हिन्दी एकांकी पार्ट-3 स्वातंत्रयोत्तर युग
हिन्दी एकांकी के विकास की चौथी अवस्था
स्वतंत्रता के पश्चात् प्रारम्भ होती है, जिसे
स्वातंत्रयोत्तर युग के नाम से जाना जाता है।
इस अवस्था में हिन्दी एकांकियों पर रेडियो का
प्रभाव बड़ी गहराई से पड़ा है। रेडियो नाटकों
के रूप में नाटकों का नवीन रूप हमारे समक्ष
आया। रेडियो माध्यम होने के कारण श्रोतागण
इसमें रुचि लेने लगे। इसलिए रेडियो एकांकियों
की मांग इस युग में अधिक रही। डॉ. दशरथ
ओझा ने लिखा है कि ‘हिन्दी के जितने-नाटक
आज रेडियो स्टेशनों पर अभिनीत होते हैं उतने
सिनेमा की प्रयोगशालाओं में भी नहीं होते
होंगे। अतः नाट्यकला का भविष्य रेडियो-रूपक
के रचयिताओं के हाथ में है।’
स्वातंत्रयोत्तर युगीन हिन्दी एकांकी का स्वरूप
विविधता लिए हुए है। इनमें एक ओर परम्परागत
शैली में राष्ट्रीय भावना प्रधान एकांकी लिखे गये
तो दूसरी ओर ध्वनि नाट्य तथा गीति नाट्य का
भी विकास हुआ। इस युग के एकांकीकारों ने
सामाजिक, राजनीतिक, मानवतावादी तथा
यथार्थवादी विचारधाराओं से प्रभावित होकर
एकांकियों की रचना की। इन एकांकीकारों का
दृष्टिकोण प्रगतिशील तत्त्वों से प्रभावित रहा।
जिससे इनकी रचनाओं में पूँजीवाद विरोध, वर्ग
संघर्ष, सड़ी-गली रूढ़ि़यों के प्रति अनास्था,
मानव अन्तर्मन की सूक्ष्म भावनाओं का विश्लेषण,
भ्रष्टाचार उन्मूलन, कृषक एवं मजदूर की दयनीय
स्थिति तथा ब्रिटिश सरकार के प्रति असन्तोष
आदि विचार व्यक्त हुए।
इस क्षेत्र में विनोद रस्तोगी रचित ‘बहू की
विदा’, कणाद ऋषि भटनागर रचित ‘नया
रास्ता’, तथा ‘अपना घर’ दहेज की कुप्रथा का
पर्दाफाश करते हैं। विनोद रस्तोगी, जयनाथ
नलिन, लक्ष्मीनारायण लाल, राजाराम शास्त्री,
कैलाश देव, विष्णु प्रभाकर, प्रभाकर माचवे,
रेवतीसरण शर्मा, श्री चिरंजीत, भारत भूषण
अग्रवाल, कृष्ण किशोर, करतार सिंह दुग्गल,
स्वरूप कुमार बख्षी, गोविंद लाल माथुर आदि
ने समाज में परिव्याप्त विभिन्न सामाजिक
रूढ़ियों एवं विकृतियों के चित्र खींचे हैं। इस
युग के एकांकीकारों का यथार्थपरक दृष्टिकोण
एवं मानवीय मूल्यों के प्रति विशेष आग्रह रहा
है। विष्णु प्रभाकर के ‘बन्धन मुक्त’ में अछूतोद्धार,
‘पाप’ में अविवाहित युवती का अनुचित पैगाम,
‘साहस’ में निर्धनता और वेश्यावृत्ति, ‘प्रतिशोध’
तथा ‘इंसान’ में हिन्दू-मुस्लिम झगड़ों से उत्पन्न
साम्प्रदायिकता की समस्या, ‘वीर पूजा’ में
शरणार्थी समस्या, ‘किरण और कुहासा’ में
अन्तर्जातीय-विवाह की सामाजिक समस्याओं का
चित्रण किया गया है। विष्णु प्रभाकर पर
गाँधीवाद का प्रभाव स्पष्ट रूप से परिलक्षित
होता है। इनके ‘स्वतंत्रता का अर्थ’, ‘काम’,
सर्वाेदय, ‘समाज सेवा’, ‘नया काश्मीर’ आदि
एकांकियों में गांधीवादी सामाजिक एवं आर्थिक
विचारधाराओं की अभिव्यक्ति हुई है। चिरंजीत के
