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Monday, April 30, 2018

Sodhi soil odor ('Prajnal Dhar's poem collection' immediately before the final farewell ') : सोंधी मिट्टी की गंध (‘प्राजंल धर के कविता संग्रह ‘अंतिम विदाई से तुरंत पहले की समीक्षा’)

विगत शताब्दी के अंतिक चरणों में घटित होने वाली प्रवृत्तियों के आधार पर भविष्य का अनुमान लगाया जा सकता है। यह एक तरह से वर्तमान को संवारने और समझने के लिए अतीत की भूमिका का निर्वहन है। किन्तु अतीत और आगत इन दोनों का ही विश्लेषण वर्तमान के लिए है। इसीलिए कवि अपनी कविता में भूत एवं भविष्य के उद्धहरण, मिथक, प्रतीक, रूपक या संदर्भ आदि गढ़ता जरूर है पर ये सब उसके साधन होते हैं साध्य नहीं। उसका साध्य होता है इन सबके माध्यम से वर्तमान को संवारने का और उस वर्तमान के बहाने देश-दुनिया, समाज तथा मूलतः व्यक्ति को संवारने का। प्राजंल धर अपने कविता संग्रह ‘अंतिम विदाई से तुरंत पहले’ में भविष्य की आहट से तुरंत पहले इसी वर्तमान के प्रति सजग होने तथा इसे सहेजने, समझने एवं गढ़ने की वकालत करते हैं।
प्रांजल धर युवा लेखकों में हिन्दी साहित्य में एक परिचित नाम है। लेकिन विशिष्ट रूप से प्रांजल धर मीडिया विश्लेषक या पत्रकारिता के लिए अधिक पहचाने जाते हैं। किन्तु ‘अंतिम विदाई से तुरंत पहले’ कविता संग्रह पढ़ने के बाद मेरा यह मानना है कि प्रांजल धर बहुत ही सहज और मूलतः कवि हैं। उनका कवि मन कविताओं में जिस तरह से खोता है वह दूर की कोड़ी लाने का प्रयास नहीं करता अपितु आस पास की पीड़ा व्यक्त करता है। आज कविताओं में जिस तरह से भावों की अपेक्षा बौद्धिकता की जुगाली के जुमले के कारण विचार अधिक प्रधान हो रहे हैं तथा आधुनिक परिवेश के अन्य दबावों के कारण कविता छंद, लय, तुक एवं भावों से निष्प्राण होती हुई दिखााई दे रही है, वहीं प्रांजल धर अपनी कविताओं में बहर की ओर, तुक की ओर, भाव की ओर, छंद की ओर एवं कहा जाए तो कवित्व की ओर लौटते हुए दिखाई देते हैं।
‘अंतिम विदाई से तुरंत पहले’ कविता संग्रह में प्रांजल धर बार बार पूर्वांचल की ओर लौटते हैं। इस कविता संग्रह की कविताओं में प्रांजल धर असम, त्रिपुरा, मिजोरम, अरुणाचल प्रदेश आदि पूर्वांचल के शब्द, वहां के मिथक, आख्यान, गीत, कविता, प्रतीक, पहनावे, बिंब लोकभाषा आदि के अनेक संदर्भ गढ़ते हैं। यह अनायास नहीं है। ईक्कसवी सदी में पश्चिम का प्रभोलन जिस दृष्टि से आकर्षित कर रहा है उसके बरक्स कवि पाठक के हृदय में वह बीच अंकुरित करना चाहता है जिससे उसकी जडे़ मजबूत हो सकें एवं उन्हें वह भूले भी नहीं। सिर्फ बाह्य आवरण एवं सुंदरता से किसी की विशिष्टता एवं मजबूती को नहीं आंका जा सकता है। अतः भारतीय परंपरा, उसकी लोकधर्मिमा, लोकभाषा एवं लोक संस्कृति के अनगिनत पहलुओं की ओर कवि का लौटना निसंदेह पश्चिम की ओर अंधाधुंध चकाचौंध की भव्यता से कहीं न कहीं तृष्त आज की युवा पीढ़ी की भटकन को एक सही मार्ग की ओर ले जाना है तथा उसके खोने की चिंता भी है। इसीलिए प्रांजल धर कहते हैं-
