.-१८४, बड़े घर की बेटी ,कहानी )
मनुष्य चूँकि सामाजिक प्राणी है और समाज में
व्याप्त जो भी अच्छा बुरा होता है उसका प्रभाव मनुष्य पर पड़ता है और उस प्रभाव के
द्वारा ही वह चालित है | उस प्रभाव को ही रेखांकित करती हैं प्रेमचंद की कहानियां
| प्रेमचंद की कहानियां एहसास कराती हैं मनुष्य को सामाजिक होने का | समाज से जुड़ने
का | उनकी कहानियों में समाज के तरह तरह के चरित्रों व रिश्तों का जिक्र इसी बात
की अंत में पूर्ण आहुति देता है की मौज मस्ती, मद शबाब, पैसा, एसो आराम आदि सभी तो
क्षणिक हैं | इनसे बहुत ज्यादा, देर दिनों तक सम्बन्ध नहीं रह सकता है | मनुष्य का
मूल नाता तो मनुष्यत्व से ही है वह तो उसी के साथ –समाज के बीच ही अपना जीवन
निर्वहन कर सकता है और यही उसकी सार्थकता भी है | ‘बड़ी बहन’ कहानी में कुंदन जो
अपने ही भाई के जन्म पर बहुत दुखी हुई थी, अब माँ-बाप की मृत्युपरांत, भाई के
अकेले होने से किस तरह से बदली “माँ के
मरते ही कुंदन के मिजाज में एक खुश-आयंद तब्दीली वाक्या हुई | नौनीचंद से जो उसे
नफरत थी, वह जाती रही | उस मुरझाये हुए यतीम बच्चे को देख कर उस पर तरस आता है |
जब उसके अपने लड़के नौनी को मारते और वह आँखों से आंसू भरे हुए आता और जीजी का आंचल
पकडकर फरियाद करता, तो कुंदन का कलेजा मसोस उठता और नोनी को मादराना जोश (ममता )
के साथ गोद में उठा लेती और कलेजे से चिपका कर प्यार करती | कुंदन के मिजाज में यह
तबदीली यों वाके हुई ,शायद इसीलिए की बूढी माँ ने बच्चे को उसके सुपुर्द किया था
,या मुमकिन है बेकसी के ख्याल ने नफरत पर फतह पाई हो |”(प्रेमचंद कहानी रचनावली
:खंड एक –संपादक –कमल किशोर गोयनका, पृ.-२३०, बड़ी बहन ,कहानी )
समाज के मध्य रहने वाले चरित्रों के मन मष्तिष्क
व भावों का परिवर्तन ही प्रेमचन्द का असली सामाजिक सरोकार है | जीवन में
उतार-चढाव, सुख-दुःख, परिस्थिति विवश अनुकूल-प्रतिकूल स्थिति मानव की चलती रहती है,
परन्तु इन सब के बाद भी मनुष्यत्व के गुण को समाज हित के लिए प्राप्त कर लेना या
करा देना उस पात्र या प्रेमचंद व उनसे भी बड़े मनुष्य की जीत होती है और यही
साहित्य की प्रमुख महत्ता व प्रयोजन में से एक है | मनुष्य के अंदर ही मानवता का
बीज सुसुप्त अवस्था में विराजमान होता है, आवश्यकता है उसे अनुकूल वातावरण देने की
| मनुष्य के क्रोध व कठोरता को भी पिन्घलाया जा सकता है | आवश्यकता है दृढ़ इच्छा
शक्ति की, प्रबल मानवीय गुणों में विश्वास की | प्रेमचंद कहते हैं “जिस तरह पत्थर
और पानी में आग छिपी रहती है, उसी तरह मनुष्य के ह्रदय में भी –चाहे वह कैसा ही
क्रूर और कठोर क्यों न हो –उत्कृष्ट और कोमल भाव छिपे रहते हैं |”(प्रेमचंद कहानी
रचनावली :खंड एक –संपादक –कमल किशोर गोयनका, पृ.-३९२) इसी तरह के भावों का उद्रेक
