संजय लीला भंसाली द्वारा निर्देशित फिल्म पद्मावत जब से बननी शुरू हुई तभी से ही अनेक विवादों अटकलों में घिरी हुई नजर आ रही है. परंतु आखिरकार 25 जनवरी को इस फिल्म को बड़ी मशक्कत के बाद, नाम परिवर्तित करके एवं अनेक दृश्यों को बदल कर रिलीज कर दिया गया. इस फिल्म को रिलीज करने से पहले दिल्ली की एक पोश कॉलोनी में प्रेस के लिए एक प्रोमो रखा था. जिसके अंदर विशेष बात यह थी की प्रेस वालों के इर्द-गिर्द भी चारों तरफ पुलिस वाले खड़े थे तथा उनके लिए सख्त निर्देश यह था कि अपने-अपने फोन स्विच ऑफ करलें. जबकि अक्सर इस तरह की स्क्रीनिंग या प्रोमो में प्रेस के लिए यह पाबंदी नहीं होती है. कहने का तात्पर्य यह है कि फिल्म को देखते या दिखाते हुए समाज में इस तरह का एक वातावरण बन गया था कि आपको कुछ भी करने और कहने से पहले अपने आकाओं से डरना होगा. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के ऊपर लगाई गई इस तरह की पाबंदी हमें बहुत कुछ सोचने के लिए मजबूर करती है.
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की पाबंदी का एक उद्धरण इस फिल्म के बिल्कुल प्रारंभ में दिखाई देता है. जब आप फिल्म देखते हैं तो सबसे पहले जो डिस्क्लेमर आता है, उसके अंतर्गत भी तीन चार बातें बहुत ही स्पष्ट रूप में लिखी गई हैं. पहली है कि यह फिल्म मलिक मोहम्मद जायसी द्वारा लिखे गए पद्मावत महाकाव्य के ऊपर आधारित है. लेकिन उसमें बहुत सारे फेरबदल इन्होंने किए हैं. जो एक फिल्म के लिए जरूरी भी होते हैं. दूसरा इसमें यह भी घोषणा की गई है कि यह ऐतिहासिक रूप से पूर्णत: सच्ची घटना पर आधारित फिल्म नहीं है. इसके अलावा यह भी स्पष्टीकरण है की यह फिल्म जोहर का समर्थन नहीं करती है तथा पशु पक्षियों, जगंली जानवरों एवं पेड़- पौधों को हानि पहुंचाने और किसी भी वर्ग व्यक्ति या समुदाय की भावनाओं को आहत करने के पक्ष में नहीं है. यह सब बातें निश्चित रूप से सामाजिक दृष्टिकोण से बहुत ही अच्छी और सच्ची लग रही हैं परंतु मूल बात यह है की कितनी मशक्कत और सावधानी के बाद यह फिल्म सिनेमाघर तक दर्शकों तक पहुंची है, यह इस बात का द्योतक है.
जिस तरह से फिल्म का विरोध किया जा रहा था, बहुत सारे लोगों लोगों के मन में यह एक छवि बन गई थी की पद्मावत फिल्म के अंदर निश्चित रूप से राजपूती समाज का, स्त्रियों का कहीं ना कहीं अपमान है या उनकी छवि को धूमिल करने का एक प्रयास है. जबकि फिल्म देखने के बाद ऐसा कुछ भी प्रतीत नहीं होता है. बल्कि कई जगह पर तो ऐसा आभास होता है की कहीं संजय लीला भंसाली राजपूत समाज के समर्थन में तो फिल्म नहीं बना रहे हैं. क्योंकि बार-बार वे दो बातों पर विशेष जोर देते हैं. राजपूत समाज के समर्थक या उसकी विशिष्टता का परिचय एवं रानी पद्मावती की खूबसूरती का वर्णन. अगर फिर भी तीसरी बात को प्रमुखता दी जाए तो वह अलाउद्दीन खिलजी के खलनायक पन की क्रूरता की व्याख्या हो सकती है. इसके पीछे यह भी एक दृष्टिकोण हो कि आगे से कोई भी समाज, किसी भी फिल्म का विरोध यदि करता है, तो कम से कम उस फिल्म या कहानी के बारे में पहले उसे जानना चाहिए की यह निर्देशक -निर्माता इस फिल्म के अंदर क्या कहना चाहता है. क्योंकि जिस तरीके का फिल्म के रिलीज से पहले विरोध हो रहा था ऐसा फिल्म के अंदर कुछ भी नहीं है.
