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Monday, April 30, 2018

Human values ​​and short stories : मानवीय मूल्य व कथाओं का लघु होना


लघु कथा साहित्य में इसलिए विशिष्ट है कि यह अपनी बात बहुत ही संक्षिप्त रूप से कहती है। इसकी विशिष्टताओं के अंदर अनुभूतियों की गहन व तीव्र अभिव्यक्ति, भावतरलता, गतिमयता, संक्षिप्तता, भाषा पर असामान्य अधिकार, प्रतीकात्मकता एवं रहस्यमयता आदि को माना जा सकता है। लेकिन यह भी जरूरी नहीं है कि प्रत्येक लघु कथा में इन सब विशिष्टताओं का समावेश जरूरी हो। लघु कथा आकार में छोटी या लघु हो सकती है या होती है लेकिन प्रभाव में उसका फलक बहुत बड़ा होता है और यही कारण है कि उसकी विशिष्टता की छाप लघु होकर भी वृहद हो जाती है। वर्तमान में लघु कथा की प्रासांगिकता भौतिक सुख सुविधाओं की लालसा व मनुष्य की तेज गति को देखते हुए अधिक अपरिहार्य लगती है। लेकिन यह कोई अनिवार्यता नहीं है। किन्तु समय, समाज व आज के आधुनिक युवा की सोच व परिणती इसी तरह की हो गई है।
लघु कथाओं के उद्भव का वास्तविक कारण क्या है यह तो अधिकारिक रूप से नहीं कहा जा सकता। लेकिन आज के समय व समाज में घटते रिश्ते, क्षीण होते मानवीय मूल्य, मरती संवेदनाएं, सामुहिकता से एकता की ओर अग्रसर, हर वर्ग व संगठन के छोटे छोटे वर्गीकरण होना, ये सब ऐसे संकेत हैं जो लघु कथा के उद्भव के कारण या समकक्ष लगते हैं। जो धारा या परिपाटी चल रही है उसके अनुसार लघु कथा का उद्भव जरूरी था ऐसा प्रतीत होता है।   
वर्तमान समय में हर प्रकार से मनुष्य एकल होता जा रहा है। वह समूह से एकांत की ओर दौड़ रहा है। सामुहिक परिवार से एकल परिवार उसकी पंसद होती जा रही है। समाज में अनेक कार्य मिलजुल के करने के बजाय वह अपने व्यक्तिगत स्वार्थ, व्यक्तिगत लाभ व व्यक्तिगत रूप से कार्य करने की और अग्रसर होता दिखाई दे रहा है। रिश्तों के रूप से, भावनात्मक रूप से, संवेदनात्मक रूप से वह पृथक, छोटा, लघु व बौना होता जा रहा है। इस तकनीकी और बढ़ते हुए मशीनी युग में मनुष्य के पास संसाधन बढ़े हैं, पैसा बढ़ा है, लेकिन उसके रिश्तें, उसका लगाव, उसकी संवेदनाएं, उसका भाव, उसका प्रेम, उसकी मित्रता, उसकी सामुहिकता यह सब बौनी हुई है, छोटी हुई हैं, नाटी हुई है, लघु हुई है। वह कटा है, छटा है, क्षीण हुआ हैै इन सब प्रकार से। लघु कथाओं का लघु होना या लघु कथाओं का ये कारण कहीं इन सब क्षीण होते रिश्तों की ओर, क्षीण होती संवेदनाओं की ओर, मरती, छोटी होती इन भावनात्मक प्रेम व भाई चारे के घटते मूल्यों की ओर इशारा तो नहीं करता है, चिंतित तो नहीं करता है? यह सोचने का प्रश्न है। सामाजिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक रूप से प्रगति व विकास के पैमाने कुछ अलग तरीके से निर्धारित हुए हैं या हो रहे हैं। विकासशील देश के अंदर मनुष्य का भी विकास हो रहा हैं पर उसमें मुनष्यता लघु होती जा रही है। परंतु ये विकास के पैमान क्या हैं? आर्थिक रूप से सुदृढ होना, पद और पैसे के रूप से बड़ा होना, बड़ा बंगला, बड़ी गाडी, बड़ी नौकरी आदि का होना। किन्तु इन सबके बाद भी वह विकास, वह बडप्पन, वह पैसे या आर्थिक रूप की मजबूती या एक बड़ा कद, मानवीय लगाव, रिश्तें नाते, संबंधों के आधार पर सब कुछ बौना दिखाई दे रहा है। रिश्तों में अलगाव, दूरियां, विच्छेदिता, टकराव, घुटन व लघुता दिखाई दे रही है, तो ये जो कथाएं हैं, इनका लघु होना कहीं मनुष्य के इस घटते क्रम को रेखांकित तो नहीं कर रहा है?
एक पुस्तक पर एक चित्र मैंने देखा था। वह मावन के विकास क्रम का चित्र था। मानव पहले छोटा था, उसके शरीर में बहुत सारे बाल थे, उसकी लंबी पूंछ थी ऐसा कहा जाता है और वह धीरे धीरे बंदर या भालु की शक्ल से मनुष्य के रूप में आया, उसका कद बढ़ा, वह सीधा हुआ, झुकने के बजाय सीधा चलने लगा। लेकिन अब स्थिति यह हो गई है कि वो इन तमाम तरह की भौतिक ऊँचाईयों को छूने के लिए इतना दब गया है, इतना झुक गया है, इतना मजबूर हो गया है कि वह झुकके चलने लग गया है और तकनीकि उपकरणों का प्रयोग करते करते उसमें शारीरिक श्रम की क्षमता खत्म हो गई है या ना के बराबर हो गई है या वह करना नहीं चाहता है तो वह बैठ करके तकनीक पर काम कर रहा है। यह उस चित्र में दर्शाया गया था। तो ऐसी स्थिति में वह और नाटा हो गया है और कितना लघु होगा यह मानव? यह कोई लघु कथाओं के रूप में प्रासांगिक या सुमेलित नहीं हो सकता, लेकिन इस तरह के चित्र से या परिस्थितियों से एक संकेत के रूप में समझने का यह प्रयास किया जा सकता है कि ये लघु कथाएं हमें उस विशाल व्यक्तित्व, मानव हृदय के प्रति विचारने के लिए प्रेरित करती हैं, जिसमें संवेदनाओं का एक बहुत बड़ा पुंज है, जिसमें भावनाओं का भंडार है, प्रेेम का सागर है, भाई चारे की सरीता है, लगाव व मित्रता इन सबका एक अथाह समुद्र है वह इतना बौना व लघु क्यों हो रहा है या होता जा रहा है?
लघु कथाओं की विशिष्टाओं में संक्षिप्तता, संश्लिष्टता, प्रतीकात्मकता इन सबका एक बहुत बड़ा पक्ष होता है। व्यंग्य एक ऐसी शैली है जो इन तमाम तरह की विशिष्टताआंे के लिए बहुत ही उपयुक्त है। वह बहुत ही कम शब्दों में ऐसी चोट इनके ऊपर करती है कि मानवीय रूप से बदलते हुए रिश्तें, भाव व संबंध इन लघु कथाओं की कथ्यात्मक या संरचनात्मक जो विशिष्टता है उनको उद्घाटित करने में एक कारगर भूमिका निभाती है तथा उसका प्रभाव गहन होता है। हरिशंकर परसाई, शरद जोशी, रविन्द्रनाथ त्यागी आदि इन व्यंग्य लिखने वाले रचनाकारों की लंबी श्रृखंला के अंदर जब ये लोग अपने लेखने का प्रारंभ करते हैं तो लघु कथाओं से, व्यंग्य लघु कहानियों से करते हैं। और इनकी लघु कथाएं सामाजिक, राजनीतिक व सांस्कृतिक रूप से जो भी विसंगतियां, विकृतियां, विदू्रपताएं या अनैतिकताएं दिखाई देती हैं उनके ऊपर बहुत छोटे रूप में किन्तु एक बडे पैमाने पर एक कारगर कटाक्ष, एक गहरी चोट, एक गंभीर चिंतन की ओर इशारा करने का प्रयास करती हैं। अतः ये लघु कथाएं कहीं ना कहीं क्षीण होते हुए एक दीर्ध रिश्तें की ओर संकेत करती हैं। एक दीर्ध समस्या की ओर इंगित करती हैं और इन सब कारणों से इनका महत्व और बढ़ जाता है।   
हर प्रकार से आज मनुष्य जितने भी उपकरण तकनीकि रूप से इजात कर रहा है उसमें उसका प्रयास यह होता है कि समय को बचाया जाए। कम से कम समय में अधिक से अधिक कार्य किया जाए। लेकिन इन सब के बावजूद भी मनुष्य के पास यदि किसी चीज की कमी है तो वह है समय, वक्त। और घटते वक्त, या किफायती होते वक्त या कम होते वक्त के समय में कैसे हम इन तमाम तरह के मानवीय मूल्य रिश्ते नातों, संवेदनाओं व समाज के लिए वक्त निकाले या लाएं और इनसे हम कैसे जुड पायें। कम समय में अधिक बात कहने का प्रयास लघु कथाएं करती हैं और इन सब की ओर इशारा करने का प्रयास लघु कथाएं करती हैं। अतः लघु कथाएं दूसरी विधाओं या कथाओं की अपेक्षा ज्यादा प्रासांगिक व अनिवार्य हो जाती हैं इस रूप में और वर्तमान समय में इनकी प्रासांगिकता ज्यादा अपेक्षित व जरूरी हो जाती है।
लघुकथा के शिल्प विधान में चित्रात्मक शब्द, लाक्षणिकता, प्रतीकात्मकता, सहज बिम्बात्मकता, सांकेतिकता, वक्राभिव्यंजना, सटीक वर्णनात्मकता एवं अभिवांछित कलात्मकता आदि का होना अपरिहार्य माना जाता है। इससे इसके शिल्प का प्रभाव अधिक होता है। लघु कथाओं के लिए ‘थोडे में बहुत कुछ कहना’, ‘कुंजे में दरिया बंद करना’, ‘गागर में सागर भरना’ इस तरह की कहावते भी कही जाती हैं। ये कहावते लघु कथाओं के शिल्प तथा विशेषताओं के साथ साथ लघु कथाओं के बहाने बड़ी बात की ओर संकेत करती हैं। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की बहुत चर्चित व आज के दौर के हालात पर बहुत गहरा कटाक्ष व चिंता करती हुई पंक्तियां हैं-
‘हम कौन थे, क्या हो गए और क्या होंगे अभी।
आओ विचारें, आज मिलकर ये समस्याएं सभी।’
ये पंक्तियां और लघु कथाएं इस आज के दौर के हालात पर बहुत गहरी चिंताएं जता रही हैं और बहुत बडा प्रश्न खड़ा कर रही हैं। ‘हिन्दी लघु कथा: कल आज कल’ इस विषय के संदर्भ में यदि इन पंक्तियों को देखें तो कल यानि भूतकाल, वृहद कथा से लघु की और आज आ चुके हैं, अब कल यानि भविष्य में मनुष्य व ये हिन्दी कथाएं किस ओर जायेंगे यह विचारणिये प्रश्न है। 
हिन्दी लघु कथा का आरंभ लगभग 20-25 वर्षों पूर्व माना जाता है और भूमंडलीकरण, बाजारवाद आदि का प्रारंभ भी इन्हीं वर्षों में या इसके आस पास ही है। अतः कहीं ना कहीं इस दौर के इन वादों के प्रभाव के कारण या इनके बरक्स लघु कथा की उपस्थिति दर्ज होना लघु कथा की प्रासांगिकता की अनिवार्यता को बढ़ाती है। इन नवीन वादों के साथ यह नवीन विधा है। जिसका प्रचलन आज के संदर्भ में काफी प्रचलित है और आज अनेक पत्रिकाएं लघु कथा विशेषांक निकाल रही हैं। अनेक रचनाकार लघु कथाएं लिख रहे हैं, उनेक लघु कथा संग्रह आ रहे हैं। जैसे-‘भीड में खोया आदमी’-सतीश दुबे, ‘पेट सबके हैं’-भगीरथ, ‘मृगजल’-बलराम, ‘मेरी बात तेरी बात’-मधुदीप, ‘सलाम दिल्ली’-अशोक लव आदि। अंग्रेजी, पंजाबी, तमिल, मलयालम आदि अनेक भाषाओं से लघु कथाओं का अनुवाद भी हिन्दी में अशोक भाटिया, बलराज अग्रवाल आदि अनेक लेखक कर रहे हैं।


