’यत्रनार्यस्तु पूज्यतंे रमतंे तत्र देवता’ एवं ’जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीबयसी’ अर्थात् ’जहाँ स्त्रियों की पूजा होती है, वहाँ देवता वास करते हैं, तथा ’हे जन्मदात्री धरती माँ, तू स्वर्ग से भी महान है’ ऐसा कहे जाने वाले भारत देश में स्त्रियों को बदहाल जिंदगी जीने को विवश किया जाता है। यह अपने आप में चिंतनीय विषय है। बल्कि होना यह चाहिए प्राणी के नाते स्त्री का ही नहीं सभी का सम्मान किया जाना चाहिए। पुरुष मानसिकता के वर्चस्व के आगे स्त्री दबी, मौन, सहमी और डरी हुई रही और इसमें भी दलित स्त्री की स्थिति तो बहुत ही दयनीय रही। प्राचीन काल से वर्तमान काल तक भारतीय दलित नारी की सामाजिक यात्रा पर अगर हम गौर करें, तो हम पाएँगे कि दलित नारी को अनेकानेक बंधनों एवं बर्बर अत्याचारों के दौर से गुजरना पड़ा है। आज महिलाओं में शिक्षा के प्रति जागरुक होने के कारण कुछ जागृति आई है तथा थोड़ा बहुत सम्मान भी उन्हें मिलने लगा है। लेकिन दलित महिलाओं में शिक्षा का प्रचार एवं प्रसार अभी भी बहुत कम मात्रा में है। दलित महिलाएं अधिकतर अशिक्षित हैं। किसी का परिवार उसके साथ उसके संघर्ष में सहयोगी है, जबकि किसी का परिवार उसकी प्रगति, शिक्षा, विचार, स्वतंत्रता का विरोधी है। महिला की शिक्षा एवं जागरुकता के प्रति पुरुषों की मानसिकता, दलित हो या सवर्ण एक जैसी ही नजर आती है। सदियों से दलित महिलाओं का जातीय शोषण सवर्णों द्वारा किया जाता रहा है, उस शोषण, अन्याय के प्रति आज कुछ दलित महिलाओं ने विद्रोह करना शुरु कर दिया है। इस विद्रोह में, इस पहल में कुछ पिता, मित्र, सहयोगी या पति उसके साथ हैं, तो कुछ नहीं भी हैं। दलित समाज की महिलाएँ अपने परिवार और समाज में नाना प्रकार के शोषण का शिकार हैं, क्योंकि वे नारी हैं। यह दोहरी मार दलित समाज की महिलाएँ झेल रही हैं। हिन्दी दलित कहानियों में दलित नारी के विविध रुप, समस्या, स्थिति, परिवेश, संघर्ष, विद्रोह, जातिगत हीनबोध, पीड़ा, विवशता, अस्पृश्यता, आर्थिक संकट, आदि को दलित एवं गैरदलित कहानीकारों ने अपनी कहानियों के माध्यम से प्रकट किया है। दलित महिलाओं की संवेदनाओं उनके अस्तित्व, अस्मिता एवं स्वतंत्रता आदि के प्रश्नों को उपर्युक्त मुद्दों के माध्यम से कहानीकारों ने व्यक्त किया है। यहां दलित स्त्री की पीड़ा, दुख, उत्पीड़न एवं उसके अधिकारों से संबंधित कुछ प्रश्न दलित कहानियों के माध्यम से उठाये गए हैं।
आजादी के बाद आए परिवर्तन तथा महिलाओं की स्थिति के बारे में अनीता भारती अपनी चिंता व्यक्त करते हुए कहती हैं-‘‘सवाल है कि देश की आजादी के छह दशक के ज्यादा गुजर जाने के बाद भी दलितों में भी दलित की स्थिति में मरती जीती दलित स्त्री की स्थिति में क्या कोई परिवर्तन आया है? आज कई राज्यों में दलित स्त्रियों की शिक्षा की दर बेहद चिंतनीय है। स्वास्थ्य, आवास और बुनियादी सहूलियतें सुविधाएं और अधिकार दोनों में ही उसकी हालत शोचनीय है। हालांकि यहां का नारीवाद गरीब वर्ग की बात करके समझता है कि उसने दलित महिलाओं की तकलीफों पर बात कर ली है, लेकिन ऐसा कहकर वे बड़ी चालाकी से दलित महिलाओं की मूल समस्याओं पर बात करने से पल्ला झाड़ लेता है।’’ मूलतः जिस तरह की प्रगति होनी चाहिए थी वह हुई नहीं। आर्थिक, शैक्षिण, सामाजिक स्तर से आज भी दलित महिलाएं विपन्न ही हैं। उनमें जागरुकता के साथ साथ पुरुष एवं सवर्ण समाज के मन में भी उनके प्रति भेदभाव को समाप्त करने की भावना का जगना अतिआवश्यक है।
