‘सार
सार को गही रहे थोथा देई उडाय’ –कबीर की इन पंक्तियों को यदी भारतीय संविधान के
निर्माण का बहुत कुछ मूल माना जाए तो अतिवादिता नहीं होगी | परन्तु ‘नीर क्षीर
विवेकी’ गुण भी इसके लिए अतिआवश्यक है | जो सार को रख ले और थोथे को उड़ा दे |
भारतीय संविधान में, अन्य देशों के संविधान
से जो भी अच्छा, श्रेष्ठ व मनुष्य के हित में है –लिया गया है और यह जो मनुष्य के
हित में है –की परख एक सह्रदय मनुष्य ही कर सकता है | दूसरी बात यह है की अच्छा
(श्रेष्ठ) या मनुष्य दोनों ही किसी सीमा, परीधि या शरहदों में नहीं बांधे जा सकते
हैं | पंछी, नदियां, हवा के झोंकों की तरह अच्छाई व मनुष्यता को भी कोई शरहद न
रोके | इस तरह से तेरा –मेरा, ब्राह्मण –शुद्र, राजस्थानी –मराठी, चीनी- जापानी के
बीच की खाई को पाट कर ‘वसुदेव कुटुम्बकं’ के धरातल पर खड़ा है भारतीय संविधान |
यानि अनेकता में एकता लिये हुए | मगर इस अनेकता में एकता की झूठी खाई को वर्गीकरण
के आधर पर तर्क सहित इस तरह खंडित किया जाता है कि –परिचय, पहचान, संबोधन, व विकास
को एक निश्चित दिशा में अपनी अपनी ताकत से परिपूर्ण करने के लिए –नाम व देशों के
पृथक पृथक नामकरण अनिवार्य नहीं आवश्कतानुसार जरूरत है इसलिए किये गये |
यहाँ ऊपरी बातों से यह बिलकुल
स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय संविधान में किसी अन्य देश या राज्य से वैमनष्य या द्वेष का
भाव तो हो ही नहीं सकता, वजह अन्य देशों की जो जो अच्छाईयां थी वे हमने स्वयं
ग्रहण की हैं व अपने ही देश में किसी के प्रति –जाती, धर्म, वर्ग, वर्ण, व अन्य के
आधार पर भेदभाव, अन्याय या अन्य का प्रश्न तो अपने आप ही भारतीय संविधान खत्म कर
देता है|
इस बात की पुष्टि भारतीय
संविधान का उद्देश्य इस प्रकार करता है की-“हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन, समाजवादी, पंथ
निरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को
सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना
की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए तथा उन सब में
व्यक्ति की गरीमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने
के लिए ......................इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित
करतें हैं |”(संविधान के ४२ वें संशोधन (१९७६) द्वारा यथा संशोधित) (सामान्यज्ञान-
सुनील कुमार सिंह ,पृ.-१९०) इस पूरे उद्देश्य में वास्तविक व मुख्य रूप से एक व दिखने
में दो बातें सामने आती हैं, एक है –हम भारत के लोग, उसके समस्त नागरीक, उन सब में
व्यक्ति की गरीमा और दूसरी बात है- भारत राष्ट्र |और भी संक्षिप्त रूप से-मूल बात
मनुष्य की है परन्तु हम भारतीय परीपेक्ष में बात कर रहें हैं अत: भारतीय मनुष्य की
बात है |
ठीक जहां से यह लेख
प्रारम्भ होता है वहीं से जोड़ते हुये भारतीय संविधान अनेक देशों से अच्छाई व
श्रेष्ठता ग्रहण कर मनुष्य की बेहतरी के लिए, अपना निर्माण करता है –भारतीय मनुष्य
की श्रेष्ठता के लिए |
परन्तु, किन्तु, मगर ? ये
बहुत सारे प्रश्न व प्रश्नों के महाजाल जब हमारे सामने आते हैं तो इस निबंध का मूल
