समय के अनुसार बहुत सारे बदलाव अनिवार्य हैं। यह सहज रूप से भी हो जाते हैं और परिस्थितिजन्य कारणों के कारण भी कर दिए जाते हैं। लेकिन किसी भी बदलाव का तात्पर्य होता है (या होना चाहिए) उन्नती करना, प्रगति करना, इस समस जो स्थिति है भविष्य में उससे बेहतर स्थिति हो ऐसी कल्पना करना या कोशिश करना। इस परिवर्तन से आम जन का, समाज का या राष्ट्र का किसी न किसी रूप में विकास हो। यदि इस तरह का बदलाव होता है तो निश्चित रूप से हितकारी ही होगा। लेकिन यह भी कोई जरूरी नहीं है कि हर बदलाव हितकारी ही हो। किन्तु बदलाव के पीछे की जो सोच होती है या उसे करने की जो योजना होती है उसमें कहीं न कहीं निहित होता है-गत से श्रेष्ठ करना, भविष्य में ज्यादा उन्नत होना।
वर्तमान समय बहुत तीव्र गति से परिवर्तित होने वाला समय है। तकनीक का विकास व उसकी उपयोगिता तथा मनुष्य का उस पर अधिक निर्भर होना, बाजार का वर्चस्व, भूमंडलीकरण का प्रभाव, मनुष्य का एकल होता जीवन, घटता लिंगानुपात, पश्चिम का बढ़ता प्रभाव, हर प्रकार से खुलपने का समर्थन, बनावटीकरण व दिखावटीपन की प्रतिस्पर्धा तथा बढ़ता प्रतियोगिता व प्रतिस्पर्धा का दौर आदि अनेक ऐसे कारण हैं जो राजनीति, धर्म, समाज, साहित्य एवं सांस्कृतिक इन सभी क्षेत्रों में दिखाई देते हैं। साहित्य में वर्तमान में विमर्शों का दौर चल रहा है। लेकिन इन विमर्शों के मध्य या माध्यम से जो बदलाव राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक क्षेत्रों में आए हैं उन पर वर्तमान में लगातार बहस हो रही है। ये बदलाव इन सभी क्षेत्रों में व्यापक रूप से दिखाई देते हैं और समय के अनुसार साहित्य इन सबको रेखांकित करता रहा है। लगभग सभी विधाओं में ये विषय किसी न किसी रूप में आते रहे हैं। अतः यहां हम वर्तमान में राजनीति में जो बदलाव आए हैं उन्हें हिन्दी के कुछ चुनिंदा नाटकों के माध्यम से व्याख्यायित करने का प्रयास करेंगे।
जब देश आजाद हुआ तो देश की राजनीति में अनेक विसंगतियां समाहित हो चुकी थीं जो आजादी से पूर्व की राजनीति में मौजूद थीं। अंग्रेजों द्वारा जो भ्रष्ट एवं स्वार्थी राजनीति अपनाई जाती थी, जिसका विरोध करते हुए देश के रहनुमाओं ने अपने हाथ में देश की बागडोर संभाली थी, शनैः शनैः वैसी ही राजनीति देश के कर्णधारों ने अपना ली। जिसके कारण देश की आर्थिक, सामाजिक, पारिवारिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक स्थितियां विकृत होती र्गइं। व्यवस्था वैसी ही थी, सिर्फ शासक बदले थे।
कहने को देश में लोकतांत्रिक प्रणाली लागू हो चुकी थी लेकिन उसका स्वरूप राजतंत्र जैसा ही नजर आ रहा था। राजनेताओं ने आमजन के बजाय स्वयं के लाभ के कार्योें को ज्यादा महत्व दिया। देश व देश की जनता को गौण एवं अपने स्वार्थ के ऐसे कामों को प्रमुख समझा जिनसे उन्हें पद, पैसा एवं प्रतिष्ठा मिले। ऐेसी स्थिति में इस राजनीतिक सत्ता के प्रति एवं इन राजनेताओं के चरित्रों के प्रति आम जन में अविश्वास पैदा होने लगा। समाज में अनेक लोग अपने-अपने स्तरों एवं तरीकों से इस स्वार्थी, गैर