ज्ञानदेव अग्निहोत्री, लक्ष्मीनारायण लाल, सुरेश शुक्ल ‘चन्द्र’, सुशील कुमार सिहँ के चुनिदां नाटकों के सन्दर्भ में
नाटक अपनी दृश्य श्रव्य विधा के कारण काव्य की विशिष्ट विधा तो है ही साथ ही सामाजिक विधा भी है । सामाजिक विधा से तात्पर्य है नाटक का प्रदर्शन सामाजिकों (दर्शक)के लिए या मध्य किया जाता है और यही नाटक की सफलता व पूर्णता भी है । यहां आधुनिक युग के कुछ नाटककारों के कुछ नाटकों में सत्ता व पूँजी का प्रतिरोध उल्लेखित किया गया है । इनमें विशेष रूप से ज्ञानदेव अग्निहोत्री का शुतुरमुर्ग, डॉ. लक्ष्मीनारायण लाल का नरसिंह कथा व अब्दुल्ला दिवाना, सुरेश शुक्ल चन्द्र का भस्मासुर अभी जिन्दा है व आकाश झुक गया तथा सुशील कुमार सिंह का सिंहासन खाली है, इन नाटकों को लिया गया है ।
ज्ञानदेव अग्निहोत्री द्वारा लिखा नाटक ’शुतुरमुर्ग’ एक प्रतिकात्मक व्यंग्य नाटक है । इस नाटक के माध्यम से सत्ता के विभिन्न मुखोटो पर नाटककार प्रहार करता है । सत्ता अपनी व्यवस्था को बनाये रखने के लिए शुतुरमुर्गी प्रवृत्ति का चोला धारण करती है और इसी हथियार के सहारे वह जनता के विरोधीलाल, मामूलीराम, सुबोधीलाल आदि नुमाइदों व अवरोधकों को अपने मार्ग से ध्वस्त करती रहती है । राजा अपना अभिशाप जनता व मंत्रियों के लिए इस प्रकार सुनाता है ’’राजा-(ऊँचा स्वर ) समझ गया.......... समझ गया................तुम लोग हमें निर्वासित करना चाहते हो । हमें निकालना चाहते हो । लेकिन अपने दिलों से हमें कैसे निकाल पाओगे? हम तुम्हें वरदान देते हैं कि तुम सब हमारे वंशज बनो । हमारी महान पंरपरा को आगे बढ़ाओ और परमसत्य के प्रतीक शुतुरमुर्ग की स्थापना करो ।’’(शुतुरमुर्ग-ज्ञानदेव अग्निहोत्री, पृ.-82) सत्ता के लिए शासक वरदान भी देता है तो अपने हित के लिए, अपने वंशज के रूप में, अपनी महान परंपरा के रूप में, ताकि उन पर फिर से वही अपनी सत्ता स्थापित कर सके । सत्ता अपना कार्य करवाने के लिए खूब प्रलोभन देती है जनता को ताकि जनता सत्ता के विरोध के बजाय समर्थन में खड़ी रहे ।
’’राजा-हां मामूलीराम । पर सबसे पहले तुम्हे सब कुछ मिलेगा । हमारे शुतुरमुर्ग के पूरा होने से पहले तुम्हें और बाद में भीड़ को शांत रखना होगा ।’’(शुतुरमुर्ग-ज्ञानदेव अग्निहोत्री, पृ.-86) अर्थात सत्ता को अपना उल्लू सीधा करने के लिए यदि चन्द लोगो को कुछ प्रलोभन देना पड़े तो वह देती है ।
‘अब्दुल्ला दीवाना’ डॉ. लक्ष्मीनारायण लाल द्वारा लिखित आजादी प्राप्ति के बाद के भारत की ‘‘भ्रष्ट राजनीति, आंडबर पूर्ण धार्मिक व्यवस्था तथा लगंड़ी न्यायव्यवस्था का पर्दाफाश करने का प्रयास करता है ।’’(स्वातंत्रयोत्तर हिन्दी नाटक-सुदर्शन मजीठिया, पृ.-68) ’अब्दुल्ला दीवाना’ नाटक में सत्ता की शक्ति के आगे आम व गरीब लोगो का अस्तित्व नगण्य होता है और सत्ताधारी लोगो तक अपनी पहुँच रखने वाले पूँजीपति पूँजी के बल पर बिलकुल साफ बच जाते हैं । इसी एकाधार शक्ति की स्वामिनी सत्ता के सूत्र खोलता है यह नाटक ।
’’जज-परवीन टंडन का केस कहाँ गया ?
