BREAKING NEWS

Contact

Monday, April 30, 2018

Dalit literature and socialist ideology : दलित साहित्य और समाजवादी विचारधारा


कला कला के लिए से कला समाज के लिए की ओर जैसे जैसे उन्मुख होती है तो प्रत्येक कला या विचार की परिणति हमें समाजोन्मुखी ही लगती है व होती है। फिर चाहे वह मार्क्सवादी, गांधीवादी, अंबेडकरवादी, समाजवादी या कोई अन्य साहित्य कला एवं संस्कृति एवं विचारों में पनपने वाली विचारधारा हो। ये सब विचार या विचारधाराएं एक होते हुए भी (एक से तात्पर्य है इन सब का उद्देश्य समाज व मनुष्य की बेहतरी है। इस लिहाज से ये एक हैं।) इनके अन्तर्गत एक भिन्नता या विरोध परिलक्षित होता है। और उसका एक कारण यह हो सकता है कि एक विचार या विचारधारा ने दूसरी विचारधारा से कुछ ना कुछ जरूर ग्रहण किया है। या दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि प्रत्येक विचारधारा दूसरी विचारधारा पर अपना प्रभाव जरूर छोड़ती है या छोड़ा है। या यह भी कहा जा सकता है कि जिस भी विचारधारा से या उसके आदर्शात्मक विचारों से जब कोई प्रभावित होता है और बाद में उसकी आन्तरिक व बाह्य संरचनात्मक खोल को जानकर उसके मध्य अपने विवेक से जो कुछ उसे बेहतर लगता है वह जोड़ता जाता है। अतः इस प्रकार कहा जा सकता है कि विचारधाराओं की यह श्रृंखला कहीं ना कहीं संबध है। किन्तु हम यहां बात कर रहे हैं समाजवादी विचारधारा और दलित साहित्य की। समाजवादी विचारधारा यानी राम मनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण, नरेन्द्र देव आदि द्वारा सामाजिक संदर्भों में समाजोन्मुखी विचारों का प्रचार प्रसार करना तथा दलित साहित्य यानी डॉ. भीमराव अंबेडकर के विचारों का साहित्यिक रूपान्तरण।
दलित विमर्श मूलतः वर्ण व्यवस्था के द्वारा जारी प्रत्यक्ष या परोक्ष दंभ के बरक्स प्रतिरोध या प्रतिकार का साहित्य है। प्रतिरोध का आशय है कि उस यथा स्थितिवादी व्यवस्था को आदर्श रूप में स्वीकार न करना जो सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक स्तर पर भेदभाव करती हो। प्रतिकार का आशय है सदियों से सामाजिक अपमान और उत्पीड़न को अपनी नियति मानने से इनकार करना। अतः दलित विमर्श जातिवादी व्यवस्था के दंश में उपजा प्रश्न है, जो साहित्य के स्तर पर अंधश्रद्धा, ग्रंथ, प्रामाणिकता, आत्मा, ईश्वर और उस पर आधारित नैतिकता और धर्मश्रद्धा को अस्वीकार करता है।
दलित से संबंधित अनेक विचारों पर विमर्श होते रहे हैं। परिणाम स्वरूप दलित साहित्य ने अपनी एक अलग पहचान स्थापित की है। दलित से संबंधित जुड़े हुए किसी भी पक्ष पर चर्चा, संगोष्ठी, परिसंवाद, लेखन, सृजन, कार्यशाला करना एक तरह से दलित विमर्श करना है। दलित समाज से जुड़े मुद्दों को लेकर बात करना या उन पर बहस करना दलित विमर्श ही है। डॉ. अंबेडकर, फुले, बुद्ध की वैचारिकी को ग्रहण कर, उससे प्रेरित हो कर साहित्य रचना, विचार विमर्श करना दलित विचारधारा को प्रोत्साहित करना है। क्योेंकि अंबेडकर की वैचारिक पृष्ठभूमि का साहित्यिक रूप यदि दलित साहित्य, दलित विमर्श या दलित विचारधारा को