एकांकी
हिन्दी एकांकी का उद्भव और विकास
पार्ट-1
आधुनिक हिन्दी साहित्य की जिन गद्यात्मक
विधाओं का विकास विगत एक शताब्दी में हुआ
है, उनमें एकांकी का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है।
किन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से, हिन्दी-साहित्य में
इसका उद्भव उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम
चतुर्थांश में माना जाता है। यदि इसके
संवादात्मक स्वरूप एवं एक नाट्य विधा के
अस्तित्व के परिप्रेक्ष्य में विचार किया जाय तो
इसके सूत्र हमें अत्यन्त प्राचीन समय से मिलने
लगते हैं।
आधुनिक एकांकी वैज्ञानिक युग की देन है।
विज्ञान के फलस्वरूप मानव के समय और शक्ति
की बचत हुई है। फिर भी जीवन संघर्ष में मानव
की दौड़-धूप अव्याहत जारी है। जीवन की
त्रस्तता और व्यस्तता के कारण आधुनिक मानव
के पास इतना समय नहीं है कि वह बड़े-बड़े
नाटकों, उपन्यासों, महाकाव्यों आदि का
सम्पूर्णतः रसास्वादन कर सके और इसलिए
गीत, कहानी, एकांकी आदि साहित्य के लघुरूपों
को अपनाया जा रहा है। किन्तु एकांकी की
लोकप्रियता का एकमात्र कारण समयाभाव ही
नहीं है। भोलानाथ तिवारी के शब्दों में ‘‘यह
नहीं कहा जा सकता कि चूंकि हमारे पास
बड़ी-बड़ी साहित्यिक रचनाओं को पढ़ने के लिए
समय नहीं है, इसलिए हम गीत, कहानी, एकांकी
आदि पढ़ते हैं। बात यह है कि हम जीवन की
महत्त्वपूर्ण घटनाओं और समस्याओं आदि को
क्रमबद्ध एवं समग्र रूप से भी अभिव्यक्त देखना
चाहते हैं और उन अभिव्यक्तियों का स्वागत
करते हैं मगर साथ ही साथ किसी एक
महत्त्वपूर्ण भावना, किसी एक उद्दीप्त क्षण, किसी
एक असाधारण एवं प्रभावशाली घटना या
घटनांश की अभिव्यक्ति का भी स्वागत करते हैं।
हम कभी अनगिन फूलों से सुसज्जित सलोनी
वाटिका पसन्द करते हैं और कभी भीनी सुगन्धि
देने वाली खिलने को तैयार नन्हीं सी कली का।
दोनों बातें हैं, दो रुचियाँ हैं, दो पृथक किन्तु
समान रूप से महत्त्वपूर्ण दृष्टिकोण हैं, समय के
अभाव या अधिकता की इसमें कोई बात नहीं।’’
इस प्रकार, समयाभाव के अतिरिक्त एकांकी की
लोकप्रियता के अन्य भी कई कारण हैं यथा देश
में सिनेमा के बढ़ते हुए प्रभाव के विरुद्ध हिन्दी
रंगमंच के उद्धार द्वारा जीवन और साहित्य में
सुरुचि का समावेश करना, रेडियो से हिन्दी
एकांकियों की मांग, केन्द्रीय सरकार के
शिक्षा-विभाग की ओर से आयोजित ‘यूथ
फेस्टीवल’ में एकांकी नाटक का भी प्रतियोगिता
का एक विषय होना, विश्वविद्यालयों में विशेष
अवसरों पर एकांकी नाटकों का अभिनय आदि।
इन सब कारणों के परिणामस्वरूप एकांकी
नाटक आज एक प्रमुख साहित्यिक विधा बन
गया है।