बेशक संजय लीला भंसाली की फिल्म `पदमावत’ भव्यता और थ्री-डी के माध्यम से लुभावनी हो गई है, किन्तु इसे देखने के बाद यह विचार भी आता है कि क्या यह फिल्म कहीं करणी सेना की विचारधारा के प्रचार के लिए तो नहीं बनाई गई है? फिल्म में तथाकथित `राजपूती आनबान’ पर इतना जोर दिया गया है कि कई बार तो लगता है कि भंसाली ने कहीं करणी सेना के ब्रांड एंबेसडर बनने का सपना तो मन में नहीं पाल लिया है? ताकि आगे की फिल्मों के लिए उनका रास्ता साफ हो. हालांकि यह कोरी कल्पना है. पर हर पांच सात मिनटों के बाद इस फिल्म में `राजपूती- गौरव’, `राजपूती-परंपरा’ या `राजपूती- रिवाज’ का उल्लेख होता हुआ जब दिखाई देता है तो ऐसा आभास होता है की संभव है कि करणी सेना वाले इस फिल्म को देखने के बाद अपने किए पर झेंपे. और वे सोंचे की फिल्म में तो संजय लीला भंसाली विचार के स्तर पर वही कह रहे हैं जो राजपूत समाज वाले चाहते हैं।
दूसरा इसका पक्ष यह भी हो सकता है कि कहीं ना कहीं यह सबक सिखाने का प्रयास किया गया हो कि आप लोगों का विरोध निरर्थक था. यह फिल्म उस तरह की नहीं है जैसा आप सोच रहे हैं. या इस फिल्म के प्रचार में यह विरोध सहायक रहा है और करणी सेना अपने किए के जाल में खुद फंस गई है.
`पदमावत’ भंसाली की पिछली फिल्म `बाजीराव मस्तानी’ जैसी उम्दा और कसावटभरी फिल्म नहीं लगती है. इसके एक्शनवाले यानी युद्ध के दृश्यों में स्थिलता है. जैसा `बाजीराव मस्तानी’ में आकर्षण और जिज्ञासा थी वह यहाँ नदारद है. फिर भी रनबीर सिंह का जबर्दस्त अभिनय आकर्षित करता है. अलाउद्दीन खिलजी के चऱित्र को भंसाली और रनबीर ने मिलकर जिस तरह से पेश किया है उसमें क्रूरता, आततायी, लोलुप और अपनी जीत के लिए छल-छद्म मे विश्वास करने वाले शख्स की कामनाएं दिखाई देती हैं. खिलजी की आंखों में क्रूरता शुरू से आखिर तक दिखाई देती है। फ़िल्मी दुनिया के बड़े स्टार और लोगों के जबरदस्त चहेते एक्टर के लिए इस तरह का नकारात्मक चरित्र निभाने के लिए तैयार होना और उसे दमदार तरीके से प्रस्तुत करना निश्चित रूप से एक चुनौती भी है और साहस की बात भी. जिससे बड़े बड़े अभिनता डर जाते हैं उसे स्वीकार किया रणवीर सिंह ने, इसलिए वे इस पक्ष से तारीफ के हकदार हैं.
फिल्म की कहानी तो बहुप्रचारित है. मध्यकालीन भारत के एक सुल्तान
अलाउददीन खिलजी और चित्तौड़ के राजा रतन सिंह की दूसरी पत्नी पद्मावती पर यह
केंद्रित है. फिल्म की शुरुआत सिंहल देश की राजकुमारी
पद्मिनी और मेवाड़ के राजा रावल रतन सिंह की मुलाकात से होती है. यह मुलाकात अगले
कुछ ही दृश्यों में शादी में परिवर्तित हो जाती है. इसके समानांतर फिल्म एक
दुर्दांत तुर्क-अफगानी युवक से परिचय देती है जो इतना बहादुर है कि शुतुरमुर्ग का
एक पंख मांगे जाने पर पूरा का पूरा शुतुरमुर्ग ही हाजिर कर देता है. फिल्म का यह
हिस्सा जहां एक तरफ रानी पद्मावती की सुंदरता,
विद्वता और रावल रतन सिंह के गहरे प्रेम
का परिचय देता है, वहीं दूसरी ओर यह अलाउद्दीन खिलजी के दुस्साहस, वहशीपन और हर नायाब
चीज को पाने की चाहत का जिक्र करता हुआ नजर आता है. अलाउद्दीन अपने चाचा
जलालुद्दीन खिलजी को मारकर दिल्ली सल्तनत का शासक बनता है.
