प्रसाद युग के बाद एवं स्वतंत्रता के पूर्व ऐसा कोई प्रतिष्ठित नाटककार नहीं हुआ जिसके नाम के आधार पर किसी युग का निर्माण हो सके। इस काल में तात्कालिक समस्याओं को केन्द्र में रख कर अनेक नाटक लिखे गए। इस समय के नाटकों का विषय मुख्य रूप से सामाजिक समस्याओं को उठाना एवं शासन की अन्यायी नीतियों को आमजन के समक्ष प्रस्तुत करना रहा है। इस समय के ज्यादातर नाटक एक अंकीय रहे हैं। इस काल के नाटकों में मध्यवर्गीय जीवन की समस्याओं को रेखांकित किया गया है। स्त्री-पुरूष का भावुकतापूर्ण आकर्षण तथा वैवाहिक विषमता का चित्रण भी इन नाटकों में दिखाई देता है। इस समय में पौराणिक व ऐतिहासिक नाटकों की अपेक्षा सामाजिक समस्या प्रधान नाटक ही ज्यादातर लिखे गए। इनमें प्रमुख नाटककारों के नाटक हैं-‘उदयशंकर भट्ट‘ के ‘दुर्गा‘, ‘एक ही कब्र‘, ‘जगदीशचंद्र माथुर‘ के ’मेरी बांसुरी’, ’भोर का तारा’, ’गोविंददास’ का ’स्पर्द्धा’, ’रामकुमार वर्मा’ का ’दस मिनट’, ’भुवनेश्वर प्रसाद’ का ’स्ट्राइक’, ’उपेन्द्रनाथ अश्क’ का ’लक्ष्मी का स्वागत’, ’धर्मप्रकाश आंनद’ का ’दीबू’ और ’कमलकांत वर्मा’ का ’उस पार’ आदि ।
स्वातंन्न्योŸार युग के पौराणिक नाटक
स्वातंन्न्योŸार काल के नाटकांे मंे पौराणिक के अर्थ बदले हैं। आजादी के बाद लिखे गये नाटकों मंे प्रस्तुत पौराणिक कथानक का स्वरूप, चरित्र एवं भाषा के स्तर पर बहुत बदलाव आया है। इन मिथकीय कथा नाटकों के बहाने स्वतंत्रता के बाद के परिवेश में नाटककार आमजन की अभिव्यक्ति को इन नाटकों में उजागर करता है। स्वातंन्न्योŸार हिन्दी नाटककार इन प्राचीन नायकों-राम, कृष्ण, इन्द्र, शिव और विष्णु आदि का पुनर्मूल्यांकन करता है और नवीन वैज्ञानिक दृष्टि से वर्तमान समस्याओं के साथ इन्हें जोड़ता है। पौराणिक कथानक पर नई रोशनी कैसे पड़ती है इसका एक नमुना डॉ. कुसुम कुमार के नाटक रावण लीला के इस संवाद से पता चलता है। जिसे विभीषण रावण से कहता है-‘‘भाई साहब ये आपके सभी सभासद आपसे डरते हैं, इसीलिए इतनी खुशामदानी बातंे करते हैं। मेरी तो आपसे यही प्रार्थना है कि भगवान आपको सुबुद्धि दें, आप सारी गलतफहमियांे को गले से टाले और अपने कुल को आने वाली बरबादी से बचा लंे।’’1 विभीषण का रावण को कहा गया यह संवाद और यह नाटक सोचने को मजबूर करता है कि हिन्दी नाटकांे मंे अब यथा प्रस्तावित पौराणिक आख्यानों के लिए जगह खत्म हो गई है। पौराणिक सन्दर्भों के नये संकेत एवं अर्थ जितनी तीव्रता के साथ इस काल के नाटकों मंे आने लगे हैं हिन्दी नाटकों की सम्पदा उतनी ही विशाल होने लगी है। स्वातंन्न्योत्तर हिन्दी पौराणिक नाटकों की दोहरी भूमिका रही है। एक तो इनके माध्यम से सांस्कृतिक चेतना का सम्प्रेषण और स्मरण होता है तथा दूसरा पुराण प्रसंग कथाओं की पुनर्व्याख्या का अवसर उपलब्ध होता है। पुराने सन्दर्भांें को वर्तमान स्थिति मंे रखकर उन्हें समझा व सुलझाया भी जा सकता है।