एकांकी यथार्थ एवं कल्पना का सम्मिलित रूप
प्रकट करते हैं। सामाजिक एकांकियों में इनका
यथार्थवादी आलोचनात्मक एवं व्यंग्यात्मक
दृष्टिकोण रहा है। कणाद ऋषि भटनागर कृत
‘नया रास्ता’ तथा ‘लांछन’ में नारी स्वातंत्रय एवं
समानाधिकार का स्वर मुखरित हुआ है।
देवीलाल सामर कृत ‘परित्यक्त’, देवराज दिनेश
कृत ‘समस्या सुलझ गई’, विधवा पुनर्विवाह का
समर्थन करते हैं। इस प्रकार स्पष्ट है कि
स्वातंत्रयोत्तर एकांकीकारों ने अपनी रचनाओं में
उन विविध सामाजिक समस्याओं का चित्रण
किया है जो सहज ही मानव संवेदनाओं का
संस्पर्श करती हैं।
आलोच्य युग में हिन्दी एकांकी में राजनीतिक
जीवन, स्वाधीनता संघर्ष, बंगाल का अकाल,
भुखमरी, फासीवाद का विरोध, जागीरदारी और
देशी नरेशों का जीवन तथा अन्य अनेक राष्ट्रीय
एवं अन्तर्राष्ट्रीय समस्याएं प्रकट हुई हैं। गाँधी
जी द्वारा स्वतंत्रता प्राप्ति हेतु चलाये गये विभिन्न
आन्दोलनों एवं क्रिया-कलापों का चित्रण भी इन
एकांकियों में मिलता है। स्वतंत्रता प्राप्त करने के
पश्चात् हिन्दी एकांकीकारों की लेखनी निर्बाध
रूप से निर्भय होकर चल पड़ी। अतः उन्होंने
अपनी लेखनी से ब्रिटिश प्रशासकों के काले
कारनामों का भी भण्डाफोड़ उन्मुक्त रूप से
किया तथा देशद्रोहियों की वैयक्तिक स्वार्थों की
पूर्ति हेतु ब्रिटिश सरकार के प्रति चाटुकारिता
की प्रवृत्ति का चित्रण करते हुए उनकी कटु
आलोचना भी की है। जयनाथ नलिन की राष्ट्रीय
रचनाओं में सृजनात्मक प्रवृत्ति के दर्शन होते हैं।
देश की स्वतंत्रता, इसके लिए किया गया
बलिदान, त्याग, सतत उद्योग एवं कर्म की
आवश्यकता के महत्त्व का प्रतिपादन इनकी
रचनाओं में हुआ है। इनके ‘विद्रोही की
गिरफ्तारी’, ‘देश की मिट्टी’, ‘युग के बाद’,
‘लाल दिन’ आदि राष्ट्रीय भावना से परिपूर्ण
एकांकी हैं। विष्णु प्रभाकर ने जो राजनीतिक
भावना से परिपूर्ण एकांकी लिखे उनमें
राजनीतिक उथल-पुथल, समाज पर राजनीतिक
प्रभाव, स्वतंत्रता आन्दोलन तथा राजनीतिक
गौरव का चित्रांकन किया है। इस श्रेणी के
प्रमुख एकांकी-‘क्रांति’, ‘कांग्रेस मैन बनो’,
‘हमारा स्वाधीनता संग्राम’ आदि हैं। ‘हमारा
स्वाधीनता संग्राम’, संयम, स्वतंत्रता का अर्थ,
काम, सर्वाेदय आदि गांधीवादी भावना से
प्रभावित रचनाएं हैं। राष्ट्र के प्रति कर्त्तव्य एवं
जागरूकता का चित्रण प्रेमराज शर्मा कृत ‘गाँधी
की आंधी’। देवीलाल सागर ने ‘बहादुर शाह’,
‘वाजिद अली शाह’, तथा ‘शेरशाह सूरी’ में
परिपूर्णानन्द वर्मा ने राष्ट्रीय एकता एवं संगठन
का संकेत किया है। भारतीय नारी द्वारा
राजनीतिक क्षेत्र में दिये गये सक्रिय सहयोग का
चित्रण भी इन एकांकीकारों ने किया है।
प्रसादोत्तर युग में ऐतिहासिक राजनीतिक एकांकी
की धारा तीव्रवेग से प्रवाहित हो रही थी। इस
युग के एकांकीकारों ने प्राचीन ऐतिहासिक पात्रों