कहा जाये तो असंगत न होगा। दलित साहित्य को लेकर विमर्श करने वाले लेखकों, विद्वानों ने इस साहित्य का महत्व निंरतर प्रतिपादित किया है। उनके विचारों एवं अवधारणाओं से दलित विमर्श का स्वरूप एवं उसकी पृष्ठभूमि बनी है। दलित शब्द की व्युत्पति से लेकर, विचार, आंदोलन, साहित्य आदि को दलितों के साथ जोड़कर इन पर गहन विचार विमर्श कर दलित विमर्श को अनेक अर्थों में परिभाषित किया गया है। इनमें कुछ विद्वान दलित को सीमित रूप में ग्रहण करते हैं तो कुछ विस्तृत अर्थ में लेते हैं। परंतु जिसने दलित जीवन की यातनाएं भोगी हैं, असल में वही दलित की परिभाषा में समाविष्ट किया जा सकता है। हां परिभाषा तो दलित की कोई भी लिख सकता है, लेकिन यह जरूरी नहीं कि दलित या दलित साहित्य, या दलित विचारधारा की परिभाषा लिखने वाला दलित हो। जिस प्रकार से दलित या दलित साहित्य की परिभाषा कोई भी लिख सकता है, उसी प्रकार से दलित साहित्य भी कोई भी लिख सकता है। लेकिन दलितों की वास्तविक वेदना, उनका संताप, शोषण, अत्याचार, अन्याय, अपमान, हीन भावना, अश्पृश्यता आदि को गैर दलित या जिसने भोगा नहीं है वह सिर्फ कल्पनाओं के घोड़े पर अनुमान से यह सब लिखेगा, जबकि जिसने यह सब सहन व वहन किया है वह अपने जीवन के सच्चे, ठोस, अनुभवी विचारों को यथार्थ के धरातल पर प्रस्तुत करेगा। उसमें अनुमान का नहीं अनुभव का रंग होगा। सहानुभूति का नहीं स्वानुभूति का एहसास होगा। कल्पना का अतिरेक नहीं यथार्थ का प्रस्तुतिकरण होगा। अतः इस तरह के लिखे साहित्य पर एक गहन विमर्श की आवश्यकता की दरकार होती है और जब वह विमर्श होता है तो दलित साहित्य की एक वैचारिकी या दलित विचारधारा का चित्र दिखाई देने लगता है। अतः यह भी कहा जा सकता है कि विमर्श मात्र जाति गत दलितों पर लिखना, उनके द्वारा लिखना या उन्हीं पर उन्हीं लोगांे द्वारा चर्चा करना नहीं है अपितु जो समाज में पिछड़ा, दबा, कुचला, शोषित, प्रताड़ित, अपमानित है उसकी बात को तरजीह देना, उसके मुद्दों को किसी भी व्यक्ति, संस्था, संगठन, समाज द्वारा उठाना एवं उनके हक तथा मौलिक अधिकारों के पक्ष में अपने विचारों को व्यक्त करते हुए पक्ष-प्रतिपक्ष दोनों पहलूओं को देखना तथा उन पर बात-चीत करना दलित विमर्श है। इस तरह के कार्य, बहस या रूपरेखा को विमर्श या दलित विमर्श की श्रेणी में रखा जा सकता है।
जयप्रकाश कर्दम कहते हैं-‘‘दलित साहित्य दलित आंदोलन का एक हिस्सा है यह शोषण और उत्पीड़न के विरुद्ध एक हथियार है। दलित साहित्य का मूल उद्देश्य दलित समाज में जातीय स्वाभिमान और आत्मगौरव की भावना पैदा करना, उसको उसकी क्षमता और संभावनाओं से परिचित कराना तथा आगे बढ़ने और प्रगति करने के लिए प्रेरित करना और उसका मार्गदर्शन करना है।’’1 दलित विमर्श के केन्द्र में दलित एवं दलित से जुडे़ पक्ष हैं। दलित की अभिव्यक्ति का मुखर होना दलित विमर्श का केन्द्रीय पक्ष कहा जा सकता है।
