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Saturday, April 28, 2018

World Theater Day - Theater is a Life : विश्व रंगमंच दिवस - जिंदगी जीने का एक सलीका है रंगमंच


विश्व रंगमंच दिवस यानी रंगकर्मियों के लिए एक ऐसा त्यौहार जिसे वे कला के अनेक रंगों के साथ मनाते हैं। पूरी दुनिया में रंगमंच से जुडे़ सभी लोग इसे प्रस्तुतियों के माध्यम से या रंगमंच पर चर्चा-परिचर्चा के माध्यम से मनाते हैं। विश्व रंगमंच दिवस की स्थापना फ्रांस में, 27 मार्च 1961 में नेशनल थियेट्रिकल इंस्टीट्यूट द्वारा की गई थी। तब से यह प्रति वर्ष 27 मार्च को विश्वभर के रंगकर्मियों द्वारा मनाया जाता है। रंगमंच से संबंधित अनेक संस्थाओं और समूहों द्वारा भी इस दिन को विशेष दिवस के रूप में आयोजित किया जाता है। इस दिवस का एक महत्त्वपूर्ण आयोजन अंतरराष्ट्रीय रंगमंच संदेश होता है। इस संदेश को विश्व के किसी जाने माने रंगकर्मी द्वारा दिया जाता है। इस संदेश में रंगमंच, नाटक तथा उसके द्वारा शांति, संस्कृति तथा कला की समृद्धि के संबंधित विचारों को व्यक्त किया जाता है। पहला अंतरराष्ट्रीय रंगमंच संदेश 1962 में फ्रांस की प्रसिद्ध रंगकर्मी जीन काक्टे ने दिया था। वर्ष 2002 में यह संदेश भारत के प्रसिद्ध रंगकर्मी/नाटककार गिरीश कर्नाड द्वारा दिया गया।
नाट्य कला एक ऐसी अद्भुत कला है जिसमें जीवन के लगभग सभी पक्ष निहित है। नाट्यशास्त्र के प्रणेता आचार्य भरतमुनि ने भी इस बात का हवाला देते हुए कहा है कि-
‘न तज्ज्ञानं न तच्छिल्पं न सा विद्या न सा कला।
ना सौ योगो न तत्कर्म नाट्येऽस्मिन् यन्न दृश्यते।।
अर्थात् कोई ज्ञान, कोई शिल्प, कोई विद्या, कोई कला, कोई योग तथा कोई कर्म ऐसा नहीं है, जो नाट्य में न दिखाई देता हो।‘ नाटक कला व जीवन के इन सभी विषयों को अपना विषय बनाता रहा है।
माना जाता है कि नाट्यकला का विकास सर्वप्रथम भारत में ही हुआ। ऋग्वेद के कतिपय सूत्रों में यम और यमी, पुरुरवा और उर्वशी आदि के कुछ संवाद हैं। इन संवादों में लोग नाटक के विकास का सूत्र पाते हैं। संभवतः इन्हीं संवादों से प्रेरणा पाकर लोगों ने नाटक की रचना की होगी और इसी से नाट्यकला का विकास हुआ हो। यथासमय भरतमुनि ने उसे नाट्यशास्त्र के रूप में शास्त्रीय रूप दिया। भरत मुनि ने अपने नाट्यशास्त्र में नाटकों के विकास की प्रक्रिया व्यक्त करते हुए बताया कि-सतयुग बीत जाने पर त्रेतायुग के आरंभ में देवताओं ने ब्रह्मा से मनोरंजन का कोई ऐसा साधन उत्पन्न करने की प्रार्थना की, जिससे देवता अपना दुख भूल सकें और आनंद प्राप्त कर सकें। फलतः उन्होंने ऋग्वेद से कथोपकथन, सामवेद से गायन, यजुर्वेद से अभिनय और अथर्ववेद से रस लेकर नाटक का निर्माण किया और रंगमंच निर्माण का दायित्व निभाया विश्वकर्मा ने।