बराबरी, अलोकतांत्रिक, भ्रष्ट एवं बदलती राजनीति के मूल्यों का विरोध करने लगे। साहित्य की सभी विधाओं में एवं भाषाओं में शोषित, पीड़ित आम जन के पक्ष में एवं भ्रष्ट, पद लोभी एवं स्वार्थी राजनीति के विपक्ष में अनेक रचनाकारों ने अपना विरोध रचनाओं के माध्यम से प्रकट किया। नाटकों के माध्यम से यह विरोध ओर भी प्रबल तथा सार्थक हुआ। वर्तमान हिन्दी नाटककारों ने इन विसंगतियों को अपने नाटकों के विषय बनाकर इन्हें समाज के सम्मुख परोसा। राजनीति की चार दीवारी के आंतरिक सच को सबके सामने प्रस्तुत किया। इसके मूल्यों मंे हुए परिवर्तनों को कलमबद्ध किया।
राजनीति जब सेवा के बजाय अखाड़ा बन जाती है तो कार्य नहीं करिश्में होते हैं। शरद जोशी का नाटक ‘एक था गधा उर्फ अलादाद खां’ 1979 में प्रकाशित हुआ। परन्तु आज भी इस नाटक के प्रकाशन के 30-35 वर्षों बाद भी स्थितियां वैसी ही हैं। अर्थात् राजनीति तब भी करिश्मा कर रही थी और आज भी करिश्मा कर रही है या जनता राजनीति से कुछ ऐसे करिश्में की अपेक्षा कर रही है जिससे विसंगति-संगति मंे बदल जाये। जनता की अपेक्षा वाला करिश्मा तो शायद अपेक्षित व उपेक्षित ही रहे, परन्तु राजनीति के नित नये करिश्में आज भी लगातार हो रहे हैं और समाचार पत्रों व टी.वी. चैनलों की सुर्खियों में छा रहे हैं।
‘‘नवाब-भीड़ को हटा नहीं। कोई करिश्मा कर, जिससे हमारी मशहूरी हो। अबे, हम जनता में लोकप्रिय होना चाहते हैं। यहीं, इसी वक्त।’’ (दो व्यंग्य नाटक-शरद जोशी, पृ.-13) यह व्यंग्य है उस व्यवस्था पर जो कलाबाजियां कर उस बाजीगर की तरह मशहूर होना चाहती है, जो बीच बाजार में, सड़क पर अपने चमत्कारों से, अपने करिश्मों से जनता को अपनी ओर आकर्षित करता है और अपने खेल के बाद जनता से पैसे मांगता है। ठीक उसी प्रकार राजनीति जनता में अपना करिश्माई भाषण देकर मशहूर होना चाहती है और अंत में बाजीगर की तरह पैसे की जगह वोट मांगती है। यह करिश्मा पूर्व मंे भी था और आज भी खूब चल रहा है, देश के हर कोने में चल रहा है। यह वह चुनावी करिश्मा है जिसके माध्यम से सत्ता अपना वोट बैंक मजबूत करती है। यहां सत्ता की इसी दिखावटी नीति पर व्यंग्य किया जा रहा है। भीड़ से सत्ता को किसी प्रकार का प्रेम नहीं है परन्तु उस भीड़ के मध्य सिर्फ वह इसलिए रहना चाहती है ताकि उसकी प्रसिद्धि हो। वरना राजनीति भीड़ से तो कोसों दूर रहना चाहती है। इस भीड़ के मध्य जब नेताओं द्वारा अच्छे-लच्छेदार भाषण व आश्वासन दिये जाते हैं तो जनता खुश होती है।
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जी ‘अब गरीबी हटाओ’ के माध्यम से वर्तमान राजनीति में हुए बदलावों को नेताओं के चरित्रों तथा उनके कारनामों को इस प्रकार व्याख्यायित करते हैं। ‘‘नेताजी-(कड़ककर) बंद करो, बंद करो बकवास। यह तुम लोग क्या कर रहे हो? यह ‘गरीबी हटाओ’ नाटक है?
नटी-नहीं, ‘अब गरीबी हटाओ’।
नट-अब यही रास्ता आप लोगों ने छोडा है। राजतंत्र और लोकतंत्र दोनों को हम देख चुके। सबने अपना मतलब साधा है। अब गरीबी हटाने का यही तरीका रह गया है, सब मिलकर अपनी गरीबी हटाएँ!
