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Saturday, July 21, 2012

poem aajkal : आजकल



मैं बड़ी उधेड़ बुन में जी रहा हूँ आजकल|
रिश्तों की गलती चादर सी रहा हूँ आजकल|
मर गई संवेदनाऐं या कहीं हैं खो गई|
संभ्रांत लोगों के बीच ढूँढ़ रहा हूँ आजकल|
क्या कहा पागल हूँ मैं सनकी हूँ मैं|
हूँ इसीलिए समझदारों को ढूँढ़ रहा हूँ आजकल|
बहुत धनुर्धारी इस सभा में बैठे हूए हैं|
मगर मैं एकलव्य ढूँढ़ रहा हूँ आजकल|
कौन कहता है मर गया आवाज का जादू|
ठीक सुनने वाला श्रोता ढूँढ़ रहा हूँ आजकल|

प्रदीप प्रसन्न

Saturday, May 12, 2012

How many sades of truth : सत्य तेरे कितने रूप

 सत्य तेरे कितने रूप
  आमिर खान द्वारा निर्मित कार्यक्रम  सत्य मेव जयते प्रथम शो के प्रदर्शन से ही बहु चर्चित हो गया |(कर दिया गया)
तमाम चैनल, अखबार,पत्र-पत्रिकाओं, ट्यूटर, कम्पूटर, फेसबुक आदि पर एक ही खबर, ‘आमिर का सत्य मेव जयते बहु संख्यकों द्वारा सराहा गया’ | सामजिक क्षेत्र में कन्याभ्रूण के कम होते लिंगानुपात पर आधारित कार्यक्रम सत्य मेव जयते बहुत ही ज्यादा हिट हुआ |
मूल प्रश्न है इस कार्यक्रम के हिट होने का ? क्या यह समस्या पहली बार उद्घाटित हुई है ?क्या यह समस्या नई है ? क्या इस समस्या से आज से पूर्व भारतीय समाज व यहाँ के लोग अनभिज्ञ थे ?क्या आम लोगों में इतनी चेतना आ गई है कि वे समाज व महिलाओं के प्रति बहुत सजग व सचेत हो गए हैं ? या इन सब से अलग भी कोई कारण है ? जैसे आमिर खान जैसे प्रतिष्ठित फिल्म अदाकार द्वारा यह कार्यक्रम प्रस्तुत करना ? या आमिर द्वारा साफ़ व संदेशात्मक फिल्मो की छवि के कारण सब के द्वारा  बिना सोचे समझे प्रशंसा करना या एक दूसरे को देखकर भेड़ चाल चलना ?
इससे भी आगे एक प्रश्न यह है की आज से पूर्व भी कन्या भ्रूण के घटते लिंगानुपात पर भारत के अलग अलग क्षेत्रों में भिन्न भिन्न माध्यमों से व भिन्न भिन्न लोगों द्वारा इस समस्या पर वास्तविक रूप से कार्य किया जा चुका है व समाज तथा सरकार के समक्ष रखा जा चुका है | परन्तु इस कार्यक्रम से पूर्व तो सरकार भी व आम लोग भी कुंभकर्ण की नींद ही ले रहे थे |
दूसरी बात माना यह कार्यक्रम बहुत अच्छा है |आमिर खान द्वारा समाज की एक बड़ी व ज्वलंत समस्या को उद्घाटित किया गया है, तो अब इस समस्या पर सकारात्मक रूप से कार्य कितने लोग करेगें ? क्या वे सब लोग जिन्होंने इस कार्यक्रम को देखा व प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से इस कार्यक्रम को सराहा ,वे सभी सिर्फ स्वयं और स्वयं के परिवार में आज के बाद भ्रूण का लिंग परीक्षण व कन्या भ्रूण का गर्भ पात नहीं करवायेंगें ? कार्यकर्म व दर्शक श्रोताओं की असली प्रशंसा का परिणाम तो तभी सार्थक होगा जब ऐसा वास्तविक रूप से हो |
परन्तु होगा नहीं |वजह हमारी मानसिकता में इस तरह की तमाम बातें ऐसे घर कर गई है कि जब भी अपने उपर बात आती है तो हम,  बगलें झाँकने लगते हैं | सारे आदर्श ,नियम, कानून व संविधान –ताक  में रखे रह जाते हैं |
 यंहा सिर्फ आलोचना करने के निमित नहीं कहा जा रह है बल्कि यह भारतीय लोगों की मानसिकता का व दृश्य है जिसे हम गत कई सदियों से देखते आ रहें हैं और ज्यों ज्यों ज्यादा शिक्षित, विकसित, आधुनिक हुयें हैं –त्यों त्यों उस विक्षिप्त मानसिकता का अनुपात बढ़ा ही है घटा नहीं | क्योंकि सत्य मेव जयते सही है सिर्फ और सिर्फ पुस्तकों में |

