प्रकृति मनुष्य की न कि सहचरी है बल्कि जीवनदायिनी भी है। लेकिन वह सहचरी उसी अर्थ व प्रयोग में है कि जितना वह मनुष्य के लिए उपयोगी है मनुष्य भी उसके लिए उतना ही उपयोगी हो। लेकिन वर्तमान में हो उलटा रहा है। प्रकृति की उपयोगिता तथा उपभोगता तो मनुष्य अपने काम व जरूरत के लिए बराबर या अधिक ही करता आ तथा जा रहा है लेकिन उसके संवर्धन के लिए बदले में मनुष्य प्रकृति को देने के बजाय उसका दोहन ही अधिक कर रहा है। विकास का ग्राफ जितना ऊँचा हुआ है प्रकृति का नाश भी उतना ही हुआ है। नई नई तकनीकों के इजात के कारण मनुष्य ने जीवन जीने के साधन तो सुलभ कर लिए हैं लेकिन वह जीवन की महता से दूर होता गया है। इस बढ़ते अंधे तकनीकीकरण के दौर में तथा इस तकनीकी तंत्रों के लिए, मनुष्य के जीवन जीने में जो सबसे ज्यादा उपयोगी, बुनयादी एवं मूलभूत आवश्यकता है मनुष्य ने उसी प्रकृति को अपनी भौतिक सुख सुविधाओं के लिए तोड़ा, मरोड़ा, निचोड़ा, कुचला, नष्ट किया व अपने आनंद के लिए भोगा है। बनावटीकरण तथा कृत्रिमता के इस युग में प्रकृति के सान्निध्य में रहना व प्राकृतिक तरीकों से रहना मानों पिछड़ेपन की निशानी सी बन गया है। मानव के बदलते इस स्वभाव को विकास का नाम देना बेईमानी ही नहीं झूठ का सरलीकरण और विज्ञापनीकरण भी है। मशीनीकरण के इस युग में प्रकृति तथा प्राकृतिकता को बचाना मानव के लिए आज की सबसे बड़ी चुनौति ही नहीं प्राथमिकता भी है। सहज रूप से मानवीय रिश्तों में भी मनुष्य स्वार्थवस एक दूसरे से जुड़ा रहता है और कुछ देता है तो लेने की अपेक्षा रखता भी है। फिर यह तो प्रकृति है यह कैसे एक तरफा रिश्ता लंबे समय तक निभायेगी। अतः आज जो संकट, प्राकृतिक आपदाएं या परिवर्तन हो रहे हैं यह प्रकृति का मनुष्य से अलगाव होने का संकेत है, रिश्तें में दरार है एवं मनुष्य द्वारा अपनी जिम्मेदारी न निभाने का परिणाम है।
Monday, April 30, 2018
Intuitive versus fabrication: सहज बनाम बनावटीकरण
Posted by dr.pradeep kumar on 8:58 AM in research articel | Comments : 0
प्रकृति मनुष्य की न कि सहचरी है बल्कि जीवनदायिनी भी है। लेकिन वह सहचरी उसी अर्थ व प्रयोग में है कि जितना वह मनुष्य के लिए उपयोगी है मनुष्य भी उसके लिए उतना ही उपयोगी हो। लेकिन वर्तमान में हो उलटा रहा है। प्रकृति की उपयोगिता तथा उपभोगता तो मनुष्य अपने काम व जरूरत के लिए बराबर या अधिक ही करता आ तथा जा रहा है लेकिन उसके संवर्धन के लिए बदले में मनुष्य प्रकृति को देने के बजाय उसका दोहन ही अधिक कर रहा है। विकास का ग्राफ जितना ऊँचा हुआ है प्रकृति का नाश भी उतना ही हुआ है। नई नई तकनीकों के इजात के कारण मनुष्य ने जीवन जीने के साधन तो सुलभ कर लिए हैं लेकिन वह जीवन की महता से दूर होता गया है। इस बढ़ते अंधे तकनीकीकरण के दौर में तथा इस तकनीकी तंत्रों के लिए, मनुष्य के जीवन जीने में जो सबसे ज्यादा उपयोगी, बुनयादी एवं मूलभूत आवश्यकता है मनुष्य ने उसी प्रकृति को अपनी भौतिक सुख सुविधाओं के लिए तोड़ा, मरोड़ा, निचोड़ा, कुचला, नष्ट किया व अपने आनंद के लिए भोगा है। बनावटीकरण तथा कृत्रिमता के इस युग में प्रकृति के सान्निध्य में रहना व प्राकृतिक तरीकों से रहना मानों पिछड़ेपन की निशानी सी बन गया है। मानव के बदलते इस स्वभाव को विकास का नाम देना बेईमानी ही नहीं झूठ का सरलीकरण और विज्ञापनीकरण भी है। मशीनीकरण के इस युग में प्रकृति तथा प्राकृतिकता को बचाना मानव के लिए आज की सबसे बड़ी चुनौति ही नहीं प्राथमिकता भी है। सहज रूप से मानवीय रिश्तों में भी मनुष्य स्वार्थवस एक दूसरे से जुड़ा रहता है और कुछ देता है तो लेने की अपेक्षा रखता भी है। फिर यह तो प्रकृति है यह कैसे एक तरफा रिश्ता लंबे समय तक निभायेगी। अतः आज जो संकट, प्राकृतिक आपदाएं या परिवर्तन हो रहे हैं यह प्रकृति का मनुष्य से अलगाव होने का संकेत है, रिश्तें में दरार है एवं मनुष्य द्वारा अपनी जिम्मेदारी न निभाने का परिणाम है।
Subscribe to:
Post Comments
(
Atom
)
Post a Comment