यूँ देखा जाये तो लगभग सभी विधाऐं एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं। परन्तु फिर भी उनका अपना पृथक अस्तित्व भी होता है। किन्तु पृथक अस्तित्व उस विधा का दूसरी विधा से हो सकता है-समाज से नहीं। समाज से तो जैसे प्रत्येक प्राणी या वस्तु का संबन्ध व साम्य होता है वैसे ही प्रत्येक विधा का उत्थान व उसकी परिणति समाज के अर्न्तगत ही समाहित होती है या कहना चाहिए उसका सम्पूर्ण विकास कार्य समाजोन्मुखी ही होता है। (होना चाहिए) किन्तु बदलते युग व परिवश में हर चीज की परिभाषा ने युग व परिवेश को बदला है। खरबूजा छुरी पर गिरे या छुरी खरबूजे पर गिरे कटेगा खरबूजा ही वाली कहावत यहाँ लागु नहीं होती है। यहाँ नुकशान या लाभ की बात है तो दोनों के साथ है। चूँकी दोनों संयुक्त हैं अतः जो भी परिणाम आता है बराबर बंटता है।
‘वियोगी होगा पहला कवि, अहा से उपजा होगा गान, निकल कर आँखों से चुपचाप बही होगी कविता अनजान’ पंत की ये पंक्तियां हो या ‘मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शास्वती समाः, यत् क्रौचंमिथुनादेकमवधीः काममोहितम्’ वाल्मीकि का यह आदि श्लोक हो दोनों का भावार्थ है-कला, साहित्य, (काव्य) विचार या तकनीक का जन्म दुःख, संताप, परेशानी या विपरीत परिस्थिति में ही हुआ होगा (है) और अन्ततोगत्वा इनकी परिणति भी यही इन दुःखों, संतापों, परेशानियों को दूर करना मिटाना है। जैसे जैसे उत्तरोत्तर इनका विकास होता जाता है (सिर्फ आयतन में धनत्व में नहीं, यदि धनत्व में भी तो सिर्फ स्वार्थवस व दिखावे के लिए) इन सब दुःख संतापो से छुटकारा मिलता जाता है(जाना चाहिए)। परन्तु वास्तव में इनका विस्तार व विकास तो हुआ है किन्तु दुःख व संताप से छुटकारा वैसा का वैसा ही है वह कम नहीं हुआ है-ठीक उसी तरह जैसे किसी सत्ताधारी पार्टी का हर वर्ष बजट व खर्च तो बढ़ जाता है परन्तु बजट बढ़ने के बाद भी समस्या वैसी की वैसी ही रहती है पूर्वत। सामाजिक सरोकार तो सत्ताधारी दल का भी उतना ही हैै जितना कला, साहित्य, विचार या सामान्य जन का है। बल्कि उसका तो ज्यादा व बहुत ज्यादा है। परन्तु फिर भी स्थितियां ढाक के तीन पात जैसी ही हैं।
हम यहाँ बात कर रहें हैं आधुनिक दृश्य-श्रव्य माध्यमों के बदलते चेहरे तथा सामाजिक सरोकार की। जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है-समाज में रहने व घटित होने वाले सभी घटकों व घटनाओं से समाज का सरोकार होता है। यदि वह अपना रूप बदल लेता है तो क्या उसका सामाजिक सरोकार खत्म हो जाता है? हां कुछ ना कुछ जिम्मेदारियां उल्टा बढ़ ही जाती हैं। अतः आधुनिक दृश्य-श्रव्य के जो माध्यम-रेडियो, रंगमंच, टी वी व फिल्म इनका जो रूप बदला है तो इनका सामाजिक सरोकार भी बढ़ा है (बढ़ना चाहिए)। परन्तु क्या वास्तव में इस बदलते युग व परिदृश्य में इनका सामाजिक सरोकार बढ़ा है या घटा है? और घटने की वजह से जिनका वास्तव में समाज से सरोकार है उनके लिए चुनौतियां खड़ी हुई हैं।
आज के सन्दर्भ में यदि देखें तो ये सभी विधाऐं अपने बदले हुए चेहरों मोहरों के साथ हमारे सामने हैं। चुनौतियां चेहरों मोहरों के बदलने से खड़ी नहीं होती हैं वरन् चुनौतियां खड़ी होती हैं सामाजिक सरोकार से इनके द्वारा पीछे मुड़ जाने से। जब इनके लिए स्व व अर्थ इतना ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाये की समाज उसकी चंकाचौध में दिखाई ही न दे, तो चुनौती भंयकर व बड़ी लगती है और यही स्थिति आज बनी हुई है।