बाबा साहेब अम्बेडकर, दलित समुदाय की सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक एवं राजनैतिक विकलता को संबल देने के लिए दिल से ही नहीं दिमाग से भी लड़ने के पक्षधर थे। वे जानते थे दिल के मामले में तो दलित ही नहीं प्रत्येक भारतीय अधिक भावुक व संवेदित होता है और वह इस स्तर पर हार जाता है। इसलिए दिमाग को मजबूत करना है। क्योंकि जो दलित समुदाय के दुश्मन हैं, वे दिमाग वाले ही हैं। उनके द्वारा उद्घोषित सामाजिक क्रांति, जितनी भौतिक और संघर्षमय थी, उतनी ही वैचारिक भी थी। शिक्षा, समता, बंधुता, स्वतंत्रता से दलितों की भावना को आंदोलित करने का श्रेय उन्हीं को जाता है। उन्हीं के प्रयास का फल है, जो आज दलित धीरे-धीरे ही सही, जीवन के अंधेरे को पार कर, अब प्रकाश की ओर बढ़ रहे हैं। दलित चेतना को बढ़ावा मिल रहा है। दलित चेत रहा है। आगे बढ़ रहा है। विकास कर रहा है। बाबा साहेब का कार्य और जीवन-संघर्ष का आलेख इतना ऊँचा है कि जिससे प्रेरणा पाकर हर कोई चेतनावान हो जाता है।
प्रतिबंधों, अवरोधों, निषेधों के बीच जीने को अभ्यस्त, दलित लेखक की विधा चाहे जिस रूप में सामने आई हो, पर वह भारतीय समाज व्यवस्था के परिवर्तन का द्योतक है और सवर्ण समाज पर जारी श्वेत पत्र है। यह उस मानसिकता पर एक गंभीर चोट है जो सदियों से जड़ बनी हुई है। यह विडम्वना है कि, जो वैदिक काल में ऋग्वेद के पुरुष सूक्त से, वर्ण व्यवस्था चली वह आज भी जारी है। जाति-विशेष में जन्मे लोग पूजा-स्थलों पर कुंडली मारकर बैठे हुए हैं। ब्राह्मणवादी मानसिकता दिखाने के लिए कागज में तो कम हुई है लेकिन व्यवहार में या जीवन में उसका अभाव हो गया है ऐसा कहना अभी संभव व आसान नहीं लगता। उसका कारण है इस मानसिकता की सत्ता का बहुत मजबूत तरीके से भारतीय संरचना में जड़ जमाना। इस मानसिकता की जाति और परिवार का आरक्षण आज भी बना हुआ है। जिसके मिटने का आसार निकट भविष्य में तो नहीं ही दिखाई देता है। मंदिरों से मिलने वाली करोड़ों की आय और उस पर इनका एकछत्र आधिपत्य। जनता का पागलों की तरह इन्हें विशिष्ट मानना, चरण छूना, इनके बताये मार्गों पर गमन करना, शुभ-अशुभ के चक्र में फंसे रहना, आज भी चिंतित करता है। आज भी इन मंदिरों में, वाल्मीकी परिवारों का निषेध है। सामाजिक न्याय और अधिकारों से वंचित यह दलित समुदाय देश की स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी, हिन्दू धर्म की विभेदकारी वर्ण व्यवस्था एवं जातिवादी मक्कारियों के कारण सिर पर मैला ढोने के लिये मजबूर है। डॉ. भीमराव अम्बेडकर के प्रयास और संघर्ष से इस व्यवस्था में कमी तो आई, लेकिन पूरी तरह आज भी समाप्त हो गई ऐसा नहीं कहा जा सकता। आज के दलित विमर्श के सामने यही बड़ा प्रश्न है। इस विसंगति को कैसे चुनौति दी जाये और इसे कैसे समाप्त किया जाये, यह अपने आप में एक बड़ी चुनौति व बड़ा विमर्श है।
समाजवाद व समाजवादियों की विचारधारा को व्याख्यायित करते हुए गिरिराज किशोर कहते हैं-‘‘समाजवादियों की मान्यता है-सबको नौकरियां मिले, बराबरी हो, संसाधनों पर जनता का आधिपत्य हो न कि पूंजीवादियों का। लोहिया जी दलितों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं के लिए विशेष अवसर के समर्थक थे। उनका मानना था कि समाज में इनको बराबर की भागीदारी देने के लिए विशेष अवसर मिलना चाहिए। उनका मानना था कि जाति को हटाने के लिए वर्ग संघर्ष से असमानताओं को हटाना होगा। जब असमानता हट जाएगी तो जाति प्रथा निष्क्रिय होकर अपने आप हट जाएगी। इसे प्राप्त करने के लिए जनता की सक्रिय भागीदारी और नीतियों में बदलाव के वे पक्षधर थे।’’2