तत्व यहां से प्रारम्भ होता है और इस निबंध का ही नहीं भारतीय संविधान, भारतीय
समाज व सामजिक न्याय का भी मूल प्रश्न यहीं से पैदा व खत्म होता है |
यूँ तो संविधान के निर्माण में २८९ प्रतिनिधि
(देशी- विदेशी) व संघ संविधान से लेकर संचालन, प्रांतीय, प्रारूप, झंडा, संघ शक्ति
समिति व इनके अलग अलग सदस्य व अध्यक्ष मनोनीत किये गये थे, जिनमें राजेन्द्र
प्रसाद से लेकर मोहम्मद सादुल्ला तक एक लंबी फ़ेहरिस्त थी | मगर संविधान के
निर्माता के रूप में जिस सह्रदय व्यक्ति को विशिष्ट रूप से जाना जाता है वे हैं
डॉ. अम्बेडकर |
डॉ. भीमराव अम्बेडकर को
मात्र संविधान निर्माता के रूप में याद किया जाता है | यह बात बहुत चिन्तनीय है |
जबकि संविधान निर्माता में भी उन्हें मात्र यह कहके- भारतीय संविधान के निर्माता
डॉ. भीमराव अम्बेडकर थे –कह कर छोड़ दिया जाता है |यानि उनके कार्य को ऊपरी तोर से
देखा जाता है, जबकि उन्होंने संविधान निर्माता के अलावा अपनी पुस्तकों, लेखों,
भाषणों व विचरों में जो एक समानता, समता, बंधुता की बात बहुत ही व्यापक पैमाने पर
एक आंदोलनात्मक तरीके से रखी है वह भी बहुत महत्वपूर्ण है | यदि सिक्के को दूसरी
तरफ पलट कर देखें तो डॉ.अम्बेडकर ने ऐसा अलग से कुछ भी नहीं कहा व किया जो
उन्होंने संविधान में न लिख दिया हो | परन्तु जब संविधान का लिखा ठीक व सही रूप से
लागु नहीं हुआ तो उन्होंने बाद में वही बातें अपने विचारों के माध्यम से पल्लवित
की, और जाति, धर्म, वर्ण, वर्ग, व व्यवस्था में पूर्ण अविश्वास कर के कही ,जो आज भी
मात्र पल्लवित ही हो रही हैं पुष्पित कब होगीं ......? पता नही |
डॉ. अम्बेडकर के विचार व
संविधान में कोई विरोधाभास नहीं है | दोनों ही सबसे महत्वपूर्ण कार्य मानते थे
मनुष्य का हित, और उन्होंने स्वयं ने स्वीकार किया था कि “यदि मनुष्य के हित
में यह संविधान नहीं है तो इस संविधान को जलाने वालों में मैं सबसे पहला व्यक्ति
होऊंगा |”(डॉ. बाबा साहेब और उनका चिंतन –डॉ. विमल कीर्ति, पृ.-६४) यहीं से
अम्बेडकर के विचारों को, भारतीय संविधान को समझा जा सकता है | अम्बेडकर प्रत्येक
व्यक्ति को समाज में सही न्याय दिलाने की बात करते हैं और यही बात करता है मौलिक अधिकारों
के संदर्भ में भारतीय संविधान | अत: भारतीय संविधान और अम्बेडकर दोनों ही एक ही बात करते हैं सामाजिक न्याय की | जिस देश का
संविधान मनुष्य हित व वसुदेव कुटुम्बकं की नींव पर निर्मित हुआ हो वहाँ के समाज
में अन्याय होगा ,एसी कल्पना मात्र से रोंगटे खड़े हो जाते हैं | परन्तु विडंबना
यही है की सामाजिक न्याय अब कल्पना मात्र ही रह गया है | वास्तविकता तो यह है की
इस विषय को इस तरह पड़ना चाहिए –कि भारतीय संविधान के साथ भारतीय लोग सामाजिक न्याय
नहीं कर पाये | यह संविधान भी अब रोता होगा कि –कितने बड़े बड़े व सुनहरी सपने देख
कर बड़ी मशक्त करके सबके हितों को ध्यान में रख कर बड़ी मेहनत से उन संविधान निर्माताओं
ने यह संविधान बनाया था कि आने वाले भारत को वो दुख न देखने पड़ेगें जो हमने देखे
हैं, भारत का भविष्य बहुत उज्जवल होगा,- मगर सब सपने मात्र सपने रह गये | सब हो
गया गारत, यह है भविष्य का भारत |
हम इक्कीसवी सदी में पहुँच
