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Saturday, July 21, 2012

poem aajkal : आजकल



मैं बड़ी उधेड़ बुन में जी रहा हूँ आजकल|
रिश्तों की गलती चादर सी रहा हूँ आजकल|
मर गई संवेदनाऐं या कहीं हैं खो गई|
संभ्रांत लोगों के बीच ढूँढ़ रहा हूँ आजकल|
क्या कहा पागल हूँ मैं सनकी हूँ मैं|
हूँ इसीलिए समझदारों को ढूँढ़ रहा हूँ आजकल|
बहुत धनुर्धारी इस सभा में बैठे हूए हैं|
मगर मैं एकलव्य ढूँढ़ रहा हूँ आजकल|
कौन कहता है मर गया आवाज का जादू|
ठीक सुनने वाला श्रोता ढूँढ़ रहा हूँ आजकल|

प्रदीप प्रसन्न

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