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Monday, April 30, 2018

Cinema and society under the scope of questions : सवालों के दायरे में सिनेमा और समाज


                                               
      कला का पदार्पण किसी भी कारण वश हुआ हो किन्तु यदि इसके मुख्य में देखें तो एक बात सर्वोपरी व सर्वमान्य है. उसका समाज से सरोकार द्य थोड़े और लचीलेपन से यदि दो कदम आगे सोचे तो कलाकार की अभिव्यक्ति व समाज पर उसका प्रभाव भी हमें इसके कारणों में दिखाई देतें हैं द्य परन्तु यहाँ पर कला कला के लिए है या कला समाज के लिए है दृ वाली बहस शुरू होती है द्य यदि मूलरूप से देखें तो कला व्यक्ति के मन मष्तिष्क की किसी भी रूप में वह उपज है.जो उसके आंतरिक परिवेश में एक कौतुहल व उलझन होती है तथा वह बाह्य रूप में आकर एक मूर्त रूप पाकर दृउस कौतुहल व उलझन का समाधान रूपी परिणाम होती है द्य फिर वह चित्रकलाए संगीतए वाद्यए नाटकए कविताए कहानीए सूत्रए कल्प या अन्य जो भी हो उसी का एक रूप होती है द्य यदि इसके द्वारा समाज का विकास या भला होता है तो यह ष्एक तीर में दो शिकारष् दोहरा लाभ है द्य फिर इसे हम अरस्तु के सिद्धांत विरेचन का नाम भी दे सकते हैं द्य
       आधुनिक द्रश्य.श्रव्य माध्यमों में दिन.प्रतिदिन बहुत ज्यादा बदलाव आ रहा है द्य पूर्व की अपेक्षा कल कुछ भिन्न थाए कल की अपेक्षा आज कुछ भिन्न हैए आज की अपेक्षा कल कुछ भिन्न होगाए ष्भविष्य न जानाति कोेपीष् द्य इस तरह से यदि देखें तो मुख्य रूप से नाटक का रंगमंचीय रूपए टेलीविजनए रेडियो व फिल्म ये मुख्य  द्रश्य.श्रव्य माध्यमों में गिने जा सकते हैं और इन सभी का पूर्व से लेकर आज तक अपना एक सामाजिक सरोकार है द्य ;ऐसा इनके चालक परिचालक सभी कहते हैं द्यद्ध हाँ वह कितना समाज से सरोकार रखता है या नहीं यह एक अलहदा प्रश्न है द्य किन्तु एक बात तय है की आधुनिक युग में इन सब के चेहरे ही नहीं आंतरिक भाव व संरचना भी परिवर्तित हुयें हैं द्य
       इन सब का उद्देश्य समाज में व्याप्त विसंगतियोंए अनैतिकताओंए बुराइयों व खामियों को चिन्हित कर उन्हें प्रदर्शित करना व समाज को इनके निवारण हेतु प्रेरित व प्रोत्साहित करना प्राथमिक कार्य व इसके लाभांश के साथ कुछ पूँजी व प्रतिष्ठा कमाना द्वितीय कार्य होता था द्य परन्तु आधुनिक युग में दृश्य एकदम उलट गया है और जो द्वितीय कार्य था वह प्राथमिक हो गया है व प्राथमिक कार्य कहीं द्वितीयए तृतीयए चतुर्थए पंचमण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्हो गया है या फिर गोण ;लुप्तद्ध हो गया है द्य इसी कारण पूर्व में इन माध्यमों में लोगों की रूचि कम होती थीए परन्तु जैसे जैसे दृ इनमें पैसा व प्रसिद्धि की चमक आने लगी वैसे ही लोग इनकी और आकर्षित होने लगेद्य हालांकि ओसत रूप में इस कला के वास्तविक पारखी उतने ही हैं जितने पूर्व में थेद्य और आज हालत यह है की कला का अलिफ़ए बेए ते. भी नहीं जानने वाला दृदो.दोए तीनदृतीन रेडियो व टेलीविजन चैनलों का मालिक है व व्यावसायिक दृष्टि से पूँजी निवेशक प्रत्येक साल २.