भारतीय दृष्टिकोण से 15 अगस्त 1947 एक ऐसा विशिष्ट मोड है जो न कि राजनीतिक रूप से बल्कि सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, सांस्कृतिक व अन्य पक्षों से भी अनेक बदलावों के संकेत लेकर आता है और इसके बाद 1975 में आपातकाल का लगना यानी स्वतंत्रता के 25-30 वर्षों बाद भी स्थितियों में बड़े फलक पर परिवर्तन न होना तथा 1990 के पश्चात वैश्विक परिप्रेक्ष्य के आधार पर भूमंडलीकरण के रूप में इस तरह की सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक एवं राजनीतिक संरचनाएं निर्मित होना, जिसमें कि हर चीज व्यक्तिगत होते हुए भी उसमें सामूहिकीकरण का भाव पैदा हो एवं एक समूह के भव्य मंडल में रहने के बाद भी व्यक्ति की व्यक्तिक्ता बनी रहे इस तरह की स्थितियां पैदा हुईं।
1990 के पश्चात भूंमडलीकरण का प्रभाव एक बड़े पैमाने पर पूरे विश्व की राजनीतिक, सामाजिक एवं अन्य संरचनाओं में अभिव्यक्त होता हुआ दिखाई देता है। इस भौतिक युग में मानवीय मूल्यों में सर्वत्र उत्क्रांति मची। संक्रमण काल की स्थिति से गुजरती हुई इन स्थितियांे ने परंपराओ को तोड़ो, नवीन सिद्धांतांे को गढ़ा और समाज के अनेक क्षेत्रों में बदलाव आये। प्राचीनता के प्रति विद्रोह व नवीनता के प्रति मोह जिस तरह से 1990 के पश्चात बढ़ता हुआ दिखाई देता है उससे ऐसा प्रतीत होता है कि समाज में बदलाव की प्रक्रिया का एक नया दौर प्रारंभ हो गया है। इस मूल्य परिवर्तन के दौर को नाटकों के संदर्भ से देखना अतिआवश्यक हो जाता है। ‘‘क्योंकि लोकवृत्ति को परखने के लिए नाटक एक सशक्त विधा है तथा आधुनिक पक्ष को उद्घाटित करने में जिस तरह की नाटकीय स्थितियां बन रही हैं उनके अंदर भी नाटक की बड़ी भूमिका हो सकती है ऐसा दिखाई देता है। 1990 के दशक के बाद परिवर्तित होते हुए इस नये व वैज्ञानिक युग में जो पहले उचित था वह अब अनुचित हो गया है, जो पहले शास्त्रसम्मत था वह अब रूढ हो गया है,’’ (बीसवीं शताब्दी का हिन्दी नाटक, गिरिश रस्तोगी, पृ.-84, 85) जो पहले परंपरा से अनुमोदित था अब वह व्यर्थ सिद्ध हो गया है, आदर्श की जगह यथार्थ ने ग्रहण कर ली है, यथार्थ इतना नग्न और विदरुप होने के बाद भी स्वीकारिये है, आदर्श व नैतिक मूल्यों के विघटन की स्थिति से नूतन मूल्य प्रतिष्ठित हो रहे हैं ये विभिन्न स्थितियां इस भूमंडीकरण के दौर में चिंतनिय व विचारणिय हैं। परंपरागत नैतिक मूल्य यथा-संयम, सत्य, सदाचार, अहिंसा व सूचिता आदि जैसे की आउट ऑफ डेटेड, सिर्फ पुस्तकों में, विचारों में, दर्शन में या संगोष्ठियों की परिचर्चाओं में मात्र कहने, सुनने और पढ़ने के ऐसे नारे हो गये हैं जिनके माध्यम से हर व्यक्ति अपने को प्रतिष्ठित करने की होड में लगा हुआ दिखाई देता है।
भूमंडलीकरण, बाजारवाद, उभोक्तावाद, अवसरवाद, पूंजीवाद आदि के प्रभाव से, पाश्चात्य विचारों के आगमन व उत्थान के कारण भारतीय मूल्यों में टकराहट से नवीन युग चेतना के अनेक संघर्ष दिखाई देते हैं। संस्कृतियों की टकराहट के कारण उत्पन्न संघर्ष से भारतीय समाज में इस समय अनेक रास्ते दिखाई देते हैं। किन्तु हर रास्ते में एक भटकाव, एक अंधपन, एक अनिश्चित्ता, एक असंतोष ही नजर आता है। वर्तमान का वैश्विक परिदृश्य और भारत का परिदृश्य बहुत जटिल हो गया है। वह साहित्य व कलाओं के लिए