इस काल के और प्रमुख नाटक इस प्रकार हैं-डॉ. लक्ष्मीनारायण लाल का ‘सूर्य मुख‘, जगदीश चन्द्र माथुर का ‘पहला राजा‘, पं. लक्ष्मीनारायण मिश्र के ‘चक्रव्यूह‘, ‘चित्रकूट‘, ‘अपराजित‘, डॉ. धर्मवीर भारती का ‘अंधायुग‘, दुष्यंत कुमार का ‘एक कण्ठ विषपायी‘, गोविन्द वल्लभ पंत का ‘ययाति‘, रांगेय राघव का ‘स्वर्गभूमि का यात्री‘, नरेन्द्र कोहली का ‘शंभूक की हत्या‘ और गिरीराज किशोर का ‘प्रजा ही रहने दो‘ आदि।
स्वातंन्न्योŸार युग के ऐतिहासिक नाटक
स्वतंत्रता के बाद भारतीय राजनीति में बहुत बदलाव आया। यह बदलाव वैसे तो अकस्मात् लग सकता है। परन्तु इसका स्रोत स्वतंत्रता से पूर्व हुए राजनीतिक परिवर्तनों, विदेशियों का भारत मंे आना जाना, सत्ता के लिए धर्म, जाति एवं वर्ग में मनुष्य का बंटना, स्वार्थी नीतियों के कारण देश के प्रति वफादारी न करना और विश्व युद्धों का प्रभाव आदि में कहीं न कहीं छिपा नजर आता है। यह बदलाव साहित्य की विधाओं का विषय बना और ऐतिहासिक नाटकों के माध्यम से नाटककारों ने वर्तमान की आलोचना अतीत के सन्दर्भों के साथ करनी शुरू की। आदर्शों की स्थापना और महान चरित्रों के गुण गान इस काल के नाटकों में शिथिल पड़ गये और समसामयिक ज्वलंत समस्याओं के आपसी संघर्षों को ऐतिहासिक दृष्टि से पुनर्व्यक्त करने का काम ऐतिहासिक नाटकों ने किया। स्वतंत्रता से पूर्व का निवर्तमान प्रभाव इन नाटकों में परिलक्षित होता है।
जगदीश चन्द्र माथुर के ‘कोणार्क‘ नाटक में उड़ीसा की स्थापत्य कला एवं वहां के खण्डित कोणार्क मन्दिर के माध्यम से सांस्कृतिक धरोहर के रूप में जीर्ण शीर्ण अवस्था में निहित कलात्मकता के कथानक को अपनी काल्पनिक सृजन क्षमता के आधार पर इसे एक विशिष्ट रूप दिया है। कोणार्क के अलावा जगदीश चन्द्र माथुर के ऐतिहासिक नाटक हैं-‘शारदीया‘, ‘पहला राजा‘ और ‘दशरथ नंदन‘।
विष्णु प्रभाकर ने ‘समाधि‘ नाटक में वीर योद्धा यशोवर्मन का आक्रमक तथा हुणों के संघर्ष को दिखाया है। लक्ष्मीनारायण मिश्र का नाटक ‘वितस्तता की लहरें‘, सिकन्दर के वितस्तता पार करने तथा कैकय वीर पुरू से युद्ध करने की घटना को रूपायित करता है। मोहन राकेश का ‘आषाढ़ का एक दिन‘ कालिदास के विशिष्ठ व्यक्तित्व के विषय में तथा उनकी कृतियों की प्रमाणिकता के विषय मंे प्रेम त्रिकोणिय धारा वाला नाटक है। विलोम-मल्लिका एवं कालिदास-प्रियंगुमंजरी के चरित्रों के माध्यम से आधुनिक सन्दर्भों को ऐतिहासिक पृष्ठ भूमि में दिखाया है। ‘लहरों का राजहंश‘ नाटक भी ऐतिहासिक पात्रों के माध्यम से रूप व यौवन के दर्प को