भारत के लिए विभिन्नता मेें एकता का सूत्र बहुत प्रारम्भ से चला आ रहा है और यह विभिन्नता व एकता लगभग हर पहलू व क्षेेत्र में दिखाई देती है-फिर चाहे वह-राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, पारिवारिक, धार्मिक, जातिय, वर्ग-वर्ण, राष्टवादिता, भाषा, साहित्य, संस्कृति या अन्य जो भी हो। यदि आधुनिक परिपेक्ष में इस परिदृश्य को देखें तो हम विभिन्न व एक-एक होते जा रहे हैं। स्वतंत्रता की सीमा को जब से पर्सनल(व्यक्तिगत) विचारों ने लांगा है व सीमित किया है तब से हम एक से दूसरे की तुलना में भिन्न हुये हैं। हमारी संयुक्तता कहीं विच्छिन्न हुई है। समाज, राष्ट्र, परिवार, धर्म, जाति व व्यक्ति विशेष के रूप में प्रत्येक दूसरे में सम्मिलित होने के बाद भी पृथक है व्यक्ति (व रहना चाहता है)।
यह पृथकता हमें जोड़ती भी है व तोड़ती भी है। जो सबल व सक्षम होता है वह अपने से भिन्न व अलग-थलग को जोड़ता है तथा जो विशिष्ट बन जाता है, (शक्ति में या कमजोरी में शीर्ष पर या नीचले पायदान पर) उसे तोड़ दिया जाता है।
भारत देश भिन्न-भिन्न भाषा-भाषी, जाति, धर्म, वर्ग, वर्ण वाला देश रहा है। अनेक जातियों के बाद भी (कर्म या जन्म के आधार पर) एकता के सूत्र की बात जो सदियों से चली आ रही है वह आज भी देखने को मिलती है। जाति विहीन समाज की कल्पना ही साहित्य को समाज व राजनीति से अलग करती हुई एक प्रतिद्वन्दिता का रूप खड़ा करती है।
भारत के अन्दर आदिवासी एक जाति है, जिसे संवैधानिक रूप से जनजाति भी कहा जाता है। यूँ नाम से इसके प्रारम्भिकवासी होने की सूचना मिलती है। आदिवासीयों का जो अपना इतिहास रहा है व हमें जो बताया या पढ़ाया जाता है उसके अनुसार कबिला संस्कृति, जंगल, पर्वत, पठार, वन के निवासी, शहर, नगर, ग्राम बस्ती से किनारा करते हुए दुनियां से कटे अपनी ही दुनियां में बसे ऐसे लोगों का चित्र हमारे समक्ष प्रस्तुत किया जाता है ‘‘जनजाति या आदिवासी संस्कृति के नाम से प्रायः एक चित्र उभरता है। बीच में आग जली है और उसके चारों ओर मुहँ पर तरह-तरह के रंग पोते, पत्तों के वस्त्र पहने, हाथ में भाले-बरछे लिए कुछ अधनंगे लोग हू-हू करते नाच रहे हैं। कुछ ऐसी ही छवि लिए हुए आते हैं देश केे शोधकर्त्ता।’’(जनजाति संस्कृति-सुदर्शन वशिष्ट, पृण्-6) मगर युग व समय के अनुसार बहुत कुछ बदलता है, इसी के अनुरूप इन आदिवासीयों के अपने रहन-सहन, रीति-रिवाज, सभ्यता, संस्कृति, साहित्य, भाषा-बोली या अन्य में बदलाव आया है।