An essay on research scholar and research guide : शोधार्थी एवं गाइड पर एक निबंध





गाइड -
गाइड एक सरकारी पालतु प्राणी है। यह आम तौर पर सरकारी बाडों में पाया जाता है। कुछ गाइड गैर सरकारी प्रजाति के भी होते हैं। लेकिन वहां भी एक प्रकार के बाडे में विचरण करते हैं। पुस्तकें चबाना इसका प्रमुख शोक है। हालांकि गाइड बनने के बाद अधिकतर गाइड चबाने के बजाय पुस्तकें चाटते या सूंघते हैं। आम तौर पर इनके दो आंखे, दो कान, एक नाक और एक मुंह होता है। हालांकि गाइड, गाइड बनने से पहले व बाद में भी एक मनुष्य ही होता है। लेकिन वह शोधार्थी के सामने अपने आप को भगवान की तरह प्रस्तुत करता है या अपने आप को उसका भगवान मानता है। हालांकि गाइड शब्द में गाय जैसी ध्वनि नादित होती है, लेकिन इसके आचरण में गाय जैसा स्वभाव कहीं नहीं होता है। कुछ अपवादों को छोडकर। 
गाइड के प्रकार
1 गाय की तरह सीधे
2 सांड की तरह घुस्सेल
गाय की तरह सीधे प्रजाति के गाइड मात्रा में कम पाये जाते हैं। ये लुप्त होते जा रहे हैैं। इनकी संख्या पूरे देश में बहुत ही कम है। लेकिन फिर भी अनेक लोग को इन संख्या में कम गाय की तरह सीधे वाली प्रजाति से बहुत डर लगता है। ये अपना काम समय पर करने व करवाने की राय देते हैं और स्वयं भी ऐसा करते हैं। 
सांड की तरह घुस्सेल प्रजाति वाले गाइड हमारे देश में बहुतायत में पाये जाते हैं। सांड की तरह घुसेल प्रजाति के गाइड की अनेक उपजातियां होेती हैं। जैसे-गुस्सा, घमंड, दादागिरी, रोब, अकड, ऐंठ आदि। ये आम तौर पर ना तो अपना समय पर खुद करते हैं और ना दूसरे का करने देते हैं। ये अपने जो भी काम करवाते हैं अपने डर से करवाते हैं। ये पढाने और शोध करवाने के अलावा बाकि सब काम करते हैं। 
कुछ गाइड तो अपने यहां ड्राइवर तक नहीं रखते हैं। और यहां तक की सब्जी भाजी, कपडे, राशन आदि का जीवन उपयोगी ज्ञान भी गाइड एक शोधार्थी को इसी एक एम.फिल/पीएच.डी. वाली डिग्री में ही नत्थी करके दे देता है। एक के साथ एक फ्री या वन बाई एंड वन गेट फ्री वाला सिद्धांत गाइड की ही मूलभूत खोज है। कूटनीति से लेकर राजनीति तक की जीवन की इतनी सारी उपयोगी कलाएं गाइड एक शोधार्थी को पीएच.डी. जैसे डिग्री के बहाने सिखा देता है। यह कला गाइड जैसे विशेष प्राणी में ही होती है। 
शोधार्थी-
शोधार्थी एक घुमंतु प्राणी है। किन्तु यह एक स्वछंद प्राणी होते हुए भी एक पातलु प्राणी है। यह आम तौर पर एक खास प्रकार के बाड़े में पाया जाता है, जिसे पढे़ लिखे लोग विश्वविद्यालय कहते हैं। कॉलेज नाम के तबेलों में भी कुछ शोधार्थी नामक प्राणी रखे जाते हैं। मुख्यतः ़़़़किताबें खाना इसका प्रमुख शोक है। पुस्तकालय इसका विशेष खाद्य स्थल माना जाता है। यह जहां भी कहीं पुस्तकें देखता है वहीं मुंह मारना शुरू कर देता है। और आम तौर पर परिक्षाओं, कालांशों, सेमिनारों तथा व्याख्यानों में उनकी जुगाली करता रहता है। यह शीत, उष्ण, शीतोष्ण व उष्णकटिबंधिए लगभग सभी क्षेत्रों व मौसमों में पाया जाता है। यह गाइड रूपी सरकारी पालतु प्राणी के ही काबू में आता है। यह अमूमन हिंसक प्रवृति का नहीं होता है। लेकिन फिर भी इसको संग्रहित व संरक्षित करके रखा जाता है। जब तक यह विश्वविद्यालय रूपी बाडे में रहता है तब तक गाईड नामक दो हाथ, दो पैर वाले व्यक्ति को ही यह अपना कर्ता धर्ता व भगवान मानता है। यहां तक कि कुछ विशिष्ट प्रकार के व क्षेत्र विशेष से आए हुए शोधार्थी अपने गाइड के छायाचित्र को अपने पूजा स्थल में रखते हैं और सुबह शाम धूप छांव की बती करते हैं। जो शोधार्थी ऐसा नहीं करते हैं और ऐसा नहीं मानते हैं उनका उद्धार संभव नहीं है। गाइड चाहे वजन व डील डौल में शोधार्थी से कितना भी हलका, नाटा, पतला, कमजोर या मरियल सा हो, फिर भी इसके नीचे शोधार्थी की दुम दबी होती है। वैसे इसके दुम होती नहीं है, लेकिन फिर भी यह इसे अपने गाइड नामक ओनर के आगे-पीछे ही हिलाता है। यह प्रमुखतः विश्वविद्यालय रूपी बाडे और गाइड के घर रूपी अखाडे में ही विचरण करता है। जब तक इसको डिग्री नहीं मिल जाती तब तक इसकी पूर्ण निष्ठा का केन्द्र गाइड ही होता है। 
पुस्तकें नामक खाद्य पदार्थ को यह जितना खाता नहीं उससे ज्यादा सिर्फ देखता है। हालांकि इसका यह भी आरोप है कि आजकल पुस्तक नामक खाद्य पदार्थ बनाने वाली कंपनियां उत्तम क्वालिटी का खाद्य पदार्थ नहीं बना रही हैं। ऊपर ठप्पा किसी का है अंदर माल किसी का है। आजकल इस खाद्य पदार्थ में वह स्वाद रहा ही नहीं जो पूर्व में था। मिलावट हो रही है। विश्वसनिए सूत्रों से पता चला है कि कुछ गाइड साल के बारह महीने में तेरह किताबें लिखते हैं। इतनी तेज गति के उत्पादन में तो इसी स्वाद व क्वालिटी का माल तैयार हो पायेगा। 
शोधार्थी के प्रकार। शोधार्थी कई प्रकार के होते हैं। 
1 तुलसी की तरह दास्य भाव
2 सूर की तरह सखा भाव
3 कबीर की तरह अक्खड भाव
4 नानक की तरह फक्कड भाव 
प्रजाति के अनुसार यह अपने गाइड को तन से, मन से व धन से समर्पित होता है। कुछ प्रजाति के शोधार्थी गाइड की सिर्फ तन और धन से ही आराधना करते हैं। मन नामक स्थल में या तो उनके कोई और रहता है या रहती है या उनकी गाइड के प्रति कोई विशेष श्रद्धा नहीं होता।
दास्य भाव वाली प्रजाति के शोधार्थी इस भगवान की आराधना में अपने श्रद्धा सुमन या पुष्पम् पत्रम समर्पित करते रहते हैंं। इससे इन शोधार्थियों का समय समय पर कल्याण होता रहता है। 
दास्य भाव वाली प्रजाति के शोधार्थी आम तौर पर व खास तौर पर तो निश्चित रूप से  विश्वविद्यालय रूपी बाडे के बजाय गाइड के घर रूपी अखाडे में ही ज्यादा मिलता है। इस प्रजाति के शोधार्थियों को मानसिक परिश्रम की तुलना में शारीरिक परिश्रम अधिक करना पडता है। कुछ लोग तो यहां तक कहते हैं कि इस प्रजाति में मानसिक वैचारिक जैसे कोई चीज होती ही नहीं है। इसलिए इन्हें मानसिक परेशानी होगी ही क्यों। लेकिन फिर भी इस प्रजाति की खास बात यह होती है कि ये गाइड के परिवार को अच्छी तरह से जानते हैं। विशेष रूप से गाइड के बच्चों के स्कूल का रास्ता, उनके स्कूल आने जाने की समय सारणी, उनका स्वभाव, खान-पान, रूचियां। बच्चों के साथ साथ ये गाइड के कुत्ते की भी इन सारी अभिरूचियों से वाकिफ होते हैं। गाइड के घर में लगे हुए अनेक पौधों की वृद्धि में इनका बहुत बडा योगदान होता है। इन सब कामों में गाइड के ही निर्देश से एक शोधार्थी निपुण हो पाता है। शोध के अतिरिक्त शोधार्थी के कंधे पर और अनेक जिम्मेदारियां होती हैं। जिनका निर्वहन करना शोध के करने के लिए अतिआवश्यक है।  यह सब बातें गाइड एक शोधार्थी को सिखाता है। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि गाइड कुछ नहीं सिखाता है। बल्कि ऐसा विपक्षी व जलेसी लोग कहते हैं। कहना यह चाहिए कि शोधार्थी को अनेक ऐसी बातें सिखाने में गाइड की बहुत बडी भूमिका होती है। काम चौरी, बेइमानी, झूठ, समय पर काम न करना, लालच, लोभ, आदि अनेक काम गाइड बिना किसी अतिरिक्त फीस के ही सिखा देता है। 
कुछ शोधार्थी विशेष रूप से दास्य प्रजाति वाले पुस्तकों को देखने भर से ही उनकी आंतरिक बातों को जान लेते हैं। इसी प्रजाति के शोधार्थियों के कारण ‘खत देखते ही मजबून का पता चलना’ वाली कहावत का इजात हुआ था। इस प्रजाति के शोधार्थी महीने में दो दिन शोध का कार्य करते हैं और बाकि दिन भौतिक जीवन के काम में व्यस्त रहते हैं। दो दिनों में बडे से बडा आलेख तैयार करने की कला का इजात भी इसी प्रजाति के पूर्वजों द्वारा किया गया था। कट/पेस्ट नामक जो नई तकनिकी पारिभाषिक शब्दावली है उसका भी उचित उपयोग इस प्रजाति के शोथार्थी भरपूर मात्रा में करते हैं। 
दास्य स्वभाव वाली प्रजाति के शोधार्थी व कुछ क्षेत्र विशेष के शोधार्थी -सीखने की प्रक्रिया में बहुत विश्वास करते हैं। इसलिए वे अपने गाइड के प्रत्येक क्रिया कलाप के साथ जुडे रहते हैं। गाइड का बैग उठाना, उसके लिए गाडी का दरवाजा खोलना, पुस्तकालय से उसके लिए पुस्तकें लाना व जमा करवाना, उनकी कापियों चैक करना, उनके लिए पानी लाना, सेमिनारों में उनके लिए खाने की प्लेट सबसे पहले लगाना, उनको मिले-शाल, श्रीफल, प्रतीक चिन्ह आदि को उठाकर गाडी में रखना आदि आदि कार्य वे करते रहते हैं। इस सब कार्यों को करने से शोध की एक विशिष्ट पद्धति समझ में आती है। जो शोध के साथ साथ जीवन में आगे व ऊपर बढ़ने में साहयक होती है। वह पद्धति कौनसी होती है ये तो इसी प्रजाति के शोधार्थी या लोग अधिक जानते हैं। जो लोग इस पद्धति के बारे में नहीं जानते हैं वे इससे अभी दूर हैं। और जैसे ही उन्हें पता लगता है या जो लोग इस पद्धति के बारे में जान लेते हैं। वे इसे जीवन में अपना लेते हैं। आम तौर पर अक्खड और फक्कड प्रजाति के शोधार्थी इस पद्धति से तालुक नहीं रखते हैं। और ना ही वे इसमें विश्वास करते हैं। ऐसा करने से और कुछ का तो पता नहीं लेकिन इन अक्खड और फक्कड प्रजाति के शोधार्थियों के शोध कार्य की सीमा बढ़ जाती है और साथ ही विश्वविद्यालय व कालेज रूपी बाडों में होने वाली प्रतियोेगिताओं में मिलने वाले इनामों से भी इस प्रजाति के शोधार्थी वंचित हो जाते हैं। दास्य भाव वाली प्रजाति के शोधार्थियों को इन कामों के प्रतिफल के रूप में विशेष लाभ के अलावा इनका शोध कार्य समय पर पूरा हो जाता है और गाइड बनने के लिए इनकों बाडों में पीछे के रास्तों सेे प्रवेश दिला दिया जाता है। 
दास्य स्वभाव वाली प्रजाति के शोधार्थी किसी सेमिनार या व्याख्यान के बाद मुख्यवक्ता को यह जरूर कहते हैं-‘‘सर आपने जो कहा है वह क्या खूब कहा है, बहुत खास कहा है, आपने अपने व्याख्यान और विचारों में जो प्रगतिवादी चिंतन है वह इस दौर की बहुत बडी समीक्षा है, इस बात को प्रमुख रूप से आपने ही पहली बार उठाया है।’’ किसी भी सेमिनार या व्याख्यान में आपको इस तरह के वाक्य बोलने वाले प्राणी मिल जाएं, फिर वे शोधार्थी हो या गाइड तो झट से पहचान जायेंगे कि ये दास्य प्रजाति के शोधार्थी हैं या थे। और यह वाक्य ये हर वक्ता के लिए प्रयोग करते हैं। यदि वक्ता दलित चिंतक है तो वाक्य ज्यों को त्यों रहेगा बस प्रगतिवाद शब्द की जगह दलित शब्द आ जायेगा। और यदि स़्त्रीवादी है तो उसकी जगह स़्त्रीवादी लगा दिया जायेगा। आदिवासी या आदर्शवादी है तो शब्द भी आदिवासी या आदर्शवादी ही हो जायेगा। इस प्रजाति के शोधार्थी विभिन्न विषयों पर लेख भी इसी तकनीक का प्रयोग करते हुए लिखते हैं। एक लेख अनेक विषयों के लिए। ये एक ही लेख लिख कर बस उसमें कुछ शब्दों को परिवर्तित करके अनेक पत्रिकाओं में प्रकाशित करवा लेते हैं। ‘एक पंथ दो (अनेक) काज’ वाली कहावत इन्हीं ने ही रची थी। हालांकि इन्होंने तो ‘एक पंथ अनेक काज’ इस तरह का काम किया था लेकिन कहावत लिखने वाले ने या प्रिंट की गलती की वजह से ‘एक पंथ दो काज’ ही छपा और चर्चित हो गया। इसी बात को ध्यान में रखते हुए व्याकरण शास्त्रियों ने हिन्दी में द्विवचन खत्म किया और सिर्फ एकवचन और बहुवचन ही रखा गया। इसलिए यह दो अनेक ही है। सखा भाव वाले शोधार्थियों व गाइडों की प्रजाति बहुत कम है। यह लुप्त होती जा रही है। इस  प्रजाति का कम होना राष्ट्रीय ही नहीं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी यह एक बडी समस्या के रूप में उभर कर सामने आया है। इस बात पर चिंतन मनन तो नहीं लेकिन बहस बहुत हो रही है। यहां तक की अनेक शोधार्थी तो इसी बात पर शोध कर रहे हैं कि ये कम क्यों हो रहे हैं। इस गंभीर सवाल को लेकर सेमिनार भी बहुत हो रही हैं। लेकिन ये सब बात करने के मुद्दे हैं। वास्वत में इस प्रजाति को उन्नति देने व विकसित करने की कोई योजना ना तो सरकार कर रही है और ना ही गैर सरकार कर रही है। हां इसके नाम पर काम बहुत हो रहे हैं। फिर भी यदि इस प्रजाति के लिए कोई वास्तव में काम करना चाहता है तो इसके लुप्त होने के कारण खोजने के बजाय, इसे संवृद्धित व विकसित करने में अपना योगदान दे अर्थात वह स्वयं इसे अपनाए और ओरों को भी ऐसा करने के लिए कहे। एक दूसरे के साथ हर पद व कद पर सखा भाव से पेश आए। 
कुछ शोधार्थियों पर राजनीति नामक व्याधी भी इसी वय में अपना प्रभाव तीव्र करती है। और अनेक लोगों को अपना शिकार बना लेती है। राजनीतिक रूग्ण से संक्रमित कुछ शोधार्थी इसी वय में लैफ्ट राइट करने लग जाते हैंं। और बाद में कोई राइट में चला जाता है कोई लैफ्ट में। कुछ लोग दक्षिण पंथ की ओर भी चले जाते हैं। सबई भूमि गोपाल की। चाहे जहां विचरण करो। 
कुछ लोगों का तो यहां तक कहना है कि राजनीति के संक्रमित जीवाणु विश्वविद्यालय व कालेज रूपी बाडों में कुछ विशेष राजनीतिक संगठनों से ही आयात होते हैं। राजनीतिक संगठन इन बाडों को अपनी नर्सरियां समझते हैं। इसलिए यहां अपनी अपनी प्रजाति के बीच डाल जाते हैं। और समय समय पर वर्ग, वर्ण, धर्म, क्षेत्र, जाति, परिवार, रंग-रूप, गरीब, अमीर का भेद बताकर-झगडे, दंगे, विवाद, रैली, आंदोलन रूपी खाद, पानी, हवा आदि से उनके अंकुरण व संवर्द्धन के लिए उपयुक्त जलवायु तैयार करते रहते हैं। और इन्हीं नर्सरियों से तैयार हुए कुछ पौधे बाद में राजनीति के वट वृक्ष या महावृक्ष बनते हैंं। हालांकि इन नर्सरियों से कुछ ऐसे खांटी पौधे भी तैयार होते हैं। जो इस प्रकार की जलवायु में भी इनका असर बेअसर कर अपने ही खास स्वभाव स्वाभिमानी, खुद्दारी, इमानदारी, सच्चाई  की बयार में बडे होते हैं। जिनमें बाहर से कांटे अधिक होते हैं। ये जहां पर भी असंगत, अन्याय देखते हैं वहीं जाके चुब जाते हैं। कई दिनों तक दर्द करते हैं। लेकिन इन कांटेदार खांटी वृक्षों की संख्या बहुत कम होती है। इसलिए अनेक बार तेज आंधी तूफान में ये अपने कांटो के नुकिलेपन की वजह से किसी में अटक जाते हैं और या तो खुद टूट जाते हैं या फिर किसी अन्य को तोड फोड या चीर फाड देते हैं। आम तौर पर या खास तौर पर अक्खड या फक्खड स्वभाव वाली प्रजाति के शोधार्थी ही अपने शोध काल में या बाद में ऐसे खांटी पौधे या वृक्ष होते हैं या बनते हैं। 
सखा भाव वाले शोधार्थियों व गाइडों की प्रजाति बहुत कम है। यह लुप्त होती जा रही है। इस  प्रजाति का कम होना राष्ट्रीय ही नहीं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी यह एक बडी समस्या के रूप में उभर कर सामने आया है। इस बात पर चिंतन मनन तो नहीं लेकिन बहस बहुत हो रही है। यहां तक की अनेक शोधार्थी तो इसी बात पर शोध कर रहे हैं कि ये कम क्यों हो रहे हैं। इस गंभीर सवाल को लेकर सेमिनार भी बहुत हो रही हैं। लेकिन ये सब बात करने के मुद्दे हैं। वास्वत में इस प्रजाति को उन्नति देने व विकसित करने की कोई योजना ना तो सरकार कर रही है और ना ही गैर सरकार कर रही है। हां इसके नाम पर काम बहुत हो रहे हैं। फिर भी यदि इस प्रजाति के लिए कोई वास्तव में काम करना चाहता है तो इसके लुप्त होने के कारण खोजने के बजाय, इसे संवृद्धित व विकसित करने में अपना योगदान दे अर्थात वह स्वयं इसे अपनाए और ओरों को भी ऐसा करने के लिए कहे। एक दूसरे के साथ हर पद व कद पर सखा भाव से पेश आए। 
कुछ लोगों का तो यहां तक कहना है कि राजनीति के संक्रमित जीवाणु विश्वविद्यालय व कालेज रूपी बाडों में कुछ विशेष राजनीतिक संगठनों से ही आयात होते हैं। राजनीतिक संगठन इन बाडों को अपनी नर्सरियां समझते हैं। इसलिए यहां अपनी अपनी प्रजाति के बीच डाल जाते हैं। और समय समय पर वर्ग, वर्ण, धर्म, क्षेत्र, जाति, परिवार, रंग-रूप, गरीब, अमीर का भेद बताकर-झगडे, दंगे, विवाद, रैली, आंदोलन रूपी खाद, पानी, हवा आदि से उनके अंकुरण व संवर्द्धन के लिए उपयुक्त जलवायु तैयार करते रहते हैं। और इन्हीं नर्सरियों से तैयार हुए कुछ पौधे बाद में राजनीति के वट वृक्ष या महावृक्ष बनते हैंं। हालांकि इन नर्सरियों से कुछ ऐसे खांटी पौधे भी तैयार होते हैं। जो इस प्रकार की जलवायु में भी इनका असर बेअसर कर अपने ही खास स्वभाव स्वाभिमानी, खुद्दारी, इमानदारी, सच्चाई  की बयार में बडे होते हैं। जिनमें बाहर से कांटे अधिक होते हैं। ये जहां पर भी असंगत, अन्याय देखते हैं वहीं जाके चुब जाते हैं। कई दिनों तक दर्द करते हैं। लेकिन इन कांटेदार खांटी वृक्षों की संख्या बहुत कम होती है। इसलिए अनेक बार तेज आंधी तूफान में ये अपने कांटो के नुकिलेपन की वजह से किसी में अटक जाते हैं और या तो खुद टूट जाते हैं या फिर किसी अन्य को तोड फोड या चीर फाड देते हैं। आम तौर पर या खास तौर पर अक्खड या फक्खड स्वभाव वाली प्रजाति के शोधार्थी ही अपने शोध काल में या बाद में ऐसे खांटी पौधे या वृक्ष होते हैं या बनते हैं। 
प्राचीन समय में शोधार्थी नामक प्राणी वास्तव में शोध के लिए ही गुरूकुल व आश्रम (ये विश्वविद्यालय रूपी बाडे शब्द के तत्सम रूप हैं।) नामक बाडों में आता था। किन्तु आज कल यह शोध की मात्र जुगाली करता है और वास्वत में आर.ए.एस, आई. ए. एस., आई. पी. एस., आई. आई. टी., सी. टैट., आर. टैट., जी.  टैट., पी. टैट., एम. टैट. व न जाने इसी प्रकार की कौन कौन सी टी व टैट रूपी चिवंगम चबाता रहता है। इसलिए बहार से झाग तो शोध के ही दिखाई देते हैं। लेकिन अंदर से कुछ ओर ही होता है। इसकी गुणवता के विकास के लिए सरकार इसका राष्ट्रीयकरण व केन्द्रीयकरण कर रही है। 
बाडों की विशेषताएं-
हमारे देश में ही नहीं वरन विदेशों में भी कुछ विशेष प्रकार के बाडे अधिक ख्याति प्राप्त हैं। या वो हो गए हैं या उन्हें किसी योजना के तहत कर दिया गया है। विदेश का तो पक्का पता नहीं लेकिन हमारे यहां के गाइड नामक प्राणी तो उन बाडों में भी इसी प्रकार के पाये जाते हैं। इसलिए अधिकतर प्रजाति के शोधार्थी इन बाडों में रहना व जाना पसंद करते हैं। लेकिन इन बाडों में रहने की अनुमति एक विशेष चयन प्रक्रिया के बाद ही मिलती है। 
गाइड और शोधार्थी के मध्य संबंध-
गाइड के कोई सींग, बडे बडे दांत, पूंछ, पूरे शरीर में लंबे घने बाल जैसे विशेष पहचान वाले अव्यव होते नहीं है। लेकिन फिर भी शोधार्थी इससे डरता है। शोधार्थी के लिए यह  शायद दुनिया का ऐसा सबसे खतरनाक प्राणी है जिससे उसको भय लगता है। 
गाइड और शोधार्थी के मध्य प्रेम नामक वायरल भी अनेक जगह पर फैल जाता है। समय, परिस्थिति, स्वभाव, प्रजाति व लिंग के आधार पर इसकी कम व ज्यादा मात्रा तय होती है। गाइड में एक प्रकार का विशेष बैलनसिंग चुबंकिए गुण होता है। इसलिए यह प्रजाति के अनुसार शोधार्थी की अपने से दूरी व नजदीकी बना के रखता है। यह जिस शोधार्थी को अपने से चिपका लेता है उसे जल्दी से छोडता नहीं है। कुछ मादा शोधार्थियों को नर गाइड अपने से जीवनभर उन्हें चिपकाएं रखते हैं। कुछ ऐसे भी प्रमाण मिले हैं कि कुछ गाइड ऐसे सीधे सच्चे, अच्छे साधु होते हैं कि उनके और शोधार्थियों के मध्य किसी प्रकर का पर्दा नहीं होता है। एक स्वच्छ रिश्तें के लिए यह पारदर्शिता आवश्यक भी है। ऐसा संत महात्मा व बडे विद्धान लोग कह गए हैं। 

