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Monday, April 30, 2018

Power versus literary (intellectual) (Referring to Sharad Joshi's play 'Ek Tha Gandha aka Aladdad Khaan'): सत्ता बनाम साहित्यकार (बुद्धिजीवि) (शरद जोशी के नाटक ‘एक था गधा उर्फ अलादाद खाँ’ के सन्दर्भ मंे)


शरद जोशी हिन्दी साहित्य में व्यंग्य लेखन में एक चिर परिचित नाम है। जिन्होंने हिन्दी व्यंग्य साहित्य को प्रतिष्ठित करने वालों में एक महत्वपूर्ण व अविस्मरणीय भूमिका का निर्वहन किया। शरद जोशी ने मुख्यतः कहानियां, निबंध, नाटक, पत्र-पत्रिकाओं में कॉलम, टी.वी धारावाहिक व फिल्में लिखीं। उनके द्वारा लिखा नाटक ‘एक था गधा उर्फ अलादाद खां’ तात्कालीन राजनीति सत्ता पर एक बहुत गहरा कटाक्ष है। नाटक सत्ता, सत्ताधारियों व समाज की अनेक विसंगतियों पर व्यंग्य करता है। यह नाटक सत्ता की पोल ही नहीं खोलता है वरन् सत्ता को मूल रूप से विचार व मार्ग बताने वाले बुद्धिजीवि वर्ग यथा-कविता, कहानी, नाटक लिखने वाले साहित्यकारों, इतिहास लिखने वाले इतिहासकारों, सरकार को दिशा निर्देश देने वाले बोद्धिक वर्गों व शिक्षितजनों की सत्ता में भूमिका पर भी पर बहुत ही सहज रूप से परन्तु बहुत ही गंभीर व चिंतनीय प्रश्न खड़ा करता है। यह प्रश्न आदिकाल से लेकर आधुनिक काल तक यूंही मूहं बाय खड़ा है।
साहित्यकार, चिंतक, शिक्षित वर्ग यानी बुद्धिजीवि वर्ग-वह वर्ग जो सम्पूर्ण समाज को एक बेहतर व सभी के लिए समान, योग्य मार्ग तलाश करता है व दिशा देता है। उस बुद्धिजीवि वर्ग पर पूरा कब्जा है सत्ता का। वह बुद्धिजीवि वर्ग क्या सोचेगा, क्या लिखेगा, क्या योजना बनायेगा, समाज के हित में क्या नई दिशा देगा, इतिहास को कैसे ऐतिहासिक बनायेगा-यह सब तय करता है नवाब यानी सत्ता। सत्ता जैसा चाहेगी वैसा उस बुद्धिजीवि वर्ग से सुचवायेगी, लिखवायेगी, करवायेगी। इस बुद्धिजीवि वर्ग के पास अपने पैर होते हुए भी यह बिना सत्ता की बैसाखियों के सहारे चलने में असमर्थ है।
सत्ता में बुद्धिजीवि की स्थिति वर्ण व्यवस्था में शुद्र के तुल्य है। जिस प्रकार से बिना शूद्र के यह वर्ण व्यवस्था पंगु है, बिना शूद्र के इसका अपना अस्तित्व भी नगण्य है, इसलिए शूद्र का होना वर्ण व्यवस्था के ऊपरी वर्णों का होना सार्थक करता है। ठीक इसी प्रकार चिंतक का होना सत्ता के लिए एक अनिवार्य मुद्दा है। ंिबना चिंतक के सत्ता पंगु है व उसका वजूद भी नगण्य है। यदि बुद्धिजीवि वर्ग है तो ही सत्ता की सार्थकता है। परन्तु बुद्धिजीवि वर्ग रहेगा सत्ता में उसी प्रकार जैसे वर्ण व्यवस्था में शूद्र अर्थात निचले पायदान पर। जब-जब सत्ता को इसकी जरूरत पड़ती है यह अपनी सेवाएं देता है, परन्तु यह सच या अधिकार की बातें करता है तो इसे कुचल दिया जाता है।
सत्ता के राग में ही जो अपना राग गाता है व ठपली बजाता है, वह सत्ता का हिस्सा है। हाँ वहाँ पर एक अलहदा प्रश्न यह खडा होता है कि वह फिर एक स्वतंत्र साहित्यकार या बुद्धिजीवि नहीं रहता है। क्योकि उस स्थिति में फ्रेम भले ही उसके द्वारा तैयार किया गया हो किन्तु तसवीर तो सत्ता की ही लगेगी और यदि काई इसके विपरीत वास्तविक रूप से अपना राग व अपनी ठपली, गाता व बजाता है तो उसे सत्ता अपने से पृथक कर देती है। सत्ता से पृथक होने पर उसे स्वयं बुद्धिजीवि वर्ग की सत्ता भी पृथक कर देती है। फिर उसकी स्थिति शूद्र के मध्य भी निम्न शूद्र (ऐसा बुद्धिजीवि जिसकी कोई न सुने, न माने, जिसे कोई न पहचाने) जैसी हो जाती है।