रतन सिंह के
राज्य में रहनेवाला राघव चेतन नाम का एक तांत्रिक चित्तौड़ से निकाले जाने पर और
दिल्ली पहुंचकर अलाउद्दीन खिलजी से पद्मावती के सौंदर्य का ऐसा बखान करता है की वह
उसे पाने के लिए बेताब हो जाता है। वह चित्तौड़ पर आक्रमण कर देता है. चित्तौड़
जल्द हार नहीं मानता लेकिन चालाकी और धूर्तता से आखिरकर खिलजी रतन सिंह को मार
देता है। ;लेकिन उसे पद्मावती तब भी नहीं मिलती है. पद्मावती सामूहिक जौहर करके
सती हो जाती है। फिल्म में सती होना नहीं दिखाया गया है पर उसका संकेत दिया गया
है।
फिल्म का संगीत
पक्ष अच्छा है जैसा कि संजय लीला भंसाली की फिल्म में अक्सर होता ही है। कई गाने
एवं उनका संगीत बहुत खुबसुरत बन गया है. जैसे `घूमर घूमरे घूमे’ बोल वाला गीत. लोकेशन का चुनाव बहुत खूब है.
किलों के भीतर दिखाए गए कई दृश्य बहुत आकर्षक बन पड़े हैं.
पद्मावत
पूरी तरह से राजपूती आन-बान-शान का गान लगती है. पद्मावत अपने हर दृश्य से यह
जताने की कोशिश करती है कि राजपूत अपनी जुबान और उसूलों के कितने पक्के थे, वहीं बाहरी
आक्रमणकारी हर बार केवल अपने छल और कुटिलता से जीत पाए. यहां तक कि रावल रतन सिंह
और अलाउद्दीन खिलजी के बीच फिल्माए गए द्वंद युद्ध के दृश्य भी राजपूतों की
बहादुरी और युद्ध कुशलता का नमूना ही पेश करते हैं और रावल को धोखे से मारने की
बात कहते हैं. इसके अलावा जौहर के दृश्यों को भी पद्मावत में बेहद गरिमामय तरीके
से दिखाया गया है. यहां तक कि इतना ग्लोरिफाई किया गया है कि 2018 का
दर्शक यह देखते हुए थोड़ा असहजता भी महसूस कर सकता है.
`पद्मावती’ का चरित्र और
जौहर का वृतांत मध्यकालीन कवि मलिक मुहम्म्द जायसी की कल्पना है. भंसाली ने पूरी
तरह जायसी `पद्मावत’ को नहीं पेश नहीं किया है. वह संभव भी नहीं था क्योंकि मूल महाकाव्य काफी
बड़ा है। पर कुछ बदलाव उचित नहीं लगते। जैसे भंसाली ने रतन सेन की पहली पत्नी
नागमती की भूमिका को बहुत छोटा कर दिया है. उसके मुकाबले अलाउद्दीन खिलजी की बीवी
मेहरून्निसा (अदिति राव हैदर) की भूमिका बहुत बड़ी कर दी. फिर जायसी ने यह लिखा है
की रतन सेन हीरामन नाम के तोता से पद्मावती के सौंदर्य की तारीफ सुनकर उसे पाने
सिंहल द्वीप जाता है। लेकिन भंसाली ने यह नही दिखाया है. उनका जोर खिलजी के खलनायक
होने पर और पद्मावती की खूबसूरती दिखाने पर इतना अधिक रहा है कि बाकी के कुछ अहम
पहलुओं को उन्होंने नजर अंदाज कर दिया. हां, ये भी सही है कि भंसाली ने दीपिका
पादुकोण को जिस तरह पद्मावती और उसकी खुंदरता को पेश किया है उसमें एक जबर्दस्त मोहकता और आकर्षण है. पद्मावती के लंहगे, उसकी चूड़ियाँ, उसके गहने, उसकी चूनर एवं खासकर उसकी नथ. आने वाले समय में ये
सब जबर्दस्त फैशन बन जाएंगे। हो सकता है कि शादी- ब्याह में लड़कियां यह मांग करें
कि वे पद्मावती की तरह लहंगे और जेवर पहनेंगी. पद्मावत ब्रांड आगे इन वस्त्रों या
गहनों में चल निकले.
विवाद
की वाजस से या किसी एनी कर्ण की वजह से,
पद्मावत के साथ बुरी बात यह भी हुई कि
यह संजय लीला भंसाली का महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट होते हुए भी एक बेहतरीन सिनेमाई
अनुभव में नहीं बदल पाया. पूरी भव्यता के बावजूद फिल्म टुकड़ों में ही मनोरंजन कर
पाती है. आलीशान महल, राजपूती और अफगानी लिबास,
एक बढ़िया प्रेम कहानी औऱ उच्च स्तर के
युद्ध दृश्य देखते हुए आप कई बार खिन खो जाते हैं, लेकिन फिल्म पूरे समय आपका ध्यान फिल्म अपनी ओर आकर्षित नहीं
कर पाती है. इसकी एक वजह फिल्म की अधिक लंबाई भी है. करीब तीन घंटे की फिल्म में
कई लंबे-लंबे सीक्वेंस आपको बार-बार कहानी के अटक जाने का एहसास करवाते रहते हैं.