Intuitive versus fabrication: सहज बनाम बनावटीकरण



प्रकृति मनुष्य की न कि सहचरी है बल्कि जीवनदायिनी भी है। लेकिन वह सहचरी उसी अर्थ व प्रयोग में है कि जितना वह मनुष्य के लिए उपयोगी है मनुष्य भी उसके लिए उतना ही उपयोगी हो। लेकिन वर्तमान में हो उलटा रहा है। प्रकृति की उपयोगिता तथा उपभोगता तो मनुष्य अपने काम व जरूरत के लिए बराबर या अधिक ही करता आ तथा जा रहा है लेकिन उसके संवर्धन के लिए बदले में मनुष्य प्रकृति को देने के बजाय उसका दोहन ही अधिक कर रहा है। विकास का ग्राफ जितना ऊँचा हुआ है प्रकृति का नाश भी उतना ही हुआ है। नई नई तकनीकों के इजात के कारण मनुष्य ने जीवन जीने के साधन तो सुलभ कर लिए हैं लेकिन वह जीवन की महता से दूर होता गया है। इस बढ़ते अंधे तकनीकीकरण के दौर में तथा इस तकनीकी तंत्रों के लिए, मनुष्य के जीवन जीने में जो सबसे ज्यादा उपयोगी, बुनयादी एवं मूलभूत आवश्यकता है मनुष्य ने उसी प्रकृति को अपनी भौतिक सुख सुविधाओं के लिए तोड़ा, मरोड़ा, निचोड़ा, कुचला, नष्ट किया व अपने आनंद के लिए भोगा है। बनावटीकरण तथा कृत्रिमता के इस युग में प्रकृति के सान्निध्य में रहना व प्राकृतिक तरीकों से रहना मानों पिछड़ेपन की निशानी सी बन गया है। मानव के बदलते इस स्वभाव को विकास का नाम देना बेईमानी ही नहीं झूठ का सरलीकरण और विज्ञापनीकरण भी है। मशीनीकरण के इस युग में प्रकृति तथा प्राकृतिकता को बचाना मानव के लिए आज की सबसे बड़ी चुनौति ही नहीं प्राथमिकता भी है। सहज रूप से मानवीय रिश्तों में भी मनुष्य स्वार्थवस एक दूसरे से जुड़ा रहता है और कुछ देता है तो लेने की अपेक्षा रखता भी है। फिर यह तो प्रकृति है यह कैसे एक तरफा रिश्ता लंबे समय तक निभायेगी। अतः आज जो संकट, प्राकृतिक आपदाएं या परिवर्तन हो रहे हैं यह प्रकृति का मनुष्य से अलगाव होने का संकेत है, रिश्तें में दरार है एवं मनुष्य द्वारा अपनी जिम्मेदारी न निभाने का परिणाम है।


Sodhi soil odor ('Prajnal Dhar's poem collection' immediately before the final farewell ') : सोंधी मिट्टी की गंध (‘प्राजंल धर के कविता संग्रह ‘अंतिम विदाई से तुरंत पहले की समीक्षा’)

विगत शताब्दी के अंतिक चरणों में घटित होने वाली प्रवृत्तियों के आधार पर भविष्य का अनुमान लगाया जा सकता है। यह एक तरह से वर्तमान को संवारने और समझने के लिए अतीत की भूमिका का निर्वहन है। किन्तु अतीत और आगत इन दोनों का ही विश्लेषण वर्तमान के लिए है। इसीलिए कवि अपनी कविता में भूत एवं भविष्य के उद्धहरण, मिथक, प्रतीक, रूपक या संदर्भ आदि गढ़ता जरूर है पर ये सब उसके साधन होते हैं साध्य नहीं। उसका साध्य होता है इन सबके माध्यम से वर्तमान को संवारने का और उस वर्तमान के बहाने देश-दुनिया, समाज तथा मूलतः व्यक्ति को संवारने का। प्राजंल धर अपने कविता संग्रह ‘अंतिम विदाई से तुरंत पहले’ में भविष्य की आहट से तुरंत पहले इसी वर्तमान के प्रति सजग होने तथा इसे सहेजने, समझने एवं गढ़ने की वकालत करते हैं।
प्रांजल धर युवा लेखकों में हिन्दी साहित्य में एक परिचित नाम है। लेकिन विशिष्ट रूप से प्रांजल धर मीडिया विश्लेषक या पत्रकारिता के लिए अधिक पहचाने जाते हैं। किन्तु ‘अंतिम विदाई से तुरंत पहले’ कविता संग्रह पढ़ने के बाद मेरा यह मानना है कि प्रांजल धर बहुत ही सहज और मूलतः कवि हैं। उनका कवि मन कविताओं में जिस तरह से खोता है वह दूर की कोड़ी लाने का प्रयास नहीं करता अपितु आस पास की पीड़ा व्यक्त करता है। आज कविताओं में जिस तरह से भावों की अपेक्षा बौद्धिकता की जुगाली के जुमले के कारण विचार अधिक प्रधान हो रहे हैं तथा आधुनिक परिवेश के अन्य दबावों के कारण कविता छंद, लय, तुक एवं भावों से निष्प्राण होती हुई दिखााई दे रही है, वहीं प्रांजल धर अपनी कविताओं में बहर की ओर, तुक की ओर, भाव की ओर, छंद की ओर एवं कहा जाए तो कवित्व की ओर लौटते हुए दिखाई देते हैं।
‘अंतिम विदाई से तुरंत पहले’ कविता संग्रह में प्रांजल धर बार बार पूर्वांचल की ओर लौटते हैं। इस कविता संग्रह की कविताओं में प्रांजल धर असम, त्रिपुरा, मिजोरम, अरुणाचल प्रदेश आदि पूर्वांचल के शब्द, वहां के मिथक, आख्यान, गीत, कविता, प्रतीक, पहनावे, बिंब लोकभाषा आदि के अनेक संदर्भ गढ़ते हैं। यह अनायास नहीं है। ईक्कसवी सदी में पश्चिम का प्रभोलन जिस दृष्टि से आकर्षित कर रहा है उसके बरक्स कवि पाठक के हृदय में वह बीच अंकुरित करना चाहता है जिससे उसकी जडे़ मजबूत हो सकें एवं उन्हें वह भूले भी नहीं। सिर्फ बाह्य आवरण एवं सुंदरता से किसी की विशिष्टता एवं मजबूती को नहीं आंका जा सकता है। अतः भारतीय परंपरा, उसकी लोकधर्मिमा, लोकभाषा एवं लोक संस्कृति के अनगिनत पहलुओं की ओर कवि का लौटना निसंदेह पश्चिम की ओर अंधाधुंध चकाचौंध की भव्यता से कहीं न कहीं तृष्त आज की युवा पीढ़ी की भटकन को एक सही मार्ग की ओर ले जाना है तथा उसके खोने की चिंता भी है। इसीलिए प्रांजल धर कहते हैं-
‘‘इतिहास के कूड़ेदान में पेंदे पर चले गए।
रुकती है निगाह वहां
भाषा पर सबसे जघन्य हमले हुए जहां।
अवास्तविक शहर, आभासी सत्य, उबकाई और
बेतुके नाटक समेत रामराज्य की संकल्पना पर भी।
पर सौंदर्य का उच्छलन कहीं मिलता नहीं,
सरलता का सोता कहीं दिखता नहीं।’’
जीवन के पड़ावों में आने वाली अनेक समस्याओं से इन कविताओं में निराशा के भाव दिखाई देते हैं और यह आज के मानव एवं विशेष रूप से युवा मन पर पड़ने वाला वह वज्राधात है जिसका प्रहार उसके लिए असहनीय सा लगता है। आज के युवा का बहुत जल्दी बौखलाना, सहनशीलता का कम होना, अधीर हो जाना, तकनीक, आधुनिक एवं स्वतंत्र माहौल में अपने को बहुत कुछ सही पाना, इन सब दबावों के बीच में कहीं उसका मन उसे कचोटना है। पर वह उस एहसास को दबा देता है। किन्तु कवि का तात्पर्य उसे आशा से रहित करना नहीं है। कवि मूलतः निराशवादी नहीं आशावादी होता है और वह इन निराशा के भावों को दूर करने के लिए ही शुष्क मरुस्थल में भी आशा से संचित उम्मीद की अगर एक शबनम बूंद भी कहीं दिखाई देती है तो उसे जल का अथाह स्रोत बनाने की कोशिश करता है। यही कोशिश प्रांजल धर की कविताओं में अनेक जगह पर अप्रत्याशित रूप से उम्र के पड़ाव से उदास एवं निराश युवा मन को उत्साह एवं जोश में भरने का एक परोक्ष उपक्रम दिखाई देता है।
बर्तोल्त ब्रेख्त एक जगह कहते हैं कि ‘सहृदय सामाजिक पाठक कृति की तदात्मकता से आगे उसके अनुपाठ, सहपाठ, प्रतिपाठ और उत्तरपाठ तक करता है। अतः सहृदय पाठक कृति से कवि तक जाता है।’ प्रांजल धर की कविताओं के लिए यह कहा जा सकता है कि कवि अपनी कविताओं के माध्यम से पाठक को अपने तक ही नहीं लाता है बल्कि वह अपनी कविताओं के माध्यम से अपने तक एवं अपने माध्यम से समाज के उन अनछूए, अनदेखे एवं देखे पहलुओं को फिर से अवलोकित करवाने की चेष्टा करता है, जिसे हम कई बार देख कर भी अनदेखा कर देते हैं या समय परिस्थिति की राख को कुरदेने का या हटाने का साहस नहीं कर पाते हैं। यह एक प्रकार की भविष्य की समीक्षा भी कही जा सकती है।
प्रांजल धर अपनी कविताओ में अनेक ऐसे विषय चुनते हैं जिनके आधार पर व्यापक जानकारियां प्राप्त होती हैं। यह एक तरह का वैश्विक प्रभाव प्रांजल धर की कविताओं पर उनके स्वयं के अनुभव एवं अतीत के प्रतिबिंब के रूप में देखा जा सकता है। प्रांजल धर अपनी कविताओं में आम व्यक्ति के रोजमर्रा की जिंदगी के सामान्य एवं बुनियादी सवालों से लेकर राजनीतिक षड्यंत्र के दावपेंच एवं सामाजिक ठेकेदारोें की बपोतियों के फतवे, साहित्यिक राजनीतिक दृष्टि से वैश्विक परिप्रेक्ष्य का चिंतन एवं चिंता इनके पीछे के षड्यंत्र एवं उन अनछुए पहलुओं को अपनी पैनी दृष्टि से उद्घाटित करते हैं जिनके समक्ष बहुत सारे सुनामधन्य कवि मौन रहते हैं। दरअसल यह साहस कवि का कम, कवि का उन चीजों से जुड़ाव होना अधिक प्रदर्शित करता है।
प्रांजल धर उत्तर प्रदेश के पूर्वी क्षेत्र में जन्में एवं ग्रामीण प्रकृति तथा उसके जीवन के अनुभव उन्हें सहज रूप से मिले। इसलिए उनकी कविताओं में ग्राम परिवेश की एक नैसर्गिक छवि उद्घाटित होती हुई दिखाई देती है। किन्तु मैं सिर्फ इसे यही कारण नहीं मानता कि प्रांजल धर उत्तर प्रदेश के ग्रामीण परिवेश का अनुभव रखते हैं इसलिए उनकी कविताओं में यह सब दिखाई देता है। किन्तु जहां तक मुझे इन कविताओं को पढ़ने के बाद जो कारण महसूस होता है वह यह कि कवि आज भी ग्रामीण संस्कृति, प्रकृति एवं अनुभव को अपने साथ रखता है एवं उन्हें जीता है। उसे वो अपनी कविताओं में इसलिए नहीं लाते कि वह विस्मृत हो रहा है बल्कि वह तो इसलिए आ जाता है कि कवि उसे विस्मृत कर ही नहीं पाता है। वह विस्मृत होता ही नहीं है और यह कवि की अपनी बात नहीं है, जन सामान्य की बात है। जिसे कवि ने मात्र उकेरा है। लेकिन यह उकेरना उसके हृदय में उद्गारों का उद्वेलित होना है। अर्थात् कविता का सार्थक होना है।
शहर आधुनिक एवं तकनीकि के प्रभाव के कारण गांव भी उनकी चपेट में आते हुए दिखाई दे रहे हैं। उन्हीं चिंताओं को प्राजंल धर अपनी कविता ‘मेरा गांव एक शहर’ में व्यक्त करते हैं। ‘‘शहरी भावों से रुँधी लेखनी,
स्याही में इतनी शक्ति नहीं
जो बांध सके गांवों का रस
निःस्वार्थ प्रेम को कसने में
अब सारे शब्द हुए बेबस
वह आसमान अब रहा नहीं
पर दंश शहर का कहा नहीं।’’
ग्रामीण सौंदर्य के यथार्थ बोध का जीवंत चित्रण कवि जीवन की अनेक कड़ियों में पिरोने का साहस करता है। ग्रामीण क्षेत्र की संस्कृति को वे अपनी कविताआंे मंे ही नहीं बल्कि यथार्थ जीवन में जीते हैं। प्राजंल धर के लिए कविता करना सिर्फ अपने मन में उठे उद्गारो को उकेरना नहीं है। बल्कि ब्रटोल्त ब्रेख्त की तरह वे पाठक के मन को सही रूप से एक भाषा देने का तथा वहां तक ले जाने का प्रयास करते हैं।
‘अंतिम विदाई से तुरंत पहले’ कविता संग्रह में प्राजंल धर प्रेम को लेकर अनेक कविताएं लिखते हैं। लेकिन उनके प्रेम विषयक पाठ की कविताओं में मांसल चित्रात्मकता की गंध या मन की बजाय तन की क्षुदा की तृप्ति की अतिरंजना नहीं है। बल्कि सचमुच प्रेम के कच्चे धागे से बुनी गई वह सहज और मोटी चादर है जिसे कहीं पर भी बिछाया जा सकता है। बिना किसी राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक डर या आंडबर के दवाब के। प्रेम तो वह शबनम की बंूद की मिठास और एहसास है जिसे चातक मन पाखी ही समझ सकता है। इसका तात्पर्य यह कतई नहीं हैं कि आज का मन चातक मन नहीं रहा है। इस आधुनिक चकाचौंध की दुनिया में क्षणिक आनंद एवं त्वरित लाभ की प्रवृत्ति को इतना अधिक बढ़ा दिया है कि वह प्रेम हो या खाना उसे धीरे-धीरे चबा कर नहीं बल्कि उसे तुरंत निगल कर मजा प्राप्त करना चाहता है। अतः प्राजंल धर अपनी कविताओं में उसे निगलकर तुरंत खत्म करने की नहीं बल्कि उसे चबा-चबा कर रसास्वाद का आनंद लेने और देने की बात पर बल देते हैं।
प्राजंल धर अपनी कविताओं में कोई कीर्तिमान नहीं गढ़ते हैं। न ही वो किसी घटाटोप विषय या आंडबर के तले अपना कोई एकांत परिवेश या महल खड़ा करना चाहते हैं। बल्कि प्रांजल धर उस एहसास को जिंदा रखना चाहते हैं जिससे की संवेदना एवं करुणा पर छाई हुई कालिख एवं मटमैली धुंध इस कविता रूपी दीपक की हल्की सी रोशनी में छंट सके और उसकी ओट में उस धुंधलके से वह आत्मीय चित्र लक्षित हो सके जिसको बचाने की कवायत जो भी इंसान है, वे कर रहे हैं। प्रांजल धर भी अपनी कविताओं में यही कोशिश करते हुए दिखाई देते हैं।
मिथकों के माध्यम से प्राजंल धर अतीत, वर्तमान एवं भविष्य को आगहा करते हुए प्रमाण में एक अतीत का उद्धहरण रखते हैं और इस संग्रह की अपनी पहली ही कविता ‘मनवर’ में वे चेताते हैं कि आकांक्षा और वह भी सुख की, दूसरों से तब तक कोरी बेइमानी है जब तक की आप स्वयं वैसा होने का प्रयास नहीं करते।
‘‘कई पिता दशरथ सी आकांक्षा रखने लगे,
राम सा आज्ञाकारी पुत्र पाने की।
जबकि वे स्वयं दशरथ से होते नहीं,
वे जीना चाहते हैं, सुख चाहते हैं।’’
प्रेम की अनुभूति की सच्ची तस्वीर बातों की (मुखर) शक्ति में नहीं बल्कि मौन की अभिव्यक्ति में परिलक्षित होती है। इसीलिए प्राजंल धर ‘हमारी बातें’ कविता से पूर्व कोष्टक में लिखते हैं। ’’उन प्रेमी युगलों के लिए जो स्वीकार नहीं कर पाते कि गहरे प्रेम की सबसे बड़ी अभिव्यक्तियां मौन में समाई हैं, बातों में नहीं......।’’ यह पूरी कविता का ही नहीं प्रेम का भी ऐसा अपरिभाषित सूत्र वाक्य है जिसे रट तो बहुुतों ने रखा है लेकिन समझते बहुत कम हैं। प्रांजल धर की कविताएं प्रेम को चर्चा का विषय नहीं बनाती अपितु वे उसे महसूस करने की सहज सलाह देती हैं। और उसे उतने ही गहराई से वह व्यक्ति महसूस कर सकता है जो बोले कम और महसूस ज्यादा करे। प्राजंल धर ने इस कविता संग्रह में जितनी भी प्रेम की कविताएं लिखी हैं उनमें कहीं भी प्रेम के अतिरेक को परिभाषित या विश्लेषित करने की कोशिश नहीं की। क्योंकि प्राजंल धर इसे कहना नहीं चाहते हैं एहसास कराना चाहते हैं। ‘लव और प्रेम’ नामक कविता में वे कहते हैं।
‘‘हृदय पर छाए प्रेम और दुर्ग पर किए कब्जे में
कुछ फर्क है या नहीं!
दूल्हे की अपनी परिभाषा है प्रेम की
प्रेम लव है यहां
और लव एक ‘फोर लेटर वर्ड’
जिसका वाक्य में कहीं भी
सुविधानुसार
प्रयोग किया जा सकता है
लेकिन प्रेम के ढाई अक्षर अभी तक अपरिभाषित हैं।
मीर, गालिब, मजनूँ और रूमी के
हो चुकने के बावजूद।’’
प्रांजल धर प्रेम के उन अपरिभाषित ढाई अक्षरों की तह में जाने की अपेक्षा करते हैं जिन्हें वे स्वयं भी परिभाषित नहीं कर पाये और मीर, गालिब भी। अतः क्षण भंगुर प्रेम एवं उसकी आड में होने वाले अनेक तरह के षड्यंत्रों की पोल प्रांजल धर अपनी कविताओ में खोलते हैं। कविता व्यक्तिगत कार्यों के मध्य एक दीपक की तरह कार्य करती है जो व्यक्ति की आंतरिक तह में पसरे अंधकार को ज्योतिर्मय करने का उमक्रम है।
अंग्रेजियत के प्रभाव के कारण व्यक्ति कई बार अपने आवरण से बाहर निकल जाता है। अर्थात् वह जैसा है वह न रहकर एक बनावटी चौला धारण कर लेता है। प्रांजल धर ‘बापू की कल्पना’ या कुछ अन्य कविताओं के माध्यम से गंाधी, प्रेम एवं सरलता को किताबों, ग्रंथों, कविताओं में खोजने या कहने में अपरिभाषित सा महसूस भी करते हैं एवं उनको पाने का सही और सहज मार्ग सच्ची निष्ठा, सरल एवं परिश्रम के स्वेद से उत्पन्न आनन्द की सहजता के बाद पिये गए पानी की मिठास में आभासित करते हैं। वे ‘बापू की कल्पना’ कविता में लिखते हैं-
‘‘दुनिया से कह दो,
गांधी अंग्रेजी नहीं जानता!’
कहती, ‘मेहनत करो, तब खाओ’
हालांकि खा पीकर भी
मेहनत करने वाले कहां मिलते आज!
सरल बातों की सरलता लेकर
रंेगती यह कल्पना
पलकों के किनारे-किनारे
और मानना पड़ता
कि निहायत सरल होना कितना
कठिन है!
अंत में कहती-‘किताबों में मत खोजों मुझे!’’
विकास, ऐसो आराम या उन्नती का जो तथाकथित मार्ग ‘पहले खाओ फिर परिश्रम करो’ बना हुआ है यह पश्चिम की ओर गमन करता है। प्रांजल धर बाहर से संुदर एवं अंदर से खोखले एवं कुरूप लगने वाले इस पश्चिम के ढांचे को ढाहने के लिए अपनी कविताओं में बार-बार पूर्व की और लौटते हैं। क्योंकि वे जानते हैंं मूल जडे़ें, प्रेम तथा ज्ञान का स्रोत कहां से प्रभावित होता है। अतः वे कबीर के सूप की तरह ‘थोथे को उड़ा कर सार को ग्रहण करना’ एवं करवाना चाहते हैं। यह उनकी कविताओं की अपनी सोंधी चमक और महक का प्रभाव है। प्रांजल धर आज के तथाकथित विकास और अंग्रेजियत की मुखालफत करने वाले मुखौटों पर चोट करते हैं। ये वे कविताओ हैं जो सचमुच परिश्रम के पथ पर चल कर किसी पद को नहीं बल्कि प्रेम को प्राप्त करती हैं और करवाती हैं। यह कोई कागज का सुमन, कैमिकल का रंग, बनावटी प्रेम या वह खुशबू नहीं है जो कुछ समय बाद समाप्त हो जायेगी अपितु यह तो घर के आंगन की मिट्टी में लगे हुए पौधे की वह गंध है जो वहां से गुजरने वाला हर व्यक्ति महसूस कर सकता है। ‘अंतिम विदाई से तुरंत पहले’ संग्रह की कविताएं इस प्रेम की गंध को महसूस कराने का प्रयास करती हैं।
अन्योक्ति के माध्यम से प्रांजल धर अनेक जगहांे पर राजनीतिक पाखण्ड का पटाक्षेप करते हैं। झूठे राष्ट्रवाद एवं दिखावे के समाज-संस्कृति के संरक्षण का दावा करने वाले मुखौटेधारी लोगों को वे अपनी कविताओं में अनेक जगह लताड़ते हैं। ‘डू नॉट वरी’ कविता में कहते हैं-
‘‘जिम से निकलकर सीना फुलाकर,
राष्ट्रवाद का बेसुरा गीत गाया जा रहा है,
काले धन से राष्ट्र को,
सजाया जा रहा है।’’
राजनीतिक रूप से देश के अंदर बहुत सारी जुमले बाजियां हो रही हैं, उन्हीं पर प्राजंल धर अपनी कविताओं से प्रहार करते हुए नजर आते हैं। पूंजीवाद, अनैतिकता, भ्रष्टाचार, राजनीतिक षड्यंत्र आदि के बीच में फंसे हुए आमजन, स्त्री, दलित, आदिवासी एवं किसान इन सब के दर्द को भी इस कविता संग्रह में खूब महसूस किया गया है। बदहाली में किसान का आत्महत्या करना, महिलाओं के साथ होने वाले अत्याचार, बलात्कार, आदिवासियों का अनेक कार्यों में पिछड़ना, घोटाले, बेईमानियां एवं इन सब के ऊपर भी राजनीतिक आकांओं द्वारा चिंता न करना, उचित समाधान न तलाशना एवं इनके माध्यम से राजनीतिक रोटियां सेंकने का प्रयास करना, निःसंदेह प्राजंल धर की ‘कुछ भी कहना खतरे से खाली नहीं कविता’ बहुत कुछ कह जाती है और इनकी हकीकत को बयां कर जाती है।
‘‘और आत्महत्या कितना बड़ा पाप है, यह सबको नहीं पता,
कुछ बुनकर या विदर्भवासी इसका कुछ-कुछ अर्थ
टूटे फूटे शब्दों में जरूर बता सकते हैं शायद।
.....इसीलिए आपने जो सुना, संभव है वह बोला ही न गया हो
और आप जो बोलते हैं, उसके सुने जाने की उम्मीद बहुत कम है....
सुरक्षित संवाद वही है जो द्वि-अर्थी हांे ताकि
बाद में आप से कहा जा सके कि मेरा तो मतलब यह था ही नहीं
भ्रांति और भ्रम के बीच संदेह की सँकरी लकीरें रंेगती हैं
इसीलिए
सिर्फ इतना ही कहा जा सकता है कि कुछ भी कहना
खतरे से खाली नहीं रहा अब!’’
प्राजंल धर की कविताओं के केन्द्रीय विषय एवं इनमें प्रयुक्त बिम्ब, प्रतीक शब्द, भाव आदि किसी टाईल्स का खूबसूरत नयनाभिराम दृश्य नहीं हैं बल्कि गोबर से लिपे आंगन में बिखरे वे चाक्षुष जौ के दाने हैं जो सितारों की तरह चमकते रहते हैं। पर इनकी आभा किसी आधुनिक लाईट की चकाचौंध सी रोशनी से पाठक की आंखों को चुंधियाती नहीं है बल्कि शरद चांदनी में पसरे गेहूं की फसल की कंचन आभा का दैदिप्यमान लगती हुई ऐसी प्रतीत होती है जैसे किसी किसान की ग्रहणी ने ओढनी ओढ रखी हो और श्रम के कणों से लथपथ है। ये कविताएं श्रम का वह श्वेद हैं जो स्वाद में खारा होता है पर मेहनत की मिठास का आभास देता है।  