यूँ कहने को सत्ता पर व्यंग्य करता है यह नाटक-‘एक था गधा उर्फ अलादाद खां’, किन्तु शरद जोशी ने पूर्ण नाटक में किस प्रकार से बुद्धिजीवि की नब्ज सत्ता के हाथ मे है यह भी बखूबी दर्शाया है।
‘‘कोतवाल-वह देखिए, एक थियेटर वाला चला आ रहा है।
नवाब-थियेटर वाला? यह क्या जीज है? कोतवाल-...........हुजूर! रंगकर्मी। ..........कलाकार है, ड्रामे-फ्रामेे करता है, थोडा इनाम इकराम दे दीजिए तो आपके गुण गायेगा।’’(दो व्यंग्य नाटक-शरद जोशी-पृ.-14,15) प्रशासक वर्ग अपनी प्रशंसा के लिए कलाकार की कला का सहारा लेता है। सत्ता कलाकार को इनाम इकराम देने की बात करती है, किन्तु क्यों? क्योंकि उसे अपने गुणों को गावाना है और गाने की कला जिसके पास है वह कलाकार है। जिससे की जनता प्रभावित होती है। लेकिन यह उसका प्रलोभन है कि वह अपनी कला को इस सत्ता के संरक्षण में बेच देता है और उसकी चाकरी करने लगता है।
बुद्धिजीवि वर्ग की बुद्धि की नकेल किस प्रकार से सत्ता के हाथ में है इसका प्रमाण नवाब  व चिंतक के संवादों से मिलता है-‘‘नवाब-अबे ओ चिन्तकों, बुद्धिजीवियों, समझदारों, कहां गये कम्बख्त?
तीनों चिन्तक-हम यहाँ है श्रीमान।
नवाब-अबे तुम लोग किस मर्ज की दवा हो।
चिन्तक-जिस समस्या पर हुकुम करें अन्नदाता हम उसी पर चिन्तन करें।’’(वही-पृ.-15) पूर्ण रूप से चिन्तक वर्ग नवाब के समक्ष नतमस्तक है ठीक उसी प्रकार जैसे नतमस्तक है शूद्र सवर्ण के समक्ष। यह बुद्धिजीवि वही लिखता, सोचता और प्रस्तुत करता है जिसके लिए इसे कहा जाता है। सत्ता अपने लाभ के कार्यों के लिए ही इससे सलाह लेती है। यह अपनी मर्जी से, अपने विवेक से कुछ नहीं सोच सकता है। सत्ता का आश्रय तो इसे यही सब करने को मजबूर करता है। सत्ता की अधीनता स्वीकार करनी होगी तो इसे इसी तरह उसके अनुसार ही चिंतन करना होगा, वह जिस विषय पर कहेगी उसी पर लिखना होगा और जैसा सत्ता कहेगी वैसा ही लिखना होगा। यहां तक की इस बुद्धिजीवि वर्ग के लिए सत्ता की शब्दावली भी ठीक वैसी ही है-जैसी समाज में दलितों, शूद्रों, स्त्रीयों व आदिवासियों के लिए होती है। उसका एक नमुना देखिए।
‘‘नवाब-तो बुलाओ उस नाटक वाले को।
कोतवाल-अबे! ओय, इधर आ। किस्मत खुल गयी साले की।’’(पृ.-17)
नवाब-और इसके लिए अगर कुछ उल्लू के पटठों को इनाम फैलोशिप वगैरा देनी पडे़ तो देंगे।’’(पृ.-20,21)
नवाब-(चितन्कों से) उल्लू के पटठों, यह है इतिहास में आम आदमी की भूमिका।’’(पृ.-77) अबे, ओ, आयेे, साले, कम्बख्त, उल्लू के पटठों इस तरह के शब्द प्रयोग करता है शोषक वर्ग और जिसके लिए प्रयोग किये जाते हैं वह होता है शोषित वर्गं। फिर वह चाहे शोषित वर्ग साहित्यकार हो या शूद्र, स्थिति तो दोनों की एक ही है शोषक वर्ग की। सत्ता के आगे दोनों झुके हुए हैं।
