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Tuesday, May 1, 2018

Dalit literature: Awareness in Dalit women : दलित साहित्य : दलित स्त्री में जागरुकता


दलित वर्ग, वर्ण व्यवस्था, जातिवाद, दोषपूर्ण आर्थिक तथा सामाजिक पिछड़ेपन, अशिक्षा तथा उद्देश्यहीन राजनीति के कारण आज भी सवर्णों के दास बने हुए हैं। भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत भारतीय संविधान में प्रदत्त आरक्षण के प्रावधान के फलस्वरूप दलित समाज के कुछ लोग शिक्षित होकर उच्च सरकारी पदों पर नौकरियां प्राप्त कर समाज में सम्मानजनक स्थान प्राप्त कर अपनी आर्थिक स्थिति में सुधार कर रहे हैं। लेकिन इन सब के बावजूद भी अनेक लोगों की मानसिकता नहीं बदल रही है। वे दलित समाज से संबधित महिलाओं का इतना शोषण, उत्पीड़न तथा उनके प्रति इतना अन्याय करते हैं कि आज भी दलित स्त्रियां बदतर हालत में हैं। इन पढे़ लिखे तथा उच्च पदों पर आसीन अधिकारियों से अपेक्षा तो यह रहती है कि ये दलित समाज की स्त्रियों के प्रति होने वाले अन्याय, अत्याचार, उत्पीड़न तथा शोषण को समाप्त करके उन्हें भी उनके हक दिलाने की कोशिश करेंगे। लेकिन हालात यह है कि इन्होने अपेक्षा के विपरीत कार्य किया, जिसके परिणामस्वरूप एक तरफ दलित स्त्रियां नारकीय जीवन व्यतीत कर रही हैं और दूसरी ओर उनके साथ अन्याय, अत्याचार व उत्पीड़न हो रहा है।
आज दलित समाज की स्त्रियां वास्तव में दलितों में दलित हैं। दलित समाज की स्त्रियों को आज भी पैर की जूती समझा जाता है। जब चाहे पहनी और जब चाहे उतार कर फेंक दी। अधिकतर देखा गया है कि दलित समाज का पुरुष वर्ग अनेक नशों, जुआ, आदि से ग्रसित रहता है। जब वह इस तरह के नशें में घर आता है तो अपनी स्त्री के ऊपर अपना दिन भर का गुस्सा तथा अपने मालिकों की डांट को निकालता है। स्त्री उसकी गालियां सुनती है और मार खाती है तथा बच्चों के लिए व उसके लिए खाने का भी प्रबंध करती है। यह एक तरह का नारकीय जीवन है जो दलित स्त्री को सहन करना पड़ता है। इस प्रकार के अत्याचार, उत्पीड़न तथा अन्याय को दलित महिलाएं सहन भी कर रही हैं लेकिन अब इसका प्रतिकार भी करना प्रारंभ किया है।
रूपनारायण सोनकर की कहानी ‘जहरीली जड़ें’ का कथानायक हीरालाल का संघर्ष, उसके समाज का संघर्ष अन्याय के प्रति है। वह मंदिर के निर्माण में पूरा सहयोग देता है लेकिन जब रामचरितमानस का पाठ होता है तो उसे अछूत कहकर हटा दिया जाता है और अपने अपमान के बदले वह रामभजन अवस्थी के मुँह पर रामचरितमानस फेंक कर मार देता है और वहाँ से चला जाता है। यहाँ धर्म की आड़ में अपनी बेइज्जती को वह बर्दाश्त नहीं करता बल्कि अपने प्रति हो रहे अन्याय का प्रतिकार करता है।
दलित वर्ग को शिक्षा से दूर रखने का सबसे बड़ा कारण यही था कि उसमें जागरुकता न आए। क्योंकि दलित वर्ग यदि शिक्षित हो गया तो वह अपने अधिकारों को पहचान जायेगा, उसके साथ होने वाले शोषण को वह बर्दास्त नहीं करेगा और सवर्णों का विरोध करेगा। इसीलिए सवर्णवादी एवं ब्राह्मणवादी मानसिकता ने सोचा कि वर्ण व्यवस्था के तहत उसे इस तरह से डराया जाए, दबाया जाए और शिक्षा से वंचित रखा जाए कि वह कभी न तो ऊपर ही उठ पाये और न ही इनके षड्यंत्र को जान पाये। परन्तु जैसे जैसे शिक्षा के प्रति जागरुकता आई और दलित वर्ग एवं स्त्रियां जागरुक होने लगे तो वो अपने अधिकारों के प्रति सचेत हुए और उच्च पदों पर नौकरियां करने लगे। जिससे उनकी सामाजिक, राजनीतिक तथा आर्थिक स्थिति में भी सुधार आया। इन सब पक्षों के प्रति एक जागरुकता उनके मन में उभरने लगी। यही कारण है कि आज दलित वर्ग एवं दलित स्त्रियां धीरे धीरे अपने अधिकारों को पहचान कर एवं शिक्षा ग्रहण करके न कि सिर्फ उच्च पदों पर पहुंच रही हैं बल्कि आर्थिक रूप से भी उनकी स्थिति मजबूत हो रही है और राजनीतिक दलों में भी उनकी भागीदारी बढ़ रही है।