The emergence and development of the Hindi plays of Prasad era (Mythological, historical and social drama drama) : प्रसाद युग के हिन्दी नाटकों का उद्भव एवं विकास (पौराणिक, ऐतिहासिक एवं सामाजिक समस्या नाटक)

भारतेन्दु युग के बाद एवं प्रसाद युग के पूर्व अर्थात् इन दोनों के मध्य का काल जिसे हिन्दी साहित्य में द्विवेदी युग कहा जाता है, इस युग में नाटकों का प्रायः अभाव दिखाई देता है। जहां भारतेन्दु युग में नाटकों की आधुनिक रंगमंच के संदर्भ में एक विशिष्ट पहचान व परम्परा बनी थी वहीं इस युग में नाटक पारसी रंगमंच एवं मात्र उपदेश कथा तक ही सीमित हो गए। मुख्यतः रोमांचकारी तथा अलौकिक कथाओं को ध्यान में रखते हुए ज्यादातर नाटक लिखे गए। ये नाटक अधिकतर पौराणिक एवं ऐतिहासिक पात्रों व कथाओं को लेकर लिखे गए किन्तु इनमें वह ऐतिहासिक माहौल व नाट्यकला नहीं दिखाई देती जो भारतेन्दु युग के नाटकों में परिलक्षित होती है। इस युग के कुछ प्रमुख नाटक हैं-‘शिवनंदन सहाय’ का ‘सुदामा’, ‘ब्रजनंदन सहाय‘ का ‘उद्धव‘, ‘लक्ष्मीप्रसाद‘ का ‘उर्वशी‘, ‘हरिदास माणिक‘ का ‘पांडव प्रताप‘, ‘सदानंद अवस्थी‘ का ‘नागानंद‘ आदि। डॉ. ओमप्रकाश सिंहल कहते हैं-इस युग के ‘‘नाटकों में पौराणिक आख्यानों एवं चरित्रों के माध्यम से जनता को उपदेश देने की प्रवृत्ति ही प्रधान है। प्रायः नाट्यकला का उपयुक्त विकास इनमें नहीं मिलता और अभिनय तत्व भी गौण है।’’1
प्रसाद युग के पौराणिक नाटक
भारतेन्दु के पश्चात जयशंकर प्रसाद का प्रादुर्भाव हिन्दी नाटकों के लिए एक बहुत ही महत्वपूर्ण उपलब्धि है। जयशंकर प्रसाद ने एक मात्र पौराणिक नाटक ‘जनमेजय का नागयज्ञ‘ लिखा। डॉ. बालेन्दु शेखर तिवारी कहते हैं-‘‘जनमेजय का नागयज्ञ में उन्हांेने केवल पुराख्यान ही नहीं प्रस्तुत किया है अपितु जातीय संघर्ष की चेतना को वाणी देने का यत्न भी किया है। नवीनता की दिशा में ऐसा प्रस्थान प्रसाद कालीन अन्य पौराणिक नाटकों में नहीं लक्षित होता है।‘‘2
प्रसाद युग के पौराणिक नाटकों में केवल पुरातन आदर्शों को ही व्याख्यायित नहीं किया बल्कि नये विचार एवं नई चेतना को इन नाटकों का केन्द्र बनाकर समसामयिक जीवन तथा उससे संबंधित समस्याओं की व्याख्या करते हुए जीवन का विश्लेषण भी किया गया है। इन नाटकों केे कथानक यद्यपि पुराणों के हैं परन्तु फिर भी नाटककारों ने अपनी कल्पना शक्ति के द्वारा इनमंे नवीनता एवं मौलिकता का उद्भव किया है। इस काल के अन्य पौराणिक नाटक हैं-उदयशंकर भट्ट के ‘विद्रोहिणी अम्बा‘, ‘मत्स्यगंधा‘, ‘विश्वामित्र‘, ‘सागर विजय‘, हरिकृष्ण प्रेमी का ‘पाताल विजय‘, सेठगोविन्द दास का ‘कर्तव्य कर्ण‘, कैलाशनाथ भटनागर के ‘भीष्म प्रतिज्ञा‘, ‘श्रीवत्स‘, देवराज दिनेश का ‘रावण‘, लक्ष्मीनारायण मिश्र का ‘नारद की वीणा‘, सुदर्शन का ‘अंजना‘, गोविन्द वल्लभ पंत का ‘वरमाला‘, आचार्य चतुरसेन शास्त्री के ‘मेधना‘ व ‘श्रीराम‘ आदि विशेष उल्लेखनीय हैं।
प्रसाद युग के ऐतिहासिक नाटक
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र से प्र्रारम्भ हुआ ऐतिहासिक नाटक प्रसाद के यहां आकर एक पूर्ण रूप ग्रहण करता है। ऐतिहासिक नाटक पूरी रमणियता से प्रसाद के प्रासाद में आकर ही खिलता व प्रस्फुटित होता है। तात्कालिक ब्रिटिश शासन का विरोध जयशंकर प्रसाद अपने ऐतिहासिक नाटकों के माध्यम से करते हैं। जयशंकर प्रसाद अपने ऐतिहासिक नाटकों से भारतीय जनता में स्वतंत्रता तथा संघर्ष की भावना भी व्याप्त करते हैं। वे स्वयं विशाख नाटक की भूमिका में लिखते हैं-‘‘मेरी इच्छा भारतीय इतिहास के अप्रकाशित अंश में से उन प्रकांड घटनाओं का दिग्दर्शन कराने की है, जिन्होंने हमारी वर्तमान स्थिति को बनाने का बहुत कुछ प्रयत्न किया है, और जिन पर कि वर्तमान साहित्यकारों की दृष्टि कम पड़ती है।’’3 जयशंकर प्रसाद ने अपने  ऐतिहासिक नाटकों के माध्यम से कोरा इतिहास वर्णन नहीं किया है बल्कि उन ऐतिहासिक घटनाओं एवं पात्रों के माध्यम से तत्समय को पुर्नउल्लेखित किया है। जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित ऐतिहासिक नाटक हैं-‘राज्यश्री‘, ‘अजातशत्रु‘, ‘स्कदगुप्त‘, ‘चन्द्रगुप्त‘, ‘ध्रुवस्वामिनी‘। प्र्रसाद ने अपने नाटकों में इतिहास प्रसिद्ध पात्रों के माध्यम से वर्तमान समय की अव्यवस्था के खिलाफ लड़ने के लिए आम जन को प्रेरित किया है। आम जनता मंे उत्साह तथा जोश का प्रचार प्रसार किया है। प्रसाद के समान राष्ट्रीय चिंतन को प्रमुखता देते हुए हरिकृष्ण प्रेमी ने भी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि वाले नाटक लिखे जैसे-‘रक्षा बंधन‘, ‘शिवा साधना‘, ‘प्रतिशोध‘ और ‘शतरंज के खिलाड़ी‘ आदि। इन नाटकों मंे हरिकृष्ण प्रेमी ने हिन्दु मुस्लिम एकता को बढ़ावा दिया एवं मुगल, मराठा और राजपूतों के स्वर्णिम संघर्ष पूर्ण इतिहास को लिखा है। ऐतिहासिक नाटकों की कड़ी में उदयशंकर भट्ट का भी विशेष योगदान रहा है। इनके प्रमुख ऐतिहासिक नाटक हैं-‘विक्रमादित्य‘, ‘मुक्ति दूत‘, ‘दाहर‘, ‘सिंध पतन‘ आदि।
प्रसाद युग के अन्य ऐतिहासिक नाटक हैं-लक्ष्मीनारायण मिश्र के ‘गरूड़ ध्वज‘, ‘अशोक‘, ‘वितस्ता की लहरें‘, सेठ गोविन्ददास के ‘कुलीनता‘, ‘महात्मा गांधी‘, गोविन्द वल्लभ पंत का ‘राजमुकुट‘, चन्द्र गुप्त वेदालंकार का ‘अशोेक‘, पाण्डेय बेचन शर्मा उग्र का ‘महात्मा ईसा‘, उपेन्द्रनाथ अश्क का ‘जय पराजय‘, सुदर्शन का ‘सिकन्दर‘ आदि इस काल की उल्लेखनीय रचनाएं हैं।
इन नाटकों की सामान्य विशेषता है-इतिवृत्तात्मकता, सहज भाषा, चरित्रों का असहज विकास, लम्बे संवाद, पात्रों की बहुसंख्या, स्वसंवादों की अत्यधिकता। अधिकांश नाटकों पर प्रसाद के नाटकों की छाया दिखाई देती है।
प्रसाद युग के सामाजिक नाटक
जयशंकर प्रसाद एवं इस युग के नाटककारों ने मूलतः ज्यादातर ऐतिहासिक, सांस्कृतिक व राष्ट्रीय चेतना वाले नाटक लिखे। किन्तु इन मंे समाज में व्याप्त तात्कालिक समस्याओं को ही उठाना उनका मुख्य उद्देश्य रहा। उस समय मंे परिवार का विघटन, रिश्तों का टूटना, वैवाहिक संबंधों में विच्छेदिता का प्रभाव, जीवन पद्धति मंे परिवर्तन, परम्पराओं, जाति संबंधों, वर्गों एवं वर्णाें में बंटा समाज आदि समस्याएं प्रमुख रूप से उभर रही थीं। अतः तत्समय के नाटककारों ने इन्हीं समस्याओं को अपने नाटकों का केन्द्र बिंदु बनाया। प्रसाद का नाटक ध्रुवस्वामिनी ऐतिहासिक नाटक के साथ-साथ सामाजिक समस्या नाटक की श्रेणी मंे भी रखा जा सकता है। स्त्री विवाह, पुनर्विवाह, धर्म की व्याख्या और स्त्री की रक्षा आदि समस्याएं इस नाटक मंे प्रमुख रूप से आती हैं। प्रसाद युग मंे सामाजिक समस्याओं के नाटकों को प्रधानता लक्ष्मीनारायण मिश्र ने दी। उन्हांेने समस्या प्रधान नाटकों को पृथक-पृथक विषयों के द्वारा खूब मंडित किया। डॉ. दशरथ ओझा कहते हैं-‘‘समस्या नाटक के आधुनिक जन्मदाता मिश्र जी माने जाते हैं। इस पद्धति का पहला नाटक ‘सन्यासी‘ 1927 ई. में लिखा गया है।’’4
प्रसाद के अतिरिक्त पृथ्वीनाथ शर्मा ने ‘दुविधा‘, ‘साध‘ और ‘अपराधी‘ आदि नाटकों मंे व्यक्तिवादी समस्याओं को स्थान दिया है। कानून और नैतिकता के मध्य व्यक्ति कैसे अपने आप को असहाय महसूस करता है, यह इन नाटकों मंे दर्शाया गया है। राजनीति की दखल भी इन सामाजिक समस्या प्रधान नाटकों में परिलक्षित होती है। स्वार्थ के लिए एक दूसरे को नीचा दिखाना एवं अपने लाभ के लिए दूसरे का अहित करना आदि समस्याओं को ‘सिद्धांत स्वातंन्न्य‘, ‘सेवापथ‘, ‘त्याग का ग्रहण‘, ‘संतोष कहां‘, ‘पतित सुमन‘, ‘पाकिस्तान‘ तथा ‘प्रेम और पाप‘ आदि नाटकों मंे सेठ गोविन्द दास ने उठाया है। वृन्दावनलाल वर्मा ने ‘धीरे धीरे‘, ‘राखी की लाज‘, ‘बांस की फांस‘ एवं ‘मंगलसूत्र‘ आदि नाटकों मंे स्त्री-पुरूष के संबंधों की समस्या को अपना विषय बनाया है।
इनके अलावा-हरिकृष्ण प्रेमी के ‘छाया‘, ‘बंधन‘, उपेन्द्रनाथ अश्क के ‘स्वर्ग की झलक‘, ‘छठा बेटा‘, ‘कैद और उड़ान‘, कृपानाथ मिश्र का ‘मणि गाोस्वामी‘, प्रेमसहाय सिंह का ‘नवयुग‘, पाण्डेय बेचन शर्मा उग्र के ‘डिक्टेटर‘, ‘चुम्बन‘, ‘आवारा‘, सूर्यनारायण शुक्ल का ‘खेतिहर देश‘, गणेश प्रसाद द्विवेदी का ‘सोहाग बिंदी‘ आदि इस युग के प्रमुख सामाजिक समस्या प्रधान नाटक हैं।