दलितों की आर्थिक स्थिति दयनीय होने के कारण उनका सामाजिक स्तर गिरता जा रहा है। ये लोग झुग्गी झोंपडी, पुनर्वास कालोनियां, गंदी बस्ती और देहात में अनेक अभावों के साथ जीवन व्यतीत करते हैं। अशिक्षा, गरीबी, पिछड़ेपन के कारण इस वर्ग की स्त्रियां स्वस्थ जीवन जीने से वंचित रहती हैं। इनके संतुलित भोजन, रहने के लिए आवास, पहनने के लिए कपडे़, स्वास्थ्य की दृष्टि से उचित इलाज आदि समय पर एवं आवश्यकतानुसार नहीं मिल पाते हैं। इन कारणों से मानसिक कुंठा, मानसिक तनावा, आदि विभिन्न प्रकार के मानसिक तथा शारीरिक रोगों से ग्रसित हो जाती हैं। दलित महिलाएं पढ़ाई लिखाई और समुचित वातावरण के अभाव में परिवार नियोजन के महत्त्व को भी नहीं समझ पाती हैं। वे इस कहावत को सच मानकर ‘जिसने चोंच दी है वह चुग्गा भी देगा’ के प्रभाव में नौ नौ या दस दस बच्चे पैदा करती हैं। हालांकि इसमें पुरुष वर्ग का तथा परिवार का दबाव एवं बेटे की इच्छा ये भी कारण होते हैं। क्योंकि दलित स्त्री ही नहीं, स्त्री को ही निर्णय लेने का अधिकार तो न के बराबर है। लेकिन इन सबका प्रभाव तो दलित स्त्री के मन तथा तन पर ही पड़ता है। सहन तो उसे ही करना पड़ता है। अधिक बच्चे पैदा करने के कारण तथा पति के द्वारा प्रताड़ित करने एवं पीटने के कारण वह अनेक बिमारियों की शिकार हो जाती है। इस तरह के माहौल में जीने वाली अधिकतर दलित महिलाएं अक्सर अनीमिया, तपेदिक, कैंसर आदि रोगों से पीड़ित होकर समय से पूर्व ही मर जाती हैं।
दलित स्त्री शिक्षित होते हुए भी उसे दलित होने के कारण कई तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ता है। दलित समाज में स्त्री शिक्षा को महत्त्व नहीं दिया जाता। वे तो बेटी को पराया धन मानकर जल्द से जल्द अपनी जिम्मेदारी पूरी करने में विश्वास करते हैं। सूरजपाल चौहान की ‘बदबू’ कहानी में संतोष के साथ भी यही होता है। संतोष अपने कस्बे के दलित परिवार की पहली लड़की थी, जिसने इंटर कॉलेज की परीक्षा सत्तर प्रतिशत में पास की थी। उसके साथ की दूसरी सवर्ण लड़कियाँ उच्च शिक्षा पाने शहर में जाती हैं। संतोष भी आगे पढ़ना चाहती है, किन्तु उसके पिता किशोरी उसे आगे नहीं पढ़ाना चाहते, वे तो उसकी शादी के लिए उतावले हो जाते हैं। संतोष लाख मिन्नतें करती है, किन्तु किशोरी नहीं मानता। दो वर्ष हो जाते हैं लेकिन उनकी बिरादरी में दसवीं पास लड़का भी नहीं मिल पाया। संतोष की माँ अपना सारा गुस्सा उस पर उतारते हुए कहती है-’’तुझे इतना पढ़ा-लिखाकर तो हमने आफत मोल ले ली, अब बिरादरी में तेरी बराबर पढ़ा-लिखा लड़का ही नहीं मिलता.....हमारी तो किस्मत ही फूट गई।’’