दलित स्त्री का दोहरा शोषण होता है। दलित एवं सवर्ण समाज उसकी शिक्षा एवं प्रगति में बाधा डालता है। रजतरानी मीनू की कहानी ‘सुनीता’ की पात्र सुनीता एक संघर्षशील चरित्र है। वह हार नहीं मानती, परिवार के नकारात्मक वातावरण में भी वह अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए अधिक परिश्रम करती है और ट्यूशन करके अपनी शिक्षा के लिए आर्थिक रुप से स्वनिर्भर बनती है। ‘‘प्रशासनिक विद्यालय में साक्षात्कार के बाद शिक्षिका पद पर सुनीता की नियुक्ति हो गई। सुनीता ने अपनी पढ़ाई का क्रम जारी रखते हुए एम.ए., एल.एल.बी. भी कर लिया। अभी वह और ऊँची नौकरी पाना चाहती थी। आई.ए.एस. या उसका आई.पी.एस. की परीक्षा उत्तीर्ण करने का इरादा था।’’  सुनीता कहानी के माध्यम से रजतरानी मीनू दलित स्त्रियों में आने वाली जागरुकता एवं शिक्षा के प्रति उनकी बढ़ती रूचि तथा उससे होने वाले उनके विकास को व्यक्त कर रही हैं। शिक्षा वास्तव में एक ऐसा हथियार है जो व्यक्ति को सोचने की एक दृष्टि देता है। अधिकारों के प्रति जगाने की चेष्टा करता है और इसी शिक्षा की बदौलत सुनीता ने न कि सिर्फ उच्च डिग्रियां हासिल की बल्कि उच्च नौकरियां भी प्राप्त की। नौकरियों के कारण उसकी आर्थिक स्थिति तो सुदृढ़ हुई ही सामाजिक एवं राजनीतिक हैसियत भी बढ़ी। एक दलित का इस तरह से विकास करना प्रेरणा के साथ साथ एक आईना है कि विकट परिस्थितियों के मध्य से निकल कर ही उन्हंे लिए नये रास्तों का चुनाव करना है। यहां पर लेखिका यह भी स्पष्ट कर रही है कि दलित स्त्री या दलित वर्ग किसी भी रूप से शारीरिक एवं बौद्धिक क्षमता मंे कम नहीं है। यदि उसे अवसर मिले तो वह हर कार्य करने में सक्षम है। अर्थात् सवर्णवादी मानसिकता के तहत इस तरह का प्रचलन किया जाता है कि दलित बौद्धिक रूप से कमजोर होता है। यह भी एक तरह को षड्यंत्र है दलित वर्ग को दबाये रखने का, जबकि सुनीता कहानी के माध्यम से लेखिका उसके चरित्र को एक आईकोन के रूप में प्रस्तुत करती हैं। जो निःसंदेह विकट परिस्थितियां, पारिवारिक संघर्ष के चलते हुए एवं जातिगत शोषण को सहते हुए अपने लक्ष्य को प्राप्त करती है। शिवचरण सिंह पिपिल कहते हैैं-‘‘वर्तमान में दलितों पर होने वाले अत्याचारों से निवारण, दलितों के उत्कर्ष, उनकी सामाजिक समानता सामाजिक न्याय की प्रक्रिया तेज करने हेतु अनेक कानूनी व्यवस्थाएं की गई हैं। हिन्दू धर्मशास्त्रों के अनुसार जातीय विशेषाधिकारों, निम्न वर्ग के प्रति थोपी गई निर्योग्यताएं, जन्मजात असमानताओं तथा हजारों वर्षों की गुलामी आदि ऐसे बिंदु हैं जिनके चलते भारत में सामाजिक न्याय दुर्बल समझा जाता है परंतु अब स्थिति में बहुत कुछ परिवर्तन आता दिखाई देे रहा है। दलित लोग सफलता के रास्ते पर चल पड़े हैं और उस मंजिल पर पहुंचना आसान हो गया है। मंजिल पर पहुंचने के लिए अभी हम कुछ कदम चले हैं लेकिन अभी काफी फासला तय करना बाकि है। रास्ता कठिन अवश्य है लेकिन असंभव नहीं है।’’ 