पुलिस- पोलिटिकल प्रेसर की वजह से आपके इजलास से खिसककर बाँए से दाँए चला गया । वहाँ से ऊपर उड गया, ऊपर से नीचे गिर गया और नीचे से फुर्र हो गया ।’’(अब्दुल्ला दीवाना-लक्ष्मीनारायण लाल, पृ.-63)यह सत्ता की ताकत है जो केस को दाएँ से बाएँ, बाएँ से दाएँ, नीचे से ऊपर, ऊपर से नीचे कर देती है । सत्ता के आगे सब फूर्र हो जाता है । हाँ पूँजी का गठजोड़ सत्ता को ओर भी मजबूत करता है और पूँजी अपनी सत्ता का प्रभाव कैसे जमाती है इसका चमत्कार भी नाटक में दर्शाया गया है । नाटक का डायरेक्टर अपना मुकदमा जीतने के लिए वकील को रिश्वत देना चाहता है, वह कहता है-‘‘कमाल है हमारे वकील के पास मैच बॉक्स तक नहीं’’(अब्दुल्ला दीवाना-लक्ष्मीनारायण लाल, पृ.-27)फिर पूँजी अपनी ताकत से वह सब कार्य अपने पक्ष में करवा लेती है जो पहले विपक्ष में हो रहे थे । पूँजी का प्रभाव इस तरह बोलता है-
‘‘पुलिस- तुुम्हें यही जजमेंट देना है-अब्दुल्ला जिन्दा है । शपथ ग्रहण करो, मिस्टर कमिटेड जज । बोलो ‘आई श्योर दैट आई विल नाट बियर टू फेश एंड एटीजियन्स टू द कांस्ट्रीच्यूशन एंड द ला ।’’(अब्दुल्ला दीवाना-लक्ष्मीनारायण लाल, पृ.-22)’’सत्ता व पूँजी के आगे न्याय तक बिक जाता है शेष की बिसात क्या?
डा.ॅ लक्ष्मीनारायण लाल द्वारा लिखित नाटक ’नरसिहँ कथा’ पौराणिक कलेवर में नवीन कथ्य का प्रवेश है व समसामयिक मुद्दों, परिस्थ्तिियों के अनुसार सत्ता की विद्रुपता व हेकड़ी को जनता के आगे बड़ा व प्रतिष्ठित बताया गया है । नाटककार यह कहना चाहता है कि अब होलिका के पास न जलने का वरदान भी समाप्त हो गया है, अर्थात जनता के तमाम अधिकार सत्ता ने छीन लिये हैं ओर वह जनता से आह्वान करता है कि इस स्थिति में एकजुट तथा सम्मिलित होकर इस कुव्यवस्था का विरोध करना होगा । एक नहीं अनेक प्रहलादों को खड़ा होना होगा सत्ता के हिरण्यकश्यप के खिलाफ, उसे झुकाने के जिए । प्रभुत्व संपन्न शासक अपनी सत्ता का प्रमुख कार्य जनता का शोषण ही मानता है और स्वयं तथा राज्य में भिन्नता नहीं मानता । सत्ता एक तानाशाही का रूप धारण कर लेती है । राजा कहता है ।-
’’हिरण्यकश्यप-मैंने अनुभव किया, देश में और मुझमें कोई अन्तर नहीं ।’’’’(नरसिहँ कथा-लक्ष्मीनारायण लाल, पृ.-61)
सत्ता अपने खिलाफ होने वाले विद्रोह व विद्रोहियों को कुचल देती है । फिर वह विद्रोह करने वाला चाहे उसका अपना पुत्र प्रहलाद (प्रजा)ही क्यों न हो । सत्ता के डर के आगे सब चुप व भयभीत हैं । ’’देश के आधे से ज्यादा लोग भेडिये और गुप्तचर बन गये हैं । किसी अपरिचित के सामने आपस में बात मत करने लगना । विशेषकर राजा के बारे में, उसके शासन के बारे में कुछ भी कहना अपराध है ।’’(नरसिहँ कथा-लक्ष्मीनारायण लाल, पृ.-10) शासन लोकतंत्र के बजाय तानाशाही व राजतंत्र में तब्दील हो गया है । सत्ता चाहे कहने को जनतातंत्र की हो, परन्तु उसके अन्दर भी यदि उसके खिलाफ कोई जाता है तो वह सत्ता का मोहरा बन जाता है । इसी तरह की सत्ता की मनमानी व एकत्व के राज का पर्दाफास करता है नाटक ’नरसिहँ कथा’ । लेखक यह कहना चाहता है कि नर व पशुत्व के अन्तर का भेद आज सत्ता के आगे खत्म होता जा रहा है ।