खंडित कर वर्तमान को लक्षित करता है। डॉ. रामकुमार वर्मा के नाटक-‘अशोक का शोक‘, ‘सारंग स्वर‘, दोनों ही क्रमशः हृदय परिवर्तन तथा नारी के प्रति सम्मान एवं आदर को उल्लेखित करते हैं। सुरेन्द्र वर्मा का ‘सूर्य की अन्तिम किरण से पहली किरण तक‘ नाटक उत्तराधिकारी के प्रश्नों के माध्यम से पति-पत्नी के सहज शारीरिक संबंधों पर चोट करता है। ‘आठवां सर्ग‘ मंे सुरेन्द्र वर्मा सŸाा के मध्य रचनाकार की स्थिति धर्म तथा प्रतिष्ठा की आड में ग्राह्य भी बाध्य बन जाता है इसका चित्रण करते हैं।
इस युग के अन्य प्रमुख ऐतिहासिक नाटक हैं-देवराज दिनेश के ‘मानव प्रताप‘, ‘यशस्वी भोज‘, ज्ञानदेव अग्निहोत्री का ‘चिराग जल उठा‘, लक्ष्मीनारायण लाल का ‘कलंकी‘, जगन्नाथ प्रसाद मिलिन्द का ‘जय जनतंत्र‘, गोविन्द वल्लभ पंत का ‘तुलसीदास‘, भीष्म साहनी का ‘कबीरा खड़ा बाजार में‘, शंकर शेेष का ‘बिन बाती के दीप‘ तथा ‘एक और द्रोणाचार्य‘ आदि।
स्वातंन्न्योŸार युग के सामाजिक नाटक
स्वतंत्रता के पश्चात हिन्दी नाटकों का विकास विभिन्न क्षेत्रों में हुआ। अतः उन नाटकों को किसी एक वर्ग में रखना, अपने आप में एक समस्या है। समस्या नाटक का प्रभाव प्रसाद युग के बाद लगभग परिवर्तित सा लगता है। उसका कारण है स्वतंत्रता के बाद समस्याओं का रूप एकदम से पृथक होेना तथा विस्तृत होना। डॉ. दशरथ ओझा भारतेन्दु से लेकर आजादी के बाद के समस्या नाटकों के अन्तर को व्याख्यायित करते हुए कहते हैं-‘‘आज के समस्या नाटकों में भावुकता के स्थान पर मनोविश्लेषण कि प्रधानता रहती है। अर्थात् इन नाटकों के पात्र अपने साथियांे का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करते हैं। किसी प्रकार की भावुकता के प्रवाह मंे बहते नहीं। इन नाटकों के ऊपर भारतेन्दु एवं प्रसाद युग से अधिक पश्चिम के आधुनिक युग का प्रभाव पड़ता प्रतीत होता है। इन नाटकांे में नाट्यशास्त्र के नियमों का उल्लंघन और पश्चिम की प्रचलित नाट्य कला का पालन किया गया है। भारतेन्दु युग के सामाजिक नाटक समाज की कुरीतियों का प्रत्यक्षीकरण ही नहीं करते थे, प्रत्युत् उनके निराकरण का उपाय भी बता देते थे, किन्तु आधुनिक नाटक सामाजिक रोग का निदान मात्र कर देते हैं, उनकी चिकित्सा का भार देश के कर्णधारों पर छोेड़ देते हैं। भारतेन्दु युग में महिलाओं की समस्या पर प्रकाश डालने के लिए विविध नाटकों का सृजन हुआ था, जिनमें नारी के अधिकार और उसके कर्तव्य का संतुलन किया गया था, किन्तु आज के सामाजिक नाटक नारी-अधिकार की ओर उसकेे कर्तव्यों से अधिक बल देते हैं।’’2 डॉ.दशरथ ओझा स्वतंत्रता के बाद आये बदलाव को नाटकों के मध्य दर्शाते हैं तथा बदलती सामाजिक समस्या एवं दृष्टिकोण को भी इंगित करते हैं। यह बदलाव सभी जगह लक्षित होता है। समस्या नाटकों के उदय का कारण पश्चिम पद्धति पर नवीन समाज का निर्माण होना और इससे प्रभावित हो इब्शन तथा बर्नाड शॉ के नाटकों में इस तरह की समस्याओं को उठाना है। अतः भारतीय हिन्दी समस्या नाटकों के पीछे पश्चिम के नाट्य रंग का भी प्रभाव दिखाई देता है।