एकांकी ने नाटक से भिन्न अपना स्वतंत्र स्वरूप
प्रतिष्ठित कर लिया है। एकांकी बड़े नाटक की
अपेक्षा छोटा अवश्य होता है परन्तु वह उसका
संक्षिप्त रूप नहीं है। बड़े नाटक में जीवन की
विविधरूपता, अनेक पात्र, कथा का साँगोपांग
विस्तार, चरित्र-चित्रण की विविधता, कुतूहल की
अनिश्चित स्थिति, वर्णनात्मकता की अधिकता,
चरम सीमा तक विकास तथा घटना-विस्तार
आदि के कारण कथानक की गति मन्द होती है
जबकि एकांकी में, इसके विपरीत, जीवन की
एकरूपता, कथा में अनावश्यक विस्तार की
उपेक्षा, चरित्र-चित्रण की तीव्र और संक्षिप्त
रूप-रेखा, कुतूहल की स्थिति, प्रारम्भ से ही
व्यंजकता की अधिकता और प्रभावशीलता, चरम
सीमा तक निश्चित बिन्दु में केन्द्रीयकरण तथा
घटना-न्यूनता आदि के कारण कथानक की गति
क्षिप्र होती है। सद्गुरुशरण अवस्थी का कथन है
कि ‘‘जीवन की वास्तविकता के एक स्फुलिंग को
पकड़कर एकांकीकार उसे ऐसा प्रभावपूर्ण बना
देता है कि मानवता के समूचे भाव जगत् को
झनझना देने की शक्ति उसमें आ जाती है।’’
ऐतिहासिक दृष्टि से हिन्दी-एकांकी के
विकास-क्रम को निम्नलिखित प्रमुख
काल-खण्डों में विभाजित किया जा सकता है।
(१) भारतेन्दु-द्विवेदी युग (1875-1928)
(२) प्रसाद-युग (1929-37)
(३) प्रसादोत्तर-युग (1938-47)
(४) स्वातंत्रयोत्तर-युग (1948 से अब तक)
वास्तव में प्रारम्भिक एकांकी-प्रयोगों में भी
भटकती हुई नाट्य-दृष्टि ही प्रमुखता से
उभरकर सामने आई है किन्तु विकास की दृष्टि
से उन्हें नकारा नहीं जा सकता।
1 भारतेन्दु-द्विवेदी युग
हिन्दी का प्रथम एकांकी कौनसा है, इस बात में
विद्वानों में मतभेद है। कुछ विद्वान जयषंकर
प्रसाद के ‘एक घूंट’-1929, को प्रथम एकांकी
मानते हैं। जबकि कुछ लोग रामकुमार वर्मा के
‘बादल की मृत्यु‘-1930, को हिन्दी का प्रथम
एकांकी मानते हैं। जिस प्रकार भारतेन्दु हिन्दी
में अनेकांकी नाटकों के लिखने वालों में प्रथम
नाटककार माने जाते हैं। उसी प्रकार हिन्दी में
सबसे पहला एकांकी भी उन्होंने ही लिखा।
यद्यपि इस सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद अवश्य
है। फिर भी कुछ विद्वान भारतेन्दु-प्रणीत
‘प्रेमयोगिनी’ (1875 ई.) से हिन्दी एकांकी का
प्रारम्भ मानते हैं। आलोच्य युग में विषयगत
दृष्टिकोण को सामने रखकर सामाजिक,
राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक
प्रवृत्तियाँ उभरीं। समाज में प्रचलित प्राचीन
परम्पराओं, कुप्रथाओं एवं स्वस्थ सामाजिक
विकास में बाधक रीति-रिवाजों को दूर करने
का प्रयास उन सामाजिक समस्या-प्रधान
रचनाओं के माध्यम से किया गया। इन
एकांकीकारों ने जहाँ सामाजिक कुरीतियों पर