गये हैं | अणु बम्ब से परमाणु बम्बों तक का परीक्षण हमने कर लिया | पृथ्वी, अग्नि
और न जाने कौन कौन से प्रेक्षास्पात्रों (मिसाइल) का निर्माण कर लिया है | अनेक
संधियां व समझोते कर लिए हैं | कुछ करोड़ से एक अरब इक्कीस करोड़ तक की रेस में हमने
गोल्ड मैडिल हासिल कर लिया है | उद्योग कंपनियों व फैक्ट्रियों के बढ़ावे के लिए
हमने किसानों को शहिदत्व भूषण प्रदान कर दिया है | विकासशील से विकसित की श्रेणी
में आने के लिए मैट्रो के सफर से सेज व मोनसेंटो तक की यात्रा की है और समता, समानता,
स्वतंत्रता, शोषण के विरुद्ध, धार्मिक, संस्कृति व शिक्षा सम्बन्धी, संवैधानिक
उपचारों का अधिकार जो संविधान हमें देता है इन पर भी संसद से लेकर गलियारों तक खूब
मुहँ से बहस व हाथों से जूते चपल चल रहें हैं | अनुच्छेदों पर अनुच्छेदों में
संशोधन किये जा रहे हैं | आम आदमी के हित के लिए, न्याय के लिए, सरकार व सरकार के
नुमाइंदे व जनता, सभी तत्पर हैं व लगे हुए हैं देश बचाने में, तथा इन सबकी पूरी
कौशिश है की ‘सामाजिक समानता’ ‘सामाजिक न्याय’ व ‘समाजवाद’ जैसे भारी भरकम शब्दों को शीघ्र से शीघ्र परिभाषित किया जाये | संविधान
से उठाकर इन शब्दों को यथार्थ के धरातल पर लाने की कौशिश ये लोग कर रहे हैं –मगर
सबसे बड़ी परेशानी आज इनके सामने यह आ गई है कि ये लोग कबीर कों बहुत ज्यादा समझ
गये हैं | कबीर ने कहा था –‘कबीर कहे पेट से क्यों न भयो तू पीठ, रीते मान बिगारियो भरे बिगारत
दीठ |’ अब हुआ यह है कि इन के मस्तिष्क की जगह इनका पेट लग गया है जो की
भरने के लिए पाँच साल भी कम मानता है | अत: जब तक ‘सामाजिक न्याय’ ‘समाजवाद’ व ‘सामाजिक समानता’ को बहला फुसला कर कुछ लोग आम लोगों के मध्य लाते हैं तब तक विपक्षी
पाँच दिवसीय टेस्ट मैच को मात्र तीन चार दिन में ही पारी घोषित कर ड्रा कर देते
हैं | अब आप ही सोचिये ऐसे में ‘समाजवाद’ व ‘सामाजिक न्याय’ कैसे आयेगा ? और दूसरी बात ‘सामाजिक न्याय’ भी आजकल बहुत महंगा हो गया है, और हो भी क्यों ना मुद्रा स्फीति की
दर देखी है आपने ! धोती की लांग तक खुल जाती है महंगाई के नाम पर अच्छों अच्छों की
| कुछ गोपनीय सूत्रों के द्वारा तो यहाँ तक पता चला है की ‘सामाजिक न्याय’ तो आजकल ‘ब्लैक’ में भी नहीं मिल रहा है | कॉमन वेल्थ गेम, टू जी स्पेक्ट्रम, स्टाम्प,
ताज कोरीडोर, बाफ़ोर्स आदी तो बहुत ही बड़े व विशिष्ट जनो द्वारा किये गये शोभनीय
कार्य हैं, परन्तु आज तक इन लोगों को भी ‘सामाजिक न्याय’ ने हाथ तक नहीं
दिया | फिर आम व सामन्य जन भंवरी देवी, (राजस्थान की एक महिला ‘साथिन’ जिस पर जगमोहन मूंदडा की ‘बवंडर’ फिल्म बनी ) इरोम शर्मिला या बिरसा मुंडा जैसे लोगों के लिए तो ‘सामाजिक न्याय’ पाना मानो ‘अमिताब बच्चन को हकीकत में देखना है, वरना वह मात्र इन
जैसे लोगो को टी.वी., अखबार व किताबों में ही दिखाई देता है | और फिर ‘सामाजिक न्याय’ कोइ पेड़ पर बैठी
चिड़िया थोड़े ही है जो सब के लिए दर्शनीय व शोभनीय है | वह तो निजी म्यूजियम का शेर
है जो उचित टिकिट के द्वारा ही दिखाया जाता है, इसलिय जो टिकिट खरीदने में सक्षम
हैं वो ही देख पाते हैं | फिर भी यदि कोइ दिवार फांद कर या चोरी छुपे म्यूजियम में
