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Saturday, April 28, 2018

Social justice : सामाजिक न्याय


(व्यंग्य लेख)
हम इक्कीसवी सदी में पहुँच गये हैं। यह गलत फहमी जिस जिसको है वे इस लेख को जरुर पढ़े। क्योंकि वास्तव में हम इक्कीसवी सदी में अपने आप नहीं पहुंचे हैं बल्कि धक्के देकर धकेला गया है। क्योंकि हमारे यहाँ के भारतीय लोग तो पन्द्रह से आगे की गिनती ही नहीं जानते थे, इक्कीस की तो बात ही दूर है।............पड़वा, दोयज, तीज..........और फिर बारस, तेरस और अमावश या फिर हद से हद पूनम। यह पूनम पन्द्रह ही होता था और यह पन्द्रह पूनम का ही अपभ्रंशी रूप समझो। इससे ज्यादा की गिनती तो महाजन जानते थे जो की ब्याज लगाने के काम लेते थे। क्योंकि उसके बाद तो सोलह......... और सोलवे साल का कमाल तो आप लोग जानते ही हो। फिल्मों ने इस क्षेत्र में हमारे सामन्य ज्ञान को बहुत बढाया है। मैं सिर्फ हिंदी फिल्मो की बात कर रहा हूँ, अंग्रेजी फिल्मों की नहीं। क्योंकि उन्होंने तो हमारे सामान्य ज्ञान को ही नहीं विशिष्ट ज्ञान तक को बढा दिया है। क्योंकि अंग्रेजी फ़िल्में समान्य अंगों का नही विशिष्ट अंगों का भी प्रदर्शन करती हैं और अंग्रेजो की नकल करने में ही हमारी अक्ल आधुनिक रह सकती है। मगर इन सब के बाद भी हम जैसे तैसे इक्कसवी सदी में पहुंच गए। अणु बम्ब से परमाणु बम्बों तक का परीक्षण हमने कर लिया। पृथ्वी, अग्नि और न जाने कौन कौन से प्रेक्षास्पात्रों (मिसाइल) का निर्माण कर लिया है। अनेक संधियां व समझोते कर लिए हैं। कुछ करोड़ से एक अरब इक्कीस करोड़ तक की रेस में हमने गोल्ड मैडिल हासिल कर लिया है। वैसे यह भी कोई कम काम नहीं है। इतनी महंगाई और फास्ट ज़माने में इतना समय है किसके पास। उद्योग कंपनियों व फैक्ट्रियों के बढ़ावे के लिए हमने किसानों को शहिदत्व भूषण प्रदान कर दिया है। विकासशील से विकसित की श्रेणी में आने के लिए मैट्रो के सफर से सेज व मोनसेंटो तक की यात्रा की है और समता, समानता, स्वतंत्रता, शोषण के विरुद्ध, धार्मिक, संस्कृति व शिक्षा सम्बन्धी, संवैधानिक उपचारों का अधिकार जो संविधान हमें देता है इन पर भी संसद से लेकर गलियारों तक और फेसबुक से लेकर बाजारों तक खूब मुहँ से बहस व हाथों से जूते चपल चल रहें हैं। अनुच्छेदों पर अनुच्छेदों में संशोधन किये जा रहे हैं। आम आदमी के हित के लिए, न्याय के लिए, सरकार व सरकार के नुमाइंदे व जनता, सभी तत्पर हैं। सभी लगे हुए हैं देश बचाने में तथा इन सबकी पूरी कौशिश है की ‘सामाजिक समानता’ ‘सामाजिक न्याय’ व ‘समाजवाद’ जैसे भारी भरकम शब्दों को शीघ्र से शीघ्र परिभाषित किया जाये। देश के अनेक विश्वविद्यालयों में इन पर भारी भरकम रिसर्च बहुत तेज गति से पिछले तीस चालीस वर्षों से चल रही है और उम्मीद है की बहुत जल्दी ही अर्थात अगले चालीस पचास वर्षों में परिणाम आने की संभावना है। संविधान से उठाकर इन शब्दों को यथार्थ के धरातल पर लाने की कौशिश ये लोग कर रहे हैं। मगर सबसे बड़ी परेशानी आज इनके सामने यह आ गई है कि ये लोग कबीर कों बहुत ज्यादा समझ गये हैं। कबीर ने कहा था ‘कबीर कहे पेट से क्यों न भयो तू पीठ, रीते मान बिगारियो भरे बिगारत दीठ।’ अब हुआ यह है कि इनके मस्तिष्क की जगह इनका पेट लग गया है, जो की भरने के लिए पाँच साल भी कम मानता है। जब तक ‘सामाजिक न्याय’ ‘समाजवाद’ व ‘सामाजिक समानता’ को बहला फुसला कर कुछ लोग आम लोगों के मध्य लाते हैं तब तक विपक्षी पाँच दिवसीय टेस्ट मैच को मात्र तीन चार दिन में ही पारी घोषित कर ड्रा कर देते हैं। अब आप ही सोचिये ऐसे में ‘समाजवाद’ व ‘सामाजिक न्याय’ कैसे आयेगा? और दूसरी बात ‘सामाजिक न्याय’ भी आजकल बहुत महंगा हो गया है, और हो भी क्यों ना मुद्रा स्फीति की दर देखी है आपने! धोती की लांग तक खुल जाती है महंगाई के नाम पर अच्छों अच्छों की।