नाटक व रंगमंच को देखंे तो इनके रूपों में भी बहुत परिवर्तन आया है। नाटक लेखन की दृष्टि से संख्यात्मक रूप में बहुत कम होता जा रहा है व जो नवीन लिखा जा रहा है उसे निर्देशक रिश्क की वजह से अपनी प्रसिद्धि व सफता में आडे नहीं आने देना चाहता है। रंगमंचीय दृष्टि से नाटक का कार्य सामाजिक सन्दर्भों की विसंगतियों को उजागर करना होता है (व था)। परन्तु रंगमंच से जुड़े कला प्रेमियों की यदि संख्या देखे तो आंकड़ा वही नजर आता है जो दस बीस वर्ष पहले था। जबकि प्रत्येक वर्ष राष्ट्रिय नाट्य विद्यालय, भारतेन्दु रंगमंड़ली, श्रीराम सेन्टर, हिमाचल रंगमंड़ली व अनेकों क्षेत्रीय रंगमंड़लीयां व नाट्य संस्थाऐं हैं जिनसे लगभग सौ दो सौ की संख्या में प्रशिक्षु प्रशिक्षण प्रारंगत होकर अपनी कला का पल्लवन करने हेतु अनेक-अनेकों रंगमहोत्सवों व थियेटर कार्यशालाओं में जाते हैं। मगर फिर भी रंगमंचीय थियेटर में एक समय उपरान्त वे गायब हो जाते हैं-क्यों? कारण फिल्म का आकर्षण? पैसों व प्रसिद्धि का प्रलोभन या अन्य? परन्तु इन सब के बावजूद भी सार्थक व सक्रिय थियेटर करने वाले बहुत सारे वरिष्ट व थियेटर को समर्पित कलाकार होते हैं। फिर भी रंगमंच की चुनौती इस बदलते परिवेश में मुँह बाय खड़ी है।
दरअसल रंगमंच एक लम्बा समय साधना का मांगता है, पूर्ण समर्पण चाहता है। यूँ तो लगभग प्रत्येक विधा को ये दोनों चीजें चाहिए। परन्तु रंगमंच में इस बदलते परिदृश्य में उन विधाओं से इतर भी अनेक समस्याऐं हैं। जैसे-यह एक सामुहिक विधा है। पैसे व प्रसिद्धि के नाम पर इस विधा में बहुत कम या ना के बराबर कुछ है। नये परिवेश में प्रतिस्पर्धात्मक चलन होने के कारण यह विधा पिछड़ी व पुरानी नजर आती है तथा यदि इस विधा में नवीन तकनीक व उपकरणों व अन्य तामझामों का प्रयोग यदि किया जाता है तो यह विधा अपना मूल स्वरूप खोती हुई आलोचकों को दिखाई देती है। इस बहस में एक सवाल यह भी खड़ा होता है कि क्या रंगमंच पर बदलती तकनीक व युगानुरूप प्रयोग करना व समयानुसार नई प्रयोगात्मक प्रस्तुतियों को प्रस्तुत करना कला का ह्रास हैं? या उस कला का समाज से सरोकार कम होना है? या पुरातन पीढ़ी की ठसक ऐसा महसूस कर रही है कि नया मुल्ला अल्हा ही अल्हा पुकार रहा है? या वास्तविकता से परे है?
अशोक वाजापेयी हिन्दी रंगमंच व नाटक से जुडे से कुछ बुनायादी सवाल खडा करते हैं। और उनके पीछे के तर्क को वे अनेक पहलुओं से देखने को कहते हैं। ‘‘पिछले पचास वर्षों में जब हिन्दी रंगमंच का उत्थान और विकास हुआ है, लगातार उसे संकटग्रस्त कहा जाता रहा है। जब उसके पास हबीब तनवीर, इब्राहिम अल्काजी, बण् वण् कारन्त जैसे मूर्धन्य, श्यामानन्द जालान, राज बिसारिया, बंसी कैाल, एम के रैना, मोहन महर्षि, रामगोपाल बजाज, त्रिपुरारी शर्मा, कीर्ति जैन, देवेन्द्र राज अंकुर आदि जैसे प्रयोगधर्मी और महत्तवपूर्ण निर्देशक थे, मोहन राकेश, धर्मवीर भारती, ज्ञानदेव अग्निहोत्री, मुद्राराक्षस, नन्दकिशोर आचार्य आदि जैसे नाटककार और अनामिका, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, पदातिक दिशान्तर, रंगमण्ड़ल आदि जैसी रंगं मण्ड़लियां थी तब भी वह संकटग्रस्त ही माना जाता था। अब जब उदाहरण के लिए भारत रंग महोत्सव जैसे समारोह में हजारों की संख्या में दर्शक आते हैं और रंग व्यापार हिन्दी अंचल में खासा फैल गया है तब भी वह संकटग्रस्त है। लगता है कि हिन्दी रंगमंच अपने जन्म से ही संकटग्रस्त होने के लिए अभिशप्त है। उसका जन्म ही संकट जन्य है।’’(रंगप्रसंग-हिन्दी रंगमंच पर कुछ असंगत नोटस-अशोक वाजपेयी, पृण्-19)