समाजवादी विचारधारा किसी एक धर्म, जाति, वर्ग या वर्ण की समर्थक नहीं है बल्कि वह तो मनुष्य के हित के लिए समाज में सभी समान हों इसकी पक्षधर है। समाजवादी विचारधारा जिस बराबरी, असमानता, दलित, पिछड़े, अल्पसंख्यक, स्त्री की बात करती है अंबेडकरवादी विचारधारा भी उसी बात को अपने तरीके से उठाती है। अंबेडकर भी जाति, वर्ग, वर्ण, धर्म के आधार पर बंटे समाज को समाप्त कर मानवीय स्तर पर सभी में समानता व बराबरी पर जोर देते हैं। वे जाति को नष्ट करना चाहते हैं। जाति व धर्म के कारण एक मनुष्य का दूसरे मनुष्य से जो अमानवीय व्यवहार है उसे वे धर्म की अवधारण में तलासते हैं। इसलिए हिन्दू धर्म की जो मान्यताएं हैं, जिनके कारण जाति व वर्ग, वर्ग की श्रृंखलाएं बनी हुुईं हैं उन्हें वे तोड़ना चाहते हैं। अंबेडकर के इन्हीं विचारों से ओतप्रोत होकर दलित साहित्य समाज की इस भेदभाव नीति पर चोट करता है और अंबेडकर विचार से दलित साहित्य एक साहित्यिक आंदोलन के रूप में प्रस्फूटित होता है। ईश गंगानिया दलित साहित्य की चिंता को एक बडे विषय के रूप में देखते हैं और उसे मात्र कुछ लोगों तक सीमित नहीं रखना चाहते हैं। इसलिए वे कहते हैं कि-‘‘जातिगत क्रूरता को देखते हुए, अनिवार्य हो जाता है कि दलित साहित्य की प्राथमिकता जाति उन्मूलन की होनी चाहिए, फिर इसका विकास स्त्री, पिछडे़ व अल्पसंख्यक तक होते होते सवर्णवादी अवधारणा को क्षीण कर देगा और समाज ‘पूरा का पूरा’ इसकी विषयवस्तु बन जाएगा।’’3 समाज में जातियों के वर्गीकरण के कारण ही मनुष्य में जाति गत भेदभाव उत्पन्न हुआ। प्रत्येक जाति अपने को श्रेष्ठ बताना चाहती है। अतः अपने को बड़ा या श्रेष्ठ बताने के दो तरीके हैं-या तो अपनी लाईन को दूसरे की लाईन से बड़ा कर दो या दूसरे की लाइन मिटा दो। इस प्रकार हर जाति अपने को दूसरे से बड़ी बता रही है और दूसरे को छोटी। यह जातिगत भेदभाव एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य के बीच फासला पैदा कर रहा है। अंबेडकर इसी फासले को मिटाने के लिए इस जातिवादी संरचना को तोड़ना चाहते थे। दलित साहित्य की चिंता का विषय वही है जो समाजवादियों का है। 
जो चेतना व विद्रोह का बिगुल समाज में व्याप्त गैर बराबरी का समाजवादी बजाते हैं उसी बात को दलित साहित्य अपने तरीके से कहता है। यहां यह कहना कतई असंगत न होगा कि समाजवादी विचारधारा व दलित साहित्य दोनों का मुख्य उद्देश्य लगभग एक ही है। या यह भी कहा जा सकता है कि समाजवाद का बहुत कुछ प्र्रभाव दलित साहित्य पर पड़ा है। परन्तु कुछ मामलों में भिन्न थे जिसकी वजह से दलित साहित्य समाजवाद से कुछ भिन्नता भी रखता है। गिरिराज किशोर कहते हैं-‘‘अंबेडकर और लोहिया की विचारधारा में मूल अंतर यह था कि अंबेडकर कुछ हद तक मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित थे, लेकिन उन पर महात्मा बुद्ध का भी काफी प्रभाव पड़ा। महात्मा बुद्ध की खास शिक्षाओं का सार रहा है-समानता, स्वतंत्रता, दया और अंहिसा। अंबेडकर के समाजवाद का आधारस्तंभ है समानता, स्वतंत्रता और भाई चारा और संविधान में भी निहित है।’’