हरिजन समाज में आज भी शिक्षा का अभाव है। लड़के हों या लड़कियाँ, ऐसे परिवार बहुत कम होंगे जो अपने बच्चों को उच्च शिक्षा दिलाते हैं। संतोष जैसी होशियार पुत्री पाकर किसी भी माता-पिता को खुशी होती, किन्तु दलित माता-पिता होने के कारण उन्हें खुशी तो दूर बल्कि अधिक चिंता होने लगती है, कि इसके योग्य वर कहाँ से ढूंढा जाए। यह वह स्थिति है जिससे वास्तव में अनेक दलित माता पिताओं को गुजरना पड़ता है। शिक्षा का प्रचार प्रसार अभी उस मात्रा में नहीं हुआ है जिस तरह से होना चाहिए। विशेष रूप से स्त्री शिक्षा की दृष्टि से। जब तक स्त्रियों को शिक्षा नहीं मिलेगी वे उन्नति नहीं कर पायेंगी। संतोष के योग्य लड़का तो नहीं मिलता, लेकिन 9वीं फेल रजिन्दर से उसका विवाह तय हो जाता है। रजिन्दर दिल्ली में एम.सी.डी. में सफाई कर्मचारी का काम करता था। संतोष के पिता हरिजन थे, किंतु उन्होंने कभी सफाई का काम नहीं किया था, न ही संतोष के परिवार ने ही ऐसा काम किया था। जब उसे इस बात का पता चलता है कि उसकी शादी एक सफाई कर्मचारी से हो रही है, तो उसने विवाह करने से इन्कार कर दिया, इस पर परिवार वाले कहने लगे-’’बेटी धन को अधिक पढा़ना-लिखाना अच्छा नहीं हैै, इस लड़की को देखो सभी के सामने कतर-कतर जुबान चलाती है....इसने तो सारी लाज-शर्म ही उतारकर रख दी।’’ यदि दलित स्त्रियों के जीवन को देखा जाए तो उनका जीवन शोषण, उत्पीड़न, अत्याचार, अन्याय और अभावों से परिपूर्ण है। पशुवत स्थितियों की तरह दलित नारी का जीवन बदतर है। निरक्षरता, अशिक्षा और सामाजिक दृष्टि से पिछडे़पन के कारण दलित महिलाएं अंधविश्वास और पांखडों से पूरी तरह जकड़ी हुई हैं। इनमें वैज्ञानिक दृष्टिकोण का अभाव रहता है। जिसके कारण इनमें अनेक प्रकार की कुरीतियां एवं पाखंड भरे हुए हैं। मोहनदास नैमिशराय कहते हैं-‘‘इस सबके बावजूद दलित नारियों में प्रतिरोध की चेतना जाग रही है, क्योंकि उनमें जुल्म अत्याचारों और अन्याय के खिलाफ एकजुट होकर अपनी हार को जीत में बदलने का विश्वास पैदा हो गया है। दलितों की नई पीढी उस विश्वास को और मजबूत आधार देना चाहती है।’’
शिक्षा पाने से व्यक्ति जागरुक बनता है। उसे अपने अधिकार का ज्ञान होता है, साथ ही अपने कर्त्तव्य को भली-भाँति समझने तथा उनका निर्वहन करने में वह सक्षम बनता है। लेकिन जहाँ सारे अशिक्षित लोग हों वहाँ संतोष के मनोभावों को भला कौन समझता? संतोष की पढ़ाई से न तो उसके मायके वाले खुश थे और न ही उसके ससुराल वाले ही। बल्कि ये तो उनकी समस्या बन जाती है। सफाई कर्मचारी की नौकरी में भी रिश्वत देकर रजिंदर को काम मिलता है। हमारे देश में बेरोजगारी इतनी है कि ऐसे काम के लिए भी लोग रिश्वत देने को तैयार हैं। संतोष सोच में पड़ जाती है कि-’’दूसरे समाज के पढे़े़-लिखे तो दूर अनपढ़ होेकर भी यह काम नहीं करते........वे दूसरा अन्य काम करके अपना जीवन यापन कर लेतेे हैं। लेकिन यह गंदगी से भरा काम कतई नहीं करते, आखिर, हमारी जाति बिरादरी के लोग ही यह काम क्यों करते हैं?’’
