लघु कथा साहित्य में इसलिए विशिष्ट है कि यह अपनी बात बहुत ही संक्षिप्त रूप से कहती है। इसकी विशिष्टताओं के अंदर अनुभूतियों की गहन व तीव्र अभिव्यक्ति, भावतरलता, गतिमयता, संक्षिप्तता, भाषा पर असामान्य अधिकार, प्रतीकात्मकता एवं रहस्यमयता आदि को माना जा सकता है। लेकिन यह भी जरूरी नहीं है कि प्रत्येक लघु कथा में इन सब विशिष्टताओं का समावेश जरूरी हो। लघु कथा आकार में छोटी या लघु हो सकती है या होती है लेकिन प्रभाव में उसका फलक बहुत बड़ा होता है और यही कारण है कि उसकी विशिष्टता की छाप लघु होकर भी वृहद हो जाती है। वर्तमान में लघु कथा की प्रासांगिकता भौतिक सुख सुविधाओं की लालसा व मनुष्य की तेज गति को देखते हुए अधिक अपरिहार्य लगती है। लेकिन यह कोई अनिवार्यता नहीं है। किन्तु समय, समाज व आज के आधुनिक युवा की सोच व परिणती इसी तरह की हो गई है।
लघु कथाओं के उद्भव का वास्तविक कारण क्या है यह तो अधिकारिक रूप से नहीं कहा जा सकता। लेकिन आज के समय व समाज में घटते रिश्ते, क्षीण होते मानवीय मूल्य, मरती संवेदनाएं, सामुहिकता से एकता की ओर अग्रसर, हर वर्ग व संगठन के छोटे छोटे वर्गीकरण होना, ये सब ऐसे संकेत हैं जो लघु कथा के उद्भव के कारण या समकक्ष लगते हैं। जो धारा या परिपाटी चल रही है उसके अनुसार लघु कथा का उद्भव जरूरी था ऐसा प्रतीत होता है।
वर्तमान समय में हर प्रकार से मनुष्य एकल होता जा रहा है। वह समूह से एकांत की ओर दौड़ रहा है। सामुहिक परिवार से एकल परिवार उसकी पंसद होती जा रही है। समाज में अनेक कार्य मिलजुल के करने के बजाय वह अपने व्यक्तिगत स्वार्थ, व्यक्तिगत लाभ व व्यक्तिगत रूप से कार्य करने की और अग्रसर होता दिखाई दे रहा है। रिश्तों के रूप से, भावनात्मक रूप से, संवेदनात्मक रूप से वह पृथक, छोटा, लघु व बौना होता जा रहा है। इस तकनीकी और बढ़ते हुए मशीनी युग में मनुष्य के पास संसाधन बढ़े हैं, पैसा बढ़ा है, लेकिन उसके रिश्तें, उसका लगाव, उसकी संवेदनाएं, उसका भाव, उसका प्रेम, उसकी मित्रता, उसकी सामुहिकता यह सब बौनी हुई है, छोटी हुई हैं, नाटी हुई है, लघु हुई है। वह कटा है, छटा है, क्षीण हुआ हैै इन सब प्रकार से। लघु कथाओं का लघु होना या लघु कथाओं का ये कारण कहीं इन सब क्षीण होते रिश्तों की ओर, क्षीण होती संवेदनाओं की ओर, मरती, छोटी होती इन भावनात्मक प्रेम व भाई चारे के घटते मूल्यों की ओर इशारा तो नहीं करता है, चिंतित तो नहीं करता है? यह सोचने का प्रश्न है। सामाजिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक रूप से प्रगति व विकास के पैमाने कुछ अलग तरीके से निर्धारित हुए हैं या हो रहे हैं। विकासशील देश के अंदर मनुष्य का भी विकास हो रहा हैं पर उसमें मुनष्यता लघु होती जा रही है। परंतु ये विकास के पैमान क्या हैं? आर्थिक रूप से सुदृढ होना, पद और पैसे के रूप से बड़ा होना, बड़ा बंगला, बड़ी गाडी, बड़ी नौकरी आदि का होना। किन्तु इन सबके बाद भी वह विकास, वह बडप्पन, वह पैसे या आर्थिक रूप की मजबूती या एक बड़ा कद, मानवीय लगाव, रिश्तें नाते, संबंधों के आधार पर सब कुछ बौना दिखाई दे रहा है। रिश्तों में अलगाव, दूरियां, विच्छेदिता, टकराव, घुटन व लघुता दिखाई दे रही है, तो ये जो कथाएं हैं, इनका लघु होना कहीं मनुष्य के इस घटते क्रम को रेखांकित तो नहीं कर रहा है?
