यूँ ही नहीं बनता हैं
किसी बात का बतंगड़.
उसके लिए भी बहुत सारे
पापड़ बेलने पड़ते हैं .
मात्र दिखावा भी कह
सकते हैं कुछ
किताबी लोग
किसी भी प्रकार की गतिविधि को,
क्योंकि
उनके पास नहीं होता है
करने को वह कार्य
जो कर रहा है दूसरा.
इसीलिए ऐसे लोग ना
बात बना पाते हैं,
और
ना बात का बतंगड़
और उनका सबसे बड़ा
पछतावा इसी बात का
होता है.
वरना सब मिलके
कुछ ना कुछ करें तो
क्या संभव नहीं हैं -
भ्रष्ट का भ
राजनीति का र
टटपुन्जीयो का ट
चम्मचो का च
रहिसों का र
तोड़ के
सब सामान्य कर दें
मगर नहीं
कुछ लोगो को राजनीति करने
में बहुत मजा आता है.
प्रदीप प्रसन्न
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