‘‘इतिहास के कूड़ेदान में पेंदे पर चले गए।
रुकती है निगाह वहां
भाषा पर सबसे जघन्य हमले हुए जहां।
अवास्तविक शहर, आभासी सत्य, उबकाई और
बेतुके नाटक समेत रामराज्य की संकल्पना पर भी।
पर सौंदर्य का उच्छलन कहीं मिलता नहीं,
सरलता का सोता कहीं दिखता नहीं।’’
जीवन के पड़ावों में आने वाली अनेक समस्याओं से इन कविताओं में निराशा के भाव दिखाई देते हैं और यह आज के मानव एवं विशेष रूप से युवा मन पर पड़ने वाला वह वज्राधात है जिसका प्रहार उसके लिए असहनीय सा लगता है। आज के युवा का बहुत जल्दी बौखलाना, सहनशीलता का कम होना, अधीर हो जाना, तकनीक, आधुनिक एवं स्वतंत्र माहौल में अपने को बहुत कुछ सही पाना, इन सब दबावों के बीच में कहीं उसका मन उसे कचोटना है। पर वह उस एहसास को दबा देता है। किन्तु कवि का तात्पर्य उसे आशा से रहित करना नहीं है। कवि मूलतः निराशवादी नहीं आशावादी होता है और वह इन निराशा के भावों को दूर करने के लिए ही शुष्क मरुस्थल में भी आशा से संचित उम्मीद की अगर एक शबनम बूंद भी कहीं दिखाई देती है तो उसे जल का अथाह स्रोत बनाने की कोशिश करता है। यही कोशिश प्रांजल धर की कविताओं में अनेक जगह पर अप्रत्याशित रूप से उम्र के पड़ाव से उदास एवं निराश युवा मन को उत्साह एवं जोश में भरने का एक परोक्ष उपक्रम दिखाई देता है।
बर्तोल्त ब्रेख्त एक जगह कहते हैं कि ‘सहृदय सामाजिक पाठक कृति की तदात्मकता से आगे उसके अनुपाठ, सहपाठ, प्रतिपाठ और उत्तरपाठ तक करता है। अतः सहृदय पाठक कृति से कवि तक जाता है।’ प्रांजल धर की कविताओं के लिए यह कहा जा सकता है कि कवि अपनी कविताओं के माध्यम से पाठक को अपने तक ही नहीं लाता है बल्कि वह अपनी कविताओं के माध्यम से अपने तक एवं अपने माध्यम से समाज के उन अनछूए, अनदेखे एवं देखे पहलुओं को फिर से अवलोकित करवाने की चेष्टा करता है, जिसे हम कई बार देख कर भी अनदेखा कर देते हैं या समय परिस्थिति की राख को कुरदेने का या हटाने का साहस नहीं कर पाते हैं। यह एक प्रकार की भविष्य की समीक्षा भी कही जा सकती है।
प्रांजल धर अपनी कविताओ में अनेक ऐसे विषय चुनते हैं जिनके आधार पर व्यापक जानकारियां प्राप्त होती हैं। यह एक तरह का वैश्विक प्रभाव प्रांजल धर की कविताओं पर उनके स्वयं के अनुभव एवं अतीत के प्रतिबिंब के रूप में देखा जा सकता है। प्रांजल धर अपनी कविताओं में आम व्यक्ति के रोजमर्रा की जिंदगी के सामान्य एवं बुनियादी सवालों से लेकर राजनीतिक षड्यंत्र के दावपेंच एवं सामाजिक ठेकेदारोें की बपोतियों के फतवे, साहित्यिक राजनीतिक दृष्टि से वैश्विक परिप्रेक्ष्य का चिंतन एवं चिंता इनके पीछे के षड्यंत्र एवं उन अनछुए पहलुओं को अपनी पैनी दृष्टि से उद्घाटित करते हैं जिनके समक्ष बहुत सारे सुनामधन्य कवि मौन रहते हैं। दरअसल यह साहस कवि का कम, कवि का उन चीजों से जुड़ाव होना अधिक प्रदर्शित करता है।