सुनीता अपने माता-पिता के मस्तिष्क में पुत्री और पुत्र के बीच के भेदभाव को अंत में मिटा देती है। पिता अपनी पुश्तैनी-रुढ़िगत सोच के पुरुष अहम् और मनुवादी-व्यवस्था की दी हुई हीन भावना से ग्रसित दिखाई देते हैं। पुरुष वर्चस्ववादी दृष्टि के कारण स्त्री के साथ भेदभाव किया जाता है। प्रस्तुत कहानी में सुनीता पारिवारिक शोषण को झेलती है। वह दोहरे शोषण को सहकर भी कमजोर नहीं बनती, बल्कि दुगनी शक्ति से परिश्रम करके अपनी शक्ति का प्रमाण सबको देती है। सुनीता की शिक्षा, उसके अच्छे, सच्चे विचार एवं अच्छे गुरु का मार्गदर्शन उसके लक्ष्य की प्राप्ति में सहायक सिद्ध होते हैं। ‘‘सुनीता ने मन ही मन विचार किया। क्यों नहीं वह नीति निर्धारक बने? यह सवाल उसे झकझोरने लगा। कलेक्टर बनना उसका व्यक्तिगत विकास होगा पर राजनीति में जाना उसके समाज के हितार्थ होगा। खूब सोच समझकर अन्ततः उसने राजनीति में प्रवेश कर लिया। उसका राजनीति में प्रवेश बूढे़ माता पिता को अच्छा नहीं लगा। उन्हें लगा कि वह व्यर्थ ही समय और पैसा बर्बाद कर रही है।’’  सामाजिक रूप से बड़ा बदलाव राजनीतिक ताकत के माध्यम से अधिक आसान और संभव है। क्योंकि बड़े परिवर्तन के लिए एक बड़े अधिकार की आवश्यकता होती है और राजनीतिक पद बहुत बड़ा पद है, जिसके माध्यम से कानून बनाये जाते हैं, अर्थ व्यवस्था, शिक्षा व्यवस्था, योजनाएं बनाई जाती हैं तथा देश को दिशा देने में प्रमुख एवं बड़ी भूमिका होती है। इसलिए सुनीता के मन में यह विचार आना कि कलेक्टर की बजाय एक राजनीतिज्ञ बना जाये निश्चित ही एक बड़े परिवर्तन की ओर इशारा करता है। हालांकि दलित वर्ग एवं विशेष रूप से उसमें पुरानी पीढ़ी के लोग इतने सताये और पीड़ित किये गये और चूंकि वे शिक्षित नहीं थे, उनमें जागरुकता नहीं थी तो वे एक तरह से स्वीकार कर चुके थे कि सवर्ण वर्ग द्वारा उन पर किये जाने वाले शोषण एवं उत्पीड़िन जैसे उनके भाग्य में लिखा हुआ है। लेकिन आज की युवा पीड़ी जो धीरे धीरे शिक्षा के माध्यम से जागरुक हो रही है। वह इस बात को कतई स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है कि सवर्ण वर्ग उसका शोषण करें और वे चुप रहे या सवर्ण वर्ग ही आगे बढ़े व पढे़। वह सब हासिल करने की क्षमता दलित स्त्री में है जो सवर्ण वर्ग कर सकता है। इसलिए यहां पर सुनीता का राजनीति की ओर उनमुख होना निःसंदेह एक बड़े बदलाव की दिशा तय करना है। अनीता भारती कहती हैं-‘‘दलित नारीवाद और इनके समर्थक इन सबसे हटकर, बल्कि इनसे भिन्न स्वर में बात करते हुए जब स्त्री के शोषण का आधार ब्राह्मणवाद व्यवस्था में पितृसत्ता के अलावा जाति को भी उतना ही मानते हैं, तब यह सवाल उठना लाजमी है कि क्या दलित नारीवादी बाकी अन्य नारीवादी धारणाओं पर आधारित विभिन्न वादों से असहमत है, जो उसे सवर्ण नारीवादी से अलग होकर दलित नारीवाद पर बात करने के लिए या दलित नारीवाद को स्थापित करने पर जोर डाल रहा है? यह सही है कि जहां सवर्ण नारीवाद स्त्री की समस्याओं, मुद्दों, उसकी मुक्ति के सवालों आदि पर मुख्य रूप से बात करता है और एक तरह से उसके महत्त्व को कम करके नहीं आका जा सकता, पर यहां सवाल यह भी महत्वपूर्ण है कि क्या वर्तमान का नारीवादी आंदोलन इस देश के सभी तबके की स्त्रियों की समस्याओं व सवालों का प्रतिनिधित्व करता है?’’ 