भरतमुनि द्वारा प्रणीत नाट्यशास्त्र को पंचम वेद की संज्ञा से भी विभूषित किया गया है। जिस प्रकार जीवन जीने के तमाम व्यवहारों को चारों वेदों में रेखांकित किया गया है ठीक उसी प्रकार जीवन के तमाम पक्षों का विस्तृत वर्णन नाट्यशास्त्र में किया गया है। नाटक/रंगमंच एक व्यापक कला है। नाटक अनेक कलाओं का कंुभ भी कहा जाता है। जीवन का प्रत्येक क्षेत्र और अनेक कलाओं का कुंभ नाटक की बहुआयामिता को दर्शाता है। भरतमुनि ने हर कार्य एवं कला नाटक में समाहित होने के निर्देश दिये हैं।
जीवन के रंगमंच पर नाटक/रंगमंच की विधाओं का सीधा नाता है। वे आईने के रूप में समाज की अभिव्यक्तियों को व्यक्त करती हैं। सभ्यता के विकास के साथ साथ रंगमंच की मूल विधाओ में परिवर्तन होता गया। आधुनिक परिदृश्य में लोकरंगमंच व लोक कलाओं की वास्तविकता से दूर इन दिनों आधुनिक माध्यमों यथा टेलीविज़न, सिनेमा और वेबमंच ने सांस्कृतिक गिरावट व व्यसायिकता को कला का मूल सूत्र बना दिया है। समाज एवं मानवता की सेवा में रंगमंच की असीम क्षमता प्रतिबिंबित है। रंगमंच शान्ति और सामंजस्य की स्थापना में एक ताकतवर औज़ार है। यह स्वतः स्फूर्त, मानवीय, कम खर्चीला और अधिक सशक्त विकल्प है व समाज का वह आईना है जिसमें सच कहने का साहस है। वह मनोरंजन के साथ शिक्षा भी देता है। लेकिन साथ ही साथ यह भी कहना पड़ेगा कि नाटक एवं रंगमंच के प्रति लोगों की जबरदस्त संकीर्णता भी है। यह एक बड़ा सोच का और शोध का विषय है। इसके पीछे वास्तविक कारण क्या है? पूर्व की तुलना में हर जगह पर रंगमंच की गतिविधियों में कमी भी आई है तथा बदलाव भी हुए हैं। रंगमंचीय गतिविधियों में कमी आना एवं बदलाव होना दोनों ही स्थितियों में रंगमंच पर सवाल खड़े होते हैं। इन सवालों के जवाब तभी संभव है जब रंगमंच से जुड़ी हुई गतिविधियां निरंतर, सक्रिय एवं हर जगह, हर संभव होती रहें।
भारत में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के नाटकों व मंडली से देश प्रेम तथा नवजागरण की चेतना ने तत्कालीन समाज में उद्भूत क्रांति की थी। उसके बाद कैफी आजमी, सफदर हाशमी, इब्राहिम अल्काजी, बी वी कारंत, हबीब तनवीर, सत्यदेव दुबे, जोहरा सहगल आदि रंगमनीषियों ने रंगमंच/नाटक में विशेष योगदान रहा है।
दरअसल, रंगमंच को जीने वाले, इसे ज़िंदगी जीने का सलीक़ा कहते हैं। रंगमंच के पथ पर चलकर जीवन को जानने, समझने और जीने का हुनर आता है। थिएटर से जुड़ा शख्स अपने जीवन को बहुकोणीय स्तर पर प्रस्तुत तो करता ही है साथ ही वह समाज के समक्ष भी बहुआयामिता प्रस्तुत करता है। लेकिन दिक्कत यही है कि रंगमंच एक ऐसी विधा है जो सामाजिकता तथा सामूहिकता की मांग करती है। जबकि इस चकाचौंध भरी तथाकथित आधुनिक दुनिया के अंदर जीवन सामाजिकता और सामूहिकता की बजाये एकाकीपन की ओर बढ़ता हुआ अधिक दिखाई दे रहा है। जिसके कारण व्यक्ति कला, संबंध, प्रेम, समाज, परिवार यहां तक कि सम्वेदनाओं से कटता हुआ, दूर होता हुआ दिखाई दे रहा है। जबकि रंगमंच या अन्य दूसरी कलाएं इन्हीं सभी तथ्यों को जोड़ने का, एकीकरण करने का, इनका पल्लवन करने का कार्य करती हैं। रंगमंच को संकीर्ण या भोंडी कला मान करके नहीं बल्कि इसे एक स्नेह संचरित सामूहिक उपकर्म के विस्तृत फलक पर देखने की जरूरत है।