कुछ गोपनीय सूत्रों के द्वारा तो यहाँ तक पता चला है की ‘सामाजिक न्याय’ तो आजकल  ‘ब्लैक’ में भी नहीं मिल रहा है। एक सज्जन तो कल कह रहे थे की यह बहुत बड़ी चीज है इसलिए बड़े लोगों को ही मिलती है और वह भी कोई जरुरी नहीं की सब बड़े लोगों को मिल ही जाये। कॉमन वेल्थ गेम, टू जी स्पेक्ट्रम, स्टाम्प, ताज कोरीडोर, बाफ़ोर्स आदि तो बहुत ही बड़े व विशिष्ट जनों द्वारा किये गये शोभनीय कार्य हैं, परन्तु आज तक इन लोगों को भी ‘सामाजिक न्याय’ ने हाथ तक नहीं दिया। फिर आम व सामान्य जन भंवरी देवी, (राजस्थान की एक महिला ‘साथिन’ जिस पर जगमोहन मूंदडा की ‘बवंडर’ फिल्म बनी) इरोम शर्मिला या बिरसा मुंडा जैसे लोगों के लिए तो ‘सामाजिक न्याय’ पाना मानो ‘अमिताब बच्चन’ को हकीकत में देखना है। वरना वह मात्र इन जैसे लोगो को टी.वी., अखबार व किताबों में ही दिखाई देता है और फिर ‘सामाजिक न्याय’ कोइ पेड़ पर बैठी चिड़िया थोड़े ही है जो सब के लिए दर्शनीय व शोभनीय है। वह तो निजी म्यूजियम का शेर है जो उचित टिकिट के द्वारा ही दिखाया जाता है। इसलिए जो टिकिट खरीदने में सक्षम हैं वो ही देख पाते हैं। फिर भी यदि कोइ दिवार फांद कर या चोरी छुपे म्यूजियम में घुस जाता है तो ‘भोलाराम के जीव’ की तरह उसे फाइलों में ही अटका दिया जाता है। और आज के नारद के पास वीणा भी नहीं है, जो वह फाइल पर वजन के रूप में रख दे, और यदि है तो उसकी कीमत इतनी कम है की उसकी पासंग में ‘सामाजिक न्याय’ क्या न्याय की फूटी कोड़ी भी नहीं आ सकती। क्योंकि दफ्तर के बाबू की बेटी आजकल वीणा नहीं टेब मांगती है।
फिर आरक्षण, वोट व लोकतंत्र का झुनझुना आपको पकड़ा तो दिया बजाओ बैठ के। अब क्यों ‘सामाजिक न्याय’ का राग अलाप रहे हो। ‘सामाजिक न्याय’ इतनी भारी भरकम चीज है जो आम लोगों से संभलेगी ही नहीं, इसलिए उसे संविधान की किताब रूपी म्यूजियम में ही रहने दीजिये- दर्शन मात्र पर्याप्त है। डॉ.अम्बेडकर ने एक बार कहा था ‘हम लोगों ने राजनीतिक लोकतंत्र को तो स्वीकार कर लिया है जिसमें हर व्यक्ति के वोट का मूल्य समान है। लेकिन सामाजिक और आर्थिक गैर बराबरी, विषमता, शोषण को समाप्त किये बगैर इस राजनीतिक लोकतंत्र को हम बहुत दिनों तक नहीं संभाल पायेंगें।’ डॉ.अम्बेडकर ने यही बात संविधान में मूल अधिकारों समता, समानता व स्वतंत्रता के सम्बन्ध में लिखी है। और अम्बेडकर व संविधान की बात को आज भी राजनीति व समाज पूर्ण रूप से मान रहे हैं। प्रत्येक व्यक्ति के वोट का मूल्य आज भी समान माना जाता है। है कोइ भेदभाव ब्राह्मण, शुद्र, पंजाबी, गुजराती, भील, ठाकुर या स्त्री के वोट में? और ‘समता’, ‘समानता’ व ‘सामाजिक न्याय’ की बात आज भी संविधान में ज्यों की त्यों है, उसमें कहाँ फर्क है। हाँ कुछ कागज काले करने वालों को जब अपच हो जाती है तो समाजवाद, सामाजिक न्याय, समानता, बंधुता, जातिवाद व धर्मवाद की समाप्ति की बात, आम व्यक्ति के साथ न्याय की बात, भ्रटाचार, बेईमानी, घोटालों आदि आदि के समर्थन व खिलाफ धरना, आंदोलन, अनशन, रैलियां, अखबार बाजी व न जाने किन किन शब्दों व विचारों की जुगाली करते रहते हैं दायें बाएं से।