विनोद रस्तोगी का नाटक ‘आजादी के बाद‘ नाम के अनुरूप स्वतंत्रता के बाद की यथार्थ घटनाओं का चित्रण करता है। उपेन्द्रनाथ अश्क का नाटक ‘अंजो दीदी‘ में मनोवैज्ञानिक रूप से दमनकारी प्रवृत्ति के आगे देश तथा समाज क्या परिवार तक नतमस्तक है और अंजलि के अनुशासन के नाम पर तानाशाही प्रवृत्ति मनुष्य की मानसिकता पर दवाब डालती है, यही उभर कर सामने आता है। अंजो दीदी के अलावा उपेन्द्रनाथ अश्क के अन्य समस्या नाटक-‘अलग अलग रास्ते‘, ‘अंधीगली‘ एवं ‘लौटता हुआ दिन‘ आदि हैं। डॉ. बच्चन सिंह अश्क के नाटकों के बारे मंे बताते हुए कहते हैं-‘‘अश्क पहले नाटककार हैं, जिन्होंने हिन्दी नाटक को रंगमंच से संबद्ध किया और उसे रोमांस के कठघरे से निकाल कर आधुनिक भावबोध के साथ जोड़ा।’’3 अश्क ने नाटक एवं रंगमंच दोनों के क्षेत्र में नवीनता को तरजीह दी। सामाजिक समस्याओं व राजनीतिक विडंबनाओं को अपने नाटकों का विषय बनाया। डॉ. लक्ष्मीनारायण लाल ने ‘अब्दुल्ला दीवाना‘ नाटक में वर्तमान न्याय व्यवस्था, शासन व्यवस्था एवं पूँजीपतियों पर कटाक्ष करते हुए इन समस्याओं को उठाया है। ‘मरजीवा‘ नाटक में मुद्राराक्षस बेरोजगारी की समस्या को उठाते हैं। इस भयंकर समस्या का सामना जब व्यक्ति नहीं कर पाता है तो पत्नी बच्चों के सहित वह आत्महत्या करने के लिए बाध्य हो जाता है।
‘रेत की दीवार‘ नाटक में राजेन्द्र कुमार ने दहेज प्रथा की समस्या को उठाकर समाज के सामने यह प्रश्न खड़ा किया है कि जब तक स्वयं युवक-युवती इसका विरोध नहीं करेंगे यह समस्या विकराल होती जायेगी। मोहन राकेश का नाटक ‘आधे अधूरे‘ मध्यवर्गीय परिवार के आपसी द्वन्द्व एवं रिश्तांे में खटास को उभारता है। प्रत्येक व्यक्ति अपने लिए अपना कार्य करता है। वह स्वयं कोे पूर्ण दूसरे को अधूरा समझता है और यह स्थिति मात्र मध्यवर्गीय परिवार में ही नहीं बल्कि उच्च वर्गीय परिवारों में भी आज देखने को मिलती है।
इस युग के अन्य प्रमुख समस्या प्रधान नाटक हैं-विष्णु प्रभाकर के ‘डॉक्टर‘, ‘युगे युगे क्रान्ति‘, हरिकृष्ण प्रेमी का ‘ममता‘, नरेश मेहता का ‘खण्डित यात्राएं‘, मन्नू भण्डारी का ‘बिना दीवारों का घर‘, ज्ञानदेव अग्निहोत्री के ‘माटी जागी रे‘, ‘वतन की आबरू‘, शिवप्रसाद सिंह का ‘घाटियां गूंजती हैैं‘, विनोद रस्तोगी के ‘नए हाथ‘, ‘बर्फ की मीनार‘, मणी मधुकर के ‘खेला पोलमपुर‘, ‘रस गंधर्व‘, ‘दुलारी