‘समय चेत’ कहानी के माध्यम से विपिन बिहारी दलितों पर होने वाले उत्पीड़न को व्यक्त कर रहे हैं और साथ ही और उस उत्पीड़न के विरोध में एक दलित स्त्री दूसरी स्त्रियों को संगठित करके सामुहिक रूप से उसका विरोध करती हैं इसे भी व्यक्त कर रहे हैं।
‘‘मंगरी भी औरतों में बोल बतिया रही थी और हुंकारी भरवा रही थी, ‘इ में सबका भला है। मजूरी बढ़ेगी त सबकी, न बढे़गी त कोयकी नहीं बढे़गी। इ में हमारा कोय स्वार्थ नहीं है। हम त इहे चाहते हैैं कि हमर समाज उठे, जागे। कल मजूरी बढ़ेगी त अपन बाल बुतरू को पढ़े लिखे खातिर भेजेंगे। कुछ पढ़वे करेगा। गियान गुरबा रहे। हम लोगन के गंवार बनाके रखे अपने जइसन, लेकिन अब त इ सोचना है बाल बुतरू को कइसे पढ़े लिखे के भेजल जाए। तीन सेर कचिया मजूरी में का होत? एक सांझ बनता है, पेट भर हो जाता है सबको। दूसरा सांझ अधपेट रहना पड़ता है, त समझाय अपने मरदन के, मान बात। डरे नहीं, नहीं त आउर कोय डराएगा।’’  दलित वर्ग शिक्षा के दूर रहने के कारण हिसाब किताब नहीं जानता था। अतः उसके द्वारा किये जाने वाले काम के बदले में उसे मेहनताना जो मिलता है, जो मालिक देता था वह उसे स्वीकार कर लेता था। किन्तु अब धीरे धीरे स्थितियां बदली हैं, जागरुकता आई है। शिक्षा ग्रहण की है, उसमें चेतना आई है। आर्थिक रूप से बदहाल स्थिति के कई कारणों में से एक कारण यह है कि दलित स्त्री को मजदूरी पर जाना पड़ता है क्योंकि अनेक दलित पुरुष जो भी कार्य करते हैं उसके बाद शराब की लत के कारण वो बच्चों पर, स्त्री पर और घर पर इतना अधिक ध्यान नहीं देते हैं। अतः स्त्री भी काम पर जाती है। लेकिन जब उसे मालूम होता है कि उसके काम के बदले में मिलने वाला पारिश्रमिक कम है, उसके साथ बेइमानी हो रही है तो वह विरोध करती है। वह दूसरी स्त्रियों को भी प्रेरित करती है कि हमें मजदूरी कम मिलती है इसलिए हमें आंदोलन करना चाहिए, हडताल करनी चाहिए और अपना विरोध जताना चाहिए। वह यह भी जानती है कि ऐसा करने से उसे काम से हटाया जा सकता है और उसके इस व्यवहार के कारण उसे कई दिनों तक बिना काम के भी रहना पड़ सकता है। ऐसी स्थिति में उसके बच्चों का पालन पोषण होना बहुत मुश्किल हो जायेगा। किन्तु डॉ. अंबेडकर की शिक्षा एवं आंदोलनों का परिणाम भी दिखाई देता है कि यदि वह विरोध करेगी तो निःसंदेह आज नहीं तो कल स्थितियां बदलेंगी और अनेक लोगों का फायदा उससे होगा। कुछ दिनों की तंगहाली शायद बाद में बड़ा बदलाव ला सके और धीरे धीरे सभी की आर्थिक स्थितियां ठीक हो सकें। दलित स्त्री का इस तरह अपने अधिकारों के प्रति चेतना और दूसरे लोगों को संगठित करके विरोध करना निःसंदेह उसकी जागरुकता का प्रतीक है। दलित महिलाओं के सामने चुनौतियों के संदर्भ में स्वयं दलित समाज की और इंदिरा गांधी मुक्त विश्वविद्यालय में प्रवक्ता के पद पर कार्यरत विमल थोरात लिखती हैं कि-‘‘अधिकांश दलित समाज की महिलाएं खेतिहर मजदूर हैं, जो बहुत कम मजदूरी पर कार्य करती हैं उन्हें हर रोज बेरोजगारी का सामना भी करना पड़ता है। नीची जाति से संबंधित होने के कारण आर्थिक रूप से उच्च जाति के अमीर लोगों पर आश्रित होने से उन्हें बलात्कार और सब तरह की हिंसा का शिकार होना पड़ता है।’’ 