डॅा सुरेश शुक्ल ’चन्द्र’ द्वारा लिखित नाटक ‘भस्मासुर अभी जिन्दा है’ आधुनिक युग में व्याप्त सत्ता के नकाब को उठाता है और प्रतीक रूप में शोषक वर्ग द्वारा जनता के ऊपर किये जा रहे शोषण का खुलासा करता है । सत्ता जब तक सत्ता में नहीं आती है तब तक वह खूब लुभावने व आर्कषक वादे, आशवासन देती है, परन्तु सत्ता पर काबिज होने के पश्चात वह किसी को भी कुछ नहीं समझती है । मात्र उसका उद्देश्य होता है जनता का शोषण कर अपनी सत्ता कैसे बचाई जाये, यही योजना उसकी मुख्य होती है । सत्ता वर्ग का प्रतिनिधी कहता है-
‘‘लालमणि-जनता का विश्वास उठने व जमने में देर नहीं लगती । जनता की याददाश्त बड़ी कमजोर होती है । बस चुनाव के कुछ दिन पहले काम करने की जरूरत होती है ।’’(भस्मासुर अभी जिन्दा है-सुरेश शुक्ल ’चन्द्र’ पृ.-27) सत्ता के साथ जब पूँजी भी मिल जाती है तो शोषण ज्यादा बढ़ जाता है और पूँजी व सत्ता का संबन्ध तो लगभग प्रारम्भ से रहा ही है । ‘भस्मासुर अभी जिन्दा है’ में भी पूँजी का समर्थन कैसे सत्ता को मिलता है यह दर्शाया गया है ।
’’मुलकदास-आपका साथ न देने के लिए मुझे कितना भड़काया गया, पर मैने एक नहीं सुनी । मैं जिसका साथ देता हूँ, दिल खोलकर देता हूँ । मेरे पास जितना भी पैसा था, सब आपके लिए निकाल दिया ।’’(भस्मासुर अभी जिन्दा है-सुरेश शुक्ल ’चन्द्र’ पृ.-17)सत्ता और पूँजी के वर्चस्वनूमा भस्मासुर राक्षस आज भी जिन्दा है और अमरत्व प्राप्त करने की कौशिश में है ।
‘आकाश झुक गया’ नाटक भी सुरेश शुक्ल ‘चन्द्र’ द्वारा लिखा गया है । इस नाटक में सत्ता का वर्चस्व कैसे बना रहता है यह बहुत ही अच्छी तरह से दिखाया गया है । सामाजिक रूप से व्यक्ति के अन्दर आधुनिकीकरण के प्रभाव के कारण मैं की प्रवृत्ति का तीव्र गति से बढ़ना व अहमवादी होकर अन्य को नगण्य समझना, यह भी सत्ता का ही एक रूप है । परन्तु यह प्रवृत्ति स्वार्थसिद्धि तब हो जाती है या झुक जाती है जब इन्हें अपना स्वार्थ सिद्ध करना होता है । हालांकि सत्ता यह बात खूब अच्छी तरह से जानती है कि जनता जब तक सोई हुई है तब तक ही वह जाग सकती है या जनता जब तक बेवकूफ व नादान बनी हुई है तब तक ही वे उन पर अपनी सत्ता कायम रख सकते हैं । जिस दिन जनता चेत गई उस दिन सत्ता का अस्तित्व खतरे में पड़ जायेगा । अतः सत्ता किसी भी प्रकार से जनता को सुलाये रखना चाहती है । व्यक्ति की सामाजिक नैतिकता व मूल्यता का नष्ट होना ही आकाश का झुकना है ।