यह संकटग्रस्त कि स्थिति सिर्फ रंगमंच की ही नहीं है वरन् हिन्दी अँचल की लगभग सभी प्रदर्शन योग्य कलाओं कि है। परन्तु सवाल उठता है इन सब के बावजूद भी स्थिति क्या वही है? नहीं स्थिति बदली है उसमें परिवर्तन आया है। वह परिवर्तन विभिन्न पहलुओं पर अलग अलग दृष्टि से नजर आता है। और इन परिवर्तनों के बाद भी नाटक या रंगकर्म की सामाजिकता का बदलाव अपने स्तर पर एक यथार्थ है। यूँ बात करें तो नाटक व रंगकर्म एक सामाजिक कला या उपकर्म विशेष सन्दर्भ में माना गया है। लेकिन इसके साथ ही समाज के लिए दिशा व मार्गदर्शन का कार्य भी इस विधा ने किया है। अतः यह एक सामाजिक कला है।
‘‘रंगमंच एक व्यक्ति या कुछ व्यक्तियों की कला नहीं है, समाज की कला है-समाज का एक वर्ग नाटक प्रदर्शित करता है, दूसरा वर्ग उसे देखता है और उसका प्रभाव ग्रहण करता है। सभी कलाओं में सर्वाधिक सामाजिक कला नाटक ही है। इसमें रचना और सह्रदय सामाजिक आमने सामने होते हैं।’’(नाटकालोचन के सिद्धान्त-सिद्धनाथ कुमार, पृण्-19) चूँकि यह कला अपने पूर्ण रूप में एक सामाजिक कला के रूप में ही हमारे समक्ष आती है। अतः समाज से इसके प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष सरोकार को तो नकारा ही नहीं जा सकता है। हां बात इस तरीके से उठाई जा सकती है कि वह समाज पर अपना असर कितना डाल पा रही है। इसकी तह में कुछ कारण यदि हम तलाशे तो निम्न कहे जा सकते हैं। ‘‘हिन्दी में पढ़े लिखों का प्रतिशत बढ़ रहा है पर उसी अनुपात में साहित्य और कलाओं के रसिकों का प्रतिशत बढ़ रहा है, ऐसा नही लगता। इस बीच एक नया तत्व टेलिविजन पर होने वाले राजनीतिक और आर्थिकी के अपने नाटक, भण्डाफोड़ और टेली धारावाहिक हो गये हैं। यह वह नयी संस्कृति है जिसमें अपार दृश्यता और अटूट वाचालता है। सेलफोनों की रोजाना बढ़ती भरमार ने नयी संवादरति पैदा की है जिसके बारे में कहा जा सकता है कि बोले तो बहुत पर कहा क्या पता नहीं ?’’(रंगप्रसंग-हिन्दी रंगमंच पर कुछ असंगत नोटस-अशोक वाजपेयी, पृण्-22)
इस तरह की उहापोह वाली स्थिति में मानव बहुत तेज गति से विचरण कर रहा है। और टेलिविजन व सिनेमा पर वह अपनी इस तेज चाल में से मनोरंजन के लिए मात्र तीन चार घंटे या एक आध घंटे में वह आनन्द व रस (मनोरंजन) प्राप्त कर लेता है या करना चाहता है, जो उसे चाहिए, अपनी सुविधा, समय, स्थान के अनुसार। फिर वह रंगमंच जैसी पेचीदी व समय तथा स्थान को बांधने वाली कला की और क्यों आकर्षित होगा? वह क्यों अपना समय नाटक जैसी विधा के लिए खराब करेगा। तथा दूसरी और एक सवाल रंग शिक्षा भी कहा जा सकता है। जिसका प्रशिक्षण मात्र चन्द महानगरों में ही सिमट कर रह जाता है, उन दूर दराज के गाँव-ढ़ाणियों व नगरों में नहीं पहूँच पाता है जो वर्षों से इस कला को अपने ही अंदाज में जीवित रखे हुए हैं। अशोक वाजपेयी इस पर टिप्पणी करते हुए कहते हैं कि-‘‘या तो रंगशालाऐं हैं ही नहीं, जो हैं उनकी दुर्दशा है। अधिकांश राज्य संगीत नाटक अकादमी या तो शिथिल-निष्क्रिय है या कलाओं के क्षेत्र में सरकारी स्तर पर अपनी कोई जिम्मेदारी नहीं मानते, न ही उसे निभाते हैं। मध्यप्रदेश जैसे राज्य में जो अभूतपूर्व पहल हुई थी वह राजनीतिक संकीर्णता और मीडियाक्रिटी के दुश्चक्र में फंसी हुई है।’’(रंगप्रसंग-हिन्दी रंगमंच पर कुछ असंगत नोटस-अशोक वाजपेयी, पण्ृ-22) इस तरह के कुछ कारण हैं जो रंगमंच की सामाजिक सरोकारता पर प्रश्न करतें हैं व आडे आते हैं। हांलाकि यह मुद््दा राजनीतिक से लेकर पारिवारिक तक सभी के साथ है किन्तु स्थितियां अलग-अलग हैं।