और उसमें भी खास कर नाटक व रंगमंच के लिए एक चुनौती बन गया है। संगठित और व्यापक रचनात्मक शक्तियां जिस तेज गति के साथ विखंडित हो रही हैं और ये राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक परिप्रेक्ष्य में जितनी अराजक आत्मसीमित दृष्टि को प्रभावित कर रही हैं, उससे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सृजनात्मकता को सुरक्षित रखना एक बड़ी चुनौती और संकट है। उत्तर सती के दौर में नाटककार की चुनौतियां, रंगमंच की समस्याएं एवं रंगकर्मी की समस्याएं क्या हैं। इस दौर के नाटकों के माध्यम से समाज एवं संवेदनाएं किस तरह से परिवर्तित हो रही हैं ये अत्यंत महत्त्वपूर्ण मुद्दे हैं व जटिल प्रश्न हैं। बदलते हुए यथार्थ एवं संवेदनाओं को कविता, कहानी और उपन्यास में परिभाषित करना तो कठिन है ही पर नाटक जैसी जटिल विधा के अंदर इन परिवर्तित होते सामाजिक एवं संवेदनात्मक मूल्यों के यथार्थवादी दृष्टिकोण को भाषा, शिल्प एवं प्रस्तुती के स्तर पर परिभाषित करना तो और भी जटिलतम है। उत्तर सती के बदलते यथार्थ, धार्मिक उंमाद, सांप्रदायिकता, आतंकवाद, राजनीतिक अस्थिरता, वैश्वीकरण, बाजारवाद, वैज्ञापनी संस्कृति और इनके प्रभाव से बदलते मानवीय संबंध, मूल्य, व्यवहार, विचार, दर्शन हमारे सामने अनेक संकट खड़े करते हैं। इन सभी परिप्रेक्ष्यों से सोचते हुए इस उत्तर सती के नाटककार नाटक तथा रंगमंच के दृष्टिकोण से नई जमीन तलाश कर रहे हैं। सामाजिक, सांस्कृतिक व राष्ट्रीयता के इस संक्रमण काल में बदलते सामाजिक एवं संवेदनाओं का प्रतिरोध करने वाले नाटकों की सशक्त अभिव्यक्ति उत्तर सती में दिखाई देती है। इस बदलते दौर ने नाटक को भी सशक्त किया है। व्यवस्था का विरोध, हिसंक प्रवृत्तियों व कृत्रिम अमानवीय मशीनीकरण की ललक आदि जटितलाओं को उत्तर सती के नाटक अनेक विषय एवं संदर्भों से प्रकट करते हैं। उत्तर सती के इन नाटकों पर विचार किया जाये तो इनमें प्रतिरोध की शक्ति, जाग्रति, संघर्षशील नाट्य भाषा और नवीन विषयों को कथ्य, शैली व शिल्प के दृष्टिकोण से प्रयोगात्मक उत्सुकता से प्रस्तुत किया गया है। ऐतिहासिक, पौराणिक पृष्ठभूमि के आधार पर भी मिथकिय चरित्रों के माध्यम से यथार्थ, आधुनिक व नये संदर्भों के चरित्रों को भी व्यंजित करने का प्रयास उत्तर सती के नाटकों के अंदर दिखाई देता है। उत्तर सती के समाज और संवेदनाओं के बदलते परिवेश पर प्रभाव डालने वाले यहां कुछ चुनिंदा नाटकों पर चर्चा अपेक्षित है।
‘मुआवजे’ भीष्म साहनी का लिखा नाटक है। इस नाटक में व्यापक स्तर पर घटित सामाजिक राजनैतिक, संतात्र में जीती व्यक्तिगत मानसिकता, टकराव, आर्थिक विवशता, नैतिक मूल्यों का पतन, सांप्रदायिकता, अनिश्चित्ता, व्यक्ति की दिग्भ्रमिता आदि आधुनिक उत्तर सती के अंदर घटने वाली घटनाओं को चित्रित किया गया है। नन्दकिशोर आचार्य ‘मुआवजे’ के लिए कहते हैं-‘‘हमारे समय की अत्यन्त मार्मिक मानवीय समस्या दंगों पर आधारित मुआवजे का बयान है कि कैसे निहित स्वार्थ दंगों का अपने हित में लाभ उठाते हैं और कैसे दंगों की परिस्थितियों में हमारी मानसिकता बदल जाती है? नाटक विभिन्न वर्गों से संबंधित चरित्रों के विद्रूप पर व्यंग्य करते हुए बताता है कि आर्थिक परिस्थितियों और दबावों ने आज मनुष्य को मूल्यहीन और संवेदनाहीन बना दिया है।’’ (नटरंग, संपादक-नेमीचन्द्र जैन, अंक-67, पृ.-38) ‘मुआवजे’ विभिन्न वर्गों से संबंधित चरित्रों के विकृत कार्यों पर बहुत गहरा कटाक्ष करता है एवं उत्तर सती में उत्पन्न आर्थिक परिस्थितियां व राजनैतिक षडयंत्रों के दबावों से आज के मनुष्य की मूल्यहीनता और संवदेनाहीनता का चरित्र बयां करता है। मुआवजे की भाषा एक गंभीर मार्मिकता लिये हुए पाठकों एवं दर्शकों के मध्य उन चरित्रों को परिहास के माध्यम से प्रस्तुत करती है जो चरित्र इस सती के अंदर राजनीतिक एवं सामाजिक रूप से बहुत ही विकृत व अनैतिक दिखाई देते हैं। मुआवजे के अंदर पूरी व्यवस्था एवं उससे परिचालित सामाजिक घटनाकर्म के ऊपर नाटककार अपनी सटीक संवाद संयोजना के माध्यम से इस तरह व्यंग्य करते हैं कि अनेक विसंगतियों का पर्दाफास होता है। उत्तर सती के सामाजिक जीवन की विडंबनाओं, राजनीतिक दिशाहीनताओं, व्यक्तिगत जीवन की बढ़ती स्वार्थवादिताओं और व्यक्ति के नैतिक पतन के विभिन्न दृष्टिकोणों एवं इसी तरह के अनेक विषयों को एक साथ इस नाटक में समेटते हुए जीवन के अनेक संदर्भों को रेखांकित करते हुए भीष्म साहनी मुआवजे के माध्यम से त्रासद सर्वहारा वर्ग के जीवन एवं उसकी परिस्थितियों पर प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से इनके प्रभाव का साक्षात्कार कराते हैं।
शिल्प की दृष्टि से बारह दृश्यों में विभक्त मुआवजे नाटक उत्तर सती के सामाजिक राजनीतिक एवं नैतिक षडयंत्रों की जीवन की वास्तविकताओं से परिचय कराता हैमुआवजे की घटनाएं किसी एक जगह घटित होने वाली नहीं हैं अपितु पात्र एवं घटनाएं एक व्यापक रूप में एक ऐसे चरित्र को उपस्थित करती हैं जो अनेक आयामों को व्यंजित करता हो। दंगों की पृष्ठभूमि पर लिखा गया यह नाटक आज के जीवन की गहरी वास्तविकता को व्यक्त करता है। वर्तमान परिवेश इतना नग्न और भौंडा हो गया है कि उसे खूली आंखों से देखना आज की आधुनिक चकाचौंध ने आवश्यक बना दिया है। किन्तु इस नग्नता की बेरहमी व बेशर्मी को देखने के बाद एक आंतरिक पीड़ा का मन में एहसास होता है। शहर में दंगों को भडकाना, छुट-पुट जगहों पर दंगों का घटित होना बहुत सामान्य व आपराधिक घटनाएं लगती हैं किन्तु कब ये बड़े दंगें का रूप धारण कर लेती हैं यह आम जन को तो पता ही नहीं लगता है। पर इनके पीछे प्रशासनिक, राजनीतिक सोच किस तरह से एक सोची समझी रणनीति के तहत कार्य करती है, इस तरह के अनेक गुप्त रहस्यों पर से पर्दा हटाने का कार्य भीष्म साहनी मुआवजे के माध्मय से करते हैं। आतंक व दंगे की इस तनावपूर्ण स्थिति के लिए जब राजनीतिक सत्ता या व्यवस्था सुरक्षा के बजाय सिर्फ मुआवजे की व्यवस्था करती है तो स्वतंत्रता के चालिस पचास वर्ष बाद भी एक बड़ा प्रश्न यह खड़ा होता है कि विकासशील देश में नागरिक की कीमत संवेदनाओं, भावनाओं, संबंधों व मानवीय व्यक्तिगत स्तर से नहीं पैसे से आंकी जाती है। पुलिस चुप है, क्यांेकि उसका कार्य तो घटना घट जाने के बाद प्रारंभ होता है। नेता पूर्व में ही अपने भाषण को लिपीबद्ध व टेप करवा चुके हैं कि जब दंगे होंगे तो यह भाषण प्रसारित कर दिया जायेगा, यह पूर्व में ही तय कर लिया गया है। दंगों में जख्मी व घायल होने वाले लोगों के लिए डॉक्टर, दवा व वितरण करने के लिए कंबल की व्यवस्था की जा चुकी