प्रेमचंद अपनी कहानियों के पात्रो के माध्यम से मनुष्य मात्र में कराना चाहते हैं
| “गुमान की आँखे भर आई, आंसू की बूंदे बहुधा हमारे ह्रदय की मलिनता को उज्जवल कर
देती है | गुमान सचेत हो गया | उसने जाकर बच्चे को गोद में उठा लिया और अपनी पत्नी
से करुणोत्पादक स्वर में बोला –“बच्चे पर इतना क्रोध क्यों करती हो ? तुम्हारा
दोषी मैं हूँ, मुझको जो दंड चाहे दो | परमात्मा ने चाह, तो कल से लोग इस घर में
मेरा और मेरे बाल बच्चो का भी आदर करेगें | तुमने आज मुझे सदा के इस तरह जगा दिया,
मानो मेरे कान में शंखनाद कर मुझे कर्म-पथ में प्रवेश करने का उपदेश दिया हो
|”(प्रेमचंद कहानी रचनावली :खंड एक –संपादक –कमल किशोर गोयनका, पृ.-३९२ ,शंखनाद-
कहानी )
प्रेमचंद की कहानियां व उनके पात्र इसी तरह का शंखनाद
करते हैं समाज में | हाँ उसका प्रभाव कैसा व कितना होता है यह अलग बात है ,क्योंकि
जितना हो सकता है व्यक्ति उतना ही कर सकता है | हालांकि प्रेमचंद कई बार इस सीमा
को भी लांघ जाते हैं और वे क्रूर से क्रूरतम
परिस्थिति में भी संभावनाएं तलाशते हैं | शायद यही कारण होगा की आस्थावान
कहानियां इतनी मजबूत है की वह मात्र समाज हित के इतर कुछ सोचती ही नहीं हैं | यही
कारण है की पछतावा कहानी में कुंवर साहब जिससे बहुत रुष्ट व क्रोध हुए थे, जिसे
अपना शत्रु समझते थे ,उसी पंडित दुर्गादास को अपनी वसीयत सोंपते हैं –“हितार्थी और
सम्बन्धियों का समूह सामने खड़ा था | कुंवर साहब ने उनकी और अधखुली आँखों से देखा |
सच्चा हितैषी कहीं देख न पड़ा | सबके चेहरे पर स्वार्थ की झलक थी | निदान उसे लज्जा
त्यागनी पड़ी, वह रोती हुई पास जाकर बोली- “प्राणनाथ, मुझे और इस असाहय बालक को किस
पर छोड़े जाते हो ?” कुंवर साहब ने धीरे से कहा –“पंडित दुर्गादास पर | वे जल्द
आयेगें | उनसे कह देना मैंने सब कुछ उनको भेंट कर दिया | यह अंतिम वसीयत है
|”(प्रेमचंद कहानी रचनावली :खंड एक –संपादक –कमल किशोर गोयनका, पृ.-४९०, पछतावा -
कहानी )
यदि मनुष्यत्व को जीवित रखना है तथा समाज को उत्थान करना है तो उसे
सही व सत्य को मानना पडेगा, फिर वह चाहे जो कहे ,जैसे कहे | अर्थात यदि सच हमारा
शत्रु भी बोलता है तो भी मान्य है और इसी बात की पुनरावृति होती है प्रेमचन्द की कहानियों
में, उनके पात्रों द्वारा | प्रेमचन्द का वास्तविक रूप से समाज के प्रति यह
दायित्व था की उसे पतन होने से कैसे बचाया जाया और चूँकि वह सब शक्ति मनुष्य के
अंदरनीहित है – जिसके द्वारा उसे जाग्रत किया जा सकता है या उठाया जा सकता है अत:
उस मानव मात्र ,सामाजिक प्राणी को जगाने व उठाने का प्रयास करती हैं प्रेमचन्द की
कहानियां और यही उनका व साहित्य का सामाजिक सरोकार है |
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