बाई‘, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना के ‘बकरी‘, ‘अब गरीबी हटाओ‘, नन्द किशोर आचार्य के ‘पागलघर‘, ‘जूते‘, ‘गुलाम बेगम बादशाह‘, हमीदुल्ला के ‘दरिन्दंे‘, ‘उलझी आकृतियां‘, आदि। मुख्य रूप से इस कोटी के नाटकों की कथा के विषय विवाह, प्रेम नैतिकता-अनैतिकता, गरीबी-अमीरी, घूसखोरी, लूट, चोरी, भ्रष्टाचार, बेईमानी, राजनीति का वर्ग संघर्ष एवं भेदभाव, दहेज, परिवार, रिश्ते, मानवीय प्रवृतियां इत्यादि हैं। अर्थात् जीवन तथा समाज की प्रत्येक समस्याआंे को इन नाटकों मंे उठाया है।
स्वातंन्न्योŸार युग के पौराणिक नाटक
स्वातंन्न्योŸार काल के नाटकांे मंे पौराणिक के अर्थ बदले हैं। आजादी के बाद लिखे गये नाटकों मंे प्रस्तुत पौराणिक कथानक का स्वरूप, चरित्र एवं भाषा के स्तर पर बहुत बदलाव आया है। इन मिथकीय कथा नाटकों के बहाने स्वतंत्रता के बाद के परिवेश में नाटककार आमजन की अभिव्यक्ति को इन नाटकों में उजागर करता है। स्वातंन्न्योŸार हिन्दी नाटककार इन प्राचीन नायकों-राम, कृष्ण, इन्द्र, शिव और विष्णु आदि का पुनर्मूल्यांकन करता है और नवीन वैज्ञानिक दृष्टि से वर्तमान समस्याओं के साथ इन्हें जोड़ता है। पौराणिक कथानक पर नई रोशनी कैसे पड़ती है इसका एक नमुना डॉ. कुसुम कुमार के नाटक रावण लीला के इस संवाद से पता चलता है। जिसे विभीषण रावण से कहता है-‘‘भाई साहब ये आपके सभी सभासद आपसे डरते हैं, इसीलिए इतनी खुशामदानी बातंे करते हैं। मेरी तो आपसे यही प्रार्थना है कि भगवान आपको सुबुद्धि दें, आप सारी गलतफहमियांे को गले से टाले और अपने कुल को आने वाली बरबादी से बचा लंे।’’1 विभीषण का रावण को कहा गया यह संवाद और यह नाटक सोचने को मजबूर करता है कि हिन्दी नाटकांे मंे अब यथा प्रस्तावित पौराणिक आख्यानों के लिए जगह खत्म हो गई है। पौराणिक सन्दर्भों के नये संकेत एवं अर्थ जितनी तीव्रता के साथ इस काल के नाटकों मंे आने लगे हैं हिन्दी नाटकों की सम्पदा उतनी ही विशाल होने लगी है। स्वातंन्न्योत्तर हिन्दी पौराणिक नाटकों की दोहरी भूमिका रही है। एक तो इनके माध्यम से सांस्कृतिक चेतना का सम्प्रेषण और स्मरण होता है तथा दूसरा पुराण प्रसंग कथाओं की पुनर्व्याख्या का अवसर उपलब्ध होता है। पुराने सन्दर्भांें को वर्तमान स्थिति मंे रखकर उन्हें समझा व सुलझाया भी जा सकता है।
इस काल के और प्रमुख नाटक इस प्रकार हैं-डॉ. लक्ष्मीनारायण लाल का ‘सूर्य मुख‘, जगदीश चन्द्र माथुर का ‘पहला राजा‘, पं. लक्ष्मीनारायण मिश्र के ‘चक्रव्यूह‘, ‘चित्रकूट‘, ‘अपराजित‘, डॉ. धर्मवीर भारती का ‘अंधायुग‘, दुष्यंत कुमार का ‘एक कण्ठ विषपायी‘, गोविन्द वल्लभ पंत का ‘ययाति‘, रांगेय राघव का ‘स्वर्गभूमि का यात्री‘, नरेन्द्र कोहली का ‘शंभूक की हत्या‘ और गिरीराज किशोर का ‘प्रजा ही रहने दो‘ आदि।
