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Friday, July 29, 2022

आधुनिक काल-पार्ट-5

 

आधुनिक काल-पार्ट-5

प्रकरण 2

गद्य साहित्य का आविर्भाव

किस प्रकार हिन्दी के नाम से नागरी अक्षरों में

उर्दू ही लिखी जाने लगी थी, इसकी चर्चा ’बनारस

अखबार’ के संबंध में कर आए हैं। संवत् 1913

में अर्थात् बलवे के एक वर्ष पहले राजा शिवप्रसाद

शिक्षाविभाग में इंस्पेक्टर पद पर नियुक्त हुए। 


उस

समय दूसरे विभागों के समान शिक्षाविभाग में

भी मुसलमानों का जोर था जिनके मन में

भाखापन’ का डर बराबर समाया रहता था। वे

इस बात से डरा करते थे कि कहीं नौकरी के

लिए ’भाखा’ संस्कृत से लगाव रखनेवाली ’हिन्दी’,

न सीखनी पड़े। अतः उन्होंने पहले तो उर्दू के

अतिरिक्त हिन्दी की पढ़ाई की व्यवस्था का घोर

विरोध किया। उनका कहना था कि जब अदालती

कामों में उर्दू ही काम में लाई जाती है तब

एक और जबान का बोझ डालने से क्या लाभ?

भाखा’ में हिंदुओं की कथावार्ता आदि कहते सुन

वे हिन्दी को ’गँवारी’ बोली भी कहा करते थे।

इस परिस्थिति में राजा शिवप्रसाद को हिन्दी की

रक्षा के लिए बड़ी मुश्किल का सामना करना पड़ा।

हिन्दी का सवाल जब आता तब मुसलमान

उसे ’मुश्किल जबान’ कहकर विरोध करते। अतः

राजा साहब के लिए उस समय यही संभव

दिखाई पड़ा कि जहाँ तक हो सके ठेठ हिन्दी का

आश्रय लिया जाय जिसमें कुछ फारसीअरबी

के चलते शब्द भी आएँ। उस समय साहित्य के

कोर्स के लिए पुस्तकें नहीं थीं। राजा साहब

स्वयं तो पुस्तकें तैयार करने में लग ही गए, पं.

श्रीलाल और पं. वंशीधार आदि अपने कई मित्रों

को भी उन्होंने पुस्तकें लिखने में लगाया। राजा

साहब ने पाठयक्रम में उपयोगी कई कहानियाँ

आदि लिखीं , जैसे राजा भोज का सपना, वीरसिंह

का वृत्तांत, आलसियों को कोड़ा इत्यादि।

संवत् 1909 और 1919 के बीच शिक्षा संबंधी

अनेक पुस्तकें हिन्दी में निकलीं जिनमें से कुछ

का उल्लेख किया जाता है ,

पं. वंशीधार ने, जो आगरा नार्मल स्कूल के मुदर्रिस

थे, हिन्दी उर्दू का एक पत्र निकाला था

जिसके हिन्दी कॉलम का नाम ’भारतखंडामृत’ और

उर्दू कॉलम का नाम ’आबेहयात’ था। उनकी

लिखी पुस्तकों के नाम ये हैं ,

1. पुष्पवाटिका (गुलिस्ताँ के एक अंग का अनुवाद,

संवत् 1909)

2. भारतवर्षीय इतिहास (संवत् 1913)

3. जीविका परिपाटी (अर्थशास्त्र की पुस्तक, संवत्

1913)

4. जगत् वृत्तांत (संवत् 1915)