एक पुस्तक पर एक चित्र मैंने देखा था। वह मावन के विकास क्रम का चित्र था। मानव पहले छोटा था, उसके शरीर में बहुत सारे बाल थे, उसकी लंबी पूंछ थी ऐसा कहा जाता है और वह धीरे धीरे बंदर या भालु की शक्ल से मनुष्य के रूप में आया, उसका कद बढ़ा, वह सीधा हुआ, झुकने के बजाय सीधा चलने लगा। लेकिन अब स्थिति यह हो गई है कि वो इन तमाम तरह की भौतिक ऊँचाईयों को छूने के लिए इतना दब गया है, इतना झुक गया है, इतना मजबूर हो गया है कि वह झुकके चलने लग गया है और तकनीकि उपकरणों का प्रयोग करते करते उसमें शारीरिक श्रम की क्षमता खत्म हो गई है या ना के बराबर हो गई है या वह करना नहीं चाहता है तो वह बैठ करके तकनीक पर काम कर रहा है। यह उस चित्र में दर्शाया गया था। तो ऐसी स्थिति में वह और नाटा हो गया है और कितना लघु होगा यह मानव? यह कोई लघु कथाओं के रूप में प्रासांगिक या सुमेलित नहीं हो सकता, लेकिन इस तरह के चित्र से या परिस्थितियों से एक संकेत के रूप में समझने का यह प्रयास किया जा सकता है कि ये लघु कथाएं हमें उस विशाल व्यक्तित्व, मानव हृदय के प्रति विचारने के लिए प्रेरित करती हैं, जिसमें संवेदनाओं का एक बहुत बड़ा पुंज है, जिसमें भावनाओं का भंडार है, प्रेेम का सागर है, भाई चारे की सरीता है, लगाव व मित्रता इन सबका एक अथाह समुद्र है वह इतना बौना व लघु क्यों हो रहा है या होता जा रहा है?
लघु कथाओं की विशिष्टाओं में संक्षिप्तता, संश्लिष्टता, प्रतीकात्मकता इन सबका एक बहुत बड़ा पक्ष होता है। व्यंग्य एक ऐसी शैली है जो इन तमाम तरह की विशिष्टताआंे के लिए बहुत ही उपयुक्त है। वह बहुत ही कम शब्दों में ऐसी चोट इनके ऊपर करती है कि मानवीय रूप से बदलते हुए रिश्तें, भाव व संबंध इन लघु कथाओं की कथ्यात्मक या संरचनात्मक जो विशिष्टता है उनको उद्घाटित करने में एक कारगर भूमिका निभाती है तथा उसका प्रभाव गहन होता है। हरिशंकर परसाई, शरद जोशी, रविन्द्रनाथ त्यागी आदि इन व्यंग्य लिखने वाले रचनाकारों की लंबी श्रृखंला के अंदर जब ये लोग अपने लेखने का प्रारंभ करते हैं तो लघु कथाओं से, व्यंग्य लघु कहानियों से करते हैं। और इनकी लघु कथाएं सामाजिक, राजनीतिक व सांस्कृतिक रूप से जो भी विसंगतियां, विकृतियां, विदू्रपताएं या अनैतिकताएं दिखाई देती हैं उनके ऊपर बहुत छोटे रूप में किन्तु एक बडे पैमाने पर एक कारगर कटाक्ष, एक गहरी चोट, एक गंभीर चिंतन की ओर इशारा करने का प्रयास करती हैं। अतः ये लघु कथाएं कहीं ना कहीं क्षीण होते हुए एक दीर्ध रिश्तें की ओर संकेत करती हैं। एक दीर्ध समस्या की ओर इंगित करती हैं और इन सब कारणों से इनका महत्व और बढ़ जाता है।