स्वातंन्न्योŸार युग के ऐतिहासिक नाटक
स्वतंत्रता के बाद भारतीय राजनीति में बहुत बदलाव आया। यह बदलाव वैसे तो अकस्मात् लग सकता है। परन्तु इसका स्रोत स्वतंत्रता से पूर्व हुए राजनीतिक परिवर्तनों, विदेशियों का भारत मंे आना जाना, सत्ता के लिए धर्म, जाति एवं वर्ग में मनुष्य का बंटना, स्वार्थी नीतियों के कारण देश के प्रति वफादारी न करना और विश्व युद्धों का प्रभाव आदि में कहीं न कहीं छिपा नजर आता है। यह बदलाव साहित्य की विधाओं का विषय बना और ऐतिहासिक नाटकों के माध्यम से नाटककारों ने वर्तमान की आलोचना अतीत के सन्दर्भों के साथ करनी शुरू की। आदर्शों की स्थापना और महान चरित्रों के गुण गान इस काल के नाटकों में शिथिल पड़ गये और समसामयिक ज्वलंत समस्याओं के आपसी संघर्षों को ऐतिहासिक दृष्टि से पुनर्व्यक्त करने का काम ऐतिहासिक नाटकों ने किया। स्वतंत्रता से पूर्व का निवर्तमान प्रभाव इन नाटकों में परिलक्षित होता है।
जगदीश चन्द्र माथुर के ‘कोणार्क‘ नाटक में उड़ीसा की स्थापत्य कला एवं वहां के खण्डित कोणार्क मन्दिर के माध्यम से सांस्कृतिक धरोहर के रूप में जीर्ण शीर्ण अवस्था में निहित कलात्मकता के कथानक को अपनी काल्पनिक सृजन क्षमता के आधार पर इसे एक विशिष्ट रूप दिया है। कोणार्क के अलावा जगदीश चन्द्र माथुर के ऐतिहासिक नाटक हैं-‘शारदीया‘, ‘पहला राजा‘ और ‘दशरथ नंदन‘।
विष्णु प्रभाकर ने ‘समाधि‘ नाटक में वीर योद्धा यशोवर्मन का आक्रमक तथा हुणों के संघर्ष को दिखाया है। लक्ष्मीनारायण मिश्र का नाटक ‘वितस्तता की लहरें‘, सिकन्दर के वितस्तता पार करने तथा कैकय वीर पुरू से युद्ध करने की घटना को रूपायित करता है। मोहन राकेश का ‘आषाढ़ का एक दिन‘ कालिदास के विशिष्ठ व्यक्तित्व के विषय में तथा उनकी कृतियों की प्रमाणिकता के विषय मंे प्रेम त्रिकोणिय धारा वाला नाटक है। विलोम-मल्लिका एवं कालिदास-प्रियंगुमंजरी के चरित्रों के माध्यम से आधुनिक सन्दर्भों को ऐतिहासिक पृष्ठ भूमि में दिखाया है। ‘लहरों का राजहंश‘ नाटक भी ऐतिहासिक पात्रों के माध्यम से रूप व यौवन के दर्प को खंडित कर वर्तमान को लक्षित करता है। डॉ. रामकुमार वर्मा के नाटक-‘अशोक का शोक‘, ‘सारंग स्वर‘, दोनों ही क्रमशः हृदय परिवर्तन तथा नारी के प्रति सम्मान एवं आदर को उल्लेखित करते हैं। सुरेन्द्र वर्मा का ‘सूर्य की अन्तिम किरण से पहली किरण तक‘ नाटक उत्तराधिकारी के प्रश्नों के माध्यम से पति-पत्नी के सहज शारीरिक संबंधों पर चोट करता है। ‘आठवां सर्ग‘ मंे सुरेन्द्र वर्मा सŸाा के मध्य रचनाकार की स्थिति धर्म तथा प्रतिष्ठा की आड में ग्राह्य भी बाध्य बन जाता है इसका चित्रण करते हैं।