ऊपर दिये उद्धरण के अनुसार आज मात्र शोधार्थी इस तरह के ही चित्र नहीं उभारते हैं वरन् इससे भिन्न व आगे की भी स्थिति की चर्चा करते हैं। पूर्व की तुलना में आज आदिवासीयों के समक्ष समस्याओं की तुलना में संभावनायें बढ़ी हैं। उनके विकास व उन्नति के मार्ग खुले हैं। आज बहुत सी योजनाऐं व लाभ के माध्यम उन तक पहुँचाये जा रहें हैं। उन्हें मुख्य धारा या प्रगति की धारा में उनके व देश के विकास के लिए उन्हें जोड़ने का प्रयत्न किया जा रहा है। साहित्य में पूर्व में आदिवासीयों को स्थान न के बराबर था परन्तु आज जन जातियों के ऊपर अनेकों अनेक पत्र-पत्रिकाऐं व लेख, कविता, कहानी न कि अन्य लिख रहें हैं वरन् स्वयं आदिवासी भी अपनी बात को मुखर होकर कहने का प्रयास करने लगे हैं।
मध्य भारत ही नहीं वरन् सम्पूर्ण भारत के आदिवासीयों की यूँ तो संस्कृति, भाषा व (समस्याऐं व संभावनाऐं) लगभग एक जैसी ही हैं परन्तु फिर भी हम यहां केन्द्र कर रहें हैं राजस्थान के उस क्षेत्र व उन जनपदों (जिलों) को जो मध्य भारत के मध्य गिने जाते हैं। ‘‘जातियों की विविधता और उनकी विभिन्नताओं के मामले में राजस्थान एक समृद्ध प्रदेश हैं। जातियों का निर्माण एवं उनकी आर्थिक सामाजिक स्थिति इतिहास के साथ जुड़ी हुई है। राजस्थान में रहने वाली कलावंत, ढ़ाढी, मिरासी, ढोली, डोम, राणा, लंगा, भोपा, सांसी, कंजर, जोगी, भवई, भील, मीणा, कथोड़ी, सहरिया, रेबारी, गाड़िया लुहार, कालबेलिया, कठपुतली नट, लखारा, भाट आदि अनेक जातियां हैं। ’’(राजस्थान ज्ञान कोश-डॉण् मोहन लाल गुप्ता, पृण्-319) ये सभी जातियां जनजातियों/आदिवासीयों की श्रेणी में ही आने वाली जातियां हैं। इन सब जातियों की अपनी-अपनी अलग-अलग भाषा, बोली, तीज, त्यौहार, रीति, नीति, मेले, संस्कृति, नृत्य, गीत, खानपान, वेश-भूषा, रहन-सहन हैं। परन्तु फिर भी इन सब की भिन्नता में एक एकता का सूत्रपात है, जो इनकी कला व संस्कृति तथा इनके पहनावे व आजीविका के तरीकों में दिखाई देता है। इन आदिवासी जातियों में ज्यादातर जातियां कला एवं संस्कृति को ही अपने जीवन यापन का साधन मानती है।
राजस्थान के वे जनपद जो मध्य भारत के क्षेत्रानुसार जाने जाते हैं उनमें-उदयपुर, डुंगरपुर, बांसवाड़ा, कोटा, बंूदी, भीलवाड़ा, बारां आदि प्रमुख रूप से गिने जाते हैं और इन जिलों के कुछ प्रमुख स्थानों तहसिलों में आदिवासी जाति के लोग रहतें है उनमें कोटड़ा, झाडौल, सलूम्बर, सराज, खराज, खेरवाज, व डुंगरपुर जिला तो सम्पूर्ण रूप से आदिवासीयों से ही भरा पड़ा है। ये आदिवासी लोग बिखरे, बस्तियों में छोटे-छोटे टुकड़ो में पहाड़ो पर रहना पसंद करते हैं और इन सब का विवरण व वर्णन हमें साहित्य के माध्यम से समय-समय पर मिलता रहता है। ‘‘संस्कृति का मूल श्रुत साहित्य है। सदियों से यह श्रुति के माध्यम से स्मृति में जाकर यात्रा करता रहा है । इस मौखिक साहित्य पर लोकवार्ता का टेकस्ट बीस कोस बाद बदलता है। एक कथा एक कोने से यात्रा करती हुई किसी दूरस्थ कोने तक पहुँचती है। लोकमानस अपनी संस्कृति और भौगौलिक परिस्थितियों व भावनाओं के अनुसार इसमें परिवर्तन कर लेते हैं।’’(जनजाति संस्कृति-सुदर्शन वशिष्ट, पृण्-5)