प्रदीप प्रसन्न
  

Friday, January 20, 2012

poem : अनुभव


अभी तो मै जवान हूँ 
इसलिये कह रहा हूँ 
वरना
 आपकी तरह 
 मैं  भी 
 कर लूंगा समझोता
जिससे  किया है आपने ,
उन्होंने, इन्होने .
जिंदा  रहने के लिए 
पर्याप्त ही नहीं  है 
सिर्फ पेट का भरना ,
वो ज़िंदा  रहने के लिए 
भरते हैं  कुछ और भी, 
सब
 सबसे कहने की
 हिम्मत  नहीं रखते, 
मैं
इसलिए आपसे
 नहीं कह राह हूँ 
क्योंकि
 सब सबसे
 सुनने की  हिम्मत  नहीं रखते,
माँ ने नहीं बताया था 
मुझे चक्रव्यूह को तोड़ने  का
मार्ग 
मै कौशिश भी नहीं करूँ 
यह भी तो नहीं बताया था 
माँ ने, 
मैंने बहूत ज्यादा कभी सोचा नहीं ,
इसलिए नहीं के फुर्सत नहीं मिली 
बल्की इसलिए भी नहीं
 की  जरूरत नहीं पडी 
बल्की इसलिए  भी नहीं
 की 
मैं अभावों मैं नहीं  पला 
बल्की इसलिए 
क्योंकी
 पुरानों  ने हमेशा
 यह एहसास दिलाया है 
की वे  अनुभवी हैं 
और
 अनुभव  के आधार पर 
गमले   के पौधे  की 
तुलना मे
 वट वृक्ष   
ज्यादा छायां देता है 
इस ज्यादा  छायां
 की  उम्मीद में
 मैं बैठा बैठा
 देख रहा हूँ 
वट वृक्ष की टहनियां  
कम होती जा रहीं हैं


प्रदीप प्रसन्न  

poem : बात

यूँ ही नहीं बनता  हैं 
किसी बात का बतंगड़.
उसके लिए भी बहुत  सारे  
पापड़ बेलने पड़ते हैं .
मात्र दिखावा भी कह 
सकते हैं कुछ 
किताबी लोग  
किसी  भी प्रकार की गतिविधि को, 
क्योंकि 
 उनके पास नहीं होता है
 करने  को वह कार्य
 जो कर रहा है दूसरा. 
इसीलिए ऐसे लोग  ना
बात बना पाते हैं,
और  
ना बात का बतंगड़
और उनका सबसे बड़ा
पछतावा इसी बात का
होता है. 
वरना सब मिलके
 कुछ ना कुछ करें तो 
क्या संभव नहीं हैं -
भ्रष्ट का भ 
राजनीति का र 
टटपुन्जीयो का ट
चम्मचो का च 
रहिसों का र 
तोड़ के 
सब सामान्य कर दें 
मगर नहीं 
कुछ लोगो को राजनीति करने
में बहुत मजा आता है.