है। स्कूलों में अस्थाई अस्पताल की व्यवस्था कर दी गई है। ये इस तरह के संकेत हैं जो दंगों के लिए, अकस्मात घटने वाली घटना न होकर के एक पूर्व निर्मित संयोजित षडयंत्र है इस प्रक्रिया को प्रकट करते हैं। बाजारवाद व भूमंडलीकरण ने व्यापारिक सोच इस तरह की बना दी है की हर वस्तु की कीमत वसूल की जाये। दंगे होेंगे तो व्यापारी अधिक मुनाफा कमायेंगे। इसलिए वे प्रतीक्षा करते हैं कि कब इस तरह की आतंककारी व दंगाई घटनाएं हों। मूल्य, आदर्श व संबंधों के इस घटते दौर में माता-पिता तक संतान का सौदा करने के लिए तैयार हो जाते हों तो वहां पर मनुष्य, समाज, संवेदनाएं एवं देश से बड़ी मुआवजे में मिलनी वाली राशी हो जाती है। पुलिस की नाक के सामने जग्गा जैसे दबंगाई लोग मुआवजे की राशी लूट कर और उसी पैसे के बलबूते पर एक राजनैतिक संरक्षण की मोहर नेता बनकर आमजन से लगावा लेते हैं और पुलिस कुछ नहीं कर पाती है। बल्कि जग्गा से जगन्नाथ बने नेता की सुरक्षा और सरंक्षण की जिम्मेदारी भी पुलिस की हो जाती है। यह उत्तर सती के समाज की आंतरिक व्यवस्था है, जिसमें मौत के व्यवपारी हैं, आमजनता के हक को लूटने वाले सौदागर हैं, संवदेनात्मक रूप से हीन माता पिता हैं, धर्म व सेवा के नाम पर आम जन को ठगने वाले पूंजीपति व समाजसेवी हैं, दंगों को रोकने व समाप्त करने के बजाय उन्हें प्रश्रय देने वाले प्रशासनिक अधिकारी, पुलिस व नेता लोग हैं हर व्यक्ति मुआवजे के लिए ऐसे दौड़ता है जैसे कि वह मृगमरिचिका हो। भ्रष्टाचार, कर्त्तव्यहीनता, उत्तरदायित्वहीनता, नैतिक पतन, मानवीय मूल्यों की उपेक्षा से आक्रांत इस उत्तर सती के समाज में संवेदनाएं किस तरह से क्षीण व परिवर्तित हो रही हैं इसे मुआवजे बयां करता है। रंगमंचीय दृष्टिकोण से यह नाटक बहुत ही सशक्त व प्रभावी है। अनेक रंगमंचीय संभावनाएं इसमें परिलक्षित होती हैं। संवाद संयोजन, मंचीय क्रियाशीलता व अभिनय की मुद्राओं के साथ नाटक का कथ्य जब दृश्य मंे बदलता है तो बहुत प्रभावशाली दिखाई देता है।
मृदुला गर्ग का लिखा नाटक ‘जादू का कालीन’ बाल मजदूरी को केन्द्रीय विषय बनाकर लिखा गया है। यह उन घटनाओं को इंगित करता है जिनके कारण बाल मजदूर बनने के लिए बच्चे विवश होते हैं। गरीब मजदूर तबके की मानसिकता का यह ऐसा कडुवा सच है जो लाचार एवं विवश होकर अपनी संतान का पालन पोषण करने के बजाय उस दायित्व को बोझ मानकर उसमें जीवन की असीम संभावनाओं को नजर अंदाज कर उसे मजदूरी के लिए धकेल देते हैं। भौतिक जीवन की अभाव ग्रस्त आवश्यकताओं के लिए मानवीय संदेनाएं व आत्मीय संबंधों में कितनी गिरावट आई है इस उत्तर सती के दौर में यह जादू का कालीन प्रस्तुत करता है। भयानक सूखे की चपेट में रहने वाले गाँव के अभाव ग्रस्त लोग जब अपने बच्चों को परियों की काल्पनिक कहानियां नहीं सुना पाते हैं तब विवश होकर वे रोचक कथाओं के मध्य पेट की भूख की छटपटाहट को महसूस करते हैं, तब इसी अवसर का लाभ उठाते हुए व्यापारिक प्रवृत्ति के लोग काम व पैसों का ऐसा सपना दिखाते हैं कि बाल मजदूरी के लिए बच्चों को भेजने के लिए माता पिता तैयार हो जाते हैं। ‘‘जिन हाथों में पैन, पैन्सिल, कागज व खिलौने होने चाहिए थे उनमें कालीन बुनने के औजार करधे, धागे व सूंई थमा दी जाती हैं तो किस प्रकार से एक बच्चा किशोर और किशोर से व्यस्क हो जाता है, यह उत्तर सती में मरती और बदलती संवेदनाओं का बहुत मार्मिक चित्रण है।’’ (हिन्दी नाटक, डॉ. वीणा गौतम, पृ.-241) लेकिन इन सबके बाद भी गांव के माता पिता को आर्थिक रूप से बहुत राहत नहीं मिलती है और भूख की समस्याएं ज्यों की त्यों खड़ी दिखाई देती हैं तो ऐसा लगता है जैसे एक तरफ जिंदगी और दूसरी तरफ ये समस्याएं इस तरह से खड़ी हों कि जैसे एक तरफ से तो इनसे लड़ना ही जीवन है और दूसरी तरफ ऐसौ आराम में इनकी पूर्ति करना ही जैसे जीवन है।
नरेन्द्र मोहन के ‘कहत कबीर सुनो भाई साधो’, ‘कलंदर’ तथा ‘नौमैंस लैंण्ड’ तीनों नाटक 1990 के बाद के लिखे हुए हैं। किन्तु यहां सिर्फ ‘नौमैंस लैण्ड’ की चर्चा उत्तर सती के समाज व संवेदना के परिप्रेक्ष्य में की जा रही है। मूलतः सहादत हसन मंटो की कहानी ‘टोबाटेक सिंह’ का यह नाट्य रूपांतरण है। लेकिन एक तरह से कहानी का नाट्य रूपातंरण इसे इसलिए नहीं कह सकते क्योंकि इसके अंदर नरेन्द्र मोहन ने मंटो की ‘ठंडा गोश्त’ और ‘खोल दो’ नाम की दो अन्य कहानियों की पृष्ठभूमि को भी इस कहानी के कथानक के साथ गुंफित किया है और साथ ही कुछ नवीन, मौलिक पात्र व घटनाओं को कहने वाली मूल संवेदनाओं को इनके साथ जोड़ा है। ‘नौमैंस लैण्ड’ की भूमिका में नरेन्द्र मोहन लिखते हैं-‘‘नाटक में ऐसी स्थितियों का विधान किया गया है जिनसे आत्मिक, मानसिक हालात और सामाजिक-राजनीतिक धरातल एक साथ उजागर हो सकें। कहानी के पागलखाने के पागल एक व्यापक अर्थ में पागल हैं भी और नहीं भी हैं। इस आशय की पुनर्व्याख्या करने के लिए नाटककार ने ऐसी स्थितियां और पात्र कल्पित किये हैं जिनसे दोहरे-तिहरे अर्थ स्तरों पर चल रहे कार्य व्यापार को खोलने में मदद मिल सके। नाटक में उन शक्तियों की तरफ भी संकेत किया गया है जो इंसान से उसके सपने, घरबार छीन लेती हैं, इन्सानी संबंध को तोड़-मरोड़ देती हैं और उसे हैवान बना देती हैं। सभ्यता, संस्कृति के आधारों को खत्म करने वाली इन शक्तियों द्वारा सीधे-सादे मिट्टी से जुड़े संवेदनशील लोगों को पागल करार दिया गया एक ऐसी विडंबना है जिसका बोध नाटक में स्थितियों और पात्रों के नये संयोजन द्वारा कराया गया है।’’ (नौमैंस लैण्ड, नरेन्द्र मोहन, भूमिका से, पृ.-9) इस नाटक के अंदर विभाजन की त्रासदी से उत्पन्न परिस्थितियां, राजनीतिक सत्ता की क्रूर साजिसें, प्रसाशन तंत्र की मनमानियां, दुर्बलताएं, अनैतिकताएं, असमर्थताएं एवं उनके चलते निर्दोष नागरिकों के अधिकारों का हनन, उनकी पीड़ाएं, जीवन में बढ़ती विकृतियां, साधारण नागरिक के अधिकारों का हनन एवं उसकी बढ़ती मनोव्यथा तथा आजादी के मोहभंग से उपजे संताप को बड़ी ही गहराई एवं बेहरमी से अभिव्यक्त किया गया है। भारत और पाकिस्तान के विभाजन के समय बहुत सारे मुसलमान पाकिस्तान चले जाते हैं और हिन्दू हिस्दुस्तान आ जाते हैं। उस समय जेल में बंद पागलों का भी इसी तरह बंटवारों होता है। किन्तु मानसिक रूप से जिन लोगों को पागल करार कर दिया है जाता है वो किस तरह से अपनी भूमि, अपने वतन, अपने सहयागी, सिद्धांत व संवेदनाओं से प्रेम करते हैं और उनकी तुलना में जो सामान्य, समझदार और ज्ञानी लोग हैं वो किस तरह से अमानवीय व्यवहार, झगडे़, आतंक, मारकाट, अलगाव-बंटवारें की स्थितियों को निर्मित करते हैं? तो कौन पागल है और कौन