आदिवासी एक ऐसी जन जाति है जिसकी अपनी कला संस्कृति व साहित्य बहुत ही समृद्ध है परन्तु इसका कोई लिखित व संग्रहित रूप नहीं है। समाज में होने वाले तीज-त्योहार, शादी-विवाह, मेले-ठेले, जन्म-मरण या विभिन्न प्रकार के उत्सवों पर गाये जाने वाले गीत, नृत्य या स्वांग आदि पर लोग भिन्न-भिन्न प्रकार से अपनी भावाभिव्यक्ति की प्रस्तुति देते हैं और उन गीतों में ऐतिहासिकता से लेकर आधुनिकता तक सब कुछ वर्णनीय व वन्दनीय होता है। परन्तु आज कुछ शोध प्रक्रियाओ के माध्यम से व इतिहास पुरातन विभाग के अन्वेषणों से बहुत कुछ पुराना भी खोजा गया है व नवीन संग्रहीत किया जा रहा है। जो हमें इन की संस्कृति व सभ्यता से रूबरू कराता है।
राजस्थान की जो आदिवासीयों में गिने जाने वाली प्रमुख जातियां हैं उनकी सभ्यता व संस्कृति में बहुत परिवर्तन आया है। मीणा जाति जो जनजातियों में प्रमुख रूप से ऊभर कर सामने आई है इस जनजाति के लोगों ने राजस्थान में बहुत प्रगति की है। आज प्रशासनिक सेवा, शिक्षण व अन्य सरकारी व गैर सरकारी संस्थाओं के उच्च पदों पर इस जाति का बाहुलय देखा जा सकता है। अन्य जातियों में जैसा की ऊपर कहा जा चुका है कि इन जातियों का मुख्य व्यवसाय कला व संस्कृति का माध्यम ही रहा है व बहुत सी जातियों का तो आज भी है। उन्हीं में से कालबेलिया जाति की गुलाबो एक विश्वविख्यात नृत्यांगना के रूप में उभर कर सामने आई है। और न कि स्वयं ही उभरी है बल्कि गुलाबो के साथ उसकी जाति की अनेक नृत्यांगनाएं भी देश पटल पर अपनी कला की छाप छोड़ने लगी हैं। स्त्रीजाति का प्रतिनिधित्व करती हुई आदिवासी जाति की गुलाबो व अन्य नृत्यांगनाओं का विश्वविख्यात होना अपने आप में एक बहुत ही विशिष्ट व स्त्रीयों के लिए समाज में सम्मानीय बात है। इनमें से भील, गरासिया व रेबारी जाति अभी भी जंगल से जुड़ी हुई हैं। भील व गरासिया जाति जंगल से ही अपनी जीविका चलाते हैं। रेबारी जाति के लोग कुछ दुधारू पशुओं को जैसे-भेड़, बकरी, गाय, ऊँटनी व गधा जैसे जानवरों का धुमन्तु के रूप में पालन व व्यवसाय करते हैं और अन्य जातियां आज भी कला व संस्कृति के निरवहन से ही अपना जिवन यापन करती हैं साथ ही ये सभी जातियां मजदूरी करके भी अपना पेट भरती हैं। ‘‘एक बार पंड़ित नेहरू ने कहा था, आदिम समाज में से लोक गीत एवं नृत्य निकाल दिए जाएं तो फिर इनकी संस्कृति एवं सभ्यता चार दीवारी के बीच शहरी संस्कृति की तरह सिनेमा एवं होटलों के प्यालों में ही सीमित हो जायेगी और उनका जीवन शिथिलता तथा कृत्रिमता की ओर अग्रसर हो जाएगा।’’(आदिवासी लोक-2, सम्पादक-रमणिका गुप्ता, पृण्-44) अतः लोक गीत व नृत्य को यदि आदिवासीयों की संस्कृति का प्राण कहा जाये तो अतिश्योक्ति नहीं होगी और इन नृत्य व गीतों के भाव व कला पक्ष में ये अपनी संस्कृति के अंक में सम्पूर्ण भारतीय संस्कृति की महक छुपाये रहतें हैं।