प्रांजल धर उत्तर प्रदेश के पूर्वी क्षेत्र में जन्में एवं ग्रामीण प्रकृति तथा उसके जीवन के अनुभव उन्हें सहज रूप से मिले। इसलिए उनकी कविताओं में ग्राम परिवेश की एक नैसर्गिक छवि उद्घाटित होती हुई दिखाई देती है। किन्तु मैं सिर्फ इसे यही कारण नहीं मानता कि प्रांजल धर उत्तर प्रदेश के ग्रामीण परिवेश का अनुभव रखते हैं इसलिए उनकी कविताओं में यह सब दिखाई देता है। किन्तु जहां तक मुझे इन कविताओं को पढ़ने के बाद जो कारण महसूस होता है वह यह कि कवि आज भी ग्रामीण संस्कृति, प्रकृति एवं अनुभव को अपने साथ रखता है एवं उन्हें जीता है। उसे वो अपनी कविताओं में इसलिए नहीं लाते कि वह विस्मृत हो रहा है बल्कि वह तो इसलिए आ जाता है कि कवि उसे विस्मृत कर ही नहीं पाता है। वह विस्मृत होता ही नहीं है और यह कवि की अपनी बात नहीं है, जन सामान्य की बात है। जिसे कवि ने मात्र उकेरा है। लेकिन यह उकेरना उसके हृदय में उद्गारों का उद्वेलित होना है। अर्थात् कविता का सार्थक होना है।
शहर आधुनिक एवं तकनीकि के प्रभाव के कारण गांव भी उनकी चपेट में आते हुए दिखाई दे रहे हैं। उन्हीं चिंताओं को प्राजंल धर अपनी कविता ‘मेरा गांव एक शहर’ में व्यक्त करते हैं। ‘‘शहरी भावों से रुँधी लेखनी,
स्याही में इतनी शक्ति नहीं
जो बांध सके गांवों का रस
निःस्वार्थ प्रेम को कसने में
अब सारे शब्द हुए बेबस
वह आसमान अब रहा नहीं
पर दंश शहर का कहा नहीं।’’
ग्रामीण सौंदर्य के यथार्थ बोध का जीवंत चित्रण कवि जीवन की अनेक कड़ियों में पिरोने का साहस करता है। ग्रामीण क्षेत्र की संस्कृति को वे अपनी कविताआंे मंे ही नहीं बल्कि यथार्थ जीवन में जीते हैं। प्राजंल धर के लिए कविता करना सिर्फ अपने मन में उठे उद्गारो को उकेरना नहीं है। बल्कि ब्रटोल्त ब्रेख्त की तरह वे पाठक के मन को सही रूप से एक भाषा देने का तथा वहां तक ले जाने का प्रयास करते हैं।
‘अंतिम विदाई से तुरंत पहले’ कविता संग्रह में प्राजंल धर प्रेम को लेकर अनेक कविताएं लिखते हैं। लेकिन उनके प्रेम विषयक पाठ की कविताओं में मांसल चित्रात्मकता की गंध या मन की बजाय तन की क्षुदा की तृप्ति की अतिरंजना नहीं है। बल्कि सचमुच प्रेम के कच्चे धागे से बुनी गई वह सहज और मोटी चादर है जिसे कहीं पर भी बिछाया जा सकता है। बिना किसी राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक डर या आंडबर के दवाब के। प्रेम तो वह