4 हालांकि यह विचारों की भिन्नता बहुत ही सूक्ष्म दिखाई देती है। किन्तु दलित साहित्य के विकसित रूप में जो पृष्ठभूमि या विषयवस्तु अपनाई गई है वह पूर्ण रूप से अंबेडकरवादी विचारधारा व समाजवादी विचारधारा की ही दिखाई देती है। पूरा दलित साहित्य स्त्री की मुक्ति की बात करता है-फिर चाहे वह स्त्री देवदासी हो, जोगिनी हो, सवर्ण हो, आदिवासी हो, दलित हो या अन्य हो। समाजवादी विचारधारा भी इस तरह के विचार को रेखांकित करती है और साथ ही पितृसत्ता व पूंजीसत्ता को भी नकारती है।
समाजवादी व दलित साहित्यकार दोनों की स्थिति यह रही है कि ये दोनो ही पूर्ण रूप से राजनीति में या साहित्य मंे एक पक्षीय रूप से नहीं आये। जिसके कारण इनके विचारों को वो महत्व नहीं मिल सका जो मिलना चाहिए। समाजवाद की एवं दलित साहित्य की समानता एवं इनके कार्यों को गिरिराज किशोर जी इस प्रकार बताते हैं-‘‘लोहिया ने समाज के वंचित विशाल बहुमत को नवजीवन और आत्मविश्वास दिलाने के लिए विशेष अवसर के सिद्धांत का प्रतिपादन किया था। महिलाओं, दलितों, शूद्रों, अनुसूचित जनजातियों और अल्पसंख्यकों की वंचित जमातों को वह साठ प्रतिशत हिस्सेदारी एक दार्शनिक आधार पर दिलाना चााहते थे। यह सिर्फ आर्थिक और सामाजिक तर्कों पर आधारित नहीं था। उनकी यह मान्यता थी कि एक स्वस्थ समाज में सम्पूर्ण क्षमता की बजाय अधिकतम क्षमता का होना बेहतर है। हमारे समाज में शूद्रों, महिलाओं, दलितों समेत सभी वंचित और उपेक्षित जमातों के सशक्तीकरण से ही अधिकतम क्षमता वाला समाज बनेगा।’’5 यह एक मूल भिन्नता समाजवादी व दलित साहित्य की वैचारिकी में दिखाई देती है। डॉ. अंबेडकर पूरा बदलाव चाहते थे, लोहिया अधिकतम बदलाव चाहते थे। हालांकि अधिकतम बदलाव की अवधारणा भी पूर्ण बदलाव की ओर ही जाती है। यही दृष्टि दलित साहित्य में दिखाई देती है। जिस अधिकतम क्षमता व सशक्तीकरण की बात समाजवाद में होती है उसी को आज दलित साहित्यकार दलित साहित्य में रच बस रहा है। जयप्रकाश कर्दम (छप्पर, गूंगा नहीं था मैं, करुणा), मोहनदास नैमिशराय (क्या मुझे खरिदेंगे, सफदर एक बयान, आवाजें), ओमप्रकाश वाल्मीकि (सलाम, सदियों का संताप), भगवान दास मोरवाल (काला पहाड, बावल तेरे देश में), सुशीला टाकभौरे (शिकंजे का दर्द), डी.पी. वरूण, श्यौराज सिंह बेचैन, कंवल भारती आदि अनेक साहित्यकार अपनी साहित्यिक कृतियों में उस समाजवाद के सपने को साकार करने की कोशिश कर रहे हैं जिसे लोहिया, गांधी, अंबेडकर, फूले, जयप्रकाश ने कभी देखा था। अतः इन दोनों विचारों का लक्ष्य समाज में समानता, बंधुता, प्रेम, स्वतंत्रता व अमन चैन का है जिसे सभी को सहृदय से स्वीकार करना चाहिए।

Post a Comment

 
Copyright © 2014 hindi ki bindi Powered By Blogger.