नेताजी-(काँपते हुए) जेल में डलवा दूँगा बदमाशो!
नट-सारे देश को नेताजी?
नटी-नेताजी नहीं, सूत्रधार जी।
नेताजी-(उसी तरह डपटकर) मजाक बना रखा है!
नट-मजाक तो आप लोगों ने खुद अपना बना रखा है। पहले राजतंत्र में बना रखा था, अब लोकतंत्र में बना रखा है। शोषक के चेहरे वही हैं, बिल्ले बदल गए। गरीबी हटाओ, ठगी का नारा हो गया। जितना यह नारा ऊपर उठता है, गरीब आदमी उतना ही नीचे गिरता है, गिराया जाता है।’’ (अब गरीबी हटाओ-सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, पृ.-126) वर्तमान राजनीति में नेताओं द्वारा किए जा रहे इस लोकतंत्र के नाम पर भ्रष्टाचार व बेईमानी यहां पर दिखाई दे रही है। जनता को बेवकूफ बनाने के लिए यह राजनीतिक सत्ता कई वर्षों से यह खेल रच रही है। इस खेल को समाप्त करने के लिए जनता को एकत्रित होकर खूले रूप से इनका विरोध करना होगा। अन्यथा ये नेता इसी प्रकार जनता को लूटते रहेंगे। ‘गरीबी हटाओ’ जैसे अनेक लोक लुभावने नारे हर वर्ष दिए जोते हैं। लेकिन वो सिर्फ चुनावी माहौल में वोट एकत्रित करने के हथियार होते हैं वास्तविक रूप से ये नेता गरीबी हटाना चाहते ही नहीं। क्योंकि यदि गरीबी हट गई तो फिर इनके पास चुनावी माहौल में आमजन को बेवकूफ बनाने के लिए मुद्दा ही खत्म हो जाएगा। और दूसरी बात जब गरीब ही नहीं रहेंगे तो इनकी राजनीति ही समाप्त हो जाएगी। इसलिए यहां पर बेईमान, भ्रष्ट, अनैतिक राजनीति को जड़ से उखाड़ने के लिए आमजन को प्रेरित कर रहे हैं रचनाकार। आमजन इन सत्ताधारियों के कार्यों से वाकिफ तो हैं लेकिन फिर भी उसे सहन करते जा रहे हैं। लेकिन यदि सभी लोग मिलकर इन अनैतिकताओं, विसंगतियों का विरोध करंे तो वह एक बड़ी ताकत होगी और तब उस बड़ी ताकत के आगे ये नेता लोग भी बौने लगेंगे।
राजनीति का चरित्र पूर्व की तुलना में उŸारोŸार बदलता जा रहा है। देश को सुचारु रूप से चलाने के लिए एक व्यवस्था होती है और उस व्यवस्था को संचालित करने के लिए संचालक होते हैं। देश के विकास व समृद्धि के लिए ये संचालक अनेक कार्य एवं योजनाएं बनाते हैं, जिनका उद्देश्य होता है-जन सामान्य का हित। किन्तु आज राजनीति का यह अर्थ अब बीते समय की बात हो चुका है। राजनीति से जन सेवा का भाव खत्म हो चुका है। अब निज सेवा एवं परिवार सेवा राजनीति में व्याप्त है। देश व जनता की चिन्ता अब राजनीतिक लोग नहीं करते हैं। राजनीति के दरवाजे भी उनके लिए ही खुले हैं जो धनाढय वर्ग से हैं, बाहुबली हैं या राजनेताओं के परिवार से हैं। आम जन से राजनीति उतनी ही दूर है जितनी राजनीति से समाज सेवा। राजनीति में पैसे व प्रतिष्ठा के लिए लोग आते हैं ना कि सेवा कार्य करने के लिए। जिसका पद जितना ज्यादा बड़ा होगा वह उतने ही ज्यादा पैसे कमायेगा। राजनीति की हालत इतनी बदतर हो चुकी है कि यह अपने आप में एक व्यंग्यात्मक मुहावरा बन गई है। सुरेश शुक्ल चन्द्र ‘भस्मासुर अभी जिंदा है’ नामक नाटक के माध्यम से यह बताना चाहते हैं कि इतिहास में भले ही भस्मासुर मर गया हो लेकिन राजनीति में उसके अनेक रूप अभी भी दिखाई देते हैं और वह आज भी जिंदा है।