शबनम की बंूद की मिठास और एहसास है जिसे चातक मन पाखी ही समझ सकता है। इसका तात्पर्य यह कतई नहीं हैं कि आज का मन चातक मन नहीं रहा है। इस आधुनिक चकाचौंध की दुनिया में क्षणिक आनंद एवं त्वरित लाभ की प्रवृत्ति को इतना अधिक बढ़ा दिया है कि वह प्रेम हो या खाना उसे धीरे-धीरे चबा कर नहीं बल्कि उसे तुरंत निगल कर मजा प्राप्त करना चाहता है। अतः प्राजंल धर अपनी कविताओं में उसे निगलकर तुरंत खत्म करने की नहीं बल्कि उसे चबा-चबा कर रसास्वाद का आनंद लेने और देने की बात पर बल देते हैं।
प्राजंल धर अपनी कविताओं में कोई कीर्तिमान नहीं गढ़ते हैं। न ही वो किसी घटाटोप विषय या आंडबर के तले अपना कोई एकांत परिवेश या महल खड़ा करना चाहते हैं। बल्कि प्रांजल धर उस एहसास को जिंदा रखना चाहते हैं जिससे की संवेदना एवं करुणा पर छाई हुई कालिख एवं मटमैली धुंध इस कविता रूपी दीपक की हल्की सी रोशनी में छंट सके और उसकी ओट में उस धुंधलके से वह आत्मीय चित्र लक्षित हो सके जिसको बचाने की कवायत जो भी इंसान है, वे कर रहे हैं। प्रांजल धर भी अपनी कविताओं में यही कोशिश करते हुए दिखाई देते हैं।
मिथकों के माध्यम से प्राजंल धर अतीत, वर्तमान एवं भविष्य को आगहा करते हुए प्रमाण में एक अतीत का उद्धहरण रखते हैं और इस संग्रह की अपनी पहली ही कविता ‘मनवर’ में वे चेताते हैं कि आकांक्षा और वह भी सुख की, दूसरों से तब तक कोरी बेइमानी है जब तक की आप स्वयं वैसा होने का प्रयास नहीं करते।
‘‘कई पिता दशरथ सी आकांक्षा रखने लगे,
राम सा आज्ञाकारी पुत्र पाने की।
जबकि वे स्वयं दशरथ से होते नहीं,
वे जीना चाहते हैं, सुख चाहते हैं।’’
प्रेम की अनुभूति की सच्ची तस्वीर बातों की (मुखर) शक्ति में नहीं बल्कि मौन की अभिव्यक्ति में परिलक्षित होती है। इसीलिए प्राजंल धर ‘हमारी बातें’ कविता से पूर्व कोष्टक में लिखते हैं। ’’उन प्रेमी युगलों के लिए जो स्वीकार नहीं कर पाते कि गहरे प्रेम की सबसे बड़ी अभिव्यक्तियां मौन में समाई हैं, बातों में नहीं......।’’ यह पूरी कविता का ही नहीं प्रेम का भी ऐसा अपरिभाषित सूत्र वाक्य है जिसे रट तो बहुुतों ने रखा है लेकिन समझते बहुत कम हैं। प्रांजल धर की कविताएं प्रेम को चर्चा का विषय नहीं बनाती अपितु वे उसे महसूस करने की सहज सलाह देती हैं। और उसे उतने ही गहराई से वह व्यक्ति महसूस कर सकता है जो बोले कम और महसूस ज्यादा करे। प्राजंल धर ने इस कविता संग्रह में जितनी भी प्रेम की कविताएं लिखी हैं उनमें कहीं भी प्रेम के अतिरेक को परिभाषित या विश्लेषित करने की कोशिश नहीं की। क्योंकि प्राजंल धर इसे कहना नहीं चाहते हैं एहसास कराना चाहते हैं। ‘लव और प्रेम’ नामक कविता में वे कहते हैं।
‘‘हृदय पर छाए प्रेम और दुर्ग पर किए कब्जे में
कुछ फर्क है या नहीं!