विपिन बिहारी ‘प्रतिकार’ कहानी के जरिये दलित स्त्री की चेतना को स्पष्ट करते हैं। दलित स्त्री अब अपने साथ होने वाले अन्याय को सहन नहीं करती है बल्कि उसका विरोध करती है और समय आने पर उसका बदला भी लेती है। अन्याय के खिलाफ यह एक मशाल है जो डॉ. अंबेडकर, सावित्री बाई, ज्योतिबा फूले आदि के विचारों से जल उठी है।
‘‘ब्राह्मण टोले से आए थे ढेर सारे मर्द। गंेदवा की तलाश कर रहे थे। सामने आ खड़ी हुई थी गेंदवा। झपटे थे सारे मर्द गंेदवा पर। टोले की औरतें घेरकर खड़ी हो गई थीं गंेदवा को।’
‘सुन्नर पाण्डे के साथ ऐसे क्यों हुआ? कोई कितना सहेगा और अब देखना, सबके साथ यही होगा। गरीब की औरत सिर्फ भोगे खातिर नहीं है।’ ब्राह्मण टोले के मर्द भौचक्के थे औरतों के तेवर से।’’  प्रतिकार कहानी के इस संदर्भ के माध्यम से विपिन बिहारी दलित स्त्री में आए हुए परिवर्तन तथा जागरुकता को व्यक्त करते हुए कहते हैं कि दलित स्त्री अब अपने ऊपर होने वाले हिंसा, अपमान एवं बलात्कार को सहन करने को तैयार नहीं है बल्कि सवर्णवादी मानसिकता के द्वारा किये जाने वाले अत्याचार, अपमान एवं हिंसाके प्रति वो एक अवमानना प्रकट करती हैं। एक संगठन का भाव उनके मन में धीरे धीरे पैदा हो रहा है। एक स्त्री के साथ बलात्कार, अन्याय या अत्याचार होता है तो अनेक स्त्रियां मिलकरके उसका होंसला अफजाई करती हैं और उस शोषण के विरोध में उसे खड़ा करती हैं। ताकि पीड़ित स्त्री की हिम्मत बंधे और शोषक के मन में डर पैदा हो, यदि भविष्य में वो इस तरह की हरकत करता है तो उसका परिणाम उसे भुगतना पड़ेगा। दलित स्त्री हमेशा से सवर्ण वर्ग के भोग की सामग्री रही है लेकिन अब वो अपने साथ ऐसा नहीं होने देंगी। अतः यह दलित स्त्री जब मुकाबला करने के लिए खड़ी होती है तो सामने वाले व्यक्ति के मन में एक डर पैदा होता है। क्योंकि उसे यह आशा नहीं कि सदियों से शोषित होती हुई, पीड़ित होती हुई, यह दबी और सताई हुई स्त्री भी प्रतिरोध कर सकती है। दलित स्त्री के मुख से इस तरह की प्रतिरोध और अवमानना की बात सुनकर सवर्ण वर्ग को अपने अस्तित्व के प्रति खतरा दिखाई देता है। कहानीकार यही स्थिति पैदा करना चाहता है कि दलित स्त्री के प्रतिरोध से शोषक के मन में एक डर पैदा हो और शोषित के मन में एक हिम्मत पैदा हो कि इस तरह की अपमान और हिंसा की घटनाएं समाप्त हों।