घुस जाता है तो भोलाराम के जीव की तरह उसे फाइलों में ही अटका दिया जाता है | और
आज के नारद के पास वीणा भी नहीं है, व है तो उसकी कीमत इतनी कम है की उसकी पासंग
में ‘सामाजिक न्याय’ क्या न्याय की फूटी
कोड़ी भी नहीं आ सकती |
फिर आरक्षण, वोट व
लोकतंत्र का झुनझुना आपको पकड़ा तो दिया बजाओ बैठ के, अब क्यों ‘सामाजिक न्याय’ का राग अलाप रहे हो
| फिर ‘सामाजिक न्याय’ इतनी भारी भरकम चीज
है जो आम लोगों से संभलेगी ही नहीं, इसलिए उसे संविधान की किताब रूपी म्यूजियम में
ही रहने दीजिये- दर्शन मात्र पर्याप्त है| डॉ.अम्बेडकर ने एक बार कहा था –“हम लोगों ने
राजनीतिक लोकतंत्र को तो स्वीकार कर लिया है जिसमें हर व्यक्ति के वोट का मूल्य
समान है | लेकिन सामाजिक और आर्थिक गैर बराबरी, विषमता, शोषण को समाप्त किये बगैर
इस राजनीतिक लोकतंत्र को हम बहुत दिनों तक नहीं संभाल पायेंगें |”(डॉ. बाबा साहेब और
उनका चिंतन –डॉ. विमल कीर्ति, पृ.-६५) डॉ.अम्बेडकर ने यही बात संविधान में मूल
अधिकारों समता, समानता व स्वतंत्रता के सम्बन्ध में लिखी है | और अम्बेडकर व
संविधान की बात को आज भी राजनीति व समाज पूर्ण रूप से मान रहे हैं | प्रत्येक व्यक्ति के वोट का मूल्य आज
भी समान माना जाता है | है कोइ भेदभाव ब्राह्मण, शुद्र, पंजाबी, गुजराती, भील,
ठाकुर या स्त्री के वोट में ? और ‘समता’, ‘समानता’ व ‘सामाजिक न्याय’ की बात आज भी संविधान में ज्यों
की त्यों है उसमें कहाँ फर्क है | हाँ कुछ कागज काले करने वालों को जब अपच हो जाती
है तो समाजवाद, सामाजिक न्याय, समानता, बंधुता, जातिवाद व धर्मवाद की समाप्ति की
बात, आम व्यक्ति के साथ न्याय की बात, भ्रटाचार, बेईमानी, घोटालों आदि आदि के
समर्थन व खिलाफ धरना, आंदोलन, अनशन, रैलियां, अखबार बाजी व न जाने किन किन शब्दों
व विचारों की जुगाली करते रहते हैं –दायें
बाएं से |
सामाजिक न्याय कोई आम व
नीम के पत्ते थोड़े ही है जो टहनी से तोड़े और दे दिए | माना भारतीय संविधान सबको सामाजिक
न्याय देने की बात करता है, मगर देता थोड़े ही है, सिर्फ बात करता है और उसी
संविधान के नियम का पालन करते हुये हमारे श्रेष्ठ शिरोमणि राजनीतिज्ञ सामाजिक
न्याय की बात हमेशा करते हैं, बल्कि थे और रहेगें | फिर सामाजिक न्याय दे भी दिया
जाये तो बन्दर बाट की तरह उसे नष्ट कर दिया जायेगा | अत: सामाजिक न्याय भारतीय
संविधान में सुरक्षित व संग्रहित रूप में रखा है, रखा ही रहना चाहिए, अन्यथा
संविधान की शोभा में कलंक लग सकता है और राजनीतिज्ञो का यह कर्तव्य बनता है की वे
उसे सुरक्षित रखें, और इस पूनीत कार्य की जिमेवारी भी हम ही उन को चुन के सोंपते हैं,
सामाजिक न्याय की सुरक्षा प्रकोष्ट का पूरा दायित्व निभाने के लिए |
किताबें मनुष्य को
ज्ञान देती है | अज्ञान से ज्ञानवान बनाती हैं, और मनुष्य उस ज्ञान का उपयोग बड़े
बड़े लोकरों को बिना चाबी खोलने, साल भर की ऑडिट बिना बिल बाउचर के बनाने, कागजों
में पुल व सीमेंट डलवाने, वकालत के द्वारा मृत आदमी को पुन: मरा हुआ साबित करने,
पट्रोल की गाड़ी कैरोसीन से चलाने व और भी न जाने कौन कौन से अनुशन्धानो की खोज में
कर रहा है और ज्ञान के इसी बूते पर सामाजिक न्याय की उम्मीद ........!