‘‘स्वामी-और क्या ? जनता की आँखों में धूल झोंकते रहो, उसे कुछ दिखाई न पड़े, बस तुम्हारी कुर्सी सलामत है । यदि जनता की आँखें खुल गई, तो फिर तुम्हारी खैर नहीं है ।’’(आकाश झुक गया’-सुरेश शुक्ल ‘चन्द्र’ पृ.-21)और सत्ता यह खूब अच्छी तरह से जानती है कि जनता की आँखे कैसे बंद रखी जाये । सत्ता रूपी आकाश जनता की चेतना के प्रकाश पर झुका हुआ है और वह उसे घेरे हुये है, फैलने से रोके हुये है ।
’सिंहासन खाली है’ सुशील कुमार सिंह द्वारा लिखित एक राजनीतिक व्यवस्था पर व्यंग्य करता हुआ नाटक है । सत्ता का सिंहासन खाली है । उसे हर कोई हथियाना चाहता है । उस पर बैठना चाहता है और मात्र बैठना ही नहीं चाहता है । बल्कि उस सिंहासन पर स्थाई रूप से बैठना चाहता है, और इस पर बैठने के लिए एक होड़ सी लगी हुई है कि कौन बैठे ? मैं सबसे पहले बैठना चाहता हँू यह भाव प्रत्येक में दिखाई देता है । सत्ता की इस चाह की व्यूहरचना के माध्यम से जनता के प्रति उनका गैर उत्तरदायित्व नजरिया व सत्ता की एकाधिकारिता के लिए आपसी द्वन्द्व को ही परिलक्षित करते हैं नाटककार सुशील कुमार सिंह । सत्ता के लिए किसी भी प्रकार का विश्वास या वादा सत्ताधिपति करने के लिए तैयार है । ’’.......................मैं आपको विश्वास दिलाता हँू कि आपकी उन्नति और तरक्की के लिए मैं नये नये कारखानों का कल उद्घाटन करूँगा । सूखा, बाढ़, अकाल और भूंकप से पीड़ित क्षेत्रों का दौरा करूँगा....................। गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी और तमाम समस्याऐं पलक झपकते ही सुलझा दूँगा ।’’(सिंहासन खाली है’-सुशील कुमार सिंह, पृ.-11) सत्ता का यह खेल बरसों से चला आ रहा है । एक शासक जाता है तो दूसरा शासक आ जाता है । परन्तु समाज में व्याप्त उनके लुभावने व लच्छेदार भाषणों की शोभा बढ़ाने वाले ये शब्द-सूखा, बाढ़, अकाल, गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी आदि ज्यों के त्यों एक से दूसरे, दूसरे से तीसरे सभी शासकों द्वारा दोहराये जाते हैं । इन शब्दों का भौतिक रूप भी वैसा का वैसा नजर आता है । क्योंकि इन तमाम समस्याओं का बरकरार रहना ही सत्ता का बरकरार रहना है । यदि इन समस्याओं का समाधान हो जाये तो सत्ता के घोषणा पत्रों की शोभा बढ़ाने वाले इन शब्दों की कमी आ जाये व उसके पास कहने करने को कुछ ना रहे । इस सत्ता के लिए सत्तार्थी कितनी तपस्या व त्याग करते हैं, इसकी बानगी भी यहां देखते हैं-