समझदार इस पर बात पर एक बड़ा व्यंजनात्मक प्रश्न नरेन्द्र मोहन नौमैंस लैण्ड के नाम पर खड़ा करते हैं। उत्तर सती में घटने वाली ये घटनाएं भारत विभाजन में अपनी नींव जब तलाशती हैं तो कहानियों से बने इस नाटक की पुनर्सृजना एक नये रूप को व्याख्यायित करने वाला नरेन्द्र मोहन द्वारा रचा गया सच भाषा और संवाद की संश्लिष्टता के साथ रंग प्रस्तुति का एक प्रखर रूप ग्रहण करता है। बहुत ही सरल मंच व्यवस्था के माध्मय से यह नाटक दृश्यात्मक रूप से अपना प्रभाव दर्शकों पर डालता है।
जितेन्द्र मित्तल द्वारा लिखित नाटक ‘भूखी स्थितियां’ पैसे, पद, प्रभाव, प्रतिष्ठा, पहचान, पेट और ऐसे ही अनेक प्रकार की मानवीय भूख की विकृत विभिन्न स्थितियों का संकलन चित्रण है। यह नाटक एक व्यापक कथानक के बजाय अनेक झलकियों के माध्यम से अपने प्रभाव को प्रकट करता है। एक विस्तृत कथाविहीन रचना के माध्यम से उत्तर सती के दौर में आदमी की बढ़ती मुश्किलें व अनेक परिवर्तनों के बाद व्यक्ति के हारे हुए लहजे को रचनात्मक धरातल पर यह नाटक ऐसे स्पर्श करता है जैसे भूख ही स्थितियां आज भी व्यवस्था के सामने मुंह बाय खड़ी हैं। उत्तर सती के इस बदलते हुए संवेदनात्मक दौर के अंदर भूख के भयावह चित्र को प्रकट करने वाले यह नाटक व्यक्ति, समाज व मूल्यों के पतन-क्षरण को व्यंजित करता हुआ अनेक पाशविक चरित्रों को भी प्रकट करता है। सभ्यता, नैतिकता, संस्कृति, आदर्श एवं इसी तरह के अन्य मूल्य जब भ्रष्ट हो चुकंे हों तो व्यक्ति की भूख चाहे वह शारीरिक हो, मानसिक हो, आर्थिक हो, आकांक्षात्मक हो, पद, पैसे या अन्य प्रकार की हो वह बहुत बढ़ जाती है। फिर आदमी-आदमी नहीं पशु नजर आने लगता है। आवश्यकता की जगह ऐश्वर्य, प्राथमिकता की जगह अनिवार्य, जरूरत की जगह बहुलता इस तरह की स्थितियां जब पैदा होती हैं तो मूल्य आदर्श, नैतिकता कोई माायने नहीं रखते हैं। मनुष्य की जगह पाशुविक प्रवृत्ति के बढ़ने से ऐसे लगता है जैसे समाज अब जंगल का रूप ले रहा हो और उसमें पशु ही वास करते हों वे चाहे किसी भी वर्ग के हों, राजनीतिक सत्ताधीश, पुलिस, सेठ, साहुकार, वकील आदि। रंगमंचीय दृष्टिकोण से यह नाटक बहुत ही सशक्त है और अनेक पक्षों के माध्यम से अपने शिल्पगत संयोजन को भाषा एवं संवादों की दृष्टि से बहुत ही सहज रूप में प्रस्तुत करता है। ‘‘हत्या, बलात्कार, दुर्घटना आदि विभिन्न वीभत्स एवं वर्जित दृश्य, सारा कुछ यहां मौजूद है। दूसरे शब्दों में पारंपरिक समस्त विधि निषेधों एवं वर्जनाओं का स्पष्ट एवं खुला उल्लंघन इस नये नाटक (भूखी स्थितियां) का चरित्र है। ‘वुभूक्षितः करोति किं न पापम्’ भूखे लोगों द्वारा किया जाने वाला सारा पाप कर्म यहां मौजूद है। पेट की भूख की शांति के लिए किया जाने वाला कोई भी अपराध या पाप प्राणरक्षा के लिए अनिवार्य मानकर थोड़ी देर के लिए भुला दिया जा सकता है पर पद, प्रभाव, प्रतिष्ठा, पैसा, प्रभुत्व आदि के लिए किये जाने वाले पाप कहीं एकदम अक्षम्य नहीं हैं। जबकि हमारे आज के समाज में ज्यादातर पाप इसी संदर्भ में किये जाते हैं। ऐसा लगता है जैसे पूरा समाज समस्त नैतिक मूल्यों और तत्संबंधी समस्त वर्जनाओं को ठुकराकर अपनी लिप्सा की पूर्ति में अग्रसर है। वर्जनाओं और परंपराओं को ठुकराने का यह भाव इस नाटक में भी मौजूद है: समस्त वर्जनाओं-परंपराओं को ठुकराकर अपनाए गये रचना विधान में। संक्षेप, में यह नाटक आज के जीवन का जीवंत दस्तावेज है।’’ (समकालील हिन्दी नाटक, नरनारायण राय, पृ.-138, 139)