'In the context of social issues in the fiction of Premchand's story, in the context of selected artisans' : ‘प्रेमचंद के कथा साहित्य में सामाजिक सरोकार, चुनिन्दा काहानियों के सन्दर्भ में’


     
हिंदी साहित्य में प्रेमचंद एक युग के नाम से जाने जाते हैं –विशेषत:-कहानी व उपन्यास के क्षेत्र में| प्रेमचंद को कथा सम्राट व उपन्यास सम्राट तक की उपाधियां दी जाती हैं | कहानी व उपन्यास के क्षेत्र में एक विशिष्ट कार्य प्रेमचंद करते हैं –जिसे सामाजिक सरोकार कहा जाता है |
साहित्य या काव्य की परिभाषा काव्य शास्त्रियों ने भिन्न भिन्न दी है | किन्तु फिर भी सर्वमान्य व सुलभ परिभाषा –सबके हित सहित, सबके भले के लिए, व्यक्ति व समाज के हित, उत्थान व मार्गदर्शन के लिए लिखा गया –काव्य, कहानी, कविता, उपन्यास, नाटक आदि साहित्य है | यश प्राप्ति, अर्थ प्राप्ति, आनंद प्राप्ति व शिवेतरक्षतये आदि का भी प्रयोजन काव्य व साहित्य के लिए शास्त्रियों ने बताया है | किन्तु मुख्य रूप हुआ, उस साहित्य से समाज में व्याप्त अनैतिकता व अवमुल्यों  को मिटा कर, श्रेष्ठ व अच्छे मनुष्य के माध्यम से समाज की निर्मिति करना | इसमें कोई संदेह या दोराय नहीं है की प्रेमचंद की कहानियों में मनुष्य व समाज की वे सभी उत्कृष्टताएं व आदर्शताएं परिलक्षित होती हैं जो समाज में व्याप्त थी व हैं ,तथा न केवल परिलक्षित होती हैं बल्कि प्रेमचंद अपनी कहानियों के अंत में समाज के प्रति उत्तरदाई व जवाबदेही सन्देश, मर्म स्पर्श भाव व परिवर्तन की चिंगारी उदग्रत करते हैं –की वह पात्र अंत में खलनायक की खोल से निकल कर नायकत्व प्राप्त कर लेता है | यह सामाजिक सरोकार व कला ही प्रेमचंद को एक युग व कथा नायक सम्राट के रूप में दर्शाती है |
प्रेमचंद की कहानियों में कोई विशिष्ट या सुनियोजित प्रख्यात पात्र नहीं होते हैं, बल्कि वे तो समाज में रह रहे –इधर उधर से जैसा अवलोकन करते हैं उन्ही पात्रों को उठाकर अपनी कहानी में पिरो देतें हैं | उस पात्र के द्वारा कितना भी निम्न व निकृष्ट कार्य वे करवाते हैं ,परन्तु अंत में समाज हित व सन्देश के लिए उसका परिवर्तन ही, सद्चरित्र में बदलना ही- समाज के लिए व उस पात्र के लिए एक बहुत बड़ी बात है | स्वयं प्रेमचंद के अनुसार –“चरित्र को उत्कृष्ट व आदर्श बनाने के लिए यह जरूरी नहीं है की वह निर्दोष हो | महान से महान पुरुषों में भी कुछ कमजोरियां होती हैं | चरित्र को सजीव बनाने के लिए उसकी कमजोरियों का दिग्दर्शन करने से कोई हानि नहीं होगी | बल्कि यही कमजोरियां चरित्र को मनुष्य बना देती हैं | निर्दोष चरित्र तो देवता हो जायेगा और हम उसे समझ ही न सकेंगे | ऐसे चरित्र का हमारे ऊपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता |”(प्रतियोगिता साहित्य सीरीज-डॉ.अशोक तिवारी, पृ.-१५४ )
प्रेमचंद कहते हैं कमजोरी विहीन चरित्र या निर्दोश चरित्र देवता होगा व जो दोषी है वह मनुष्य है और साहित्य इस पृथ्वी रूपी देवता (मनुष्य) को उसे उसके दोषों से मुक्त कर देवत्व प्राप्त करा कर उसका मान बढ़ाता है | अर्थात समाज में व्याप्त बुराइयों व उन बुराइयों में संलिप्त मनुष्य को प्रेमचंद अपने चरित्रों के माध्यम से अनैतिक, अवमूल्यन, अत्याचार, बेईमानी, विसंगति –या जो भी असत् के प्रतीक के रूप में देखे जाते हैं-उन पर विजय दिखातें हैं |
‘नेकी’ कहानी में तखत सिंह ठाकुर –हीरामणि की जान बचाते हैं और बिना किसी प्रकार की साहानुभूती के वे चले जाते हैं | अर्थात हीरामणि की माँ रेवती को यह पता भी नहीं चलता की उसके पुत्र की जान बचाने वाला वह भल मानुष कौन था ? उस नेक व्यक्ति के दर्शन न कर पाने के पछतावे में रेवती जिंदगी भर बेचैन व अनमंस की स्थिति में रहती है तथा हर वर्ष हीरामणि की सालगिरह पर उस अज्ञात देवता के लिए भी दुआ व शुभ कामनाओं सहित सौ रूपये पृथक से जमा करके रखती है | श्रीपुर की जमींदारी मिलने पर हीरामणि तखत सिंह को बहुत सताता है और अंत में समय व जमींदार का मारा ठाकुर तखत सिंह मर जाता है | परन्तु हीरामणि को बचाने का भेद वह अपनी पत्नी से भी उजागर करने से मना कर जाता है | मगर जो सामाजिक सरोकार प्रेमचंद हीरामणि के परिवर्तन से दिखाते हैं वो ही उनकी कहानियों का विशेष उपहार है | हीरामणि तखत सिंह की मृत्युपरांत उसकी पत्नी जो मृत्यु के बिलकुल निकट है –के बुलाने पर स्वयं जाता है | “हीरामणि ने जब देखा अम्मा नहीं जाना चाहती तो खुद चला | ठकुराइन पर उसे कुछ दिनों से दया आने लगी थी |”(प्रेमचंद कहानी रचनावली :खंड एक –संपादक –कमल किशोर गोयनका, पृ. १७६, नेकी- कहानी) इस तरह से हीरामणि के अहं व क्रोध का नष्ट करते हैं प्रेमचंद |
प्रेमचंद अपनी कहानियों में समाज में व्याप्त विद्रूपता व वैमनस्यता पर चोट करते हैं | वे मात्र चोट ही नहीं करते बल्कि उसे बदलने की कौशिश भी करते हैं | यही कारण है की उनकी कहानी के निकृष्ट से निकृष्ट पात्र भी अंत में सदमार्गानुगामी हो जाते हैं | इसी बात को बाबू गुलाबराय इस तरह से कहते हैं, “मुंशी जी का मनुष्यत्व पर घोर विश्वास है | नीच से नीच मनुष्य में भी वे मानवता की झलक पा जाते हैं | उनके पात्र गिरते हैं पर सुधरते जाते हैं |”(प्रतियोगिता साहित्य सीरीज-डॉ.अशोक तिवारी, पृ.-१६१)
मुख्यतः यदि देखे तो साहित्य समाज को क्या देता है ? समाज में व्याप्त बुराइयों को चिन्हित करना और उन्हें मिटाने व दूर करने का प्रयत्न करना व प्रेरणा देना | प्रेमचन्द की कहानियों में यही सामाजिक सरोकार पूर्ण रूप से व बहुप्रतिशत –परिलक्षित होता है | प्रेमचन्द अपने पात्रों को स्वर्ग से उठाकर नहीं घड़ते हैं | वे सामान्य जीवन के इसी धरती के पात्रों को उठाते हैं और उन्हीं के परिवेश में उन्हें विकसित कर समाजोन्मुखी धारा में जोड़ देते हैं | जिसके कारण उनके पात्र जीवंत हो जाते हैं | ‘बड़े घर की बेटी’ में आनंदी के चरित्र का जिस तरह से वे पतन-उत्थान दिखाते हैं –वह चरित्र अपने आप में अविस्मरणीय हो जाता है व समाज स्वीकृत हो जाता है | “आनंदी ने लालबिहारी शिकायत तो की थी, लेकिन अब मन में पछता रही थी | वह स्वभाव से ही दयावती थी | उसे इसका तनिक भी ध्यान न था की बात इतनी बढ़ जायेगी | वह मन में अपने पति पर झुंझला रही थी की यह इतने गरम क्यों हो जाते हैं | उस पर यह भी लगा हुआ था की मुझसे इलाहाबाद चलने को कहें, तो कैसे क्या करुँगी | इसी बीच में जब उसने लालबिहारी को दरवाजे पर खड़े यह कहते सुना की अब मैं जाता हूँ, मुझ से जो कुछ अपराध हुआ, उसे क्षमा करना, तो उसका रहा सहा क्रोध भी पानी हो गया | वह रोने लगी |” (प्रेमचंद कहानी रचनावली :खंड एक –संपादक –कमल किशोर गोयनका, पृ.-१८३, बड़े घर की बेटी ,कहानी )
आज के कहानी चरित्र व वास्तविक चरित्र इतने लघु व सीमित हो गये हैं की पछतावा से उनका जायज-नाजायज किसी भी तरह का संबंध रहा ही नहीं हैं | यूँ मुगालते में हम वसुदेव कुटुम्बकं या सूचना प्रोधोगिकी (मोबाईल, अंतर्जाल(इंटरनेट)) के बल पर दुनिया बहुत छोटी हो गई या हम सबके पास पहुंच गये जैसी बात करले, परन्तु वास्तविकता तो यह है की अहं ने आज के व्यक्ति को एड्स की तरह घेर लिया है | यह लाईलाज बिमारी इतनी संक्रामक व इंटरनेट से भी तीव्रगामी है की सात क्या दस मुल्कों की सामान्य पुलिस क्या सी बी आई तक नहीं पकड पाती है इसे और यह फैलती ही जा रही है | व्यक्ति को यदि इन सब जंजालो से निकलना है या उसे परिवर्तित करना है तो उसके लिए कोई लवणभास्कर या रामबाणच्वनप्राश जैसी बनी बनाई जड़ी बूटी नहीं आएगी –घोली और पीला दी बीमारी ठीक ,बल्कि स्वयं उस व्यक्ति को ही बदलना होगा और वह जब तक स्वयं नहीं बदलेगा, परिवर्तन संभव ही नही है | और यही व्यक्ति का परिवर्तन प्रेमचंद अपनी कहानियो में दर्शाते हैं | मात्र दर्शाते ही नहीं उस व्यक्ति के परिवर्तन को सर्वमान्य व सामाजिक प्रतिष्ठा की मोहर भी लगवाते हैं | “गाँव में जिसने भी यह वृतांत सुना, उसी ने इन शब्दों में आनंदी की उदारता को सराहा –“बड़े घर की बेटियां एसी ही होती हैं |” (प्रेमचंद कहानी रचनावली :खंड एक –संपादक –कमल किशोर गोयनका, पृ.-१८४, बड़े घर की बेटी ,कहानी )
मनुष्य चूँकि सामाजिक प्राणी है और समाज में व्याप्त जो भी अच्छा बुरा होता है उसका प्रभाव मनुष्य पर पड़ता है और उस प्रभाव के द्वारा ही वह चालित है | उस प्रभाव को ही रेखांकित करती हैं प्रेमचंद की कहानियां | प्रेमचंद की कहानियां एहसास कराती हैं मनुष्य को सामाजिक होने का | समाज से जुड़ने का | उनकी कहानियों में समाज के तरह तरह के चरित्रों व रिश्तों का जिक्र इसी बात की अंत में पूर्ण आहुति देता है की मौज मस्ती, मद शबाब, पैसा, एसो आराम आदि सभी तो क्षणिक हैं | इनसे बहुत ज्यादा, देर दिनों तक सम्बन्ध नहीं रह सकता है | मनुष्य का मूल नाता तो मनुष्यत्व से ही है वह तो उसी के साथ –समाज के बीच ही अपना जीवन निर्वहन कर सकता है और यही उसकी सार्थकता भी है | ‘बड़ी बहन’ कहानी में कुंदन जो अपने ही भाई के जन्म पर बहुत दुखी हुई थी, अब माँ-बाप की मृत्युपरांत, भाई के अकेले  होने से किस तरह से बदली “माँ के मरते ही कुंदन के मिजाज में एक खुश-आयंद तब्दीली वाक्या हुई | नौनीचंद से जो उसे नफरत थी, वह जाती रही | उस मुरझाये हुए यतीम बच्चे को देख कर उस पर तरस आता है | जब उसके अपने लड़के नौनी को मारते और वह आँखों से आंसू भरे हुए आता और जीजी का आंचल पकडकर फरियाद करता, तो कुंदन का कलेजा मसोस उठता और नोनी को मादराना जोश (ममता ) के साथ गोद में उठा लेती और कलेजे से चिपका कर प्यार करती | कुंदन के मिजाज में यह तबदीली यों वाके हुई ,शायद इसीलिए की बूढी माँ ने बच्चे को उसके सुपुर्द किया था ,या मुमकिन है बेकसी के ख्याल ने नफरत पर फतह पाई हो |”(प्रेमचंद कहानी रचनावली :खंड एक –संपादक –कमल किशोर गोयनका, पृ.-२३०, बड़ी बहन ,कहानी )
समाज के मध्य रहने वाले चरित्रों के मन मष्तिष्क व भावों का परिवर्तन ही प्रेमचन्द का असली सामाजिक सरोकार है | जीवन में उतार-चढाव, सुख-दुःख, परिस्थिति विवश अनुकूल-प्रतिकूल स्थिति मानव की चलती रहती है, परन्तु इन सब के बाद भी मनुष्यत्व के गुण को समाज हित के लिए प्राप्त कर लेना या करा देना उस पात्र या प्रेमचंद व उनसे भी बड़े मनुष्य की जीत होती है और यही साहित्य की प्रमुख महत्ता व प्रयोजन में से एक है | मनुष्य के अंदर ही मानवता का बीज सुसुप्त अवस्था में विराजमान होता है, आवश्यकता है उसे अनुकूल वातावरण देने की | मनुष्य के क्रोध व कठोरता को भी पिन्घलाया जा सकता है | आवश्यकता है दृढ़ इच्छा शक्ति की, प्रबल मानवीय गुणों में विश्वास की | प्रेमचंद कहते हैं “जिस तरह पत्थर और पानी में आग छिपी रहती है, उसी तरह मनुष्य के ह्रदय में भी –चाहे वह कैसा ही क्रूर और कठोर क्यों न हो –उत्कृष्ट और कोमल भाव छिपे रहते हैं |”(प्रेमचंद कहानी रचनावली :खंड एक –संपादक –कमल किशोर गोयनका, पृ.-३९२) इसी तरह के भावों का उद्रेक प्रेमचंद अपनी कहानियों के पात्रो के माध्यम से मनुष्य मात्र में कराना चाहते हैं | “गुमान की आँखे भर आई, आंसू की बूंदे बहुधा हमारे ह्रदय की मलिनता को उज्जवल कर देती है | गुमान सचेत हो गया | उसने जाकर बच्चे को गोद में उठा लिया और अपनी पत्नी से करुणोत्पादक स्वर में बोला –“बच्चे पर इतना क्रोध क्यों करती हो ? तुम्हारा दोषी मैं हूँ, मुझको जो दंड चाहे दो | परमात्मा ने चाह, तो कल से लोग इस घर में मेरा और मेरे बाल बच्चो का भी आदर करेगें | तुमने आज मुझे सदा के इस तरह जगा दिया, मानो मेरे कान में शंखनाद कर मुझे कर्म-पथ में प्रवेश करने का उपदेश दिया हो |”(प्रेमचंद कहानी रचनावली :खंड एक –संपादक –कमल किशोर गोयनका, पृ.-३९२ ,शंखनाद- कहानी )
प्रेमचंद की कहानियां व उनके पात्र इसी तरह का शंखनाद करते हैं समाज में | हाँ उसका प्रभाव कैसा व कितना होता है यह अलग बात है ,क्योंकि जितना हो सकता है व्यक्ति उतना ही कर सकता है | हालांकि प्रेमचंद कई बार इस सीमा को भी लांघ जाते हैं और वे क्रूर से क्रूरतम  परिस्थिति में भी संभावनाएं तलाशते हैं | शायद यही कारण होगा की आस्थावान कहानियां इतनी मजबूत है की वह मात्र समाज हित के इतर कुछ सोचती ही नहीं हैं | यही कारण है की पछतावा कहानी में कुंवर साहब जिससे बहुत रुष्ट व क्रोध हुए थे, जिसे अपना शत्रु समझते थे ,उसी पंडित दुर्गादास को अपनी वसीयत सोंपते हैं –“हितार्थी और सम्बन्धियों का समूह सामने खड़ा था | कुंवर साहब ने उनकी और अधखुली आँखों से देखा | सच्चा हितैषी कहीं देख न पड़ा | सबके चेहरे पर स्वार्थ की झलक थी | निदान उसे लज्जा त्यागनी पड़ी, वह रोती हुई पास जाकर बोली- “प्राणनाथ, मुझे और इस असाहय बालक को किस पर छोड़े जाते हो ?” कुंवर साहब ने धीरे से कहा –“पंडित दुर्गादास पर | वे जल्द आयेगें | उनसे कह देना मैंने सब कुछ उनको भेंट कर दिया | यह अंतिम वसीयत है |”(प्रेमचंद कहानी रचनावली :खंड एक –संपादक –कमल किशोर गोयनका, पृ.-४९०, पछतावा - कहानी )
यदि मनुष्यत्व को जीवित रखना है तथा समाज को उत्थान करना है तो उसे सही व सत्य को मानना पडेगा, फिर वह चाहे जो कहे ,जैसे कहे | अर्थात यदि सच हमारा शत्रु भी बोलता है तो भी मान्य है और इसी बात की पुनरावृति होती है प्रेमचन्द की कहानियों में, उनके पात्रों द्वारा | प्रेमचन्द का वास्तविक रूप से समाज के प्रति यह दायित्व था की उसे पतन होने से कैसे बचाया जाया और चूँकि वह सब शक्ति मनुष्य के अंदरनीहित है – जिसके द्वारा उसे जाग्रत किया जा सकता है या उठाया जा सकता है अत: उस मानव मात्र ,सामाजिक प्राणी को जगाने व उठाने का प्रयास करती हैं प्रेमचन्द की कहानियां और यही उनका व साहित्य का सामाजिक सरोकार है |