‘‘ये वनवासी वन के राजे/रहे स्वतंत्र बिहारी
वाल्मिकी से पिता उनके/रहे एकलव्य से भाई
कई राज्य थे इनके इनमें/मालव, गुजर, राजस्थान
आदिकाल से अब तक इनमें/दीखें नहीं विभीषण नामें।’’(आदिवासी लोक, सम्पादक-रमणिका गुप्ता, पृण्-108) यह गीतों की संस्कृति व उनकी ऐतिहासिकता का अपना अनूठा गौरव है राजस्थान के इन आदिवासीयों का, व साथ ही ये सम्पूर्णता को ही अपनी पूर्णता मानते हैं। सम्पूर्णता से तात्पर्य सभी जगह के आदिवासीयों को उनके दुःख दर्दो को अपनी कला में सम्मिलित करते हैं।
‘‘रहने केवू बोले अणावाण्यिा मेळों मेळियों है रे
गौरी सरकार फोजड़ली अंलकारे अणाये वाणीया मेळों मळियो रे’’(आदिवासी लोक, सम्पादक-रमणिका गुप्ता, पृण्-108) आदिवासीयों के ये लोक गीत ब्रिटिस काल से आज तक की सरकार के अनैतिकता के विरोध में एक चुनौती के रूप में आज भी बहुत आकर्षित व ओजस्वी लगते हैं तथा अपनी भाषा व अपनी शैली में अपना योगदान समाज के विकास में देते हैं।
‘‘ये लाम्बी पिपेल वल्वी साया माया केन सुड़े रे
गुवाल जात माया लागी माया केन सूड़ो रे’’(आदिवासी लोक, सम्पादक-रमणिका गुप्ता, पृण्-112)
‘‘श्यामलाजी मेले जाहं हो ओडनी बंसुड़ी
ये वेली बेली आवी जाजे हो ओड़नी बंसुड़ी’’
‘‘ये बेण वाजे बेण बाजु खेमालिया वेण वाजे
ये दशरावा नो मेलो ज्वेमलिया बेठा वांगु वोज’’(आदिवासी लोक, सम्पादक-रमणिका गुप्ता, पृण्-113)
‘‘पडियो वेरी कालो ऐलो सुडी दे तम्बाकु
मगर खुटो सारो ऐला सुडी दे तम्बाकु’’(आदिवासी लोक, सम्पादक-रमणिका गुप्ता, पृण्-115)
इन तमाम लोक गीतों में चेतना, भविष्योन्मुखी संकेत व युवा पीढ़ी तथा समाज से दारू तम्बाकु जैसे व्यसनों से दूर होकर अपने व देश हित के लिए सोचने व दिशा निर्मित करने के लिए संदेश दिये गये हैं। मेलो-ठेलो, दशहरा-होली व प्रिय, प्रेम-प्रणय के गीतों के साथ-साथ शिक्षा व संदेशात्मक गीतों का भी प्रचूर मात्रा में आदिवासी गीतों में प्रयोग होता है।
इन आदिवासीयों की अपनी भाषा, संस्कृति व साहित्य भिन्न होते हुये भी एक व एकता का संदेश देने वाला है। आज आदिवासीयों का साहित्य या उन पर लिखा गया साहित्य जगह-जगह पहुँच रहा है व विचार, मंथन, संगोष्ठियां, कार्यशालायें इन पर हो रही है। परन्तु उन विचार व संगोष्ठियों को और ज्यादा कारगर सकारात्मक रूप दिये जाने की आवश्यकता है। क्योंकि कई बार ये कार्यशालाऐं व संगोष्ठियां भी निज हित का कार्य लगने व बनने लगती है। ये संगोष्ठियां, गोष्ठियां, चर्चा-परिचर्चा हो रही है यह आदिवासीयों के भविष्यों के लिए संभावना है व इस संभावना को कैसे सही दिशा में ले जाया जाये यह एक समस्या है। आदिवासी जाति की अपनी जो भाषा संस्कृति है उसका अब जो एक साहित्यिक रूप में टंकन होने