कोई भी कला एकल नहीं हो सकती या फिर कहा यह भी जा सकता है कि कला एक सामूहिक संरचना है और जो एकल है वह कला नहीं है। कला कला के लिए है या कला समाज के लिए, विद्वानों, विचारकों की इस बहस को यदि सहज रूप से ही देखे तो समझ में आ जायेगा कि किसी भी कला का जो भी रूप होता है वह अपने में समाज को समाहित किए होता है। अतः वह कला एकल नहीं होती है। अर्थात वह समाज से पृथक नहीं होती है। समाज से जुडी हुई होती है। उसका मूर्त रूप हमारे सामने जब आता है तो उसमें समाज के गत, वर्तमान या भविष्य के क्रिया कलापों को ही साकार या चित्रित किया जाता है। अतः कला कला के लिए है या नहीं यह स्पष्ट रूप से नहीं कहा जा सकता लेकिन कला समाज के लिए है या होती है या होनी चाहिए यह जरूर स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है और कला के लिए यह जरूरी भी है। इस बात को और सरल अर्थों में ऐसे कहा व समझा जा सकता है कि जैसे समाज के अंदर सामुहिकता है और जन मानस है उसी प्रकार कला में भी सामुहिकता और जनमानस है अर्थात समाज है। और कला अपने माध्यम से या अंदर जो कुछ समाये रहती है या बयां करती है वह समाज का ही अंग होता है।
फिल्म एक ऐसी कला है जो लगभग सभी को अपनी ओर आकर्षित करती है। इसके आकर्षण के अनेक कारण हैं। जैसे-कहानी, अभिनय, अभिनेता, अभिनेत्री, गीत, संगीत, संवाद, सेक्स, एक्सन, सेट आदि। इन सब के कारण या इनमें से किसी एक के कारण फिल्म यादगार फिल्म बन जाती है या आकर्षित। इसमें सेट को छोड बाकी सब की चर्चाएं आमतौर पर होती है। लेकिन कुछ फिल्म ऐसी होती हैं जो अपने सेट के कारण चर्चित होती हैं। यथा-मुगल ए आजम, देवदास आदि। लेकिन ऐसी कम ही फिल्में होती हैं। लेकिन इसका तात्पर्य यह कतई नहीं है कि अन्य फिल्मों में सेट (दृश्य विन्यास) का कोई महत्व नहीं है। दरअसल ये चुनिंदा फिल्में तो वे हैं जिनमें सेट अपने आप में इतनी भव्यता लिए हुए है कि बिना इसके चर्चा के इन फिल्मों की चर्चा अधुरी सी लगती है या फिर संभव नहीं है। जैसा की ऊपर कहा गया है कि कला अपने आप में सामूहिकता लिए होती हैं तो फिल्म निश्चित रूप से अनेक लोगों का एक मिला झुला एक प्रयास या कला है। अर्थात यह एक सामूहिक कार्य है। निर्देशक से लेकर स्पोट बॉय तक, अभिनेता से लेकर मेकअप कलाकार तक, लेखक से लेकर सेट डियाइनर तक सबका अपना अपना रोल होता है और इन सबके प्रयास से ही एक फिल्म पूर्ण होती है। लेकिन आम तौर पर अभिनेता, अभिनेत्री, निर्देशक, गीत, संगीत आदि की तो चर्चाएं होती हैं लेकिन सेट डिजाइन की चर्चा न के बाराबर होती है। जबकि किसी भी दृश्य को जिस प्रकार एक कलाकार के हाव भाव यानी उसका अभिनय जीवंत करता है। उसी प्रकार सेट भी उस दृश्य में अपनी भूमिका कम नहीं रखता है, उस दृश्य को जीवंत करने में।