३ फ़िल्में बनाने वाले आधुनिक कला प्रेमी हैं द्य रंगमंच में आज नवीन तकनीक का प्रयोग राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से लेकर छोटे दृछोटे शहरों की रंगमंडलियों तक में देखा जा सकता है द्य अलबत्ता रंगमंडलिया रही ही नहींए परन्तु यदि हैं भी तो इसी रूप की द्य इनमें गीतोंए नृत्योंए प्रकाश व रूप सज्जा का पूर्ण रूप में कम्प्यूटरीकृत व तकनीकी ताम झाम वाला मसाला पिरोया जा रहा है द्य इसी तरह से एफ एम् रेडियो ने रेडियो की लुप्त होती दुनियां को फिर से तिनके का सहारा दिया है और मात्र सहारा ही नहीं उसे पूर्ण रूप से जीवित कर दिया है द्य हाँ यह बात अलग है की रेडियो जोकि जोक के नाम पर जब तक दृलड़कीए सेक्सए बेडरूमए ब्रा की बात न करें तब तक कानों को अप्रियए कहने को रसात्मक व आधुनिक नहीं लगता हैद्य इस कार्यकर्मों के संचालन में संख्यात्मक दृष्टि से भी लड़कियों की संख्या ज्यादा होती है द्य टेलीविजन पर सास बहु के संस्कार इतने जीवंत हो गए की वास्तविक जिंदगी में भी इन सीरियलों ने इन रिश्तों में आहुति दे दी है और ये आज पूर्ण दैदीप्यमान हैं द्य सास बहु कैसी होनी चाहिए यह अब सिनेमा टेलीविजन निर्धारित कर रहे हैंद्य जब इन सीरियलों से लोग ऊबने लगे तो वास्तविक प्रदर्शन ;रियल्टी शो द्धके नाम पर पहले से सब कुछ तय व निश्चित निर्धारित सबसे ज्यादा अवास्तविक प्रदर्शनों को ये लोग भोजन की तरह एक के बाद एक ऐसे प्रस्तुत करते हैं की यह पसंद नहीं है तो ये ले लीजीय और यदि यह पसंद नहीं है तो ये तो लेना ही पड़ेगाण् ये प्रदर्शन बेमौसमी कुकुरमुते की तरह हर चैनल पर ऐसे उग आये जैसे संसद के शीत कालीन सत्र में प्रत्येक क्षेत्र का वह नेता भी उपस्थित हो जाता है जिसके आमतोर पर अपने क्षेत्र में भी दर्शन दुर्लभ होते हैं द्य गीतए संगीतए हास्य व करोड़ो अरबो से आम व खास सबको रैम्पों पर नचा नचा कर जनता को भावुक बनाया जा रहा है द्य फिल्मों में सेक्सए हिंसा व द्विअर्थी संवादों के अलावा कुछ बचा ही नही हो जैसे द्य ऐसा लगता है फिल्म इंडस्ट्री में कपडे पहनने पर कर्फ्यू व टैक्स लग गया है एयदि गलती से किसी अभिनेत्री ने ज्यादा कपडें पहन लिए तो वह असभ्य व फूहड़ करार कर दी जायेगी द्य अभिनेत्रियों का नग्न होना भारतीय सिनेमा का यथार्थ हैघ् या भारतीय समाज का यथार्थ हैघ् या आधुनिकता का यथार्थ हैघ् अभिनेत्रियाँ नग्न हो रही हैं कम से कम यह तो यथार्थ हैद्य और इस यथार्थ को कुछ लोग सार्वजनिक रूप से गलत कहने के बाद भी व्यक्तिगत रूप से अकेले में ऐसा कर रहे हैं या इसे स्वीकार कर रहे हैंद्य यह भी यथार्थ हैद्य सिनेमा का आज अर्थ बदला है लेकिन इस सिनेमा के बदले हुए अर्थ के लिए जिम्मेदार कोन हैघ् खुद सिनेमाघ् या समाजघ् सिनेमा का योगदान अधिक दिखाई देता हैद्य क्योंकि सिनेमा की आयु यूँ बहुत लंबी नहीं हैए लेकिन उसका विस्तार व प्रभाव बहुत प्रभावी तथा तेज हैद्य समय रुकता नहीं हैए समय बहुत तेज गति से चलता हैद्य लेकिन सिनेमा भी कम गति से नहीं चलता हैद्य आज के हालात देख कर तो लगता है समय से भी तेज गति से सिनेमा चल रहा है या समय को सिनेमा एक गति दे रहा हैद्य एक प्रतियोगिता सी चल रही हैद्य सिनेमा में बदलाव भी आये हैं और सिनेमा बदलाव भी लाया हैद्य लेकिन सार सार को गहने और थोथा उड़ाने वाली कला या तो हमें आती नही है