के महान चरित्रों को समक्ष रख भारतीय
इतिहास का गौरवमय चित्र सामने रखा तथा
देशद्रोहियों को उनके दुष्कृत्यी पर धिक्कारा।
इसी धारा का पोषण स्वातंत्रयोत्तर युगीन
एकांकीकारों ने उन्मुक्त हृदय से किया है। इन
एकांकीकारों ने मुगलकाल से लेकर ब्रिटिश
काल तक के इतिहास को अपनी एकांकी
रचनाओं में प्रस्तुत किया है। भारतीय स्वतंत्रता
की लड़ाई का इतिहास प्रस्तुत कर आगामी पीढ़ी
के लिए एक अमूल्य धरोहर प्रदान की है। साथ
ही गाँधीवाद से प्रभावित एकांकीकारों ने गांधी
के सत्य, अहिंसा एवं मानवतावादी एवं शान्तिपूर्ण
अहिंसात्मक आन्दोलन की स्वतंत्रता के युद्ध की
पृष्ठभूमि में अभिव्यक्ति की है। श्री विनोद
रस्तोगी ने ‘पुरुष का पाप’, ‘पत्नी परित्याग’,
‘साम्राज्य और सोहाग’, ‘प्यार और प्यास’ आदि
एकांकियों में ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को आधार
बना आधुनिक समस्याओं पर प्रकाश डाला है।
देवीलाल सागर ने ‘वीर बल्लू’, ‘ओ नीला घोड़ा
वा असवार’, तथा ‘जीवन दान’, शीर्षक
ऐतिहासिक एकांकियों में प्राचीन राजपूती शौर्य,
मातृभूमि प्रेम, स्वातंत्रय प्रेम तथा त्याग का
सुन्दर चित्रण किया है। प्रो. जयनाथ नलिन ने
‘देश की मिट्टी’, ‘विद्रोही की गिरफ्रतारी’ आदि
एकांकियों में देश की स्वतंत्रता, देश हेतु किए
गए शौर्यपूर्ण बलिदान, देश सेवा तथा देश के
प्रति कर्त्तव्य का सन्देश दिया है। श्री
परिपूर्णानन्द वर्मा ने ‘वाजिद अली शाह’,
‘शेरशाह सूरी’ तथा ‘बहादुरशाह’ आदि में तीनों
मुगल बादशाहों के शासन-काल की सुन्दर
झांकी प्रस्तुत की है। प्रेमनारायण टंडन ने
‘अजात शत्रु’, ‘गान्धार पतन’, ‘संकल्प’, ‘माता’
की रचना ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर की है। विष्णु
प्रभाकर रचित ‘अशोक’ शीर्षक एकांकी जहाँ
हिंसा पर अहिंसा, असत्य पर सत्य तथा दानवता
पर मानवता की विजय को चित्रित करता है वहीं
ऐतिहासिक पात्र कलिंग कुमार के देशभक्तिपूर्ण
बलिदान, शौर्य, वीरता एवं दृढ़ता का भी सुन्दर
उदाहरण प्रस्तुत करता है। इस प्रकार ये
एकांकीकार ऐतिहासिक एकांकी प्रवृत्ति को आगे
बढ़ाने का कार्य कर रहे हैं।
स्वातन्त्रयोत्तर युगीन एकांकीकारों ने अपनी
रचनाओं में प्राचीन सांस्कृतिक, पौराणिक,
धार्मिक तथा नैतिक प्रसंगों की अभिव्यक्ति अपनी
एकांकी रचनाओं में नवीन विचारों तथा तर्क की
कसौटी पर नवीन ढंग से की है। प्रो. कैलासदेव
बृहस्पति ने अतीत भारत की सांस्कृतिक परम्परा
का पुनरुत्थान तथा उसके आदर्शमय अतीत
गौरव का चित्रांकन अपने पौराणिक तथा
ऐतिहासिक रूपकों में किया है। इसके ‘सागर
मंथन’, ‘विश्वामित्र’, ‘स्वर्ग में क्रान्ति’, आदि
महत्वपूर्ण रेडियो रूपक हैं जिनमें भारतीय
सांस्कृतिक गौरव का कलात्मक चित्रण किया
गया है। कणाद ऋषि भटनागर ने ‘आज का