लेकिन इसके अलावा संकट ओर भी हैं। जैसे इस विधा को समाज में हीन या तुच्छ मानना। प्राचीन काल से ही यह मान्यता चली आ रही है कि नाटक नौटंकी का काम तो राजा महाराजा के यहां काम करने वाले चारण, भाट, भांड, मिरासी, नट या इसी तरह की छोटी या तुच्छ जाति के लोगों का कार्य रहा है अतः इसको करने वाले जो भी लोग हैं वे समाज में सम्मानीय दृष्टि के बजाय नाचने गाने वालों के श्रेणी में रखे जाते हैं और उन्हें हेय दृष्टि से देखा जाता है। देवेन्दे राज अंकुर कहते हैं-‘‘मेरा अपना व्यक्तिगत अनुभव है कि नाटक करने वालों को समाज में वह स्थान हासिल नहीं है जो किसी वैज्ञानिक, डॉक्टर और शिक्षक को प्राप्त है। आज भी हम लोग भाँड़, मीरासी या नौटंकी करने वाले माने जाते हैं।’’(रंगप्रसंग-हिन्दी रंगमंच का भूत, वर्तमान और भविष्य-देवेन्द्र राज अंकुर , पृण्-25) हांलाकि यह दृष्टि देवेन्द्र राज अंकुर ने नाटक (रंगकर्म) के सन्दर्भ में विशेष रूप से कही है, परन्तु यह लगभग सभी ललित व प्रदर्शित कलाओं के सन्दर्भों में भी लागु होती है और न केवल यह उक्ति मात्र देवेन्द्र राज अंकुर की व्यक्तिगत है बल्कि सभी कलाकरों की अपनी है उनकी तरफ से। उनसे बार-बार हर जगह अपने, पराये, नाते रिश्तेदार सभी सवाल करते हैं कि - आप करते क्या हो? जवाब-नाटक, नृत्य या अन्य कला। नहीं यह तो ठीक है वैसे काम क्या करते हो? यानि जवाब में वही चाहिए जो ऊपर देवेन्द्र राज अंकुर ने लिखा है डॉक्टर, वैज्ञानिक, ईंजीनियर, वकील या मास्टर। नाटक या अन्य कलाऐं कोई कार्य ही नहीं हैं उनकी दृष्टि में। यह सामाजिकता जब नाटककार (रंगकर्मी) के साथ होती है तो नाटककार उपेक्षा का शिकार होता है? और उस पर जो समाजिकता का दवाब होता है उससे वह बेचैन होता है। परन्तु नहीं, रंगमंच से सामाजिकता की अपेक्षा कोई अनुचित या गैर वाजिब नहीं है बल्कि आवश्यक व अतिआवश्यक है। समाज की इसी सुषुप्त अवस्था को परत दर परत खोलने का प्रयास करता है रंगकर्म।
इस बदलते परिवेश में रंगकर्म के समाने भी अनेक चुनौतियां हैं और वह इन चुनौतियों को अपने माध्यम से, अपने औजारौ से चुनौति दे रहा है व देता रहेगा। रंगकर्म का प्रयोगानुमुखी होना व फिल्मों व सिनेमा के नजदीक जाना, महानगरों में सिमटना व उसका कला पक्ष व रसात्मकता की ओर का अन्तिम तत्व कहीं लुप्त प्राय होना ये तमाम सवाल नये परिवेश में उसके सामने खड़े हैं और रंगकर्म की रचना व क्रियाशीलता इन सवालों को कितना व किस माध्यम से हल निकालती है यह तो परिस्थितियां तय करेगी। लेकिन फिर भी यह कहा जा सकता है कि रंगकर्म की अपनी सामाजिकता वह अपने अन्तर में कहीं ना कही अभी भी समेटे हुऐ हैं व अनेक जगहों पर उसके प्रस्फुटन व अंकुरन की ध्वनि या प्रतिध्वनि हमें किसी ना किसी रूप में सुनाई या दिखाई देती ही रहती है। अनेक तरह की प्रतिकूल परिस्थितियों व परेशानियों के बावजूद यह मशाल अभी भी कुछ खांटी व जुनूनी व्यक्तियों के माध्यम से जल रही है और यह उम्मीद के साथ साथ एक नई राह का सूचक भी है जो हमें प्रेरित करता है।
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