पं. श्रीलाल ने, संवत् 1909 में ’पत्रमालिका’ बनाई।

गार्सां द तासी ने इन्हें कई पुस्तकों का

लेखक कहा है।

बिहारीलाल ने गुलिस्ताँ के आठवें अध्याय का

हिन्दी अनुवाद संवत् 1919 में किया।

पं. बद्रीलाल ने डॉ. बैलंटाइन के परामर्श के

अनुसार संवत् 1919 में ’हितोपदेश’ का अनुवाद

किया जिसमें बहुत सी कथाएँ छाँट दी गई थीं।

उसी वर्ष ’सिध्दांतसंग्रह’ (न्यायशास्त्र) और

उपदेश पुष्पावती’ नाम की दो पुस्तकें और

निकली थीं।

यहाँ यह कह देना आवश्यक है कि प्रारंभ में राजा

साहब ने जो पुस्तकें लिखीं वे बहुत ही चलती

सरल हिन्दी में थीं, उनमें उर्दूपन नहीं भरा था

जो उनकी पिछली किताबों (इतिहासतिमिरनाशक

आदि) में दिखाई पड़ता है। उदाहरण के लिए

राजा भोज का सपना’ से कुछ अंश उध्दृत किया

जाता है ,

वह कौन सा मनुष्य है जिसने महाप्रतापी महाराज

भोज का नाम न सुना हो। उसकी महिमा और

कीर्ति तो सारे जगत् में ब्याप रही है। बड़ेबड़े

महिपाल उसका नाम सुनते ही काँप उठते और

बड़े बड़े भूपति उसके पाँव पर अपना सिर नवाते।

सेना उसकी समुद्र के तरंगों का नमूना और

खजाना उसका सोने चाँदी और रत्नों की खान

से भी दूना। उसके दान ने राजा कर्ण को लोगों

के जी से भुलाया और उसके न्याय ने विक्रम को

भी लजाया।

अपने ’मानवधर्मसार’ की भाषा उन्होंने अधिक

संस्कृतगर्भित रखी है। इसका पता इस उध्दृत अंश

से लगेगा ,

मनुस्मृति हिंदुओं का मुख्य धर्मशास्त्र है। उसको

कोई भी हिंदू अप्रामाणिक नहीं कह सकता। वेद

में लिखा है कि मनु जी ने जो कुछ कहा है उसे

जीव के लिए औषधिा समझना; और बृहस्पति

लिखते हैं कि धर्म शास्त्राचार्यों में मनु जी सबसे

प्रधान और अति मान्य हैं क्योंकि उन्होंने अपने

धर्मशास्त्र में संपूर्ण वेदों का तात्पर्य लिखा है।...

खेद की बात है कि हमारे देशवासी हिंदू कहलाके

अपने मानवधर्मशास्त्र को न जानें और सारे कार्य्य

उसके विरुद्ध करें।

मानवधर्मसार’ की भाषा राजा शिवप्रसाद की

स्वीकृत भाषा नहीं है। प्रारंभकाल से ही वे ऐसी

चलती ठेठ हिन्दी के पक्षपाती थे जिसमें

सर्वसाधारण के बीच प्रचलित अरबीफारसी शब्दों

का भी

स्वच्छंद प्रयोग हो। यद्यपि अपने ’गुटका’ में जो

साहित्य की पाठयपुस्तक थी उन्होंने थोड़ी संस्कृ

त मिली ठेठ और सरल भाषा का ही आदर्श बनाए

रखा, पर संवत् 1917 के पीछे उनका झुकाव

उर्दू की ओर होने लगा जो बराबर बना क्या रहा,

कुछ न कुछ बढ़ता ही गया। इसका कारण

चाहे जो समझिए। या तो यह कहिए कि अधिकांश

शिक्षित लोगों की प्रवृत्ति देखकर उन्होंने ऐसा

किया अथवा अंगरेज अधिाकारियों का रुख

देखकर। अधिकतर लोग शायद पिछले कारण को

ही ठीक समझेंगे। जो हो, संवत् 1917 के उपरांत

जो इतिहास, भूगोल आदि की पुस्तकें राजा

साहब ने लिखीं उनकी भाषा बिल्कुल उर्दूपन लिए

है। ’इतिहासतिमिरनाशक’ भाग-2 की अंग्रेजी

भूमिका में, जो संवत् 1864 की लिखी है, राजा

साहब ने साफ लिखा है कि मैंने ’बैताल पचीसी’