अलवर में रंगमंच की बहुत संभावना है। यहां 1980-90 के दौर में अनेक उत्साही रंगकर्मी रहे। जिन्होंने अपने अथक प्रयास से अलवर रंगकर्म को जीवित रखा। आज भी अनेक रंगकर्मी इस विधा में सक्रिय हैं, लेकिन पूर्व की तुलना में उनकी संख्या कम है। अनेक वर्षों से राजश्री अभय समाज रंगमंच पर होने वाले नाटक महाराजा भर्तृहरी की प्रस्तुति भी अपने आप में अलवर रंगकर्म के लिए गौरव है। समय-समय पर अनेक संस्थाएं यहां नाटक करती रही हैं एवं आज भी कर रही हैं। जैसे-इप्टा, नाद, परिचय कला संस्थान, भरत कला संगम, संस्कार भारती, कौस्तुभ कलामंच, अक्षय नाट्य संस्थान, परशुराम कला संस्थान, अरावली आर्टिस्ट अकादमी, शिवरंजनी थियेटर ग्रुप, पलाश, आदि, कारवां फाउण्डेशन, रंग संस्कार थियेटर गु्रप, रंगसंभव थियेटर गु्रप, स्नेह कला मंच आदि। अवलर में चार-पांच प्रेक्षाग्रह भी हैं। इनमें से प्रताप ओडिटोरियम एवं महावर ओडिटोरियम तो नाटक के लिए उचित भी हैं। (हालांकि इनमें में तकनीकि रूप से या अन्य दृष्टिकोण से कुछ कमियां हैं। लेकिन तुलनात्मक रूप से दूसरों से बेहतर हैं।) जबकि दूसरे ओडिटोरियम में इको, विंग्स या अन्य परेशानियां आती हैं। उन्हें भी ठीक किया जा सकता है। अलवर का दर्शक भी नाटक के लिए समर्पित है। बस कुछ कार्य होने चाहिएं, जिससे कि अलवर रंगमंच की स्थिति बेहतर हो सके। जैसे-ओडिटोरियम का शुल्क कम हो। विशेष रूप से प्रताप ओडिटोरियम का, यह प्रेक्षाग्रह सरकारी है। इसे कला, साहित्य की प्रस्तुतियों के लिए ही निर्मित किया गया है। अतः रंगकर्मियों को 1000 रूप्ये प्रति दिन के हिसाब से यह मिलना चाहिए। अलवर में मत्स्य विश्वविद्यालय है। वहां पर नाटक/रंगमंच पर अध्ययन एवं शोध होना चाहिए। विद्यालय एवं महाविद्यालय में नाटक/रंगमंच पर हर महा गोष्ठी, कार्यशाला एवं प्रस्तुतियां आयोजित की जानी चाहिएं। ऐसा करने से यहां एक रैपट्री की स्थापना हो सकती है और रंगकर्मियों को नाटक करने के साथ साथ काम भी मिल सकता है। नाटक/रंगमंच के क्षेत्र में नये लोगों का न आना या कम आना भी इन सब स्थितियों के सुधार के साथ सुधर सकता है। विकास के पैमाने ने पैसे की भागदौड़ के पीछे प्रसिद्धि की पगडंडी पर चलने वाले को बड़ा व्यक्ति जब से साबित किया है। तबसे रंगमंच एवं इसी तरह की कलात्मक गतिविधियों के आम रास्ते सकड़े हो गए हैं या फिर बंद हो गए हैं। निश्चित रूप से इन रंगमंच की गतिविधियों के रास्तों पर जब कोई नहीं चलेगा तो उनकी जगह खरपतवार उगेगी और इस चमक चमक भरी दुनिया में आप सामने दो-चार रंगीन, खुशबूदार पौधे लगाकर उस खरपतवार को छुपा सकते हैं। क्योंकि आजकल हर कोई देखना भी चमक दमक ही चाहता है। खुरदरापन और खांटीपन किसी को पसंद नहीं हैं। जबकि रंगमंच चमकदार नहीं खुरदरापन और खांटीपन लिए हुए होता है। क्यांेकि वह तो एक तरह से प्रतिरोध का स्वर है। अन्याय, अत्याचार के विरूद्ध उठने वाली वह मशाल है जो तम के खिलाफ खड़ी होती है। रंगकर्मियों का काम इसे जलाए रखना है।


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