Expert Drama and theater of society with theater : प्रयोगात्मक नाटक एवं रंगमंच से समाज का सरोकार


यूँ देखा जाये तो लगभग सभी विधाऐं एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं। परन्तु फिर भी उनका अपना पृथक अस्तित्व भी होता है। किन्तु पृथक अस्तित्व उस विधा का दूसरी विधा से हो सकता है-समाज से नहीं। समाज से तो जैसे प्रत्येक प्राणी या वस्तु का संबन्ध व साम्य होता है वैसे ही प्रत्येक विधा का उत्थान व उसकी परिणति समाज के अर्न्तगत ही समाहित होती है या कहना चाहिए उसका सम्पूर्ण विकास कार्य समाजोन्मुखी ही होता है। (होना चाहिए) किन्तु बदलते युग व परिवश में हर चीज की परिभाषा ने युग व परिवेश को बदला है। खरबूजा छुरी पर गिरे या छुरी खरबूजे पर गिरे कटेगा खरबूजा ही वाली कहावत यहाँ लागु नहीं होती है। यहाँ नुकशान या लाभ की बात है तो दोनों के साथ है। चूँकी दोनों संयुक्त हैं अतः जो भी परिणाम आता है बराबर बंटता है।
‘वियोगी होगा पहला कवि, अहा से उपजा होगा गान, निकल कर आँखों से चुपचाप बही होगी कविता अनजान’ पंत की ये पंक्तियां हो या ‘मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शास्वती समाः, यत् क्रौचंमिथुनादेकमवधीः काममोहितम्’ वाल्मीकि का यह आदि श्लोक हो दोनों का भावार्थ है-कला, साहित्य, (काव्य)  विचार या तकनीक का जन्म दुःख, संताप, परेशानी या विपरीत परिस्थिति में ही हुआ होगा (है) और अन्ततोगत्वा इनकी परिणति भी यही इन दुःखों, संतापों, परेशानियों को दूर करना मिटाना है। जैसे जैसे उत्तरोत्तर इनका विकास होता जाता है (सिर्फ आयतन में धनत्व में नहीं, यदि धनत्व में भी तो सिर्फ स्वार्थवस व दिखावे के लिए) इन सब दुःख संतापो से छुटकारा मिलता जाता है(जाना चाहिए)। परन्तु वास्तव में इनका विस्तार व विकास तो हुआ है किन्तु दुःख व संताप से छुटकारा वैसा का वैसा ही है वह कम नहीं हुआ है-ठीक उसी तरह जैसे किसी सत्ताधारी पार्टी का हर वर्ष बजट व खर्च तो बढ़ जाता है परन्तु बजट बढ़ने के बाद भी समस्या वैसी की वैसी ही रहती है पूर्वत। सामाजिक सरोकार तो सत्ताधारी दल का भी उतना ही हैै जितना कला, साहित्य, विचार या सामान्य जन का है। बल्कि उसका तो ज्यादा व बहुत ज्यादा है। परन्तु फिर भी स्थितियां ढाक के तीन पात जैसी ही हैं।
हम यहाँ बात कर रहें हैं आधुनिक दृश्य-श्रव्य माध्यमों के बदलते चेहरे तथा सामाजिक सरोकार की। जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है-समाज में रहने व घटित होने वाले सभी घटकों व घटनाओं से समाज का सरोकार होता है। यदि वह अपना रूप बदल लेता है तो क्या उसका सामाजिक सरोकार खत्म हो जाता है? हां कुछ ना कुछ जिम्मेदारियां उल्टा बढ़ ही जाती हैं। अतः आधुनिक दृश्य-श्रव्य के जो माध्यम-रेडियो, रंगमंच, टी वी व फिल्म इनका जो रूप बदला है तो इनका सामाजिक सरोकार भी बढ़ा है (बढ़ना चाहिए)। परन्तु क्या वास्तव में इस बदलते युग व परिदृश्य में इनका सामाजिक सरोकार बढ़ा है या घटा है? और घटने की वजह से जिनका वास्तव में समाज से सरोकार है उनके लिए चुनौतियां खड़ी हुई हैं।
आज के सन्दर्भ में यदि देखें तो ये सभी विधाऐं अपने बदले हुए चेहरों मोहरों के साथ हमारे सामने हैं। चुनौतियां चेहरों मोहरों के बदलने से खड़ी नहीं होती हैं वरन् चुनौतियां खड़ी होती हैं सामाजिक सरोकार से इनके द्वारा पीछे मुड़ जाने से। जब इनके लिए स्व व अर्थ इतना ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाये की समाज उसकी चंकाचौध में दिखाई ही न दे, तो चुनौती भंयकर व बड़ी लगती है और यही स्थिति आज बनी हुई है।
नाटक व रंगमंच को देखंे तो इनके रूपों में भी बहुत परिवर्तन आया है। नाटक लेखन की दृष्टि से संख्यात्मक रूप में बहुत कम होता जा रहा है व जो नवीन लिखा जा रहा है उसे निर्देशक रिश्क की वजह से अपनी प्रसिद्धि व सफता में आडे नहीं आने देना चाहता है। रंगमंचीय दृष्टि से नाटक का कार्य सामाजिक सन्दर्भों की विसंगतियों को उजागर करना होता है (व था)। परन्तु रंगमंच से जुड़े कला प्रेमियों की यदि संख्या देखे तो आंकड़ा वही नजर आता है जो दस बीस वर्ष पहले था। जबकि प्रत्येक वर्ष राष्ट्रिय नाट्य विद्यालय, भारतेन्दु रंगमंड़ली, श्रीराम सेन्टर, हिमाचल रंगमंड़ली व अनेकों क्षेत्रीय रंगमंड़लीयां व नाट्य संस्थाऐं हैं जिनसे लगभग सौ दो सौ की संख्या में प्रशिक्षु प्रशिक्षण प्रारंगत होकर अपनी कला का पल्लवन करने हेतु अनेक-अनेकों रंगमहोत्सवों व थियेटर कार्यशालाओं में जाते हैं। मगर फिर भी रंगमंचीय थियेटर में एक समय उपरान्त वे गायब हो जाते हैं-क्यों? कारण फिल्म का आकर्षण? पैसों व प्रसिद्धि का प्रलोभन या अन्य? परन्तु इन सब के बावजूद भी सार्थक व सक्रिय थियेटर करने वाले बहुत सारे वरिष्ट व थियेटर को समर्पित कलाकार होते हैं। फिर भी रंगमंच की चुनौती इस बदलते परिवेश में मुँह बाय खड़ी है।
दरअसल रंगमंच एक लम्बा समय साधना का मांगता है, पूर्ण समर्पण चाहता है। यूँ तो लगभग प्रत्येक विधा को ये दोनों चीजें चाहिए। परन्तु रंगमंच में इस बदलते परिदृश्य में उन विधाओं से इतर भी अनेक समस्याऐं हैं। जैसे-यह एक सामुहिक विधा है। पैसे व प्रसिद्धि के नाम पर इस विधा में बहुत कम या ना के बराबर कुछ है। नये परिवेश में प्रतिस्पर्धात्मक चलन होने के कारण यह विधा पिछड़ी व पुरानी नजर आती है तथा यदि इस विधा में नवीन तकनीक व उपकरणों व अन्य तामझामों का प्रयोग यदि किया जाता है तो यह विधा अपना मूल स्वरूप खोती हुई आलोचकों को दिखाई देती है। इस बहस में एक सवाल यह भी खड़ा होता है कि क्या रंगमंच पर बदलती तकनीक व युगानुरूप प्रयोग करना व समयानुसार नई प्रयोगात्मक प्रस्तुतियों को प्रस्तुत करना कला का ह्रास हैं? या उस कला का समाज से सरोकार कम होना है? या पुरातन पीढ़ी की ठसक ऐसा महसूस कर रही है कि नया मुल्ला अल्हा ही अल्हा पुकार रहा है? या वास्तविकता से परे है?
अशोक वाजापेयी हिन्दी रंगमंच व नाटक से जुडे से कुछ बुनायादी सवाल खडा करते हैं। और उनके पीछे के तर्क को वे अनेक पहलुओं से देखने को कहते हैं। ‘‘पिछले पचास वर्षों में जब हिन्दी रंगमंच का उत्थान और विकास हुआ है, लगातार उसे संकटग्रस्त कहा जाता रहा है। जब उसके पास हबीब तनवीर, इब्राहिम अल्काजी, बण् वण् कारन्त जैसे मूर्धन्य, श्यामानन्द जालान, राज बिसारिया, बंसी कैाल, एम के रैना, मोहन महर्षि, रामगोपाल बजाज, त्रिपुरारी शर्मा, कीर्ति जैन, देवेन्द्र राज अंकुर आदि जैसे प्रयोगधर्मी और महत्तवपूर्ण निर्देशक थे, मोहन राकेश, धर्मवीर भारती, ज्ञानदेव अग्निहोत्री, मुद्राराक्षस, नन्दकिशोर आचार्य आदि जैसे नाटककार और अनामिका, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, पदातिक दिशान्तर, रंगमण्ड़ल आदि जैसी रंगं मण्ड़लियां थी तब भी वह संकटग्रस्त ही माना जाता था। अब जब उदाहरण के लिए भारत रंग महोत्सव जैसे समारोह में हजारों की संख्या में दर्शक आते हैं और रंग व्यापार हिन्दी अंचल में खासा फैल गया है तब भी वह संकटग्रस्त है। लगता है कि हिन्दी रंगमंच अपने जन्म से ही संकटग्रस्त होने के लिए अभिशप्त है। उसका जन्म ही संकट जन्य है।’’(रंगप्रसंग-हिन्दी रंगमंच पर कुछ असंगत नोटस-अशोक वाजपेयी, पृण्-19)
यह संकटग्रस्त कि स्थिति सिर्फ रंगमंच की ही नहीं है वरन् हिन्दी अँचल की लगभग सभी प्रदर्शन योग्य कलाओं कि है। परन्तु सवाल उठता है इन सब के बावजूद भी स्थिति क्या वही है? नहीं स्थिति बदली है उसमें परिवर्तन आया है। वह परिवर्तन विभिन्न पहलुओं पर अलग अलग दृष्टि से नजर आता है। और इन परिवर्तनों के बाद भी नाटक या रंगकर्म की सामाजिकता का बदलाव अपने स्तर पर एक यथार्थ है। यूँ बात करें तो नाटक व रंगकर्म एक सामाजिक कला या उपकर्म विशेष सन्दर्भ में माना गया है। लेकिन इसके साथ ही समाज के लिए दिशा व मार्गदर्शन का कार्य भी इस विधा ने किया है। अतः यह एक सामाजिक कला है।
‘‘रंगमंच एक व्यक्ति या कुछ व्यक्तियों की कला नहीं है, समाज की कला है-समाज का एक वर्ग नाटक प्रदर्शित करता है, दूसरा वर्ग उसे देखता है और उसका प्रभाव ग्रहण करता है। सभी कलाओं में सर्वाधिक सामाजिक कला नाटक ही है। इसमें रचना और सह्रदय सामाजिक आमने सामने होते हैं।’’(नाटकालोचन के सिद्धान्त-सिद्धनाथ कुमार, पृण्-19) चूँकि यह कला अपने पूर्ण रूप में एक सामाजिक कला के रूप में ही हमारे समक्ष आती है। अतः समाज से इसके प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष सरोकार को तो नकारा ही नहीं जा सकता है। हां बात इस तरीके से उठाई जा सकती है कि वह समाज पर अपना असर कितना डाल पा रही है। इसकी तह में कुछ कारण यदि हम तलाशे तो निम्न कहे जा सकते हैं। ‘‘हिन्दी में पढ़े लिखों का प्रतिशत बढ़ रहा है पर उसी अनुपात में साहित्य और कलाओं के रसिकों का प्रतिशत बढ़ रहा है, ऐसा नही लगता। इस बीच एक नया तत्व टेलिविजन पर होने वाले राजनीतिक और आर्थिकी के अपने नाटक, भण्डाफोड़ और टेली धारावाहिक हो गये हैं। यह वह नयी संस्कृति है जिसमें अपार दृश्यता और अटूट वाचालता है। सेलफोनों की रोजाना बढ़ती भरमार ने नयी संवादरति पैदा की है जिसके बारे में कहा जा सकता है कि बोले तो बहुत पर कहा क्या पता नहीं ?’’(रंगप्रसंग-हिन्दी रंगमंच पर कुछ असंगत नोटस-अशोक वाजपेयी, पृण्-22)
इस तरह की उहापोह वाली स्थिति में मानव बहुत तेज गति से विचरण कर रहा है। और टेलिविजन व सिनेमा पर वह अपनी इस तेज चाल में से मनोरंजन के लिए मात्र तीन चार घंटे या एक आध घंटे में वह आनन्द व रस (मनोरंजन) प्राप्त कर लेता है या करना चाहता है, जो उसे चाहिए, अपनी सुविधा, समय, स्थान के अनुसार। फिर वह रंगमंच जैसी पेचीदी व समय तथा स्थान को बांधने वाली कला की और क्यों आकर्षित होगा? वह क्यों अपना समय नाटक जैसी विधा के लिए खराब करेगा। तथा दूसरी और एक सवाल रंग शिक्षा भी कहा जा सकता है। जिसका प्रशिक्षण मात्र चन्द महानगरों में ही सिमट कर रह जाता है, उन दूर दराज के गाँव-ढ़ाणियों व नगरों में नहीं पहूँच पाता है जो वर्षों से इस कला को अपने ही अंदाज में जीवित रखे हुए हैं। अशोक वाजपेयी इस पर टिप्पणी करते हुए कहते हैं कि-‘‘या तो रंगशालाऐं हैं ही नहीं, जो हैं उनकी दुर्दशा है। अधिकांश राज्य संगीत नाटक अकादमी या तो शिथिल-निष्क्रिय है या कलाओं के क्षेत्र में सरकारी स्तर पर अपनी कोई जिम्मेदारी नहीं मानते, न ही उसे निभाते हैं। मध्यप्रदेश जैसे राज्य में जो अभूतपूर्व पहल हुई थी वह राजनीतिक संकीर्णता और मीडियाक्रिटी के दुश्चक्र में फंसी हुई है।’’(रंगप्रसंग-हिन्दी रंगमंच पर कुछ असंगत नोटस-अशोक वाजपेयी, पण्ृ-22) इस तरह के कुछ कारण हैं जो रंगमंच की सामाजिक सरोकारता पर प्रश्न करतें हैं व आडे आते हैं। हांलाकि यह मुद््दा राजनीतिक से लेकर पारिवारिक तक सभी के साथ है किन्तु  स्थितियां अलग-अलग हैं।
लेकिन इसके अलावा संकट ओर भी हैं। जैसे इस विधा को समाज में हीन या तुच्छ मानना। प्राचीन काल से ही यह मान्यता चली आ रही है कि नाटक नौटंकी का काम तो राजा महाराजा के यहां काम करने वाले चारण, भाट, भांड, मिरासी, नट या इसी तरह की छोटी या तुच्छ जाति के लोगों का कार्य रहा है अतः इसको करने वाले जो भी लोग हैं वे समाज में सम्मानीय दृष्टि के बजाय नाचने गाने वालों के श्रेणी में रखे जाते हैं और उन्हें हेय दृष्टि से देखा जाता है। देवेन्दे राज अंकुर कहते हैं-‘‘मेरा अपना व्यक्तिगत अनुभव है कि नाटक करने वालों को समाज में वह स्थान हासिल नहीं है जो किसी वैज्ञानिक, डॉक्टर और शिक्षक को प्राप्त है। आज भी हम लोग भाँड़, मीरासी या नौटंकी करने वाले माने जाते हैं।’’(रंगप्रसंग-हिन्दी रंगमंच का भूत, वर्तमान और भविष्य-देवेन्द्र राज अंकुर , पृण्-25) हांलाकि यह दृष्टि देवेन्द्र राज अंकुर ने नाटक (रंगकर्म) के सन्दर्भ में विशेष रूप से कही है, परन्तु यह लगभग सभी ललित व प्रदर्शित कलाओं के सन्दर्भों में भी लागु होती है और न केवल यह उक्ति मात्र देवेन्द्र राज अंकुर की व्यक्तिगत है बल्कि सभी कलाकरों की अपनी है उनकी तरफ से। उनसे बार-बार हर जगह अपने, पराये, नाते रिश्तेदार सभी सवाल करते हैं कि - आप करते क्या हो? जवाब-नाटक, नृत्य या अन्य कला। नहीं यह तो ठीक है वैसे काम क्या करते हो? यानि जवाब में वही चाहिए जो ऊपर देवेन्द्र राज अंकुर ने लिखा है डॉक्टर, वैज्ञानिक, ईंजीनियर, वकील या मास्टर। नाटक या अन्य कलाऐं कोई कार्य ही नहीं हैं उनकी दृष्टि में। यह सामाजिकता जब नाटककार (रंगकर्मी) के साथ होती है तो नाटककार उपेक्षा का शिकार होता है? और उस पर जो समाजिकता का दवाब होता है उससे वह बेचैन होता है। परन्तु नहीं, रंगमंच से सामाजिकता की अपेक्षा कोई अनुचित या गैर वाजिब नहीं है बल्कि आवश्यक व अतिआवश्यक है। समाज की इसी सुषुप्त अवस्था को परत दर परत खोलने का प्रयास करता है रंगकर्म।
इस बदलते परिवेश में रंगकर्म के समाने भी अनेक चुनौतियां हैं और वह इन चुनौतियों को अपने माध्यम से, अपने औजारौ से चुनौति दे रहा है व देता रहेगा। रंगकर्म का प्रयोगानुमुखी होना व फिल्मों व सिनेमा के नजदीक जाना, महानगरों में सिमटना व उसका कला पक्ष व रसात्मकता की ओर का अन्तिम तत्व कहीं लुप्त प्राय होना ये तमाम सवाल नये परिवेश में उसके सामने खड़े हैं और रंगकर्म की रचना व क्रियाशीलता इन सवालों को कितना व किस माध्यम से हल निकालती है यह तो परिस्थितियां तय करेगी। लेकिन फिर भी यह कहा जा सकता है कि रंगकर्म की अपनी सामाजिकता वह अपने अन्तर में कहीं ना कही अभी भी समेटे हुऐ हैं व अनेक जगहों पर उसके प्रस्फुटन व अंकुरन की ध्वनि या प्रतिध्वनि हमें किसी ना किसी रूप में सुनाई या दिखाई देती ही रहती है। अनेक तरह की प्रतिकूल परिस्थितियों व परेशानियों के बावजूद यह मशाल अभी भी कुछ खांटी व जुनूनी व्यक्तियों के माध्यम से जल रही है और यह उम्मीद के साथ साथ एक नई राह का सूचक भी है जो हमें प्रेरित करता है।