प्रदीप प्रसन्न 

poem : rachna : रचना

अब तो हर मौसम अपने रंग बदलने लगा है , 
नए नए तेवर के साथ सूरज भी ढलने लगा है |
कैसे कह दें की अब नहीं आती हमको उनकी याद
हमारे संग संग उनका साया भी चलने लगा है |
बहुत हो चुका तमाशा अब उठाओ मजमा अपना 
नई पीडी का खून अब रगों में मचलने लगा है |
बात थी व्यवस्था के बदलने की मगर अब तो  
व्यवस्था का मुखोटा ही खुद बदलने लगा है |
पूछा उसने मेल पर क्या हाल हैं गाँव के अब 
नई रौशनी में पुराना बरगद अब हिलने लगा है |

प्रदीप प्रसन्न

poem : कविता


 कविता
 सर्दी मे तपने के लिये
 एक अलाव है .
जो अपने भावो की 
 गर्माहट से
 सर्दी भगाती  नहीं,
सिर्फ
 गर्माहट का
 एहसास दिलाती है 
और 
 यह एहसास भी
 सिर्फ
 मनुष्य को होता है .
मनुष्य की खोल मे
 रह  रहे
 भेड़िये को नहीं  .

प्रदीप प्रसन्न 

lokpal : लोकपाल

लोकपाल बिल में हर पार्टी व व्यक्ति अपना संशोधन जुडवाना चाहता है |लोकपाल बिल को मजबूत करने के लिए ? लोकपाल बिल को भविष्य के लिए सफल बनाने के लिए ?लोकपाल बिल को सशक्त रूप से लागु करने के लिए ?या कोई अन्य कारण है ? कोई भी पार्टी लोकपाल बिल के पास होने में व्यवधान नहीं डाल रही है ,बल्कि सभी पार्टियाँ  उसमे कुछ ना कुछ जोड़ना चाहती हैं ताकि लोकपाल बिल मजबूत हो सके ,और कमजोर लोकपाल जल्द बाजी में ना आजाये इसके लिए ही बहस कर रहीं हैं | मगर फिर एक सवाल सामने आता है की फिर इस पर सार्थक बहस करने के लिए भी तैयार नहीं है कोई पार्टी व इसे लागु करने के लिए भी तैयार नहीं कोई भी पार्टी ? क्या वास्तव में ये अभी पार्टियाँ लोकपाल बिल लाना चाहती हैं ? या मात्र दिखावा है -कोरा संसद में टाईमपास करने का ? जब सब ये मानते हैं की देश में भ्रष्टाचार है और उसे मिटाना चाहिए तो फिर वह मिटाना चाहिए, उसके लिए ज्यादा बहस करने की जरुरत क्या है ? और यदि फिर भी लगता है की नहीं बहस की जरूरत है तो कीजिये बहस -सार्थक बहस , एक जगह सभी लोग बैठ कर | उसे बन्दर बाट क्यों बनाया जा रह है , मेंढक  तोलने की तरह ,हर कोई अपनी अलग तराजू  लेकर बैठा है | कोई मैदान में ,कोई संसद में ,कोई संगोष्टी में ,कोई अखबार में, कोई घर में ,कोई दफ्तर में | ऊपर से यह पलोथन और लगाया जाता है की इससे तो साठ प्रतिशत भ्रष्टाचार ही खत्म होगा, इससे तो चालीस  प्रतिशत भ्रष्टाचार ही खत्म होगा , भ्रष्टाचार का मुद्दा उठाने वाले खुद ही भ्रष्ट हैं , अरे आपको उसकी प्रतिशतता नापना है या भ्रष्टाचार खत्म करने के लिए लोकपाल बिल लाना है | और जनता हर नेता को देश का विकास  करने के लिए चुनती है और विकास देश में होता है या नेता के घर में यह भी देख लीजिय, और संविधान में संसोधन कर कानून बनाये जाते हैं ताकि बेईमानी या अनैतिक कार्य ना हो सके -इसके बाद भी क्या ये सब पूर्ण रूप से रुकता है और क्या कानून बनाने वाले स्वयम पाक साफ़ होते हैं ? 