भारतीय वैचारिकी बहुत
दिनों तक गुलाम रहने के कारण अपना आदर्श उसे ही मानती है जो गुलाम बना के रखता है
या रखा है और श्रेष्ठता व महानता का प्रतीक भी वे ही लोग हैं या उन लोगों का
खान-पान, रहन-सहन या दिनचर्या है | अत: इस कछुआ दौड़ में सब एक दूसरे को पीछे छोड़ना चाहते हैं और इस अंधी दौड़
प्रतियोगिता में नैतिक मूल्य, आदर्श, समता, समानता, बंधुत्व, भाईचारा, अपनत्व,
निस्वार्थभाव, समाज, न्याय, समाजवाद या अन्य जो भी हैं वे सब पीछे छोड़ और तोड़ दिये
गये हैं, मात्र अव्वल आने की होड़ में | जो पूँजी व सत्ताधारी वर्ग है वह अपनी
पूँजी व सत्ता बरकरार रखने के लिए किसी को भी नष्ट कर सकता है | उसे मात्र अपनी
सत्ता से प्यार है और वह सत्ता के लिए कोई भी हद पार कर सकता है | उसके लिए नैतिक
मूल्यों जैसी ‘चीज’ मात्र संवैधानिक पुस्तकीय हर्फ है या गाल बजाने के चोचले | सत्ता की
चकाचोंध में उसकी आँख चुंधिया गई है और उसे सत्ता व पूँजी के अलावा कुछ भी नहीं
दिखाई देता है | सावन के अंधे को सब हरा ही दिखाई देता है |
पुस्तकीय ज्ञान मात्र
रोजगारी ज्ञान बन चुका है | पढ़ना सिर्फ इसलिए जरूरी हो गया है कि नौकरी प्राप्त
करनी है | नियम, कानून या संविधान को सिर्फ इसलिए जानना जरूरी है कि स्वयं कभी फंस
जाये तो कैसे निकले या रिश्तेदारों को कैसे निकाले या इनका शोर्ट कट तरीका क्या हो
सकता है | दूसरे की मदद करना, कानून व नियम के माध्यम से गलत व अनैतिक को रोकना, ज्ञान
व समझ के आधार पर किसी की समस्या का समाधान करना –अब मात्र शेखचिल्ली की बातों
जैसा लगता है | ऐसे में भारतीय संविधान और सामाजिक न्याय दो अलग अलग पलड़े व किनारे
नजर आते हैं जिनका मिलन असंभव नहीं तो संभव भी नहीं लगता |
मुख्य रूप से दो चीजे होती हैं –एक सिद्धांत व
दूसरा व्यवहार | भारतीय संविधान एक सिद्धांत है और सिद्धांत के रूप में वह एक बहुत
ही श्रेष्ठ व सम्मानीय संविधान है | मगर उसकी श्रेष्ठता व सम्मानियता तभी सही
मायने में सिद्ध होती है जब वह व्यावहारिक रूप में भी क्रियान्वित हो और यदि वह
व्यवहारिक रूप में लागु हो जाये तो निश्चित रूप से सही मायने में भारतीय संविधान व
भारतीय लोगों के प्रति सामाजिक क्या हर तरह के दरवाजे खुल जायेंगें | और यह तभी
संभव है जब हम सिद्धांत के साथ साथ व्यवहार में भी जाति, धर्म, वर्ग, वर्ण, पूँजी
व सत्ता से ऊपर उठकर मनुष्य के बारे में सोचें और सिर्फ सोचे ही नहीं कार्य भी
करें | चूँकि भारतीय संविधान भी मनुष्य के हित की बात करता है, सामाजिक न्याय की
बात करता है अत: जब मनुष्य भी मनुष्य हित की व न्याय की बात करेगा –तभी शायद सार्थक
हो –भारतीय संविधान और सामाजिक न्याय –भारतीय परिपेक्ष में |
Post a Comment