सामाजिक न्याय कोई आम व नीम के पत्ते थोड़े ही है जो टहनी से तोड़े और दे दिए। माना भारतीय संविधान सबको सामाजिक न्याय देने की बात करता है, मगर देता थोड़े ही है, सिर्फ बात करता है। और उसी संविधान के नियम का पालन करते हुये हमारे श्रेष्ठ शिरोमणि राजनीतिज्ञ सामाजिक न्याय की बात हमेशा करते हैं, बल्कि थे और रहेगें। फिर सामाजिक न्याय दे भी दिया जाये तो बन्दर बाट की तरह उसे नष्ट कर दिया जायेगा। अतः सामाजिक न्याय भारतीय संविधान में सुरक्षित व संग्रहित रूप में रखा है, रखा ही रहना चाहिए, अन्यथा संविधान की शोभा में कलंक लग सकता है और इतिहास गवाह है की हमारा इतिहास श्रेष्ठ है और आज का वर्तमान ही कल का इतिहास बनेगा और इस इतिहास को भी श्रेष्ठ बनाने के लिए सामाजिक न्याय को सुरक्षित रखा जाना चाहिए। और राजनीतिज्ञांे का यह कर्तव्य बनता है की वे उसे सुरक्षित रखें, और इस पूनीत कार्य की जिम्मेवारी भी हम ही उन को चुन के सोंपते हैं, सामाजिक न्याय की सुरक्षा प्रकोष्ट का पूरा दायित्व निभाने के लिए।
किताबें मनुष्य को ज्ञान देती है। अज्ञान से ज्ञानवान बनाती हैं, और मनुष्य उस ज्ञान का उपयोग बड़े बड़े लोकरों को बिना चाबी खोलने, साल भर की ऑडिट बिना बिल बाउचर के बनाए पूरी करने में, कागजों में पुल बनवाने व सीमेंट डलवाने में, वकालत के द्वारा मृत आदमी को पुनः मरा हुआ साबित करने में, पट्रोल की गाड़ी कैरोसीन से चलाने में और भी न जाने कौन कौन से अनुशन्धानांे की खोज में कर रहा है। इसलिए यह तो कहा नहीं जा सकता की हम पढ़ नहीं रहे हैं और ज्ञान प्राप्त नहीं कर रहे हैं। ज्ञान के मामले में तो हम सबसे आगे हैं। ज्ञान के इसी बूते पर सामाजिक न्याय की उम्मीद ........? बेवकूफ हो क्या?
भारतीय वैचारिकी बहुत दिनों तक गुलाम रहने के कारण अपना आदर्श उसे ही मानती है जो गुलाम बना के रखता है या रखा है और श्रेष्ठता व महानता का प्रतीक भी वे ही लोग हैं या उन लोगों का खान-पान, रहन-सहन या दिनचर्या है। अतः इस कछुआ दौड़ में सब एक दूसरे को पीछे छोड़ना चाहते हैं और इस अंधी दौड़ प्रतियोगिता में नैतिक मूल्य, आदर्श, समता, समानता, बंधुत्व, भाईचारा, अपनत्व, निस्वार्थभाव, समाज, न्याय, समाजवाद या अन्य जो भी हैं वे सब पीछे छोड़ और तोड़ दिये गये हैं, मात्र अव्वल आने की होड़ में। जो पूँजी व सत्ताधारी वर्ग है वह अपनी पूँजी व सत्ता बरकरार रखने के लिए किसी को भी नष्ट कर सकता है। उसे मात्र अपनी सत्ता से प्यार है और वह सत्ता के लिए कोई भी हद पार कर सकता है। उसके लिए नैतिक मूल्यों जैसी ‘चीज’ मात्र संवैधानिक पुस्तकीय हर्फ है या गाल बजाने के चोचले। सत्ता की चकाचोंध में उसकी आँख चुंधिया गई है और उसे सत्ता व पूँजी के अलावा कुछ भी नहीं दिखाई देता है। सावन के अंधे को सब हरा ही दिखाई देता है। इसलिए उसके भरोसे सामाजिक न्याय कभी नहीं मिलेगा, यह तो आपको स्वयं को उठना पडेगा और लेना पड़ेगा। हाँ इस सामाजिक न्याय के चक्कर में कई लोग बहुत ज्यादा भी उठ गए, तब भी नहीं मिला। 


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