दूल्हे की अपनी परिभाषा है प्रेम की
प्रेम लव है यहां
और लव एक ‘फोर लेटर वर्ड’
जिसका वाक्य में कहीं भी
सुविधानुसार
प्रयोग किया जा सकता है
लेकिन प्रेम के ढाई अक्षर अभी तक अपरिभाषित हैं।
मीर, गालिब, मजनूँ और रूमी के
हो चुकने के बावजूद।’’
प्रांजल धर प्रेम के उन अपरिभाषित ढाई अक्षरों की तह में जाने की अपेक्षा करते हैं जिन्हें वे स्वयं भी परिभाषित नहीं कर पाये और मीर, गालिब भी। अतः क्षण भंगुर प्रेम एवं उसकी आड में होने वाले अनेक तरह के षड्यंत्रों की पोल प्रांजल धर अपनी कविताओ में खोलते हैं। कविता व्यक्तिगत कार्यों के मध्य एक दीपक की तरह कार्य करती है जो व्यक्ति की आंतरिक तह में पसरे अंधकार को ज्योतिर्मय करने का उमक्रम है।
अंग्रेजियत के प्रभाव के कारण व्यक्ति कई बार अपने आवरण से बाहर निकल जाता है। अर्थात् वह जैसा है वह न रहकर एक बनावटी चौला धारण कर लेता है। प्रांजल धर ‘बापू की कल्पना’ या कुछ अन्य कविताओं के माध्यम से गंाधी, प्रेम एवं सरलता को किताबों, ग्रंथों, कविताओं में खोजने या कहने में अपरिभाषित सा महसूस भी करते हैं एवं उनको पाने का सही और सहज मार्ग सच्ची निष्ठा, सरल एवं परिश्रम के स्वेद से उत्पन्न आनन्द की सहजता के बाद पिये गए पानी की मिठास में आभासित करते हैं। वे ‘बापू की कल्पना’ कविता में लिखते हैं-
‘‘दुनिया से कह दो,
गांधी अंग्रेजी नहीं जानता!’
कहती, ‘मेहनत करो, तब खाओ’
हालांकि खा पीकर भी
मेहनत करने वाले कहां मिलते आज!
सरल बातों की सरलता लेकर
रंेगती यह कल्पना
पलकों के किनारे-किनारे
और मानना पड़ता
कि निहायत सरल होना कितना
कठिन है!
अंत में कहती-‘किताबों में मत खोजों मुझे!’’
विकास, ऐसो आराम या उन्नती का जो तथाकथित मार्ग ‘पहले खाओ फिर परिश्रम करो’ बना हुआ है यह पश्चिम की ओर गमन करता है। प्रांजल धर बाहर से संुदर एवं अंदर से खोखले एवं कुरूप लगने वाले इस पश्चिम के ढांचे को ढाहने के लिए अपनी कविताओं में बार-बार पूर्व की और लौटते हैं। क्योंकि वे जानते हैंं मूल जडे़ें, प्रेम तथा ज्ञान का स्रोत कहां से प्रभावित होता है। अतः वे कबीर के सूप की तरह ‘थोथे को उड़ा कर सार को ग्रहण करना’ एवं करवाना चाहते हैं। यह उनकी कविताओं की अपनी सोंधी चमक और महक का प्रभाव है। प्रांजल धर आज के तथाकथित विकास और अंग्रेजियत की मुखालफत करने वाले मुखौटों पर चोट करते हैं। ये वे कविताओ हैं जो सचमुच परिश्रम के पथ पर चल कर किसी पद को नहीं बल्कि प्रेम को प्राप्त करती हैं और करवाती हैं। यह कोई कागज का सुमन, कैमिकल का रंग, बनावटी प्रेम या वह खुशबू नहीं है जो कुछ समय बाद समाप्त हो जायेगी अपितु यह तो घर के आंगन की मिट्टी में लगे हुए पौधे की वह गंध है जो वहां से गुजरने वाला हर व्यक्ति महसूस कर सकता है। ‘अंतिम विदाई से तुरंत पहले’ संग्रह की कविताएं इस प्रेम की गंध को महसूस कराने का प्रयास करती हैं।