हास्य एवं व्यंग्यपूर्ण प्रहार किये वहीं सामाजिक
नवनिर्माण के लिए भी समाज को प्रेरित एवं
जाग्रत किया। इन रचनाओं के पात्र भारतीय
जन-जीवन के जीवित एवं सजीव पात्र हैं
जिनके संवादों द्वारा भारतीय भद्र जीवन में
प्रविष्ट पाखण्ड एवं व्यभिचार का भण्डाफोड़
होता है। इस दृष्टि से भारतेन्दु-रचित
‘भारत-दुर्दशा’, प्रतापनारायण मिश्र रचित ‘कलि
कौतुक रूपक’, श्री शरण-रचित ‘बाल-विवाह’,
किशोरीलाल गोस्वामी-रचित ‘चौपट चपेट’,
राधाचरण गोस्वामी-रचित ‘भारत में यवन लोक’,
‘बूढ़े मुंह मुहासे’ आदि महत्त्वपूर्ण रचनाएँ हैं
जिनमें धार्मिक पाखण्ड, सामाजिक रूढ़ियों एवं
कुरीतियों पर तीखे व्यंग्य किये गये हैं।
देवकीनन्दन रचित ‘कलियुगी उनेऊ’, ‘कलियुग
विवाह’, राधाकृष्णदास रचित ‘दुखिनी बाला’,
काशीनाथ खत्री रचित ‘बाल विधवा’ आदि
रचनाएं भारतीय नारी के त्रस्त विवाहित जीवन
का यथार्थ चित्रण हैं। सामाजिक भ्रष्टाचार का
चित्रण कातिक प्रसाद खत्री-रचित ‘रेल का
विकट खेल’ में मिलता है। जिसमें रेलवे विभाग
में रिश्वत लेने वालों का भण्डा-फोड़ किया गया
है। समाज सुधार की परम्परा के पोषक इन
एकांकीकारों के प्रयास के फलस्वरूप भारतीय
समाज का यथार्थ चित्रण समाज के समक्ष
उपस्थित हुआ तथा इन्हीं के द्वारा जन सामान्य
को नवीन एवं प्रगतिशील विचारों को ग्रहण
करने की प्रेरणा भी मिली। इन्हीं के प्रयासों का
परिणाम था कि भारतीय जनता समाज में
प्रचलित रूढ़ियों एवं परम्पराओं के प्रति घृणाभाव
से भर उठी तथा उनके उन्मूलन के लिए कृत
संकल्प हो गयी।
इस प्रकार भारतेन्दु युग नवचेतना और जागृति
का युग था। देशभक्ति और राष्ट्रीयता का उन्मेष
होने से इस काल के एकांकीकारों ने
जन-जागृति के विचारों को मुखरित करने वाले
नाटक लिखे। जिनमें भारत की तत्कालीन
दुर्दशा, पराधीनता पर क्षोभ, अतीत की स्मृति,
राष्ट्र में आत्म गौरव की भावना का जागरण,
राष्ट्रहित, आशा-निराशा का द्वन्द्व, उज्ज्वल
भविष्य आदि का चित्रण किया गया है। इस युग
में सामाजिक नवजागरण के साथ-साथ
राजनीतिक चेतना उत्पन्न करने का प्रयत्न भी
किया गया है। इस सम्बन्ध में भारतेन्दु-कृत
‘भारत दुर्दशा’ एवं ‘भारत-जननी’, राधाकृष्ण
गोस्वामी-कृत ‘भारत माता’ और ‘अमरसिंह
राठौर’, राधाकृष्ण दास-कृत ‘महारानी
पद्मावती’, रामकृष्ण वर्मा-कृत ‘पद्मावती’ ‘दीर
नारी’ आदि उल्लेखनीय हैं। भारतेन्दु-कालीन
एकांकियों की धार्मिक पौराणिक धाराके अन्तर्गत
वे एकांकी आते हैं, जिनमें धार्मिक कथानकों के
आधार पर भारतीय संस्कृति का आदर्श रूप
प्रस्तुत किया गया है। इस क्षेत्र में भारतेन्दु जी
के ‘सत्य हरिश्चन्द्र’ और ‘धनंजय’, लाला