संतोष का यह प्रश्न वर्ण व्यवस्था पर प्रश्न चिह्न लगाता है। आखिर शुद्र ही ऐसा काम क्यों करते हैं? क्या वे मनुष्य नहीं हैं? सवर्ण और उनमें ऐसा क्या अंतर है, जिससे वे इस गंदगी भरे कार्य को करने के लिए आज भी मजबूर हैं। मनुष्य होकर मनुष्य का मैला ढा़ेना कहाँ तक उचित है। इक्कीसवीं सदी में प्रवेश करके भी आज दलित समाज कितना पिछड़ा हुआ है। संतोष जैसी पढ़ी-लिखी युवती को मजबूरन मैला उठाने का कार्य करना पड़ता है। इस कार्य को करने के बाद उसे जो रोटी-सब्जी मिलती है। उसे खाकर अपना पेट भरना पड़ता है। जब से संतोष ने सफाई का काम शुरु किया था, तब से वह गुमसुम बनकर रहने लगती है। उसे अपने ही शरीर से बदबू आती हुई महसूस होती है। हर वस्तु में उसे मलमूत्र नजर आने लगता है, यहाँ तक कि पति का स्पर्श भी उसे आनंद की अनुभूति नहीं, बल्कि बदबू का अहसास कराता है। अनचाहे इस काम से संतोष की हालत दिन-प्रतिदिन खराब होने लगती है। वह अपने को इस दिनचर्या में सहज नहीं कर पाती। उसके जीवन में आनंद और खुशियों के स्थान पर उदासीनता और बदबू फैल जाती है।
सदैव ही सिद्धान्तों की आड़ में दासता, अमानवीय शोषण, अन्याय, अवहेलना और प्रताड़ना झेलता दलित समाज कीड़े-मकोड़ों का सा जीवन जी रहे हैं और उससे मुक्ति का आह्वान लिए दलित कहानियाँ, दलितों के लिये जीवन के नये रास्ते खोलती प्रतीत हो रही हैं। इनके लघु कलेवर में भी महान और व्यापक उद्देश्य अंकित है। कहीं शिक्षा के अभाव में उनसे मन माना ब्याज ले रहे हैं तो कहीं कोरे कागजों पर अँगूठें लगवाकर उनकी जमीनें हड़पी जा रही हैं, उनकी महिलाओं के साथ बलात्कार हो रहे हैं। इतना अन्याय सहकर भी सदियों से मूक वेदना लिए दलित वर्ग जी रहा है लेकिन कहते हैं कि चींटी भी दाब पाकर काट लेती है तब दलित समुदाय भी अपने साथ हो रहे अन्याय के प्रति मुखर विद्रोह कर रहा है। इसी क्रम में दयानंद बटोही की कहानी ‘सुरंग’ है, जिसमें शिक्षित और उच्च शिक्षित अपने अधिकारों की माँग के साथ अन्याय का भी विरोध कर रहे हैं। वह सदियों की दासता से मुक्ति पाना चाहता है और अन्याय की जंजीरों को तोड़ना चाहता है। वह अपनी गुलामी के लिये तथाकथित सवर्ण समाज के सभ्य लोगों से जवाब भी चाहता है-‘‘गुलाम हूँ। पराधीनता की जंजीर टूटनी है। आज तक आप जैसे तानाशाहों ने अँधेरे में हम लोगों को रखा है अब मैं आप से पूछता हूँ, आप क्यों मुझे रिसर्च नहीं करने देगें?’’ इस क्यों के जवाब में वह समाज के ठेकेदारो से अपने प्रति हो रहे अन्याय का जवाब चाहता है वह डॉ. विष्णु से कहता है-‘‘डॉ. साहब अब आप पुराने दिन भूल जाएं। अब तक आप लोग अंधेरे के बीच कुतर-कुतर कर हम दलितों को खाते डकराते रहे हैं। अब आपको ही नहीं पचेगा।’’ प्रत्येक कदम पर उनकी योग्यताओं को नकार कर उन पर जातिगत तल्ख टिप्पणी होती है। यह परिवर्तन उसकी जागरुकता का परिणाम है। अपने प्रति होने वाले अन्याय का प्रतिकार उसकी आवाज में आने लगा है।