‘‘मलूकदास-ऐसा मत कहिए। मौके का फायदा उठाना चाहिए। कौन है आजकल ईमानदार? वचन से देश-सेवा, कर्म से अपनी सेवा। नाम केवल देश सेवा का रहता है। .........पर नाम भी अब धीरे धीरे खत्म हो रहा है।
लालमणि-बात तो सही है। मैंने न जाने कितने बड़े बड़ों को चाँदी के जूते लगाये हैं। मिनिस्टरों तक ने मेरे आगे सिर झुकाया है।..............सब मुखौटे लगाकर, अपने लिये जीते हैं।’’ (भस्मासुर अभी जिंदा है-सूरेश शुक्ल चन्द्र, पृ.-16, 17) यहां पर रचनाकार राजनीति पर कटाक्ष कर रहे हैं और वर्तमान में जिस प्रकार की राजनीति हो रही है उसका प्रतिरोध कर रहे हैं। किस प्रकार आज की राजनीति में बदलाव हो रहे हैं उन्हें यहां प्रस्तुत किया जा रहा है। आजकल ईमानदार व्यक्ति कोई नहीं है। इस प्रकार के वाक्य ही बेईमानी को, भ्रष्टता को बढ़ावा देते हैं। जो व्यक्ति नियम के अनुसार, सिद्धांत के अनुसार, नैतिक रूप से ईमानदारी से कार्य करना चाहते हैं या कर रहे हैं उन्हें भी हतोत्साहित कर देते हैं और ये लोग भी अनैतिक के रास्ते पर चलने को विवश हो जाते हैं या कर दिए जाते हैं। हां यह बात सही है जो नाटककार कह रहे हैं कि राजनेता वचन से सिर्फ देश सेवा करता है कर्म से तो वह अपनी ही सेवा करता है। अस्सी प्रतिशत जगह पर राजनेता सिर्फ चुनाव के दरमियान ही चुनाव क्षेत्र में जाते हैं बाकि समय में वे दर्शन भी नहीं देते हैं और बीस प्रतिशत जगह पर नेता इसलिए नहीं जाते हैं कि जनता को कुछ दुख है, कोई परेशानी है बल्कि दो बड़े कारण होते हैं जिनकी वजह से वे जाते हैं। एक तो यदि कोई बड़ी दुर्घटना हो जाती है तो वहां उन लोगों को सांत्वना देने के लिए, दिखावे के लिए जाते हैं या फिर कोई किसी प्रकार का कार्यक्रम करे और उस कार्यक्रम में नेताजी को अतिथि के रूप में बुलाया जाता है तो वे जाते हैं। इन दो वजहों के अलावा चुनाव जीतने के बाद नेता अपने ही चुनाव क्षेत्र में शायद ही कभी जाता हो। देश सेवा, समाज सेवा का जो कार्य है वह धीरे धीरे समाप्त होता जा रहा है और अपनी सेवा का कार्य उसकी जगह पनपता जा रहा है राजनीति के अंदर। सत्ता में भी जो ताकतवर व्यक्ति है उसके आगे सब लोग झुकते हैं। जैसे लालमणि नेता कहता है कि मिनिस्टर तक मेरे आगे सिर झुकाते हैं। अर्थात वह ताकतवर है इसलिए वह अपने से कमजोर को झुका सकता है। ये सब लोग अनेक चेहरे रखते हैं। आम जनता में दिखाने के लिए अलग, खास लोगों के लिए अलग, घर परिवार के लिए अलग। अनेक मुखौटे लगाये रखते हैं जैसी परिस्थिति होती है, जिस पात्र को खेलने की, जिस किरदार को निभाने की उसके अनुसार वैसा ही मुखौटा लगाकर ये लोग अभिनय करने लग जाते हैं। राजनीति में कल्याण के बजाय अत्याचार, अनाचार की भावना ज्यादा पनप रही है। जिसके कारण देश गर्त में जा रहा है। जनसेवा के बजाय निजी सेवा ज्यादा हो रही है, इससे समाज पतन की ओर जा रहा है। राजनीतिक मूल्यों के परिवर्तन के नतीजे हैं ये सब।