‘सीढ़ियां’ दयाप्रकाश सिन्हा का लिखा नाटक है। स्वार्थ, अवसरवादिता और महत्त्वाकांक्षा ने जनहित भावनाओं को समाप्त कर जैसे व्यवस्था के अंदर एक भय व विकराल रूप धारण कर लिया है और हर प्रकार से सुख की लालसा चाहने वाला राजनीतिक सत्ताधीश भी अपने अधिकार को श्रेष्ठ समझने लगता है। उत्तर सती के दौर में घटने वाली राजनीतिक परिस्थितियों को व्यंजित करने वाला नाटक सीढियां बदलते मूल्यों व परिवेश के कारण नैतिक व सैद्धांतिक पतन की चर्चा राजनीतिक व सामाजिक दोनों स्तर पर करता है। अपनी आकांक्षाओं में हर सुख को प्राप्त करने वाली सीढ़ियों के रूप में राजनेता सत्ता को मानता है। नाटककार लिखते हैं-‘‘यह किसी ऐतिहासिक व्यक्तित्व के चारों ओर नहीं घूमता और न किसी ऐतिहासिक घटना के। सीढ़ियां का नाटक वह कालखंड है जो पात्रों के माध्यम से इस नाटक में स्थापित है। मुगल शासन के अंतिम चरण में साम्राज्य के बिखराव के साथ सामाजिक विघटन का वह कालखण्ड जो समाज के गिरते मूल्यों के साथ अपना कौमार्य खो बैठता है। जहां वही सत्य होता है जिसकी जय हो। ....पतित समाज, भ्रष्ट, अहलकार, विलासी हुक्मरान-ऐेसे बदरंग हैं जिनसे बनी है गुजरे वक्त की यह तस्वीर। वर्तमान की तस्वीर में भी तो इन रंगों की झलक है। नाटक के पाठक-दर्शक आज की तस्वीर में इस बीते कल की तस्वीर के रंगों की झलक देख सकें, बस इतना ही तो इस नाटक का उद्देश्य है.......।’’ (सीढ़ियां, दया प्रकाश सिन्हा, भूमिका से, पृ.-8) दिल्ली का सुबेदार मुहम्मद शाह रंगीली ऊधमबाई के रूप यौवन पर फिदा है। वह उसे अपनी मलका बनाना चाहता है। विलास के रंग में लिप्त सुबेदार जब व्यभिचार में डूबता है तो क्रमंशः जनखा, हिजड़ा और विदुषक मात्र बनकर रह जाता है। सहयोगी ढिंढ़ोरची सलीम जैसे महत्त्वकांक्षी लोग भी ऐय्यासी और विलासिता के स्वप्न देखते हुए उसी रास्ते पर चलते हैं। सल्तनत का ढिंढ़ोरची सलीम सत्ता के किसी भी छोटे से छोटे ओहदे को प्राप्त करने की फिराक में अनेक प्रकार के षडयंत्र रचता हुआ कुदसिया बेगम बनकर एवं मूल कुदसिया बेगम व उसके अंगरक्षक जावेद को गिरफ्तार करवा कर तथा इरानी आक्रांता नादिरशाह द्वारा दिल्ली पर कब्जा व उसके बाद में एक सुबेदार के माध्यम से अपने रास्ते को आसान करता है और आखिर सीढ़ी दर सीढ़ी वह सत्ता की कुर्सी पर पहुँच ही जाता है। इन ऐतिहासिक पात्रों के माध्मय से नाटककार प्रतीकात्मक रूप से उत्तर सती की बदलती सामाजिक एवं राजनीतिक स्थितियों को चित्रित करते हुए उन वास्तविक चरित्रों पर व्यंग्य करते हैं जो सत्ता को पाने के लिए इस प्रकार की अनैतिक, अन्यायिक, अत्याचारी, व्यभिचारी सीढ़ियों के माध्यम से सत्ता तक पहुँचते हैं।
1990 के बाद के लिखे कुछ अन्य नाटकों की चर्चा यदि इस दौर के समाज व संवेदनाआंे को समझने के दृष्टिकोण से की जाये तो देवराज पथिक का नाटक ‘आधी रात का फैसला’ तथा ‘और सनातन सत्य’ को भी देखा जा सकता है। संक्रमण के दौर को यथार्थ धरातल पर अंकित करने वाले ये नाटक सांस्कृतिक संस्कार एवं साहित्य के माध्यम से व्यवस्था तंत्र की मनमर्जी व अनैतिकताओं का प्रतिरोध करते हैं। सामाजिक विदरुपताओं के विकृत तहखानों को देखने का एक झरोखा हैं ये नाटक। समाज पर पडे़ पाश्चात्य प्रभाव को उद्घाटित करने वाले ये नाटक अनेक समस्याओं को प्रस्तुत करते हैं।