श्रीनिवासदास का ‘प्रींद चरित्र’, बदरीनारायण
प्रेमघन का ‘प्रयाग राजा-गमन’, राधाचरण
गोस्वामी का ‘श्रीदामा’ और ‘सती चन्द्रवली’
बालकृष्ण भट्ट का ‘दमयन्ती स्वयंवर’, जैनेन्द्र
किशोर का ‘सोमावती’ अथवा ‘धर्मवती’, कार्तिक
प्रसाद का ‘ऊषाहरण’, ‘गंगोत्तरी’, ‘द्रोपदी चीर
हरण’ और ‘निस्सहाय हिन्दू’, मोहनलाल
विष्णुलाल पाण्डया का ‘प्रींद’, खड्गबहादुर मल्ल
का ‘हरतालिका’ आदि में धार्मिक कथानकों पर
आधारित पौराणिक एकांकियों के माध्यम से
सांस्कृतिक आदर्श प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया
गया।
आलोच्य युग में हास्यव्यंग्य-प्रधानएकांकी
सर्वाधिक लिखे गए जो प्रहसन की श्रेणी में आते
हैं। ये प्रहसन धार्मिक और सामाजिक दोनों
प्रकार के विषयों को अपने भीतर समेटे हुए हैं।
इन प्रहसनों पर पारसी रंगमंच का सर्वाधिक
प्रभाव है इसलिए उच्चकोटि का हास्य एवं व्यंग्य
इनमें नहीं मिलता। फिर भी सामाजिक क्षेत्र में
बाल-विवाह, अनमेल विवाह, वेश्यागमन, मद्यपान,
विलासप्रियता आदि पर व्यंग्य किया गया है और
धार्मिक क्षेत्र में धार्मिक संकीर्णता और उसकी
आड़ में किया पाखण्ड, पंडागिरी, कर्मकाण्ड,
ज्योतिषियों की धोखेबाजी आदि पर आक्षेप किए
गए हैं। इस प्रकार के एकांकियों में कमलाचरण
मिश्र का ‘अद्भुत नाटक’, श्री जगन्नाथ का ‘वर्ण
व्यवस्था’, माधोप्रसाद का ‘वैसाखनन्दन’,
घनश्यामदास का ‘वृद्धावस्था-विवाह’, दुर्गाप्रसाद
मिश्र का ‘प्रभात मिलन’, अम्बिकादत्त व्यास का
‘गौ-संकट’ और ‘मन की उमंग’, देवकीनन्दन
त्रिपाठी का ‘जय नरसिंह की’, ‘सैकड़ों में
दस-दस’, ‘कलयुगी जनेऊ’, ‘कलियुगी विवाह’,
‘एक एक के तीन तीन’, ‘बैल छः टके का’,
‘वेश्याविलास’ आदि, बालकृष्ण का ‘शिक्षादान’,
खघगबहादुर मल्ल का ‘भारत-आरत’ आदि
उल्लेखनीय हैं।
उपर्युक्त रचनाओं में से कुछ का उल्लेख नाटक
के अन्तर्गत भी किया जाता है। वास्तव में ये
एक अंक के नाटक ही हैं। एकांकी की परम्परा
में आते हुए भी इन्हें सभी दृष्टियों से पूर्ण
‘एकांकी’ नहीं कहा जा सकता। इनमें एकांकी
के कुछ तत्त्व अवश्य ढूँढ़े जा सकते हैं।
कुल मिलाकर विचार किया जाय तो ज्ञात होगा
कि उस काल के एकांकी-साहित्य को प्रेरित
करने वाली कई नाट्य शैलियाँ थीं।
(क) संस्कृत की नाट्य परम्परा
(ख) अंग्रेजी, बंगला, पारसी रंगमंच
(ग) लोक नाटक।
आलोच्य युग के सभी एकांकीकारों ने इन्हें
आत्मसात् किया। इस प्रकार इस युग में परम्परा
के प्रभाव की प्रधानता रही। नए-नए प्रयोग होते
रहे। इसलिए कला की सूक्ष्म दृष्टि इस काल के
एकांकीकारों में भले न हों, पर वे आधुनिक
एकांकियों के पूर्वगामी अवश्य हैं।
प्रसाद-युग