‘किस्सा कुर्सी का’ नाटक की पूरी कल्पना ही वर्तमान राजनीतिक मूल्यों में हो रहे बदलावों को ध्यान में रखकर अमृत नाहटा ने की है। राजनीति के चित्र और चरित्र में आज कितना बडा अंतर व परिवर्तन आया है यहां नाटककार अमृत नाहटा बता रहे हैं। ‘‘मीरा-पॉलिटिक्स चुनाव लड़ना नहीं, चुनाव लड़ाना है। चुनाव और पॉलिटिक्स अक्ल का खेल है। उम्मीदवार कोई भी हो, अगर उसके पीछे अक्ल है, ऑरगेनाइजेशन है, प्लानिंग है, तो वह जरूर जीतता है। ये जो दोनों उम्मीदवार खड़े हैं, दोनों ही मुखौटे हैं। इनके पीछे कोई और ही ताकत इन्हें नचा रही है। मैं अगर चाहूं तो एक भिखारी को जनगण देश का प्रेसिडेंट बना सकती हूँ, एक गंवार बेवकूफ को सबसे बड़ा लीडर बना सकती हूँ।’’ (किस्सा कुर्सी का-अमृत नाहटा, पृ.-20)
राजनीति क्या है व क्या बन गई है? राजनीति के अर्थ एवं मूल्य ही बदल गए हैं। जनप्रतिनिधी, जनता सेवा, आमजन के लिए कार्य या कार्य योजनाओं को लागु करना यह सब बहुत दूर की बात हो गई। राजनीति के अर्थ एवं मूल्य बहुत बडे़ और व्यापक रूप में एक सहयोगात्मक कार्य होते हैं। लेकिन यहां राजनीति का अर्थ मुख्य रूप से चुनाव तक ही सीमित कर दिया है और उसमें भी अक्ल लगाकर दावपेच से दूसरे उम्मीदवार को हराना व उम्मीदवार को एक मुखौटे के रूप में काम में लेना तथा मुख्य रूप से अक्ल लगाने वाले के हाथ में सब कुछ होना यह राजनीति का नया अर्थ व प्रयोजन बन गया है। इस तरह से बदलते इन राजनीति के अर्थों एवं मूल्य से मानवीय संवेदनाओं एवं मूल्यों का भी ह्रास हो रहा है जिससे की समाज पतन की ओर जा रहा है।
आज की राजनीति जन, समाज व देश सेवा की राजनीति नहीं रह गई है और न ही इस भावना से कोई उम्मीदवार राजनीति में आता है। शैक्षणिक रूप से तो इसमें कोई योग्यता है ही नहीं लेकिन राजनीति के व नेताओं के जो मानवीय तथा सामाजिक मूल्य, कर्तव्य तथा सरोकार हुआ करते थे अब वे भी बदल गए हैं। किस प्रकार से वर्तमान में राजनीति का रूप स्वार्थ हो गया है सुशील कुमार सिंह अपने नाटक ‘नागपाश’ के माध्यम से यहां प्रस्तुत कर रहे हैं साथ ही नेताआंे की असलियत को बयां कर रहे हैं व आम जन पर कटाक्ष कर रहे हैं। ‘‘स्त्री-माफ कीजिए, अगर आपके पास आंखे हैं तो आप इन्हें साफ साफ देख सकते हैं और मुझे बताने की जरूरत नहीं पड़ेगी की ये कौन हैं? जिनके पास अपनी आंखे नहीं हैं वे अपने पास वाले सज्जन से उधार लेकर देख सकते हैं............इनके नंगेपन की जो झलक आप अभी देख सकते हैं वह शायद दोबारा न भी दिखाई दे हालांकि ये हमेशा आपके पास ही रहते हैं..........आपके साथ ही रहते हैं.........जय हिन्द!’’ (नागपाश-सुशील कुमार सिंह, पृ.-11, 12)