की भाषा का अनुकरण किया है ,

उंल इम चंतकवदमक वित ेंलपदह ं मिू

ूवतके ीमतम जव जीवेम ूीव ंसूंले नतहम

जीम मगबसनेपवद व िच्मतेपंद ूवतकेए मअमद

जीवेम ूीपबी ींअम इमबवउम वनत

ीवनेमीवसक ूवतकेए तिवउ वनत भ्पदकप इववो

ंदक नेम पद जीमपत ेजमंक ैंदोतपज

ूवतके ुनपजम वनज व िचसंबम ंदक ेंिीपवद वत

जीवेम बवनतेम मगचतमेपवदे ूीपबी बंद

इम जवसमतंजमक वदसल ंउवदह ं तनेजपब

चवचनसंजपवदण्

 ींअम ंकवचजमक जव ं बमतजंपद मगजमदजए जीम

संदहनंहम व िजीम ष्ठंपजंस चंबीपेपष्

लल्लूलालजी के प्रसंग में यह कहा जा चुका है

कि ’बैताल पचीसी’ की भाषा बिल्कुल उर्दू है।

राजा साहब ने अपने इस उर्दूवाले पिछले सिध्दांत

का ’भाषा का इतिहास’ नामक जिस लेख में

निरूपण किया है, वही उनकी उस समय की भाषा

का एक खास उदाहरण है, अतः उसका कुछ

अंश नीचे दिया जाता है ,

हम लोगों को जहाँ तक बन पड़े चुनने में उन

शब्दों को लेना चाहिए कि जो आम फहम और

खासपसंद हों अर्थात् जिनको जियादा आदमी

समझ सकते हैं और जो यहाँ के पढ़े लिखे,

आलिमफाजिल, पंडित, विद्वान की बोलचाल में

छोड़े नहीं गए हैं और जहाँ तक बन पड़े हम

लोगों को हरगिज गैरमुल्क के शब्द काम में न

लाने चाहिए और न संस्कृत की टकसाल कायम

करके नए नए ऊपरी शब्दों के सिक्के जारी करने

चाहिए; जब तक कि हम लोगों को उसके

जारी करने की जरूरत न साबित हो जाय अर्थात्

यह कि उस अर्थ का कोई शब्द हमारी जबान

में नहीं है, या जो है अच्छा नहीं है, या कविताई

की जरूरत या इल्मी जरूरत या कोई और

खास जरूरत साबित हो जाय।

भाषा संबंधी जिस सिध्दांत का प्रतिपादन राजा

साहब ने किया है उसके अनुकूल उनकी यह

भाषा कहाँ तक ठीक है, पाठक आप समझ सकते

हैं। ’आमफहम’, ’खासपसंद’, ’इल्मी जरूरत’

जनता के बीच प्रचलित शब्द कदापि नहीं हैं।

फारसी के ’आलिमफाजिल’ चाहे ऐसे शब्द बोलते

हों पर संस्कृत हिन्दी के ’पंडित विद्वान’ तो ऐसे

शब्दों से कोसों दूर हैं। किसी देश के साहित्य

का संबंध उस देश की संस्कृति परंपरा से होता

है। अतः साहित्य की भाषा उस संस्कृति का

त्याग करके नहीं चल सकती। भाषा में जो

रोचकता या शब्दों में जो सौंदर्य का भाव रहता

है।

वह देश की प्रकृति के अनुसार होता है। इस

प्रवृत्ति के निर्माण में जिस प्रकार देश के प्राकृतिक

रूप रंग, आचार व्यवहार आदि का योग रहता है

उसी प्रकार परंपरा से चले आते हुए साहित्य

का भी। संस्कृत शब्दों में थोड़े बहुत मेल से भाषा

का जो रुचिकर साहित्यिक रूप हजारों वर्षों

से चला आता था उसके स्थान पर एक विदेशी

रूप रंग की भाषा गले में उतारना देश की प्रकृति

के विरुद्ध था। यह प्रकृतिविरुद्ध भाषा खटकी तो

बहुत लोगों को होगी, पर असली हिन्दी

का नमूना लेकर उस समय राजा लक्ष्मण सिंह ही

आगे बढ़े। उन्होंने संवत् 1918 में ’प्रजाहितैषी’

नाम का एक पत्र आगरे से निकाला और 1919 में

अभिज्ञान शाकुंतल’ का अनुवाद बहुत ही

सरस और विशुद्ध हिन्दी में प्रकाशित किया। इस

पुस्तक की बड़ी प्रशंसा हुई और भाषा के संबंध

में मानो फिर से लोगों की ऑंख खुली। राजा

साहब ने उस समय इस प्रकार की भाषा जनता

के सामने रखी,

अनसूया, (हौले प्रियंवदा से) सखी! मैं भी इसी

सोच विचार में हूँ। अब इससे कुछ पूछूँगी। (प्रगट)

महात्मा! तुम्हारे मधुर वचनों के विश्वास में आकर

मेरा जी यह पूछने को चाहता है कि तुम किस

राजवंश के भूषण हो और किस देश की प्रजा को

विरह में व्याकुल छोड़ यहाँ पधाारे हो? क्या

कारन है जिससे तुमने अपने कोमल गात को

कठिन तपोवन में आकर पीड़ित किया है?