Cinema and society under the scope of questions : सवालों के दायरे में सिनेमा और समाज


                                               
      कला का पदार्पण किसी भी कारण वश हुआ हो किन्तु यदि इसके मुख्य में देखें तो एक बात सर्वोपरी व सर्वमान्य है. उसका समाज से सरोकार द्य थोड़े और लचीलेपन से यदि दो कदम आगे सोचे तो कलाकार की अभिव्यक्ति व समाज पर उसका प्रभाव भी हमें इसके कारणों में दिखाई देतें हैं द्य परन्तु यहाँ पर कला कला के लिए है या कला समाज के लिए है दृ वाली बहस शुरू होती है द्य यदि मूलरूप से देखें तो कला व्यक्ति के मन मष्तिष्क की किसी भी रूप में वह उपज है.जो उसके आंतरिक परिवेश में एक कौतुहल व उलझन होती है तथा वह बाह्य रूप में आकर एक मूर्त रूप पाकर दृउस कौतुहल व उलझन का समाधान रूपी परिणाम होती है द्य फिर वह चित्रकलाए संगीतए वाद्यए नाटकए कविताए कहानीए सूत्रए कल्प या अन्य जो भी हो उसी का एक रूप होती है द्य यदि इसके द्वारा समाज का विकास या भला होता है तो यह ष्एक तीर में दो शिकारष् दोहरा लाभ है द्य फिर इसे हम अरस्तु के सिद्धांत विरेचन का नाम भी दे सकते हैं द्य
       आधुनिक द्रश्य.श्रव्य माध्यमों में दिन.प्रतिदिन बहुत ज्यादा बदलाव आ रहा है द्य पूर्व की अपेक्षा कल कुछ भिन्न थाए कल की अपेक्षा आज कुछ भिन्न हैए आज की अपेक्षा कल कुछ भिन्न होगाए ष्भविष्य न जानाति कोेपीष् द्य इस तरह से यदि देखें तो मुख्य रूप से नाटक का रंगमंचीय रूपए टेलीविजनए रेडियो व फिल्म ये मुख्य  द्रश्य.श्रव्य माध्यमों में गिने जा सकते हैं और इन सभी का पूर्व से लेकर आज तक अपना एक सामाजिक सरोकार है द्य ;ऐसा इनके चालक परिचालक सभी कहते हैं द्यद्ध हाँ वह कितना समाज से सरोकार रखता है या नहीं यह एक अलहदा प्रश्न है द्य किन्तु एक बात तय है की आधुनिक युग में इन सब के चेहरे ही नहीं आंतरिक भाव व संरचना भी परिवर्तित हुयें हैं द्य
       इन सब का उद्देश्य समाज में व्याप्त विसंगतियोंए अनैतिकताओंए बुराइयों व खामियों को चिन्हित कर उन्हें प्रदर्शित करना व समाज को इनके निवारण हेतु प्रेरित व प्रोत्साहित करना प्राथमिक कार्य व इसके लाभांश के साथ कुछ पूँजी व प्रतिष्ठा कमाना द्वितीय कार्य होता था द्य परन्तु आधुनिक युग में दृश्य एकदम उलट गया है और जो द्वितीय कार्य था वह प्राथमिक हो गया है व प्राथमिक कार्य कहीं द्वितीयए तृतीयए चतुर्थए पंचमण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्हो गया है या फिर गोण ;लुप्तद्ध हो गया है द्य इसी कारण पूर्व में इन माध्यमों में लोगों की रूचि कम होती थीए परन्तु जैसे जैसे दृ इनमें पैसा व प्रसिद्धि की चमक आने लगी वैसे ही लोग इनकी और आकर्षित होने लगेद्य हालांकि ओसत रूप में इस कला के वास्तविक पारखी उतने ही हैं जितने पूर्व में थेद्य और आज हालत यह है की कला का अलिफ़ए बेए ते. भी नहीं जानने वाला दृदो.दोए तीनदृतीन रेडियो व टेलीविजन चैनलों का मालिक है व व्यावसायिक दृष्टि से पूँजी निवेशक प्रत्येक साल २.३ फ़िल्में बनाने वाले आधुनिक कला प्रेमी हैं द्य रंगमंच में आज नवीन तकनीक का प्रयोग राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से लेकर छोटे दृछोटे शहरों की रंगमंडलियों तक में देखा जा सकता है द्य अलबत्ता रंगमंडलिया रही ही नहींए परन्तु यदि हैं भी तो इसी रूप की द्य इनमें गीतोंए नृत्योंए प्रकाश व रूप सज्जा का पूर्ण रूप में कम्प्यूटरीकृत व तकनीकी ताम झाम वाला मसाला पिरोया जा रहा है द्य इसी तरह से एफ एम् रेडियो ने रेडियो की लुप्त होती दुनियां को फिर से तिनके का सहारा दिया है और मात्र सहारा ही नहीं उसे पूर्ण रूप से जीवित कर दिया है द्य हाँ यह बात अलग है की रेडियो जोकि जोक के नाम पर जब तक दृलड़कीए सेक्सए बेडरूमए ब्रा की बात न करें तब तक कानों को अप्रियए कहने को रसात्मक व आधुनिक नहीं लगता हैद्य इस कार्यकर्मों के संचालन में संख्यात्मक दृष्टि से भी लड़कियों की संख्या ज्यादा होती है द्य टेलीविजन पर सास बहु के संस्कार इतने जीवंत हो गए की वास्तविक जिंदगी में भी इन सीरियलों ने इन रिश्तों में आहुति दे दी है और ये आज पूर्ण दैदीप्यमान हैं द्य सास बहु कैसी होनी चाहिए यह अब सिनेमा टेलीविजन निर्धारित कर रहे हैंद्य जब इन सीरियलों से लोग ऊबने लगे तो वास्तविक प्रदर्शन ;रियल्टी शो द्धके नाम पर पहले से सब कुछ तय व निश्चित निर्धारित सबसे ज्यादा अवास्तविक प्रदर्शनों को ये लोग भोजन की तरह एक के बाद एक ऐसे प्रस्तुत करते हैं की यह पसंद नहीं है तो ये ले लीजीय और यदि यह पसंद नहीं है तो ये तो लेना ही पड़ेगाण् ये प्रदर्शन बेमौसमी कुकुरमुते की तरह हर चैनल पर ऐसे उग आये जैसे संसद के शीत कालीन सत्र में प्रत्येक क्षेत्र का वह नेता भी उपस्थित हो जाता है जिसके आमतोर पर अपने क्षेत्र में भी दर्शन दुर्लभ होते हैं द्य गीतए संगीतए हास्य व करोड़ो अरबो से आम व खास सबको रैम्पों पर नचा नचा कर जनता को भावुक बनाया जा रहा है द्य फिल्मों में सेक्सए हिंसा व द्विअर्थी संवादों के अलावा कुछ बचा ही नही हो जैसे द्य ऐसा लगता है फिल्म इंडस्ट्री में कपडे पहनने पर कर्फ्यू व टैक्स लग गया है एयदि गलती से किसी अभिनेत्री ने ज्यादा कपडें पहन लिए तो वह असभ्य व फूहड़ करार कर दी जायेगी द्य अभिनेत्रियों का नग्न होना भारतीय सिनेमा का यथार्थ हैघ् या भारतीय समाज का यथार्थ हैघ् या आधुनिकता का यथार्थ हैघ् अभिनेत्रियाँ नग्न हो रही हैं कम से कम यह तो यथार्थ हैद्य और इस यथार्थ को कुछ लोग सार्वजनिक रूप से गलत कहने के बाद भी व्यक्तिगत रूप से अकेले में ऐसा कर रहे हैं या इसे स्वीकार कर रहे हैंद्य यह भी यथार्थ हैद्य सिनेमा का आज अर्थ बदला है लेकिन इस सिनेमा के बदले हुए अर्थ के लिए जिम्मेदार कोन हैघ् खुद सिनेमाघ् या समाजघ् सिनेमा का योगदान अधिक दिखाई देता हैद्य क्योंकि सिनेमा की आयु यूँ बहुत लंबी नहीं हैए लेकिन उसका विस्तार व प्रभाव बहुत प्रभावी तथा तेज हैद्य समय रुकता नहीं हैए समय बहुत तेज गति से चलता हैद्य लेकिन सिनेमा भी कम गति से नहीं चलता हैद्य आज के हालात देख कर तो लगता है समय से भी तेज गति से सिनेमा चल रहा है या समय को सिनेमा एक गति दे रहा हैद्य एक प्रतियोगिता सी चल रही हैद्य सिनेमा में बदलाव भी आये हैं और सिनेमा बदलाव भी लाया हैद्य लेकिन सार सार को गहने और थोथा उड़ाने वाली कला या तो हमें आती नही है या हम ऐसा इसलिए नहीं करते हैं की हमें भी इससे लाभ हैद्य कोई भी कला किसी भी प्रकार की विकृति फैलाती है या वह समाज को जोड़ने के बजाय तोड़ने का काम करती है तो वह कला निरर्थक हैद्य सिनेमा में बढ़ते दृलड़कीए सेक्सए बेडरूमए ब्राए चुंबन के दृश्य एक ऐसे यथार्थ को प्रस्तुत कर रहे हैं  जिसका प्रभाव सकारात्मक के बजाय नकारात्मक अधिक हैद्य यह प्रदर्शन भोंडा हैए शील हैए अश्लील हैए उचित हैए अनुचित हैए कुछ सही हैए कुछ गलत है इस तरह की बहस गोष्ठियों में होती रही है और हो रही हैद्य लेकिन क्षणिक मानसिक व शारीरिक आनन्द के लिए तथा पैसा व पद के लिएए इस तरह की बहस में हमेशा ही दो धड़े बन जाते हैं कुछ इसके पक्ष में कुछ विपक्ष मेंद्य इसमें धर्मए सत्ताए पद पैसाए प्रतिष्ठाए नामए इज्जत आदि सब अपनी भूमिका निभाते हैंए इसे सही व उचित रास्ते की ओर न जाने देने के लिएद्य       
फिल्म फिल्म है वह यथार्थ नहींद्य अर्थात यदि एक तरह से इसको झूठ कहा जाये तो गलत नहीं होगाद्य लेकिन इस फिल्म रूपी झूठ को इतनी सत्यता के साथ दिखाया जाता है या प्रचारित किया जाता है की इसका प्रतिबिम्ब समाज में दिखाई देता हैद्य और इस असत्य को समाज बहुत ही आसानी से पचा भी जाता हैद्य यह भारतीय समाज और सिनेमा दोनों का यथार्थ हैद्य समाज की इस बदलती हुए परिस्थिति के लिए सिनेमा जिम्मेदार है ऐसा एक पंक्ति में कह देना आसान है लेकिन न्यायोचित नहींद्य गिव एंड टेकए मांग या पूर्तिए इस हाथ ले उस हाथ देए जैसी करनी वैसी भरनी ये सूक्तियां कहने या किताबों की शोभा बढ़ाने के लिए ही नहीं रची गई थीध् हैंद्य कोहरा घना होने के कारण यदि हमें कुछ दिखाई नहीं देता है तो इसका यह तात्पर्य कदापि नहीं होता की शेष चीजों का अस्तित्व ही खत्म हो गयाद्य यह व्यक्तिगत आलोचना कब सर्वमान्य बन जाती है या बना दी जाती है यह भी कम सिनेमा की तरह नहीं है अपने आपमेंद्य कहने के लिए बहुत कुछ कहा जा सकता है और आजकल तो यह चलन हो गया है की कहना अलग और करना अलगद्य               
      इन सब के प्रदर्शन से लाभ व हानी कितनी है व यह उचित व अनुचित है या नहींए यह सवाल तो अपने आप में बड़ा सवाल है ही साथ में यह बात भी मुख्य है दृकी इन सबका समाज के साथ कितना सरोकार है घ् आखिर ये सब समाज को क्या दिशा व सन्देश दे रहे हैं घ् किस दिशा में ले जा रहे हैं घ् इन मुखोटों के पीछे और कितने चेहरे हैं जो परत दर परत खुलने पर भी अपनी असलियत रुपाईत नहीं कर रहे हैं घ् दीर्घ सुख के अनुचर नहीं हैं आज के ये चाक्षुष बिम्ब प्रतिबिंब के अनुगामी व प्रतियोगी द्य इन्हें तो मात्र क्षणिक व लघु आनंद की पिपासा ही रसोद्रेक से तृप्त करती है द्य रस जिसे आत्मा कहा जाता है दृकाव्य कीए साहित्य कीए कला कीद्य आज पूर्ण रूप से लुप्त हो गया है या पूर्ण रूप से रस ही व्याप्त हो गया है घ् इस रसमयी सिनेमाई दुनिया से जब रस ही गायब हो गया तो फिर क्या बचाघ् हां उसका अर्थ बदल गया है द्य रस लोलुप व रस भोगता ही नजर आते हैं चहूँ ओरद्य इसलिए आज सामाजिक सरोकारों के प्रति कितने वफादार हैं आधुनिक सिनेमा के चमकते रोशनाई बदलते चेहरे यह एक गंभीर व विचारणीय प्रश्न है घ्