इस युग के अन्य प्रमुख ऐतिहासिक नाटक हैं-देवराज दिनेश के ‘मानव प्रताप‘, ‘यशस्वी भोज‘, ज्ञानदेव अग्निहोत्री का ‘चिराग जल उठा‘, लक्ष्मीनारायण लाल का ‘कलंकी‘, जगन्नाथ प्रसाद मिलिन्द का ‘जय जनतंत्र‘, गोविन्द वल्लभ पंत का ‘तुलसीदास‘, भीष्म साहनी का ‘कबीरा खड़ा बाजार में‘, शंकर शेेष का ‘बिन बाती के दीप‘ तथा ‘एक और द्रोणाचार्य‘ आदि।
स्वातंन्न्योŸार युग के सामाजिक नाटक
स्वतंत्रता के पश्चात हिन्दी नाटकों का विकास विभिन्न क्षेत्रों में हुआ। अतः उन नाटकों को किसी एक वर्ग में रखना, अपने आप में एक समस्या है। समस्या नाटक का प्रभाव प्रसाद युग के बाद लगभग परिवर्तित सा लगता है। उसका कारण है स्वतंत्रता के बाद समस्याओं का रूप एकदम से पृथक होेना तथा विस्तृत होना। डॉ. दशरथ ओझा भारतेन्दु से लेकर आजादी के बाद के समस्या नाटकों के अन्तर को व्याख्यायित करते हुए कहते हैं-‘‘आज के समस्या नाटकों में भावुकता के स्थान पर मनोविश्लेषण कि प्रधानता रहती है। अर्थात् इन नाटकों के पात्र अपने साथियांे का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करते हैं। किसी प्रकार की भावुकता के प्रवाह मंे बहते नहीं। इन नाटकों के ऊपर भारतेन्दु एवं प्रसाद युग से अधिक पश्चिम के आधुनिक युग का प्रभाव पड़ता प्रतीत होता है। इन नाटकांे में नाट्यशास्त्र के नियमों का उल्लंघन और पश्चिम की प्रचलित नाट्य कला का पालन किया गया है। भारतेन्दु युग के सामाजिक नाटक समाज की कुरीतियों का प्रत्यक्षीकरण ही नहीं करते थे, प्रत्युत् उनके निराकरण का उपाय भी बता देते थे, किन्तु आधुनिक नाटक सामाजिक रोग का निदान मात्र कर देते हैं, उनकी चिकित्सा का भार देश के कर्णधारों पर छोेड़ देते हैं। भारतेन्दु युग में महिलाओं की समस्या पर प्रकाश डालने के लिए विविध नाटकों का सृजन हुआ था, जिनमें नारी के अधिकार और उसके कर्तव्य का संतुलन किया गया था, किन्तु आज के सामाजिक नाटक नारी-अधिकार की ओर उसकेे कर्तव्यों से अधिक बल देते हैं।’’2 डॉ.दशरथ ओझा स्वतंत्रता के बाद आये बदलाव को नाटकों के मध्य दर्शाते हैं तथा बदलती सामाजिक समस्या एवं दृष्टिकोण को भी इंगित करते हैं। यह बदलाव सभी जगह लक्षित होता है। समस्या नाटकों के उदय का कारण पश्चिम पद्धति पर नवीन समाज का निर्माण होना और इससे प्रभावित हो इब्शन तथा बर्नाड शॉ के नाटकों में इस तरह की समस्याओं को उठाना है। अतः भारतीय हिन्दी समस्या नाटकों के पीछे पश्चिम के नाट्य रंग का भी प्रभाव दिखाई देता है।