डॉ. मंजू सुमन कहती हैं-‘‘बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में स्वतंत्रता के बाद नई शिक्षा के प्रभाव से और सामाजिक कार्यकर्त्ताओं के प्रयत्नों से समाज में नारी के प्रति दृष्टिकोण में कुछ बदलाव आया है। बदलती सामाजिक, आर्थिक, नैतिक, धार्मिक, राजनैतिक परिस्थितियों ने भी स्त्री के प्रति सामाजिक दृष्टिकोण बदलने में सहयेाग दिया है। धीरे धीरे नारी शिक्षा प्राप्त करने लगी, शिक्षा से वह अपनी योग्यतानुसार विशिष्ट पदों पर नौकरी करने लगी। नई शिक्षा ने पुरानी परंपराओं को तथा धार्मिक बंधनों को कुछ शिथिल किया। इसका अधिक लाभ स्त्रियों को मिला, क्योंकि सबसे ज्यादा बंधनों की जकड़ में नारी को ही धर्म ने बांध रखा था। जिससे की वह स्वतंत्रत नहीं पा रही थी और अपने अधिकारो से वंचित थी। संयुक्त परिवार व्यवस्था टूटने तथा स्वतंत्र परिवार शूरू होने से प्राप्त स्वतंत्रता ने नैतिक सामाजिक बंधनों को भी शिथिल किया। राजनीतिक परिवर्तन के बाद नारी को कानूनी रूप में समानता का अधिकार मिला। इन सब परितर्वनों के बाद भी दलित स्त्री की सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक और धार्मिक स्थिति में कोई अंतर नही आया। क्योंकि इस दलित समाज पर बरसों से अनेकों रूढियां लाद दी गई थीं। जिनका प्रतिरोध करने के बजाय वह उन्हें सही मानकर उन धर्म कर्म के बंधनों में बंधा रहा।’’
दलितों की स्त्रियों का शारीरिक शोषण करके उनके आत्मसम्मान को पद दलित किया जाता है। जिसको केन्द्र में रखकर मोहनदास नैमिशराय की कहानी ‘रीत’ लिखी गयी है, जिसमें कहानी पात्र फूलो को शादी की रात जमींदार की हवेली में गुजारनी पड़ती है। उसके साथ हुए इस अन्याय पर उसके ससुराल के लोग भी विवशतावश चुप रहकर इस अन्याय को झेल जाते हैं लेकिन फूलो का पति बुलाकी पाँच वर्ष बाद आके उसके साथ हुए अन्याय का प्रतिशोध जमींदार की हवेली में आग लगाकर लेता है और कहता है कि-‘‘फूलो, अब कोई जमींदार गाँव की किसी औरत की इज्जत खराब नहीं करेगा। मैंने उनका वंश सदा-सदा के लिए खत्म कर दिया है।’’ अन्याय का प्रतिकार दलितों के मन में आया है। लेकिन अन्याय को मुख्य रूप से सहा दलित स्त्री ने है। दलित स्त्री के साथ होने वाले इस तरह के अनैतिक कार्यों के प्रति दलितों में एक चेतना का विकास होने लगा है। शिक्षा तथा अपने अधिकारों के प्रति जागरुकता के कारण यह संभव हुआ है। लेकिन अभी इस जागरुकता की पताका को व्यापक रूप से फैलना शेष है। अनेक जगह पर अज्ञान, उत्पीड़न, अत्याचार का तम आज भी पसरा हुआ है। उसके खिलाफ उजास की किरण का सूरज का उदय, दलित महिलाओं के जागरुक होने से ही होगा।