हिन्दी एकांकी के विकास की दृष्टि से द्वितीय
युग प्रसाद के युग से जाना जाता है। इस संदर्भ
में आधुनिक एकांकी-साहित्य की प्रथम मौलिक
कृति के रूप में प्रसाद के ‘एक घूँट’ का उल्लेख
किया जा सकता है। यह रचना सन् 1929 में
प्रकाशित हुई। यहीं से हम एकांकी के शिल्प में
महत्वपूर्ण परिवर्तन देखते हैं। रसोद्रेक के लिए
संगीत-व्यवस्था, संस्कृत नाट्य प्रणाली का
विदूषक, स्वगत कथन आदि प्राचीन परम्पराओं
के निर्वाह के साथ ही स्थल की एकता, पात्रों
का मनोवैज्ञानिक चरित्र-चित्रण, गतिशील
कथानक, आदि आधुनिक एकांकी की सभी
विशेषताएं ‘एक घूंट में’ मिलती है। अतः
भारतेन्दु ने यदि आधुनिक एकांकी की नींव
डाली है तो उसे पल्लवित और पुष्पित करने का
श्रेय प्रसाद जी को ही है।
वास्तव में आधुनिक ढंग से हिन्दी एकांकियों का
विकास प्रसाद-युग में ही हुआ। क्योंकि इस युग
में कुछ महत्त्वपूर्ण नवीन प्रयोग एकांकी क्षेत्र में
हुए। इस युग में एकांकीकारों ने पाश्चात्य
अनुकरण पर नवीन शैली में एकांकी लिखना
प्रारम्भ किया तथा पाश्चात्य टेकनीक को
अपनाया। स्पष्टतः इस युग में एकांकी नाटकों में
पाश्चात्य नाट्य सिद्धान्तों की प्रेरणा एवं प्रभाव
विद्यमान है। पाश्चात्य नाटककारों हैनरिक,
इब्सन, गाल्सवर्दी तथा बर्नार्ड शॉ आदि का
प्रभाव इस युग के एकांकियों पर प्रत्यक्ष रूप से
पड़ा तथा इससे एकांकी साहित्य को परिपक्वता
की स्थिति पर पहुंचने में सहायता मिली।
भारतेन्दु युग में जो एकांकी संस्कृत परिपाटी पर
विरंचित हुआ था, इस युग में आकर वह नवीन
रूपों में विकसित होने लगा। प्राचीनता का मोह
छोड़कर नवीन ढंग के एकांकी नाटक लिखे गये
जो कथानक की दृष्टि से मानव जीवन के
अत्यधिक निकट थे। प्राचीन कथावस्तु में जो
कृत्रिमता होती थी उसके स्थान पर सामाजिक,
पारिवारिक एवं दैनिक समस्याओं को एकांकी का
विषय बनाना प्रारम्भ किया गया। ये रचनाएं
समाजिक यथार्थ के निकट आयीं। प्राचीन कृत्रिम
प्रणाली, काव्यमय कथोपकथन, प्राचीन रंगमंच
एवं अस्वाभाविकता के बहिष्कार का स्वर इस
युग की रचनाओं में प्रमुखतया प्राप्त होता है।
नई समस्याएँ, विचारधारा एवं गद्यात्मक शिष्ट
भाषा का प्रयोग प्रारम्भ हुआ।
इस युग के अधिकांश एकांकी रंगमंच को दृष्टि
में रखकर लिखे गये जिससे उनका अभिनय हो
सके और प्रेक्षक अपना ज्ञानवर्धन कर सकें।
एकांकी में प्रयुक्त संवादों में सजीवता, संक्षिप्तता
एवं मार्मिकता की ओर ध्यान दिया गया। प्रहसन,
फेंटेसी, गीति-नाट्य, ओपेरा, संवाद या
सम्भाषण, रेडियो प्ले, झांकी तथा मोनोड्रामा
आदि एकांकी से नवीन रूपों का विकास इसी
युग में हुआ। युगीन सामाजिक, राजनैतिक एवं