‘‘सिंहासन हमारे हवाले कर दीजिये । यह त्याग और तपस्या से मिलता है इसकी खातिर मैंने वर्षों जेल की यात्राऐं की है । ’’(सिंहासन खाली है’-सुशील कुमार सिंह, पृ.-17) वर्षों की तपस्या व त्याग का फल ये सिंहासन के रूप में प्राप्त करना चाहते हैं और इस सत्ता के लिए ये जेल तक जाते हैं और जेल जाने के शुभ व महान कार्य आज भी प्रजातंत्र में सत्ताधारीयों द्वारा दिखाई देते हैं । सत्ता प्रिय ये सत्ताधारी सत्ता प्राप्त करने के लिए कोई भी कार्य कर सकते हैं । खुद तो जेल जा ही सकते हैं औरों को भी भेज सकते हैं ।
‘‘एक-हम सिंहासन चाहते हैं ।
दो-नहीं मिलेगा तो शक्ति का प्रयोग भी करेंगे ।
तीन-हमारी आस्था असत्य में है ।
एक-हिंसा पर हमें विश्वास है ।
दो-अन्याय पर हमें गर्व है ।
तीन-हम सिंहासन चाहते हैं ।
एक-क्योंकि हम सुपात्र हैं ।’’(सिंहासन खाली है’-सुशील कुमार सिंह, पृ.-18) यह सत्ता की पदवी को प्राप्त करने की पात्रता इन चन्द प्रशिक्षित व योग्य लोगों में विशेष रूप से देखने को मिलती है । इस पदवी को दीक्षांत करने वाले गुरूकुल के आचार्य भी महान व श्रेष्ठ हुये हैं । जो इस सत्ता की परीक्षा के प्रथम चरण को उतीर्ण करने के अनेक बार प्रयास कर चुके होते हैं ।
इन चुनिदां नाटकों के इस संक्षिप्त अध्ययन के अन्दर सत्ता के बदलते चेहरे व मोहरो की एक तस्वीर साफ नजर आती है, कि पूर्व की तुलना में उतरोत्तर सत्ता अपना नंगा ताडंव किस प्रकार से कर रही है । इन तमाम नाटकों में सत्ता व पूँजी का प्रतिरोध प्रदर्शित किया गया है । यह सत्ता का षडयंत्र व जाल समय अंतराल के साथ कम व ज्यादा पूर्व से आज तक चलता आ रहा है । और नाटककारों ने समय समय पर अपनी कलम भी इसके विरोध में चलाई है । नाटक के प्रभाव की जिस दोहरी भूमिका की चर्चा पूर्व में भी की गई है व जो मानी जाती है, उसमें सें लिखित के माध्यम से तो यही कहा जा सकता है कि सत्ता की मनमर्जी व उसके वर्चस्व की परिधि को तोड़ने का प्रयास नाटक ने बार बार किया है । साथ ही दूसरी भूमिका पर भी प्रदर्शन के स्तर पर (रंगमंच) भी नाटक अपना कार्य कर रहा है । परन्तु सवाल यहां खड़ा होता है कि मात्र नाटक के माध्यम से सत्ता के प्रतिरोध व पूँजी के प्रभुत्व के खिलाफ लड़ने से समाज की उन्नती या विकास संभव नहीं । बल्कि उससे भी आगे यह साहित्यकार या नाटककार (बुद्धिजीवि) का दायित्व बन जाता है कि वह इसे समाज में व्यवहारिक रूप से लागु करने व करवाने का प्रयत्न भी करें । वर्तमान में यह जिम्मेदारी युवा पीढ़ी के कंधों पर ज्यादा जिम्मेदार तरीकों से आती है । अतः यह अपेक्षा की जा सकती है कि इन नाटकों के द्वारा किया गया सत्ता व पूँजी का प्रतिरोधी स्वर मुखर हो और उसके लिए जो उचित व सही कार्य सत्ता के माध्यम से समाज को करने चाहिए, उन्हीं के लिए प्रेरित करते हैं ये नाटक व नाटककार ।
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