फिल्म
में दीपिका को बहुत बहुत खुबसूरत दिखाया गया है. रानी पद्मावती बनकर, जुड़ी हुई
भौंहों के बावजूद भी दीपिका पादुकोण इतनी सुंदर लगती हैं, जितनी वे पहले कभी
नहीं लगी. फिल्म में दीपिका के हिस्से बेहद चुनिंदा संवाद ही आए हैं
इसलिए बाकी काम वे अपनी बोलने वाली आंखों और जादूभरी मुस्कुराहट से कर जाती हैं. दीपिका ने फिल्म में अच्छा अभिनय किया है, फिर भी पद्मावती के
किरदार को देखते हुए ऐसा लगता है की यह सही चयन नहीं था.
मलिक कफूर का चरित्र तो चित्रित किया हुआ लगता है. मानों
वह सिर्फ उभयलिंगी होने और अलाउद्दीन खिलजी के साथ समलैंगिक रिश्ता रखने के कारण
उसका प्यारा था. जबकि वास्तविकता यह है कि कफूर एक बेदर्द आक्रांता और कुशल
सेनापति था और अलाउद्दीन खिलजी के मरने के बाद उसने परोक्ष रूप से दिल्ली पर कुछ
समय तक शासन भी किया था. पर एक महीने के बाद अलाउद्दीन के ही अंगरक्षकों ने उसकी
हत्या कर दी थी.
क्या भंसाली ने इतिहास और जायसी की रचना `पद्मावत’ को तोड़मरोड़ कर पेश किया है? इस तरह के आरोप लगेंगे। पर इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता कि कोई भी फिल्म पूरी तरह इतिहास या उस रचना को पेश नहीं करती जिस पर आधारित होती है। उसमे कुछ परिवर्तन लाजमी हैं. हर विधा का अपना एक कैनवास होता है. वह उसी में फिट बैठ सकती है.
क्या भंसाली ने इतिहास और जायसी की रचना `पद्मावत’ को तोड़मरोड़ कर पेश किया है? इस तरह के आरोप लगेंगे। पर इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता कि कोई भी फिल्म पूरी तरह इतिहास या उस रचना को पेश नहीं करती जिस पर आधारित होती है। उसमे कुछ परिवर्तन लाजमी हैं. हर विधा का अपना एक कैनवास होता है. वह उसी में फिट बैठ सकती है.
रतन सिंह की भूमिका में शाहिद कपूर रनबीर सिंह के आगे थोड़े दब गए हुए
लगे. वे अपने संवाद बोलने में तो कमाल करते
हैं, लेकिन उनके चेहरे की मासूमियत,
राजपूती मूंछों के पीछे जाकर भी ओज में
नहीं बदल पाती है. उनका सांवला रंग और सुघड़ शरीर देखकर आप मोहित होते हैं, लेकिन उनकी आंखों का
काजल आपको एक बार फिर खटक जाता है. वहीं रतन सिंह से उलझने वाले अलाउद्दीन खिलजी
यानी रणवीर सिंह पद्मावत में सारा ध्यान खींचते हैं. चेहरे पर जख्मों के निशान लिए
और ज्यादातर वक्त तलवार या शरीर पर खून लगाए नजर आने वाले रणवीर को देखकर भी उनसे
नजरें नहीं हटती है. हालांकि यह उनका सबसे अच्छा काम नहीं कहा जा सकता है, लेकिन इसे उनके
बेहतरीन परफॉर्मेंसेज में जरूर गिना जा सकता है. फिल्म में वे कुछ ऐसे दुर्दांत
दृश्यों को अंजाम देते नजर आते हैं जिन्हें स्क्रीन पर देखना भी आपके लिए मुश्किल
हो सकता है.
जलालुद्दीन
खिलजी की छोटी सी भूमिका में रजा मुराद का दमदार काम आकर्षित करता है. सुल्तान के
तख्त पर बैठे हुए उन्हें बहुत भीमकाय दिखाया गया है. बेहद
खूबसूरत अदिति राव हैदरी और जिम सरभ की भूमिकाएं भी काफी अच्छी हैं. ये दोनों ही अलाउद्दीन
के कई पक्षों को दिखाने में अपनी जरूरी भूमिकाएं निभाते हैं. दूसरी तरफ नागमती बनी
अनुप्रिया गोयनका बहुत प्रभावित नहीं करती हैं. वे जितनी खुबसूरत हैं उतना खुबसूरत
अभिनय नहीं करती हैं. उनका काम थोडा लचर नजर आता है. कुछ हद तक वे बनावटी लगने
वाला अभिनय करती हैं.
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