बुद्धशरण हंस की कहानी ‘आकाश मेरे पास’ में शिक्षा प्राप्ति के प्रति अटूट लगन कथा नायिका चंपा को अपने पौत्र को डाक्टर बनाने की प्रेरणा का काम करता है। वह कहती है-‘‘अब मेरे खानदान में कोई मेहतर नहीं बनेगा। शिक्षा का दीया उजाला ही देगा, अँधेरे को भगाएगा। मेरा बेटा पुचु पढ़ा लिखा और इस योग्य तो बना कि उसने मेरे पंचम को डाक्टर बनने योग्य पढ़ाया। डाक्टर बाबू उद्देश्य निष्फल नहीं होता और परिश्रम बेकार नहीं जाता।’’ शिक्षा के प्रति लगाव का दूसरा पहलू सवर्ण वर्गांे में दलितों के शिक्षित होने से बढ़ती असुरक्षा की भावना भी पैदा कर रही है जो हिंसा और अत्याचार के रूप में अभिव्यक्त होती है। राजेंद्र बड़गूजर की कहानी ‘इनाम’ में यह बखूबी व्यक्त हुआ है। गाँव सरपंच की ओर से आँठवी कक्षा में प्रथम आने पर एक हजार रूपये के इनाम की घोषणा की जाती है। यह बात दलित छात्र चंद्रशेखर के मन में बैठ जाती है। वह मेहनत करके प्रथम आता है। लेकिन जब वह अपने पिता के साथ सरपंच के पास इनाम के लिये जाता है तो वह मुकर जाता है। चंद्रशेखर के पिता उससे कहते हैं कि-‘‘तू घबरा मत बेटा। मैं तुझे पढ़ाऊँगा। जहाँ तक तुम पढ़ सको, पढ़ो। हमें किसी की खैरात की जरूरत नहीं।’’ शिक्षा के प्रति जागरूकता और उसके महत्व को प्रतिपादित कर सुशीला टाकभौरे की कहानी ‘सिलिया’ भंगी समाज की उस होनहार लड़की की कहानी है जो उच्च शिक्षा पाने की लालसा पाले एक आज्ञाकारी एवं गम्भीर स्वभाव की लड़की है। वह मन ही मन अपने समाज में सुधार लाने के लिये दृढ़ संकल्प है। सिलिया शिक्षा के द्वारा अपने सोए हुए समाज के लिये जागरुक एवं प्रेरणा देने वाली पात्र है। ओमप्रकाश वाल्मीकि की कहानी ‘पच्चीस चौका डेढ़ सौ’ शिक्षा के अभाव में धोखा और ठगी द्वारा दलितों को मूर्ख बनाये जाने की समस्या को दर्शाती है और दलितों को अपने उज्ज्वल भविष्य के लिए शिक्षित होने को प्रोत्साहित करती है। दलित कहानियों ने दलितों की सभी समस्याओं के समाधान के रूप में शिक्षा की मुख्य भूमिका को दर्शाया है। मुद्राराक्षस कहते हैं-‘‘दलित स्त्री के पास हैसियत बना सकने के सवर्ण स्त्री सरीखे अवसर बहुत कठिन होते हैं। ऐसी स्त्रियां बिरले ही मिलती हैं, जिनके पति कुछ व्यापार करते हों या फिर किसी बड़ी नौकरी में हों। सच बात यह है कि प्रायः वामपंथियों सहित सभी गैर दलित पार्टियों में सवर्णों का ही वर्चस्व है। देश की जो सबसे बड़ी पार्टियां हैं, वे पूरी तरह न सिर्फ सवर्ण वर्चस्व वाली हैं बल्कि सवर्ण मानसिकता की हैं। हृदय से वे महिला आरक्षण के सवाल पर बहुत खुश नहीं थीं। उन्हें लग रहा था कि इस आरक्षण से विधायिकाओं में एक तिहाई सीटों पर सवर्ण पुरुष के अधिकार समाप्त हो जायेंगे। उनके लिए गनीमत यही थी कि भले उनके अधिकार वाले स्थान एक तिहाई कम हो जाएं, अंततः उन दो पर आयेंगी तो सवर्ण महिलाएं ही।’’ दलित स्त्री के प्रति इस तरह की सोच उसकी प्रगति में बाधा है। लेकिन शिक्षा के प्रति चेतना ने दलित नारी के मन में एक उम्मीद की किरण जगाई है। वह अपने साथ होने वाले अन्याय का विरोध करती है। यह विरोध उसने घर से लेकर समाज के अनेक पक्षों पर प्रारंभ किया है।
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