प्रदीप प्रसन्न ,

makrskranti : मकरसक्रांति

 आप जो कर रहे हैं वो करते रहिये
 रहीम दास जी ने कहा है
 करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान
 रसरी आवत जात है सिल पर पडत निशान
 इसलिए लगे रहो मंजिल जरुर मिलेगी |
 ऐसा कहा जाता है, इसलिए मैं भी कह रहा हूँ
 वरना मंजिल आज तक मिली किसी को भी नहीं है |
 निराला, प्रेमचंद ,अघेय लिखले लिखते मर गए लिखने की मंजिल मिली क्या ?
 अमिताब बच्चन फिल्म पे फिल्म बनाये जा रहा है फिल्मों की मंजिल मिली क्या ?
 सचिन संचूरी पे संचूरी बनाये  जा रहा है मंजिल मिली क्या ? मैं भी अपनी तरफ से
 खूब लिखने   का अभ्यास कर रहा हूँ अभी तक तो मंजिल मिली नहीं हैं |
 शेष आप को सुभ व मुझे लाभ की कामनाओं सहित मकरसक्रांति व उतरायण पर मुझे मिठाई
 खिलाना मेरा मन खुश हो जायेगा, भगवान  को खिलाओ  तो उसका मन खुश होगा या नहीं
 कोई गारंटी नहीं हैं |
 प्रदीप प्रसन्न


poem : मुक्तक

मैं कभी कभी बहुत भावुक हो जाता हूँ
कंप्यूटर का एक माउस हो जाता हूँ
और दिल का यूपीस अगर संकेत ना  दे
तो संवेदनाओं से ही आउट हो जाता हूँ



 प्रदीप प्रसन्न 
  



Tuesday, January 17, 2012

poem : मुक्तक

कविता , कहानी ,नाटक नहीं हूँ
किसी के दरवाजे का फाटक नहीं  हूँ
पढना चाहते हो तो करीब आऔ
आम आदमी हूँ कोई जातक नहीं हूँ

प्रदीप प्रसन्न   

robber : daku : डाकू

रामदीन काकू 
एक दिन ले आये चाकू 
बोले कहाँ  हैं डाकू 
काकी बोली ज्यादा पीली है क्या ?
या रात की ही नहीं उतरी है क्या ?
क्यों  इतने जोश में हो 
लगता है बेहोश में हो 
काकू बोले  झूट बोलती है 
सब्जी वाले की तरह कम तोलती है 
मैं आज नहीं मानूंगा 
डाकू को मारूंगा
काकी ने सोचा उतारनी  ही पड़ेगी  
बात ऐसे नहीं बनेगी 
काकी ने निकाला बेलन नूमा लठ्ठ 
यह देख के एक चूहे की पेंट गीली हो गई झटपट
और वह बिल में घुस गया 
नवाज  शरीफ की तरह छुप गया 
काका बोले मोहतरमा कमाल करती हो 
तुम  डाकू तो नहीं लगती हो 
फिर यह लठ्ठ और गुस्सा  क्यों  दिखाती  हो 
सीधा सीधा कह दो कपडे  भी धोने  हैं बर्तन तो रोज मंजवाती   हो  
काकी ने कहा बर्तन मांझते हो तो कौनसा  एहसान करते हो 
बताओ इसके अलावा घर का  कौनसा  काम करते हो 
काका बोले पहेली मत बुझा 
मुझे बातों मैं मत उलझा 
डाकू कहाँ हैं ये बता दे 
अनपढ़  हूँ  इसलिए इशारे से ही  समझा दे 
काकी ने कहा  वो जमाना पुराना था 
जंगल  में डाकू रहता हैं  महज एक गाना था 
परन्तु आजकल डाकू एकवचन नहीं बहुवचन हो गए हैं 
इसलिए जंगल में नहीं डाकू घर घर में हो गए हैं 
प्रदीप प्रसन्न 





Monday, January 9, 2012

Lost a leader : एक नेता खो गया


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प्रदीप प्रसन्न 
 
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