‘समय चेत’ कहानी में दलित महिलाओं के द्वारा उठाया गया कदम, सिर्फ उन्हीं के लिए ही नहीं बल्कि पूरे समाज तथा देश के लिए हितकर हो सकता है। ये महिलाएं मिलकर शराब की दुकान को बंद करवाती हैं। उन्हें यह ज्ञात हो गया है कि जब तक बस्ती में यह शराब की दुकान रहेगी हमारे पति या परिवार के पुरुष लोग एवं उनका पैसा यूंही शराब में बर्बाद होता रहेगा। अतः सबसे पहले इस शराब की दुकान का ही विरोध किया जाए और यह शराब की दुकान भी पूंजी के लोभी सवर्ण वर्ग के लोगांे द्वारा ही खोली गई है। समय चेत कहानी की नायिका मंगरी सभी औरतों को साथ लेकर शराब की दुकान बंद करवाने पहंुच जाती है।
‘‘उसकी बातें सभी को समझ में आ गयी थी। मंगरी खुश हो गयी थी, खूब खुश हुई कि पल्ला उसके हाथ में आ गया है तो जरूर ही दिखा देगी कुछ।
दूसरे दिन औरतों का जत्था आया था। मंगरी के नेतृत्व में रामसरूप साव की दुकान पर। मंगरी बोल रही थी, ‘इ दुकान इहां से हटावोगे कि नहीं?’ ‘तोरे बाप का है, अपने मरदों को मना करो।’ ‘दुकान न था त मरद माने हुए थे।’ ‘जानते हो कि इ बदरी बाबू का दुकान है?’ ‘एही से देह तान रहा है, त बदरी बाबू खा जायेगा, एक एक को मार देगा त हमहूं देखते हैं, लेकिन गांव में दारू नहीं बिकेगी, इ जान लो।’’  समय चेत कहानी के माध्यम से विपिन बिहारी दलित स्त्री के साथ में होने वाले अनैतिक के विरोध में एक संगठनात्मक शक्ति के रूप में दलित स्त्री का खड़ा होना व्यक्त कर रहे हैं। मगरी सभी दलित स्त्रियों को नेतृत्व करती हुई उनके गांव में खुली हुई शराब की दुकान को बंद करवाने की कोशिश करती है और स्त्रियों को एकत्रित कर उन्हें समझाती है कि इस शराब की दुकान ने हमारे मर्दों को एक तरह से निक्कमा तो किया ही है अन्यायी भी बना दिया है। बच्चों के प्रति, घर के प्रति ध्यान न देना तथा हमेशा शराब के नशे में घुत रहना यह प्रवृति इस शराब के कारण ही बढ़ी है। अतः सभी स्त्रियां मिलकर शराब की दुकान का एवं दुकानदार का विरोध करती हैं और स्पष्ट रूप से कहती हैं कि किसी भी हालत में यहां पर शराब नहीं बिकेगी, दुकान नहीं खुलेगी यह जान लीजिए। हालांकि उधर से अनेक प्रकार की धमकियां तथा डर से उन्हें डराया जाता है लेकिन दलित स्त्री के साहस तथा संगठनात्मक शक्ति के कारण उन्हें यह एहसास होने लगता है कि प्रतिदिन के मरने से तो अच्छा है एक बार मरा जाये। इसलिए जो भी परिस्थति होगी उसका मुकाबला करेंगे और मिलकर मुकाबले करने से शायद कोई बेहतर हल निकल जाए। वे सोचती हैं हम नहीं तो आने वाली पीढ़ी तो कम से कम से बेहतर जीवन जी सकेंगी। क्योंकि इसी तरह के सपने को देखकर डॉ. अंबेडकर ने एवं उस समय के अनेक लोगों ने दलित वर्ग के प्रति होने वाले अन्याय एवं अत्याचार के विरोध में अनेक आंदोलनात्मक कार्य किए। जिसके परिणाम धीरे धीरे अब इस वर्ग को मिल रहे हैं। दलित स्त्री का इस तरह से जागना एवं अन्याय, अत्याचार का प्रतिकार करना निश्चित रूप से उसका जागरुक होना है तथा परिवर्तन के संकेतों को नजर आना है।

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