अन्योक्ति के माध्यम से प्रांजल धर अनेक जगहांे पर राजनीतिक पाखण्ड का पटाक्षेप करते हैं। झूठे राष्ट्रवाद एवं दिखावे के समाज-संस्कृति के संरक्षण का दावा करने वाले मुखौटेधारी लोगों को वे अपनी कविताओं में अनेक जगह लताड़ते हैं। ‘डू नॉट वरी’ कविता में कहते हैं-
‘‘जिम से निकलकर सीना फुलाकर,
राष्ट्रवाद का बेसुरा गीत गाया जा रहा है,
काले धन से राष्ट्र को,
सजाया जा रहा है।’’
राजनीतिक रूप से देश के अंदर बहुत सारी जुमले बाजियां हो रही हैं, उन्हीं पर प्राजंल धर अपनी कविताओं से प्रहार करते हुए नजर आते हैं। पूंजीवाद, अनैतिकता, भ्रष्टाचार, राजनीतिक षड्यंत्र आदि के बीच में फंसे हुए आमजन, स्त्री, दलित, आदिवासी एवं किसान इन सब के दर्द को भी इस कविता संग्रह में खूब महसूस किया गया है। बदहाली में किसान का आत्महत्या करना, महिलाओं के साथ होने वाले अत्याचार, बलात्कार, आदिवासियों का अनेक कार्यों में पिछड़ना, घोटाले, बेईमानियां एवं इन सब के ऊपर भी राजनीतिक आकांओं द्वारा चिंता न करना, उचित समाधान न तलाशना एवं इनके माध्यम से राजनीतिक रोटियां सेंकने का प्रयास करना, निःसंदेह प्राजंल धर की ‘कुछ भी कहना खतरे से खाली नहीं कविता’ बहुत कुछ कह जाती है और इनकी हकीकत को बयां कर जाती है।
‘‘और आत्महत्या कितना बड़ा पाप है, यह सबको नहीं पता,
कुछ बुनकर या विदर्भवासी इसका कुछ-कुछ अर्थ
टूटे फूटे शब्दों में जरूर बता सकते हैं शायद।
.....इसीलिए आपने जो सुना, संभव है वह बोला ही न गया हो
और आप जो बोलते हैं, उसके सुने जाने की उम्मीद बहुत कम है....
सुरक्षित संवाद वही है जो द्वि-अर्थी हांे ताकि
बाद में आप से कहा जा सके कि मेरा तो मतलब यह था ही नहीं
भ्रांति और भ्रम के बीच संदेह की सँकरी लकीरें रंेगती हैं
इसीलिए
सिर्फ इतना ही कहा जा सकता है कि कुछ भी कहना
खतरे से खाली नहीं रहा अब!’’
प्राजंल धर की कविताओं के केन्द्रीय विषय एवं इनमें प्रयुक्त बिम्ब, प्रतीक शब्द, भाव आदि किसी टाईल्स का खूबसूरत नयनाभिराम दृश्य नहीं हैं बल्कि गोबर से लिपे आंगन में बिखरे वे चाक्षुष जौ के दाने हैं जो सितारों की तरह चमकते रहते हैं। पर इनकी आभा किसी आधुनिक लाईट की चकाचौंध सी रोशनी से पाठक की आंखों को चुंधियाती नहीं है बल्कि शरद चांदनी में पसरे गेहूं की फसल की कंचन आभा का दैदिप्यमान लगती हुई ऐसी प्रतीत होती है जैसे किसी किसान की ग्रहणी ने ओढनी ओढ रखी हो और श्रम के कणों से लथपथ है। ये कविताएं श्रम का वह श्वेद हैं जो स्वाद में खारा होता है पर मेहनत की मिठास का आभास देता है।  

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