विनोद रस्तोगी का नाटक ‘आजादी के बाद‘ नाम के अनुरूप स्वतंत्रता के बाद की यथार्थ घटनाओं का चित्रण करता है। उपेन्द्रनाथ अश्क का नाटक ‘अंजो दीदी‘ में मनोवैज्ञानिक रूप से दमनकारी प्रवृत्ति के आगे देश तथा समाज क्या परिवार तक नतमस्तक है और अंजलि के अनुशासन के नाम पर तानाशाही प्रवृत्ति मनुष्य की मानसिकता पर दवाब डालती है, यही उभर कर सामने आता है। अंजो दीदी के अलावा उपेन्द्रनाथ अश्क के अन्य समस्या नाटक-‘अलग अलग रास्ते‘, ‘अंधीगली‘ एवं ‘लौटता हुआ दिन‘ आदि हैं। डॉ. बच्चन सिंह अश्क के नाटकों के बारे मंे बताते हुए कहते हैं-‘‘अश्क पहले नाटककार हैं, जिन्होंने हिन्दी नाटक को रंगमंच से संबद्ध किया और उसे रोमांस के कठघरे से निकाल कर आधुनिक भावबोध के साथ जोड़ा।’’3 अश्क ने नाटक एवं रंगमंच दोनों के क्षेत्र में नवीनता को तरजीह दी। सामाजिक समस्याओं व राजनीतिक विडंबनाओं को अपने नाटकों का विषय बनाया। डॉ. लक्ष्मीनारायण लाल ने ‘अब्दुल्ला दीवाना‘ नाटक में वर्तमान न्याय व्यवस्था, शासन व्यवस्था एवं पूँजीपतियों पर कटाक्ष करते हुए इन समस्याओं को उठाया है। ‘मरजीवा‘ नाटक में मुद्राराक्षस बेरोजगारी की समस्या को उठाते हैं। इस भयंकर समस्या का सामना जब व्यक्ति नहीं कर पाता है तो पत्नी बच्चों के सहित वह आत्महत्या करने के लिए बाध्य हो जाता है।
‘रेत की दीवार‘ नाटक में राजेन्द्र कुमार ने दहेज प्रथा की समस्या को उठाकर समाज के सामने यह प्रश्न खड़ा किया है कि जब तक स्वयं युवक-युवती इसका विरोध नहीं करेंगे यह समस्या विकराल होती जायेगी। मोहन राकेश का नाटक ‘आधे अधूरे‘ मध्यवर्गीय परिवार के आपसी द्वन्द्व एवं रिश्तांे में खटास को उभारता है। प्रत्येक व्यक्ति अपने लिए अपना कार्य करता है। वह स्वयं कोे पूर्ण दूसरे को अधूरा समझता है और यह स्थिति मात्र मध्यवर्गीय परिवार में ही नहीं बल्कि उच्च वर्गीय परिवारों में भी आज देखने को मिलती है।
इस युग के अन्य प्रमुख समस्या प्रधान नाटक हैं-विष्णु प्रभाकर के ‘डॉक्टर‘, ‘युगे युगे क्रान्ति‘, हरिकृष्ण प्रेमी का ‘ममता‘, नरेश मेहता का ‘खण्डित यात्राएं‘, मन्नू भण्डारी का ‘बिना दीवारों का घर‘, ज्ञानदेव अग्निहोत्री के ‘माटी जागी रे‘, ‘वतन की आबरू‘, शिवप्रसाद सिंह का ‘घाटियां गूंजती हैैं‘, विनोद रस्तोगी के ‘नए हाथ‘, ‘बर्फ की मीनार‘, मणी मधुकर के ‘खेला पोलमपुर‘, ‘रस गंधर्व‘, ‘दुलारी बाई‘, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना के ‘बकरी‘, ‘अब गरीबी हटाओ‘, नन्द किशोर आचार्य के ‘पागलघर‘, ‘जूते‘, ‘गुलाम बेगम बादशाह‘, हमीदुल्ला के ‘दरिन्दंे‘, ‘उलझी आकृतियां‘, आदि। मुख्य रूप से इस कोटी के नाटकों की कथा के विषय विवाह, प्रेम नैतिकता-अनैतिकता, गरीबी-अमीरी, घूसखोरी, लूट, चोरी, भ्रष्टाचार, बेईमानी, राजनीति का वर्ग संघर्ष एवं भेदभाव, दहेज, परिवार, रिश्ते, मानवीय प्रवृतियां इत्यादि हैं। अर्थात् जीवन तथा समाज की प्रत्येक समस्याआंे को इन नाटकों मंे उठाया है।
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