यह भाषा ठेठ और सरल होते हुए भी साहित्य में

चिरकाल से व्यवहृत संस्कृत के कुछ रसिक

शब्द लिए हुए है। रघुवंश के गद्यानुवाद के

प्राक्कथन में राजा लक्ष्मण सिंहजी ने भाषा के

संबंध  में अपना मत स्पष्ट शब्दों में प्रकट किया

है।

हमारे मत में हिन्दी और उर्दू दो बोली न्यारी

न्यारी हैं। हिन्दी इस देश के हिन्दू बोलते हैं और

उर्दू यहाँ के मुसलमानों और पारसी पढ़े हुए

हिन्दुओं की बोलचाल है। हिन्दी में संस्कृत के पद

बहुत आते हैं, उर्दू में अरबी पारसी के। परंतु कुछ

अवश्य नहीं है कि अरबी पारसी के शब्दों के

बिना हिन्दी न बोली जाय और न हम उस भाषा

को हिन्दी कहते हैं जिसमें अरबी पारसी के

शब्द भरे हों।

अब भारत की देशभाषाओं के अध्ययन की ओर

इंगलैंड के लोगों का भी ध्यान अच्छी तरह जा

चुका था। उनमें जो अध्ययनशील और विवेकी थे,

जो अखंड भारतीय साहित्य परंपरा और भाषा

परंपरा से अभिज्ञ हो गए थे, उन पर अच्छी तरह

प्रकट हो गया था कि उत्तरीय भारत की

असली स्वाभाविक भाषा का स्वरूप क्या है। इन

अंगरेज विद्वानों में फ्रेडरिक पिंकाट का स्मरण

हिन्दी प्रेमियों को सदा बनाए रखना चाहिए।

इनका जन्म संवत् 1893 में इंगलैंड में हुआ।

उन्होंने प्रेस के कामों का बहुत अच्छा अनुभव

प्राप्त किया और अंत में लंदन की प्रसिद्ध ऐलन

ऐंड कंपनी

के विशालछापेखाने के मैनेजर हुए। वहीं वे अपने

जीवन के अंतिम दिनों के कुछ पहले तक

शांतिपूर्वक रहकर भारतीय साहित्य और भारतीय

जनहित के लिए बराबर उद्योग करते रहे।

संस्कृत की चर्चा पिंकाट साहब लड़कपन से ही

सुनते आते थे, इससे उन्होंने बहुत परिश्रम के

साथ उसका अध्ययन किया। इसके उपरांत उन्होंने

हिन्दी और उर्दू का अभ्यास किया। इंगलैंड

में बैठे ही बैठे उन्होंने इन दोनों भाषाओं पर ऐसा

अधिकार प्राप्त कर लिया कि इनमें लेख और

पुस्तकें लिखने और अपने प्रेस में छपाने लगे।

यद्यपि उन्होंने उर्दू का भी अच्छा अभ्यास किया

था, पर उन्हें इस बात का अच्छी तरह निश्चय हो

गया था कि यहाँ की परंपरागत प्रकृत भाषा

हिन्दी है, अतः जीवन भर ये उसी की सेवा और

हितसाधना में तत्पर रहे। उनके हिन्दी लेखों,

कविताओं और पुस्तकों की चर्चा आगे चलकर

भारतेंदुकाल के भीतर की जाएगी।

संवत् 1947 में उन्होंने उपर्युक्त ऐलन कंपनी से

संबंध तोड़ा और गिलवर्ट ऐंड रिविंगटन

(ळपसइमतज

ंदक त्पअपदहजवद ब्समतामदूमसस स्वदकवद)

नामक विख्यात व्यवसाय कार्यालय में पूर्वीय मंत्री

(व्तपमदज ।कअपेमत ंदक म्गचमतज) नियुक्त हुए।

उक्त कंपनी की ओर से एक व्यापार पत्र

आईन सौदागरी’ उर्दू में निकलता था जिसका

संपादन पिंकाट साहब करते थे। उन्होंने उसमें

कुछ पृष्ठ हिन्दी के लिए भी रखे। कहने की

आवश्यकता नहीं कि हिन्दी के लेख वे ही लिखते

थे। लेखों के अतिरिक्त हिंदुस्तान में प्रकाशित

होनेवाले हिन्दी समाचार पत्रों (जैसे हिंदोस्तान,

आर्यदर्पण, भारतमित्र) से उद्ध रण भी उस पत्र के

हिन्दी विभाग में रहते थे।

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