या हम ऐसा इसलिए नहीं करते हैं की हमें भी इससे लाभ हैद्य कोई भी कला किसी भी प्रकार की विकृति फैलाती है या वह समाज को जोड़ने के बजाय तोड़ने का काम करती है तो वह कला निरर्थक हैद्य सिनेमा में बढ़ते दृलड़कीए सेक्सए बेडरूमए ब्राए चुंबन के दृश्य एक ऐसे यथार्थ को प्रस्तुत कर रहे हैं  जिसका प्रभाव सकारात्मक के बजाय नकारात्मक अधिक हैद्य यह प्रदर्शन भोंडा हैए शील हैए अश्लील हैए उचित हैए अनुचित हैए कुछ सही हैए कुछ गलत है इस तरह की बहस गोष्ठियों में होती रही है और हो रही हैद्य लेकिन क्षणिक मानसिक व शारीरिक आनन्द के लिए तथा पैसा व पद के लिएए इस तरह की बहस में हमेशा ही दो धड़े बन जाते हैं कुछ इसके पक्ष में कुछ विपक्ष मेंद्य इसमें धर्मए सत्ताए पद पैसाए प्रतिष्ठाए नामए इज्जत आदि सब अपनी भूमिका निभाते हैंए इसे सही व उचित रास्ते की ओर न जाने देने के लिएद्य       
फिल्म फिल्म है वह यथार्थ नहींद्य अर्थात यदि एक तरह से इसको झूठ कहा जाये तो गलत नहीं होगाद्य लेकिन इस फिल्म रूपी झूठ को इतनी सत्यता के साथ दिखाया जाता है या प्रचारित किया जाता है की इसका प्रतिबिम्ब समाज में दिखाई देता हैद्य और इस असत्य को समाज बहुत ही आसानी से पचा भी जाता हैद्य यह भारतीय समाज और सिनेमा दोनों का यथार्थ हैद्य समाज की इस बदलती हुए परिस्थिति के लिए सिनेमा जिम्मेदार है ऐसा एक पंक्ति में कह देना आसान है लेकिन न्यायोचित नहींद्य गिव एंड टेकए मांग या पूर्तिए इस हाथ ले उस हाथ देए जैसी करनी वैसी भरनी ये सूक्तियां कहने या किताबों की शोभा बढ़ाने के लिए ही नहीं रची गई थीध् हैंद्य कोहरा घना होने के कारण यदि हमें कुछ दिखाई नहीं देता है तो इसका यह तात्पर्य कदापि नहीं होता की शेष चीजों का अस्तित्व ही खत्म हो गयाद्य यह व्यक्तिगत आलोचना कब सर्वमान्य बन जाती है या बना दी जाती है यह भी कम सिनेमा की तरह नहीं है अपने आपमेंद्य कहने के लिए बहुत कुछ कहा जा सकता है और आजकल तो यह चलन हो गया है की कहना अलग और करना अलगद्य               
      इन सब के प्रदर्शन से लाभ व हानी कितनी है व यह उचित व अनुचित है या नहींए यह सवाल तो अपने आप में बड़ा सवाल है ही साथ में यह बात भी मुख्य है दृकी इन सबका समाज के साथ कितना सरोकार है घ् आखिर ये सब समाज को क्या दिशा व सन्देश दे रहे हैं घ् किस दिशा में ले जा रहे हैं घ् इन मुखोटों के पीछे और कितने चेहरे हैं जो परत दर परत खुलने पर भी अपनी असलियत रुपाईत नहीं कर रहे हैं घ् दीर्घ सुख के अनुचर नहीं हैं आज के ये चाक्षुष बिम्ब प्रतिबिंब के अनुगामी व प्रतियोगी द्य इन्हें तो मात्र क्षणिक व लघु आनंद की पिपासा ही रसोद्रेक से तृप्त करती है द्य रस जिसे आत्मा कहा जाता है दृकाव्य कीए साहित्य कीए कला कीद्य आज पूर्ण रूप से लुप्त हो गया है या पूर्ण रूप से रस ही व्याप्त हो गया है घ् इस रसमयी सिनेमाई दुनिया से जब रस ही गायब हो गया तो फिर क्या बचाघ् हां उसका अर्थ बदल गया है द्य रस लोलुप व रस भोगता ही नजर आते हैं चहूँ ओरद्य इसलिए आज सामाजिक सरोकारों के प्रति कितने वफादार हैं आधुनिक सिनेमा के चमकते रोशनाई बदलते चेहरे यह एक गंभीर व विचारणीय प्रश्न है घ्

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