नन्दकिशोर आचार्य का नाटक ‘किमिदम यक्षम’ भयंकर मनौवैज्ञानिक गुत्थियों को स्पष्ट करने वाला सरल कथ्य में लिखा हुआ मानवीय संबंधों की बारीक बुनावट को व्यंजित करता है। बदलती हुई सामाजिक संवेदनाओं में अभिशप्त स्थितियां व्यक्ति को पूरी तरह से तोड़ देती हैं। भौतिक और आधुनिक जीवन के द्वंद्व में फंसा हुआ मूर्तिकार का चरित्र अव्यवस्थित सा व्यंजित होता है जो अपनी ही पुत्री से बलात्कार करने के कारण ग्लानीवश आत्महत्या के लिए तैयार हो जाता है। अस्मिता, संघर्ष, व्यक्तिगत आकांक्षा, अपने को पाने की लड़ाई, व्यक्तित्व प्रतिष्ठा की चुनौती इसी तरह के प्रश्नों से प्रारंभ होती है। पिता द्वारा बलात्कार की शिकार पुत्री का एक पुत्र को जन्म देना और पुत्र के समझदार होेने पर पिता का नाम जानने की इच्छा के सामने उसकी मां का अनुत्तरित होना, इस तरह के अनेक आधुनिक अनुत्तरित प्रश्नों को खड़ा करता है नाटक किमिदम यक्षम। अनुत्तरित होने पर घर त्याने की समस्या जब खड़ी होती है तो उत्तर सती में बदलते रिश्तों, संबंधों, भावनाओं, संवदेनाओं पर एक प्रश्न जाल खड़ा हो जाता है। इस मनौवैज्ञानिक गुत्थी से तनाव व त्रासदी के इस बढ़ते माहौल में अतीत की गुत्थियों को सुलझाकर अस्मिता की खोज में नाटककार समकालीन युवा मानव व अनेक चरित्रों को प्रतीक रूप में प्रस्तुत करता है।
‘गुलाम बादशाह’ और ‘हस्तिनापुर’ नाटक राजनीतिक सत्ता षडयंत्रों के अंतरसंबधों को सामने लाने के लिए ऐतिहासिक चरित्रों के माध्यम से अनेक तत्कालीन चरित्रों को व्यंजित करते हैं। छल, प्रपंच, षडयंत्र, दुरभिसन्धि से हासिल की गई सत्ता सिर्फ इतिहास के पन्नों में ही दर्ज नहीं है बल्कि उत्तर सती का दौर व वर्तमान की परिस्थितियां भी कुछ इसी तरह से घट रही हैं, इसकी भी पुनरावृत्ति प्रत्यक्ष में दिखाई देने वाले अनेक चेहरे करते हैं जिन्हें नाटककार व्यंजित करता है। अपनी सत्ता को बनाये रखने के लिए अमानुषिक प्रवृत्तियां, जुल्म, अन्याय, अत्याचार और व्यभिचार आज हर सत्ता के द्वार किया जाता है। आत्मीय जटिल अंतरसंबंधों के द्वंद्व को प्रस्तुत करने वाले ये नाटक राजनीतिक एवं सामाजिक रूप से अनेक संघर्षों को व्यंजित करते हैं। इतिहास पुनः-पुनः दौहराये जाने की स्थिति भी इन नाटकों के अवलोकन से परिलक्षित होती है। इस दौर के इन चुनिंदा नाटकों के माध्यम से उत्तर शती की बदलती संवेदनाएं एवं सामाजिक रूप से उसके स्वरूप का एक बड़े फलक पर चित्र उभरता हुआ दिखाई देता है।
रंगमंचीय दृष्टिकोण से 1990 के पश्चात के दौर के नाटकों का बहुत महत्त्व है। अनेक जगह पर कथ्य के माध्मय से जब नाटक अप्रभावी रहा है तो दृश्य के माध्मय से उसने नई चेतना व उम्मीद को साकार किया है। नये शिल्प, प्रयोग, भाषा, संवाद व चरित्रों के माध्यम से समसामयिक समय के द्वंद्व को प्रतीक व व्यंजना के द्वारा प्रकट करने वाले ये नाटक अपने समय के समाज व राजनीतिक परिदृश्य को ही उद्घाटित व व्यंजित नहीं करते हैं अपितु भविष्य की स्थितियों पर भी इसकी संज्ञात्मक दृष्टि डालते हैं।
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