दरअसल सेट है क्या चीज। इसके लिए प्रसिद्ध नाट्य कर्मी रवि चतुर्वेदी कहते हैं-‘‘विन्यास अथवा डिजाइन सामान्यतः बहुचर्चित शब्द है जिस पर अनेक मत एवं विचार प्रकट किये जा सकते हैं। किसी के लिये विन्यास का तात्पर्य बनावट करने का माध्यम है। अधिकांश व्यक्तियों की राय में वस्तुओं के बाह्य स्वरूप की सौन्दर्य अभिवृद्धि का प्रयास ही विन्यास अथवा डिजाइन होता है। आंशिक रूप से यह सत्य हो सकता है परन्तु निस्संदेह विन्यास की अवधारणा इससे अधिक व्यापक है। यदि हम अपने चारों ओर ही देखने का प्रयास करें तो इसी परिणाम पर पहुँचेंगे कि सौन्दर्य अभिवृद्धि अथवा अलंकरण की प्रक्रिया मात्र को ही विन्यास की परिधि नहीं माना जा सकता ।............विन्यास एक उद्देश्यपूर्ण दृश्य सृजन की प्रक्रिया है।’’ (दृश्य विन्यास, रवि चतुर्वेदी, पृ.-1) चार प्रकार के अभिनयों में एक है आहार्य अभिनय। इस अभिनय का सीधा संबध पौशाक, मेकअप, सेट डिजाइन आदि से होता है। आंगिक, वाचिक एवं सात्विक इन सब का सम्मिलित रूप है अभिनय को रसात्मकता की ओर ले जाना। फिल्म के किसी भी दृश्य को जीवंत बनाने के लिए जितना अभिनय जरूरी है उतना ही जरूरी है उस माहौल को सकारात्मक रूप देने वाला दृश्य। दृश्य डिजाइन के माध्यम से उस दृश्य को ऐसा रसात्मक एवं सहायक बनाया जाता है कि वह दृश्य जीवंत हो उठे। और यह कार्य मात्र अभिनय के द्वारा ही नहीं होता है बल्कि इसमें बहुत बडी भूमिका होती है दृश्य डिजाइन की। दरअसल सेट डिजाइन सिनेमा को सीमित भी करता है और एक आयाम भी देता है। सीमित तो इस अर्थ में करता है कि बडे बडे गांव व शहर के दृश्य भी वहीं सेट लगाकर फिल्मा लिए जाते हैं जिससे यह प्रतीत होता है कि यह कोई वास्तविक गांव या शहर का सीन है। और इस सीन के माध्यम से फिल्म को एक व्यापकता मिलती है इस मायने में यह एक बडा आयाम भी साबित होता है।
डिजाइन के लिए जरूरी है कि वह कथानुसार हो, स्थानुकूल हो, फिल्म की प्रस्तुति की आत्म एवं भाव की अभिव्यक्ति को प्रस्तुत करने वाला हो, देखने में आकर्षक हो, अभिनेताओं द्वारा उपयोगी हो, सरलता से निर्मित हो, अवास्तविक होते हुए भी वह वास्तविकता का एहसास देता हो, फिल्म के अन्य सहयोगी तत्वों से संबंधित हो। दृश्य कला के महत्व को रेखांकित करते हुए अडोल्फ अप्पिया कहते हैं-‘‘दृश्य अपने सर्वश्रेष्ठ अर्थ में प्रकाश एवं आकृतियों के आवृत्याकार हैं जो मंच पर जीवन्त एवं सक्रिय उपस्थिति को घेरते हैं और उन्हें सहयोग प्रदार करते हैं एवं जीवन्तता में वृद्धि करते हैं।’’ (दा लीविंग स्टेज, केननेथ मैक गोवन) दृश्य विन्यास फिल्म के अंतर्संबन्धों को संयुक्तता देता है। वह सीन को नया रूप देता है। इसलिए अनेक निर्देशक इसके महत्व को ध्यान में रखते हुए, अनेक संवाद व दृश्य की योजना का फिल्मांकन इसके अनुसार करते हैं या इसको संवाद व सीन के अनुसार बनाते हैं।
इसलिए यह कहा जा सकता है कि दृश्य विन्यास सिनेमा का वह भाग जो सिनेमा को जीवंत करने में अपनी बडी भूमिका निभाता है।
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