इन बुद्धिजीवियों, साहित्यकारों, कलाकारों को प्रश्रय देने का सत्ता का जो उद्देश्य है उसे भी शरद जोशी इस तरह से रेखांकित करते हैं। ‘‘नवाब-हमारे राज्य में नाटक थियेटर को बढ़ावा दिया जाये, जो भी हो आधा, तुगलक, अधूरे इन्द्रजीत, जो भी हो उसे पूरा किया जाये...............और इसमंे सलतनत को क्योंकर नुकशान होगा अगर इन्सान का दिमाग उलझा रहे इन बातों में, मसलन नाटक या गाने बजाने की महफिलें या साहित्य तो हर्ज क्या है।? इसलिए हम घोषणा करते हैं आज की तारीख की बढावा दिया जायेगा राज्य में थियेटर को। बजट में रूप्या रहेगा, उसके लिए अकादमी, कला परिषद वगैरा जो भी जरूरी है सब खुलेंगी।’’(वही-पृ.-18,19,20)
सत्ता को यहां तक भी चिंता नहीं है कि वह बोल क्या रही है। आधे-अधूरे, तुगलक, एवं इन्द्रजीत जैसे सहीनामों को सत्ता अपने हिसाब से, अपने लाभ के लिए, अपने लिए उपयुक्त शब्दावली व भाषा गढती है। जनता को तो सत्ता इन्हीं शब्द जालों, गानों, बजाने की महफिलों, कवितओं व नाटकों में उलझाना चाहती है। ताकि जनता सोचे नहीं। जनता उलझी रहे मौज मस्ती में। क्योंकि जनता सोचेगी तो जागेगी और जागेगी तो हक मांगेगी। अतः जनता न जागे, न सवाल करें, इसके लिए इस बुद्धिजीवि वर्ग से कहा जाता है कि वो कुछ ऐसा करे कि जनता सोई रहे। जनता का दिमाग उलझा रहे। जनता ठीक वैसे ही उलझी रहती है जैसे जयपुर में मंदिर में बम्ब विस्फोट होने पर उलझ गई, सूरत में सिलेसिलेवार जिंदा बंबों के मिलने, व विस्फोट होने पर तथा गोधरा में ट्रेन का जलना व यहां तक की बाबरी मस्जिद का ढहने पर इन मुद्दों को लेकर या इन कार्यों में उलझ गई। ये सभी काई महज या सामान्य घटनाएं नहीं है जो कि यूंही अकस्मात घट गई हांे। वरन् इसी प्रकार के बुद्धिजीवियांे, सत्ता की चिरौरी करने वाले मस्तिकांे के द्वारा रची गई कलाकारिया हैं। सोची समझी व इसी प्रकार के नवाबों द्वारा अपनी सत्ता कायम रखने के लिए रचवाई गई, एक बहुत ही सोची समझी व पूर्ण रूप से पूर्व गठित योजनाएं हैं। जिससे जनता का दिमाग उलझा रहे इन कामों में और इन कामों की आड में न जाने और क्या क्या घटित हो जाता है, जिसकी कानों कान तक खबर तक नहीं होती है। काम करने वाले व रचने वाले तक को भी। फिर आम आवाम का तो कहना ही क्या। सत्ता का चरित्र बडा पेचिदा होता है उसे पहचानना बहुत मुश्किल है। 
सत्ता के द्वारा कला परिषद या साहित्य आकदमी खोलना, किसी प्रकार का पुरस्कार या इनाम इकराम देना, कला व साहित्य तथा साहित्यकार को बढ़ावा देना नहीं है। वरन् उसके माध्यम से अपनी नींव मजबूत करना है। इन लोगों को अपने पक्ष में लेना है। इन बुद्धिजीवियों के हाथ मंे इन अकादमियों के माध्यम से अलग अलग तरह के झुनझुने पकड़ा देना है और ये अधिकतर उन्हें पकडाये जाते हैं जो सत्ता चालिसा गाना जानते हैं, और सत्ता के राग में ही इसे बजाना जानते हैं। यहां अपनी व नई कम्पोजिसन का कोई महत्व नहीं है, बल्कि सत्ता का राष्ट्रीय भजन ही आपको गाना व बजाना पड़ता है। अपनी प्रतिभा व कला उसी भजन को गाने व संवारने में जो अधिक लगाता है उसे ही सत्ता आश्रय व पुरस्कार देती है। नाटककार को भारतेन्दु हरिश्चन्द्र प्रेक्षाग्रह का अध्यक्ष बना दिया जाता है ताकि वह जब भी नाटक करे अंधेर नगरी ही करें, जिसमें नगरी अंधेर हो, चौपट हो, राजा नहीं, राजा तो बस राजा हो। उपन्यासकार को प्रेमचन्द रजत पुरस्कार के रूप में रजत पत्र से जडित उत्तर पुस्तिका के रूप में भोज पत्र भेेंट किये जाते हैं। जिसमें वह ‘महाभोज’ रच