ताजा अखबार’, में भारतीय संस्कृति की महत्ता
चित्रित की है। ओंकारनाथ दिनकर रचित
गणतंत्र की गंगा, अभिसारिका, सीताराम दीक्षित
रचित ‘रक्षाबन्धन’, देवीलाल सामर रचित ‘आत्मा
की खोज’, ‘ईश्वर की खोज’ आदि में पौराणिक
एवं धार्मिक कथानकों के आधार पर प्राचीन
भारतीय राजनैतिक, सांस्कृतिक मानवतावादी एवं
दार्शनिक आदर्शों की प्रतिष्ठा की है। इनमें से
कतिपय एकांकियों में गांधीवादी विचारधारा की
अभिव्यक्ति हुई है।
आलोच्य युगीन एकांकीकारों ने विभिन्न
वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक एवं राजनैतिक
समस्याओं का चित्रण हास्य व्यंग्य प्रधान शैली में
किया है। जैसे देवीलाल सामर ने ‘वल्लभ’,
‘तवायफ के घर बगावत’, ‘उपन्यास का
परिच्छेद’, ‘अमीर की बस्ती अछूत’ आदि में
आश्रयहीन तिरस्कृत विधवाओं, समाज के उनके
प्रति दुर्व्यवहार, छुआछूत, रूढ़ियों तथा परिवारों
में होने वाले छोटे-छोटे अत्याचारों पर व्यंग्य
किया है। प्रो. जयनाथ नलिन ने ‘संवेदना सदन’,
‘शान्ति सम्मेलन’, ‘वर निर्वाचन’, ‘नेता’, ‘मेल
मिलाप’ आदि व्यंग्य प्रधान एकांकी लिखे हैं।
लक्ष्मीनारायण लाल ने ‘गीत के बोल’, ‘मूर्ख’,
‘सरकारी नौकरी’, ‘कला का मूल्य’, ‘रिश्तेदार’
आदि भावना प्रधान कटु व्यंग्य मिश्रित एकांकियों
का सृजन किया है। कृष्ण किशोर श्रीवास्तव
रचित ‘मछली के आंसू’, जीवन का अनुवाद’,
‘आँख’, ‘बेवकूफ की रानी’ आदि में सामाजिक
यथार्थ चित्रण कर कटु व्यंग्यात्मक प्रहार किया
गया है। इसके अतिरिक्त राजाराम शास्त्री, श्री
चिरंजीत आदि को हास्य रस के छोटे-छोटे
व्यंग्यात्मक एकांकी लिखने में अच्छी सफलता
मिली है।
उपर्युक्त एकांकीकारों के अतिरिक्त स्वातंत्रयोत्तर
युग में अन्य अनेक प्रतिभा सम्पन्न एकांकीकार
भी उल्लेखनीय हैं जिन्होंने अपनी प्रतिभा का
परिचय देते हुए हिन्दी एकांकी को सम्पन्न एवं
समृद्ध बनाने में महत्त्वपूर्ण योग दिया है। कुछ
एकांकीकारों ने मनोविश्लेषण प्रधान एकांकियों
की रचना की जिनमें मानसिक कुण्ठाओं एवं
जटिल भावना-ग्रन्थियों का तार्किक विश्लेषण
प्रस्तुत किया। इस युग में विविध विषयों एवं
समस्याओं को लेकर बहुत बड़ी संख्या में
एकांकियों की रचना हुई।
संक्षिप्ततः, हिन्दी एकांकी का विकास क्रमशः
भारतेन्दु-युग, प्रसाद-युग, प्रसादोत्तर-युग तथा
स्वतंत्रयोत्तर-युग में सम्पन्न हुआ। भारतेन्दु युग
में जो एकांकी लिखे गये वे प्रायः नाटक का ही
लघु रूप थे। इस युग में एकांकी का स्वतंत्र
रूप नहीं मिलता। किन्तु प्रसाद-युग से प्रारम्भ
होकर स्वातंत्रयोत्तर काल तक इसका स्वतंत्र
स्वरूप निश्चित हुआ जो निश्चित रूप से प्रगति
युग कहा जा सकता है। ऐसे विकास-क्रम को
देखते हुए कहा जा सकता है कि निश्चय ही
हिन्दी एकांकी का भविष्य उज्ज्वल होगा।
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