लगा है वह इस जन-जाति के साथ-साथ साहित्य व संस्कृति को समृद्ध करने में भी एक महत्वपूर्ण योगदान है तथा इसके इतिहास को समृद्ध करने में भी इसकी महती भूमिका है। राजस्थान के साथ-साथ अन्य आदिवासी निवासी राज्यों के आदिवासीयों के अभी तक के या यूँ कहा जायेंग की दस-पन्द्रह वर्ष पूर्व के आदिवासी संस्कृति व लोक को मात्र प्रकृति, पहाड़, रेगिस्तान, वन, जंगल के सहचरी के रूप में ही जाना व पहचाना जाता था, मगर अब धीरे-धीरे इनकी भूमिका व महत्व बदलने व सामने आने लगा है। जो शायद भविष्य में और भी उल्लेखनिय हो।
अतः कहा जा सकता है कि सदियों पुरानी इन आदिवासी जातियों की जो रहन-सहन, खान-पान, लोक भाषा, साहित्य, संस्कृति की समस्याऐं थी (व हैं)। उन पर भविष्य में सकारात्मक संभावनाऐं नजर आ रही हैं व उसके लिए बहुत कुछ योगदान इनका अपनास्वयं का भी है जो निश्चित ही वन्दनीय व प्रशंसनीय है।
‘कौन कहता है कि आसमां में छेद नहीं होता
एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो’ आमतौर पर कवि या रचनाकार सकारात्मक बातें सीधे-सीधे ढ़ंग से नहीं करता है, उसमें निराशा या असफलता का वर्णन या जिक्र ही वह ज्यादा करता है। दुश्यंत कुमार की ये पंक्तियां भी कुछ इसी तरह का संकेत करती हैं। परन्तु उसका मुख्य उद्देश्य निराशा या असफलता फैलाने या बढ़ाने का नहीं होता है वरन् उसे मिटाने या बदलने का होता है।
अतः आदिवासीयों की जो समस्यायें हैं वो मात्र उन्हीं की समस्यायें नहीं है या मध्य भारत की जनजातियों की जो समस्यायें हैं वो उन्हीं की नही हैं, वरन् सम्पूर्ण लोगों की हैं। परन्तु फिर भी मानवीय ढ़ांचा एक जैसा होने के बाद भी रूप व चेहरा पृथक-पृथक होता है अतः समस्यायें भी भिन्न-भिन्न हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य व विकास को लेकर आदिवासीयों के लिए कुछ कार्य किया गया है, उनकी संस्कृति, कला के लिए संग्रहण व अनुसंधान हो रहें हैं, मगर इनके बावजूद भी उनकी इन्हीं समस्याओं में से कुछ समस्याऐं अभी भी अनछुई नजर आती है जिनकी ओर कार्य भविष्य में हो इसकी संभावना हमें नजर आनी चाहिए। जैसे आदिवासीयों की कला व संस्कृति को विशिष्ट व पृथक सम्मान दिया जाये। ताकि जो लोग आज भी पिछड़े व अनपढ़ हैं वे भी इस धारा में आगे बढ़ सके। सरकार को विशेष रूप में सक्रिय रूप से मात्र सैद्धान्तिक नहीं व्यावहारिक रूप से भी और कार्य करना चाहिए। इन्हीं के मध्य जो विकसित व प्रगति कर गये हैं उन्हें भी ‘अन्धों में काना राजा’ की नीति नहीं अपनानी चाहिए बल्कि अपने इस समुदाय के और लोगों को भी समय व सुविधाएंे उपलब्ध करने व करवाने में एक महती भूमिका अदा करनी चाहिए। शायद तब ही सार्थक रूप से ये संभावनायें निश्चित्ता में तबदील होंगी।
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