सके। इतिहास लिखते वक्त सत्ताधारियों की जय जयकार कर सके। कथा कहानी के क्षेत्र का विशिष्ठ व चर्चित पुरस्कार पाने वाले की कतार बहुत लंबी होने के कारण इसे विशिष्ठ व संक्षिप्त करने के लिए दलित कथाकार का नाम मनोनीत इसलिए करना पड़ता है कि पिछले चुनाव में सरकार दलित वोट न मिलने के कारण अल्पमत में रह गई। संगीत लहरी के अखिल राष्ट्रीय कला भारती पुरस्कार से वंचित संगीतकार की धुनसे यही बजता है कि-‘ए मेरे वतन के लोगों जरा आँख में भर लो पानी’। क्योंकि स्थितियां इतनी भंयकर हो गई हैं कि सारी कविताएं सूखे, अकाल, व महामरी से भरी पड़ी हैं। अतः पानी बचा ही नहीं। आंखों तक का पानी मर गया, कुएं, बावडी, नदी, तालाब की तो बात ही क्या। इसलिए सारी खुद्दारी शुष्क हो गई। कविता विभाग का युवा सम्मान पिछले चुनाव में पार्टी के लिए जनगीत लिखने वाले 65 वर्ष कर्मठ युवा कवि को अगले वर्ष दिये जाने की घोषणा की जाती है। तब तक वह पार्टी के लिए और अंलकृत कविताएं रचें।
शेष व विशेष पुरस्कार जैसे भारत रत्न, भारत भूषण, विभूषण, खरदूषण, तो सत्ता अपने लिए बचा के रखती है। क्योंकि ये बडे भारी भरकम नाम व पुरस्कार हैं। आम लोग इनका वजन नहीं उठा सकते। या आम लोगों के पास इतना वजन नहीं जो इनके ऊपर रखा जा सके, ताकि ये पुरस्कार कहीं ओर न उड सकें। हां गठजोड के कारण या अगले पांच वर्ष और रहने के लिए कभी कभी स्वर्ग वासियों को भी यह पुरस्कार सत्ता अपने मोक्ष के लिए देती है।
आजादी के इतने वर्षों बाद भी इस तरह की समस्याएं बनी रहना अपने आप में लोकतंत्र व स्वतंत्रता की विडंबना है। इन सभी पक्षों को ध्यान में रखता हुआ नाटककार राजनीतिक सत्ता के दिये तले आज भी अंधेरा है, विकास के चश्में की चकाचौंध में वह सत्ता अंधी है और उसे यह सब दिखाई नहीं दे रहा है। इन सब पर कटाक्ष कर रहे हैं।

सत्ता के लिए हर कार्य संभव है। या फिर सत्ता के साथ जो उसकी हां में हां मिलाले उसके भी काम संभव है। बस सत्ता जो कहे, जिस तरह से कहे वैसे करते जाने की जरूरत है। यदि ऐसा कोई करता है तो उनका कार्य नियम व कानून के विरुद्ध जाकर भी हो सकता है। यहां पर नाटककार तंज कर रहे हैं सत्ता की चिरौरी करने वाले नाटककारों पर। आपातकाल के समय सत्ता अपने प्रचार के लिए, अपने लाभ के लिए आमजन में अपना ढिंढारों पीटती रहती थी। और उसके लिए वह ऐसी संस्थाओं को अनुदान व सुविधाएं देती थी जो उसके समर्थन में साहित्यिक कार्यक्रम करे या नाटक आदि कलाओं को प्रस्तुत करें। ऐसी संस्थाओं तथा मण्डलीयांें का लकडी का घोडा खूब दौडता था। लेकिन बहुत सारे ऐसे लोग भी थे, जो इन लोभ एवं लालचों में नहीं फंसे और अपने हुनर का प्रयोग उन्होंने अनैतिक का पर्दाफास करने में ही किया। फिर चाहे उनको इसके बदले में अनेक कष्ट झेलने पडे। यहां सत्ता के आगे झुकने वाले उन सभी कलाकारों, नाटककारों के प्रति विरोध किया गया है जो अपने कर्त्तव्य के बजाय सुविधाआंे को महत्व देते हैं। उन सब साहित्यकारों, इतिहासकारों और बुद्धिजीवियों पर कटाक्ष है जिन्होंने सत्ता की चाकरी स्वीकार करी। सत्ता के वर्चस्ववादी व तानाशाही रवैइये पर भी कटाक्ष है जिसने अपने लाभ के लिए इस बौद्धिक वर्ग को प्रयोग किया।


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