हर प्रकार से आज मनुष्य जितने भी उपकरण तकनीकि रूप से इजात कर रहा है उसमें उसका प्रयास यह होता है कि समय को बचाया जाए। कम से कम समय में अधिक से अधिक कार्य किया जाए। लेकिन इन सब के बावजूद भी मनुष्य के पास यदि किसी चीज की कमी है तो वह है समय, वक्त। और घटते वक्त, या किफायती होते वक्त या कम होते वक्त के समय में कैसे हम इन तमाम तरह के मानवीय मूल्य रिश्ते नातों, संवेदनाओं व समाज के लिए वक्त निकाले या लाएं और इनसे हम कैसे जुड पायें। कम समय में अधिक बात कहने का प्रयास लघु कथाएं करती हैं और इन सब की ओर इशारा करने का प्रयास लघु कथाएं करती हैं। अतः लघु कथाएं दूसरी विधाओं या कथाओं की अपेक्षा ज्यादा प्रासांगिक व अनिवार्य हो जाती हैं इस रूप में और वर्तमान समय में इनकी प्रासांगिकता ज्यादा अपेक्षित व जरूरी हो जाती है।
लघुकथा के शिल्प विधान में चित्रात्मक शब्द, लाक्षणिकता, प्रतीकात्मकता, सहज बिम्बात्मकता, सांकेतिकता, वक्राभिव्यंजना, सटीक वर्णनात्मकता एवं अभिवांछित कलात्मकता आदि का होना अपरिहार्य माना जाता है। इससे इसके शिल्प का प्रभाव अधिक होता है। लघु कथाओं के लिए ‘थोडे में बहुत कुछ कहना’, ‘कुंजे में दरिया बंद करना’, ‘गागर में सागर भरना’ इस तरह की कहावते भी कही जाती हैं। ये कहावते लघु कथाओं के शिल्प तथा विशेषताओं के साथ साथ लघु कथाओं के बहाने बड़ी बात की ओर संकेत करती हैं। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की बहुत चर्चित व आज के दौर के हालात पर बहुत गहरा कटाक्ष व चिंता करती हुई पंक्तियां हैं-
‘हम कौन थे, क्या हो गए और क्या होंगे अभी।
आओ विचारें, आज मिलकर ये समस्याएं सभी।’
ये पंक्तियां और लघु कथाएं इस आज के दौर के हालात पर बहुत गहरी चिंताएं जता रही हैं और बहुत बडा प्रश्न खड़ा कर रही हैं। ‘हिन्दी लघु कथा: कल आज कल’ इस विषय के संदर्भ में यदि इन पंक्तियों को देखें तो कल यानि भूतकाल, वृहद कथा से लघु की और आज आ चुके हैं, अब कल यानि भविष्य में मनुष्य व ये हिन्दी कथाएं किस ओर जायेंगे यह विचारणिये प्रश्न है।
हिन्दी लघु कथा का आरंभ लगभग 20-25 वर्षों पूर्व माना जाता है और भूमंडलीकरण, बाजारवाद आदि का प्रारंभ भी इन्हीं वर्षों में या इसके आस पास ही है। अतः कहीं ना कहीं इस दौर के इन वादों के प्रभाव के कारण या इनके बरक्स लघु कथा की उपस्थिति दर्ज होना लघु कथा की प्रासांगिकता की अनिवार्यता को बढ़ाती है। इन नवीन वादों के साथ यह नवीन विधा है। जिसका प्रचलन आज के संदर्भ में काफी प्रचलित है और आज अनेक पत्रिकाएं लघु कथा विशेषांक निकाल रही हैं। अनेक रचनाकार लघु कथाएं लिख रहे हैं, उनेक लघु कथा संग्रह आ रहे हैं। जैसे-‘भीड में खोया आदमी’-सतीश दुबे, ‘पेट सबके हैं’-भगीरथ, ‘मृगजल’-बलराम, ‘मेरी बात तेरी बात’-मधुदीप, ‘सलाम दिल्ली’-अशोक लव आदि। अंग्रेजी, पंजाबी, तमिल, मलयालम आदि अनेक भाषाओं से लघु कथाओं का अनुवाद भी हिन्दी में अशोक भाटिया, बलराज अग्रवाल आदि अनेक लेखक कर रहे हैं।
Post a Comment