Constitution of India and Social Justice : भारत का संविधान और सामाजिक न्याय



      ‘सार सार को गही रहे थोथा देई उडाय’ –कबीर की इन पंक्तियों को यदी भारतीय संविधान के निर्माण का बहुत कुछ मूल माना जाए तो अतिवादिता नहीं होगी | परन्तु ‘नीर क्षीर विवेकी’ गुण भी इसके लिए अतिआवश्यक है | जो सार को रख ले और थोथे को उड़ा दे |
     भारतीय संविधान में, अन्य देशों के संविधान से जो भी अच्छा, श्रेष्ठ व मनुष्य के हित में है –लिया गया है और यह जो मनुष्य के हित में है –की परख एक सह्रदय मनुष्य ही कर सकता है | दूसरी बात यह है की अच्छा (श्रेष्ठ) या मनुष्य दोनों ही किसी सीमा, परीधि या शरहदों में नहीं बांधे जा सकते हैं | पंछी, नदियां, हवा के झोंकों की तरह अच्छाई व मनुष्यता को भी कोई शरहद न रोके | इस तरह से तेरा –मेरा, ब्राह्मण –शुद्र, राजस्थानी –मराठी, चीनी- जापानी के बीच की खाई को पाट कर ‘वसुदेव कुटुम्बकं’ के धरातल पर खड़ा है भारतीय संविधान | यानि अनेकता में एकता लिये हुए | मगर इस अनेकता में एकता की झूठी खाई को वर्गीकरण के आधर पर तर्क सहित इस तरह खंडित किया जाता है कि –परिचय, पहचान, संबोधन, व विकास को एक निश्चित दिशा में अपनी अपनी ताकत से परिपूर्ण करने के लिए –नाम व देशों के पृथक पृथक नामकरण अनिवार्य नहीं आवश्कतानुसार जरूरत है इसलिए किये गये |
     यहाँ ऊपरी बातों से यह बिलकुल स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय संविधान में  किसी अन्य देश या राज्य से वैमनष्य या द्वेष का भाव तो हो ही नहीं सकता, वजह अन्य देशों की जो जो अच्छाईयां थी वे हमने स्वयं ग्रहण की हैं व अपने ही देश में किसी के प्रति –जाती, धर्म, वर्ग, वर्ण, व अन्य के आधार पर भेदभाव, अन्याय या अन्य का प्रश्न तो अपने आप ही भारतीय संविधान खत्म कर देता है|    
     इस बात की पुष्टि भारतीय संविधान का उद्देश्य इस प्रकार करता है की-हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन, समाजवादी, पंथ निरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए तथा उन सब में व्यक्ति की गरीमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए ......................इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करतें हैं |(संविधान के ४२ वें संशोधन (१९७६) द्वारा यथा संशोधित) (सामान्यज्ञान- सुनील कुमार सिंह ,पृ.-१९०) इस पूरे उद्देश्य में वास्तविक व मुख्य रूप से एक व दिखने में दो बातें सामने आती हैं, एक है –हम भारत के लोग, उसके समस्त नागरीक, उन सब में व्यक्ति की गरीमा और दूसरी बात है- भारत राष्ट्र |और भी संक्षिप्त रूप से-मूल बात मनुष्य की है परन्तु हम भारतीय परीपेक्ष में बात कर रहें हैं अत: भारतीय मनुष्य की बात है |
     ठीक जहां से यह लेख प्रारम्भ होता है वहीं से जोड़ते हुये भारतीय संविधान अनेक देशों से अच्छाई व श्रेष्ठता ग्रहण कर मनुष्य की बेहतरी के लिए, अपना निर्माण करता है –भारतीय मनुष्य की श्रेष्ठता के लिए |
    परन्तु, किन्तु, मगर ? ये बहुत सारे प्रश्न व प्रश्नों के महाजाल जब हमारे सामने आते हैं तो इस निबंध का मूल तत्व यहां से प्रारम्भ होता है और इस निबंध का ही नहीं भारतीय संविधान, भारतीय समाज व सामजिक न्याय का भी मूल प्रश्न यहीं से पैदा व खत्म होता है |
     यूँ तो संविधान के निर्माण में २८९ प्रतिनिधि (देशी- विदेशी) व संघ संविधान से लेकर संचालन, प्रांतीय, प्रारूप, झंडा, संघ शक्ति समिति व इनके अलग अलग सदस्य व अध्यक्ष मनोनीत किये गये थे, जिनमें राजेन्द्र प्रसाद से लेकर मोहम्मद सादुल्ला तक एक लंबी फ़ेहरिस्त थी | मगर संविधान के निर्माता के रूप में जिस सह्रदय व्यक्ति को विशिष्ट रूप से जाना जाता है वे हैं डॉ. अम्बेडकर |
      डॉ. भीमराव अम्बेडकर को मात्र संविधान निर्माता के रूप में याद किया जाता है | यह बात बहुत चिन्तनीय है | जबकि संविधान निर्माता में भी उन्हें मात्र यह कहके- भारतीय संविधान के निर्माता डॉ. भीमराव अम्बेडकर थे –कह कर छोड़ दिया जाता है |यानि उनके कार्य को ऊपरी तोर से देखा जाता है, जबकि उन्होंने संविधान निर्माता के अलावा अपनी पुस्तकों, लेखों, भाषणों व विचरों में जो एक समानता, समता, बंधुता की बात बहुत ही व्यापक पैमाने पर एक आंदोलनात्मक तरीके से रखी है वह भी बहुत महत्वपूर्ण है | यदि सिक्के को दूसरी तरफ पलट कर देखें तो डॉ.अम्बेडकर ने ऐसा अलग से कुछ भी नहीं कहा व किया जो उन्होंने संविधान में न लिख दिया हो | परन्तु जब संविधान का लिखा ठीक व सही रूप से लागु नहीं हुआ तो उन्होंने बाद में वही बातें अपने विचारों के माध्यम से पल्लवित की, और जाति, धर्म, वर्ण, वर्ग, व व्यवस्था में पूर्ण अविश्वास कर के कही ,जो आज भी मात्र पल्लवित ही हो रही हैं पुष्पित कब होगीं ......? पता नही |
     डॉ. अम्बेडकर के विचार व संविधान में कोई विरोधाभास नहीं है | दोनों ही सबसे महत्वपूर्ण कार्य मानते थे मनुष्य का हित, और उन्होंने स्वयं ने स्वीकार किया था कि यदि मनुष्य के हित में यह संविधान नहीं है तो इस संविधान को जलाने वालों में मैं सबसे पहला व्यक्ति होऊंगा |(डॉ. बाबा साहेब और उनका चिंतन –डॉ. विमल कीर्ति, पृ.-६४) यहीं से अम्बेडकर के विचारों को, भारतीय संविधान को समझा जा सकता है | अम्बेडकर प्रत्येक व्यक्ति को समाज में सही न्याय दिलाने की बात करते हैं और यही बात करता है मौलिक अधिकारों के संदर्भ में भारतीय संविधान | अत: भारतीय संविधान और अम्बेडकर दोनों ही एक ही  बात करते हैं सामाजिक न्याय की | जिस देश का संविधान मनुष्य हित व वसुदेव कुटुम्बकं की नींव पर निर्मित हुआ हो वहाँ के समाज में अन्याय होगा ,एसी कल्पना मात्र से रोंगटे खड़े हो जाते हैं | परन्तु विडंबना यही है की सामाजिक न्याय अब कल्पना मात्र ही रह गया है | वास्तविकता तो यह है की इस विषय को इस तरह पड़ना चाहिए –कि भारतीय संविधान के साथ भारतीय लोग सामाजिक न्याय नहीं कर पाये | यह संविधान भी अब रोता होगा कि –कितने बड़े बड़े व सुनहरी सपने देख कर बड़ी मशक्त करके सबके हितों को ध्यान में रख कर बड़ी मेहनत से उन संविधान निर्माताओं ने यह संविधान बनाया था कि आने वाले भारत को वो दुख न देखने पड़ेगें जो हमने देखे हैं, भारत का भविष्य बहुत उज्जवल होगा,- मगर सब सपने मात्र सपने रह गये | सब हो गया गारत, यह है भविष्य का भारत |
    हम इक्कीसवी सदी में पहुँच गये हैं | अणु बम्ब से परमाणु बम्बों तक का परीक्षण हमने कर लिया | पृथ्वी, अग्नि और न जाने कौन कौन से प्रेक्षास्पात्रों (मिसाइल) का निर्माण कर लिया है | अनेक संधियां व समझोते कर लिए हैं | कुछ करोड़ से एक अरब इक्कीस करोड़ तक की रेस में हमने गोल्ड मैडिल हासिल कर लिया है | उद्योग कंपनियों व फैक्ट्रियों के बढ़ावे के लिए हमने किसानों को शहिदत्व भूषण प्रदान कर दिया है | विकासशील से विकसित की श्रेणी में आने के लिए मैट्रो के सफर से सेज व मोनसेंटो तक की यात्रा की है और समता, समानता, स्वतंत्रता, शोषण के विरुद्ध, धार्मिक, संस्कृति व शिक्षा सम्बन्धी, संवैधानिक उपचारों का अधिकार जो संविधान हमें देता है इन पर भी संसद से लेकर गलियारों तक खूब मुहँ से बहस व हाथों से जूते चपल चल रहें हैं | अनुच्छेदों पर अनुच्छेदों में संशोधन किये जा रहे हैं | आम आदमी के हित के लिए, न्याय के लिए, सरकार व सरकार के नुमाइंदे व जनता, सभी तत्पर हैं व लगे हुए हैं देश बचाने में, तथा इन सबकी पूरी कौशिश है की सामाजिक समानता’ ‘सामाजिक न्यायसमाजवाद जैसे भारी भरकम शब्दों को शीघ्र से शीघ्र परिभाषित किया जाये | संविधान से उठाकर इन शब्दों को यथार्थ के धरातल पर लाने की कौशिश ये लोग कर रहे हैं –मगर सबसे बड़ी परेशानी आज इनके सामने यह आ गई है कि ये लोग कबीर कों बहुत ज्यादा समझ गये हैं | कबीर ने कहा था –कबीर कहे पेट से क्यों न भयो तू पीठ, रीते मान बिगारियो भरे बिगारत दीठ | अब हुआ यह है कि इन के मस्तिष्क की जगह इनका पेट लग गया है जो की भरने के लिए पाँच साल भी कम मानता है | अत: जब तक सामाजिक न्याय’ ‘समाजवादसामाजिक समानता को बहला फुसला कर कुछ लोग आम लोगों के मध्य लाते हैं तब तक विपक्षी पाँच दिवसीय टेस्ट मैच को मात्र तीन चार दिन में ही पारी घोषित कर ड्रा कर देते हैं | अब आप ही सोचिये ऐसे में समाजवादसामाजिक न्याय कैसे आयेगा ? और दूसरी बात सामाजिक न्याय भी आजकल बहुत महंगा हो गया है, और हो भी क्यों ना मुद्रा स्फीति की दर देखी है आपने ! धोती की लांग तक खुल जाती है महंगाई के नाम पर अच्छों अच्छों की | कुछ गोपनीय सूत्रों के द्वारा तो यहाँ तक पता चला है की सामाजिक न्याय तो आजकल  ब्लैक में भी नहीं मिल रहा है | कॉमन वेल्थ गेम, टू जी स्पेक्ट्रम, स्टाम्प, ताज कोरीडोर, बाफ़ोर्स आदी तो बहुत ही बड़े व विशिष्ट जनो द्वारा किये गये शोभनीय कार्य हैं, परन्तु आज तक इन लोगों को भी  सामाजिक न्याय ने हाथ तक नहीं दिया | फिर आम व सामन्य जन भंवरी देवी, (राजस्थान की एक महिला  साथिन जिस पर जगमोहन मूंदडा की बवंडर फिल्म बनी ) इरोम शर्मिला या बिरसा मुंडा जैसे लोगों के लिए तो  सामाजिक न्याय पाना मानो ‘अमिताब बच्चन को हकीकत में देखना है, वरना वह मात्र इन जैसे लोगो को टी.वी., अखबार व किताबों में ही दिखाई देता है | और फिर सामाजिक न्याय कोइ पेड़ पर बैठी चिड़िया थोड़े ही है जो सब के लिए दर्शनीय व शोभनीय है | वह तो निजी म्यूजियम का शेर है जो उचित टिकिट के द्वारा ही दिखाया जाता है, इसलिय जो टिकिट खरीदने में सक्षम हैं वो ही देख पाते हैं | फिर भी यदि कोइ दिवार फांद कर या चोरी छुपे म्यूजियम में घुस जाता है तो भोलाराम के जीव की तरह उसे फाइलों में ही अटका दिया जाता है | और आज के नारद के पास वीणा भी नहीं है, व है तो उसकी कीमत इतनी कम है की उसकी पासंग में  सामाजिक न्याय क्या न्याय की फूटी  कोड़ी भी नहीं आ सकती |
      फिर आरक्षण, वोट व लोकतंत्र का झुनझुना आपको पकड़ा तो दिया बजाओ बैठ के, अब क्यों सामाजिक न्याय का राग अलाप रहे हो | फिर  सामाजिक न्याय इतनी भारी भरकम चीज है जो आम लोगों से संभलेगी ही नहीं, इसलिए उसे संविधान की किताब रूपी म्यूजियम में ही रहने दीजिये- दर्शन मात्र पर्याप्त है| डॉ.अम्बेडकर ने एक बार कहा था –हम लोगों ने राजनीतिक लोकतंत्र को तो स्वीकार कर लिया है जिसमें हर व्यक्ति के वोट का मूल्य समान है | लेकिन सामाजिक और आर्थिक गैर बराबरी, विषमता, शोषण को समाप्त किये बगैर इस राजनीतिक लोकतंत्र को हम बहुत दिनों तक नहीं संभाल पायेंगें |(डॉ. बाबा साहेब और उनका चिंतन –डॉ. विमल कीर्ति, पृ.-६५) डॉ.अम्बेडकर ने यही बात संविधान में मूल अधिकारों समता, समानता व स्वतंत्रता के सम्बन्ध में लिखी है | और अम्बेडकर व संविधान की बात को आज भी राजनीति व समाज पूर्ण रूप से मान  रहे हैं | प्रत्येक व्यक्ति के वोट का मूल्य आज भी समान माना जाता है | है कोइ भेदभाव ब्राह्मण, शुद्र, पंजाबी, गुजराती, भील, ठाकुर या स्त्री के वोट में ? और समता, समानतासामाजिक न्याय की बात आज भी  संविधान में ज्यों की त्यों है उसमें कहाँ फर्क है | हाँ कुछ कागज काले करने वालों को जब अपच हो जाती है तो समाजवाद, सामाजिक न्याय, समानता, बंधुता, जातिवाद व धर्मवाद की समाप्ति की बात, आम व्यक्ति के साथ न्याय की बात, भ्रटाचार, बेईमानी, घोटालों आदि आदि के समर्थन व खिलाफ धरना, आंदोलन, अनशन, रैलियां, अखबार बाजी व न जाने किन किन शब्दों व विचारों की जुगाली करते रहते हैं  –दायें बाएं से |
      सामाजिक न्याय कोई आम व नीम के पत्ते थोड़े ही है जो टहनी से तोड़े   और दे दिए | माना भारतीय संविधान सबको सामाजिक न्याय देने की बात करता है, मगर देता थोड़े ही है, सिर्फ बात करता है और उसी संविधान के नियम का पालन करते हुये हमारे श्रेष्ठ शिरोमणि राजनीतिज्ञ सामाजिक न्याय की बात हमेशा करते हैं, बल्कि थे और रहेगें | फिर सामाजिक न्याय दे भी दिया जाये तो बन्दर बाट की तरह उसे नष्ट कर दिया जायेगा | अत: सामाजिक न्याय भारतीय संविधान में सुरक्षित व संग्रहित रूप में रखा है, रखा ही रहना चाहिए, अन्यथा संविधान की शोभा में कलंक लग सकता है और राजनीतिज्ञो का यह कर्तव्य बनता है की वे उसे सुरक्षित रखें, और इस पूनीत कार्य की जिमेवारी भी हम ही उन को चुन के सोंपते हैं, सामाजिक न्याय की सुरक्षा प्रकोष्ट का पूरा दायित्व निभाने के लिए |
       किताबें मनुष्य को ज्ञान देती है | अज्ञान से ज्ञानवान बनाती हैं, और मनुष्य उस ज्ञान का उपयोग बड़े बड़े लोकरों को बिना चाबी खोलने, साल भर की ऑडिट बिना बिल बाउचर के बनाने, कागजों में पुल व सीमेंट डलवाने, वकालत के द्वारा मृत आदमी को पुन: मरा हुआ साबित करने, पट्रोल की गाड़ी कैरोसीन से चलाने व और भी न जाने कौन कौन से अनुशन्धानो की खोज में कर रहा है और ज्ञान के इसी बूते पर सामाजिक न्याय की उम्मीद ........!
        भारतीय वैचारिकी बहुत दिनों तक गुलाम रहने के कारण अपना आदर्श उसे ही मानती है जो गुलाम बना के रखता है या रखा है और श्रेष्ठता व महानता का प्रतीक भी वे ही लोग हैं या उन लोगों का खान-पान, रहन-सहन या दिनचर्या है | अत: इस कछुआ दौड़ में सब एक दूसरे को पीछे छोड़ना चाहते हैं और इस अंधी दौड़ प्रतियोगिता में नैतिक मूल्य, आदर्श, समता, समानता, बंधुत्व, भाईचारा, अपनत्व, निस्वार्थभाव, समाज, न्याय, समाजवाद या अन्य जो भी हैं वे सब पीछे छोड़ और तोड़ दिये गये हैं, मात्र अव्वल आने की होड़ में | जो पूँजी व सत्ताधारी वर्ग है वह अपनी पूँजी व सत्ता बरकरार रखने के लिए किसी को भी नष्ट कर सकता है | उसे मात्र अपनी सत्ता से प्यार है और वह सत्ता के लिए कोई भी हद पार कर सकता है | उसके लिए नैतिक मूल्यों जैसी चीज मात्र संवैधानिक पुस्तकीय हर्फ है या गाल बजाने के चोचले | सत्ता की चकाचोंध में उसकी आँख चुंधिया गई है और उसे सत्ता व पूँजी के अलावा कुछ भी नहीं दिखाई देता है | सावन के अंधे को सब हरा ही दिखाई देता है |
       पुस्तकीय ज्ञान मात्र रोजगारी ज्ञान बन चुका है | पढ़ना सिर्फ इसलिए जरूरी हो गया है कि नौकरी प्राप्त करनी है | नियम, कानून या संविधान को सिर्फ इसलिए जानना जरूरी है कि स्वयं कभी फंस जाये तो कैसे निकले या रिश्तेदारों को कैसे निकाले या इनका शोर्ट कट तरीका क्या हो सकता है | दूसरे की मदद करना, कानून व नियम के माध्यम से गलत व अनैतिक को रोकना, ज्ञान व समझ के आधार पर किसी की समस्या का समाधान करना –अब मात्र शेखचिल्ली की बातों जैसा लगता है | ऐसे में भारतीय संविधान और सामाजिक न्याय दो अलग अलग पलड़े व किनारे नजर आते हैं जिनका मिलन असंभव नहीं तो संभव भी नहीं लगता |
     मुख्य रूप से दो चीजे होती हैं –एक सिद्धांत व दूसरा व्यवहार | भारतीय संविधान एक सिद्धांत है और सिद्धांत के रूप में वह एक बहुत ही श्रेष्ठ व सम्मानीय संविधान है | मगर उसकी श्रेष्ठता व सम्मानियता तभी सही मायने में सिद्ध होती है जब वह व्यावहारिक रूप में भी क्रियान्वित हो और यदि वह व्यवहारिक रूप में लागु हो जाये तो निश्चित रूप से सही मायने में भारतीय संविधान व भारतीय लोगों के प्रति सामाजिक क्या हर तरह के दरवाजे खुल जायेंगें | और यह तभी संभव है जब हम सिद्धांत के साथ साथ व्यवहार में भी जाति, धर्म, वर्ग, वर्ण, पूँजी व सत्ता से ऊपर उठकर मनुष्य के बारे में सोचें और सिर्फ सोचे ही नहीं कार्य भी करें | चूँकि भारतीय संविधान भी मनुष्य के हित की बात करता है, सामाजिक न्याय की बात करता है अत: जब मनुष्य भी मनुष्य हित की व न्याय की बात करेगा –तभी शायद सार्थक हो –भारतीय संविधान और सामाजिक न्याय –भारतीय परिपेक्ष में |
 
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