नाटककार स्त्री के संवाद के माध्यम से वर्तमान की राजनीति की जो हालात है, जो स्थिति है, उसमें जो परिवर्तन आया है उसको बयां कर रहे हैं और नेताओं की जो नीतियां हैं उनका प्रतिरोध कर रहे हैं साथ ही वे जनता पर भी कटाक्ष कर रहे हैं जो अनेेेक वर्षों से राजनीति के द्वारा किए जाने वाले अन्याय, अत्याचार, वादा खिलाफी, सिर्फ आश्वासन, उम्मीद देकर आम जनता को बेवकूफ बनाने वाली षडयंत्रकारी नीतियां इन सबको देख रही है लेकिन फिर भी इनका विरोध नहीं कर रही है। या उन्हें देखकर भी अनदेखा कर रही है। राजनेता आम जनता के हित के लिए कार्य करने के लिए चुने जाते हैं लेकिन वे सत्ता पर आसीन होने के बाद स्वयं का लाभ ज्यादा देखते हैं। आम जनता के हित की बात बहुत कम करते हैं और अपनी सत्ता को, अपने पद को बचाने के लिए वे संविधान के विपक्ष में भी चले जाते हैं, लोकतंत्र की सीमाओं का भी उलंघन कर जाते हैं तो यह जो उनका नंगापन है, यह जो अन्यायिक प्रणाली है, असंविधानिक रूप से कानूनों का दूर्पयोग है इन सब का प्रतिरोध नाटककार कर रहे हैं और साथ ही कि ये लोग हमेशा से आम जनता के साथ रहे हैं, आम जनता के बीच में रहे हैं लेकिन फिर भी जनता इनकी इन प्रकार की नीतियों को देखकर के अनदेखा कर देती है। यह जानते हुए भी कि ये लोग हमारे हित में कार्य नहीं करेंगे फिर भी इन्हें दोबारा से चुन देती है। यह एक बहुत बड़ा सवाल है। नाटककार अपेक्षा कर रहे हैं आम जन से कि वह यह सब जाने और जान करके उस असलियत को और दूसरे लोगों के सामने रखे और उसका विरोध करे और ऐसे लोगों को पुनः चयन न करे जो आम जन के साथ अन्याय, अत्याचार करते हों, आम जन के हित में न सोचते हों, देश का भला न करते हों ऐसे व्यक्ति को जनप्रतिनिधी के रूप में नियुक्त न किया जाए। इस प्रकार की अपेक्षा यहां नाटककार कर रहे हैं।
इन नाटकों की संरचना एवं कथावस्तु से पता चलता है कि राजनीति का खेल एक सोचा समझा खेल होता है और उसमें किस किरदार को क्या करना है एवं कौन व्यक्ति (पात्र) किस चरित्र को ठीक से अभिनीत कर सकता है, उसी प्रकार एक निर्देशक (संयोजक, सŸाा की चाह रखने वाला, नेता) उन पात्रों के अनुसार कलाकार चुनता है और जो जिसकी भूमिका होती है वो उसे उसी प्रकार, जिस प्रकार आलाकमान आदेश देता है अदा करता है। राजनैतिक समीकरणों और षडयंत्रों के मध्य जूझते हुए इन नाटककारों के मन में राजनीति के प्रति और भी ज्यादा आक्रोश पैदा हुआ कि अपनी कुर्सी, सŸाा तथा वजूद के लिए राजनीति किस तरह से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के ऊपर, एक कलाकार की प्रतिभा के ऊपर एवं एक समाज को आईना दिखाने यानी सच्चाई बताने वाले विचार के ऊपर अंकुश लगा सकती है और उसके सामने आम या खास सब तुच्छ होते हैं। इसलिए उन्होंने राजनीति के इन बदलते मूल्यों को यहां अपने नाटकों के माध्यम से प्रस्तुत किया है। सŸाा उनका केन्द्र होती है। पत्रकारिता की स्वतंत्रता का हनन, पुलिस का अत्याचार, प्रशासन की मनमर्जी, अफसरों की हेकड़ी, न्याय पर सत्ता का कब्जा इस तरह की अनेक विसंगतियां एवं सारे देश में एक भय का वातावरण जैसे व्याप्त हो गया हो इस तरह के माहौल को एवं राजनीति मूल्य में हुए परिवर्तन को व्याख्यायित करते हैं ये नाटक।
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