धार्मिक पृष्ठभूमि का प्रभाव आलोच्य युगीन
एकांकीकारों की रचनाओं पर पड़ने के कारण
कतिपय प्रवृत्तियों का जन्म हुआ जिनमें
सामाजिक, राजनीतिक एवं ऐतिहासिक प्रवृत्तियां
प्रमुख हैं।
प्रसाद-युग में जिन सामाजिक एकांकियों की
रचना हुई उन पर युगीन सामाजिक पृश्ठभूमि
का प्रभाव स्पष्ट रूप से दृष्टिगत होता है। इस
युग के अनेक एकांकीकारों ने सामाजिक जीवन
की विभिन्न पक्षीय समस्याओं का चित्रण किया
है तथा उसमें प्रचलित विभिन्न जीर्ण-शीर्ण
रूढ़ियों को अपनी आलोचना का केन्द्र बनाया
है। बाल-विवाह, विधवा-पुनर्विवाह, जातीयता,
अस्पृश्यता की समस्या, मद्यपान, जुआ तथा
समाज में फैला व्यभिचार आदि समस्याएँ जिस
रूप में भारतेन्दु युग में परिव्याप्त थीं वह अभी
तक उसी रूप में बनी हुई थी। यद्यपि भारतेन्दु
युगीन एकांकीकारों ने भी इन पर प्रहार किया
था, किंतु इनका निवारण अथवा उन्मूलन सरल
नहीं था क्योंकि इनकी जड़ें समाज में बहुत
गहरी थीं। अतः प्रसाद युगीन एकांकीकारों ने भी
विषय-रूप में इन सामाजिक समस्याओं को
अपनी रचनाओं में चित्रित किया।
तत्कालीन समाज की नग्न विकृतियों का
चित्रणकरने वाले अनेक एकांकियों की रचना इस
युग में हुई। जीवानन्द शर्मा कृत ‘बाला का
विवाह’ सुधारवादी दृष्टिकोण को प्रकट करता
है। हरिकृष्ण शर्मा कृत ‘बुढ़ऊ का ब्याह’ वृद्ध
अनमेल विवाह एवं दहेज समस्या पर कुठाराघात
है। जी. पी. श्रीवास्तव रचित ‘गड़बड़झाला’ में
वृद्धों की अनियंत्रित काम वासना एवं समाज के
लोगों का भ्रष्टाचार चित्रित किया गया है।
रामसिंह वर्मा कृत ‘रेशमी रूमाल’ में पतिव्रत धर्म
की प्रतिष्ठा, शैक्षिक वृत्तियों एवं रोमांस की
त्रुटियों का चित्रण है। प्रेमचन्द कृत ‘प्रेम की
देवी में’ लेखक ने अन्तर्जातीय विवाह का
समर्थन प्रबल रूप में किया है। श्री बदरीनाथ
भट्ट कृत ‘विवाह विज्ञापन’ में आधुनिक शिक्षित
वर्ग की रोमांस वृत्ति पर व्यंग्यात्मक प्रहार है।
डॉ. सत्येन्द्र कृत ‘बलिदान’ में दहेज समस्या का
चित्रण है। जी. पी. श्रीवास्तव-कृत ‘भूलचूक’ से
विधवा विवाह समर्थन, ‘अच्छा उर्फ अक्ल की
मरम्मत’ में शिक्षित पति एवं अशिक्षित पत्नी के
मध्य उत्पन्न कटुता, ‘लकड़बग्घा’ में ऋण
समस्या आदि पर व्यंग्य किया गया है। इनके
अतिरिक्त ‘बंटाधार’, ‘दुमदार आदमी’, ‘कुर्सीमैन’,
‘पत्र पत्रिका सम्मेलन’, ‘न घर का न घाट का’,
‘चोर के घर मोर’ आदि रचनाओं में श्रीवास्तव
जी का दृष्टिकोण सुध ारवादी रहा है। श्रीवास्तव
जी का ‘अछूतोद्वार’ एकांकी अछूत समस्या पर
लिखा गया है। श्री चण्डीप्रसाद हृदयेश कृत
‘विनाश लीला’ में भारतीय नारी के जन्म से
अन्त तक के सामाजिक कष्टों का चित्रण है। पं.
हरिशंकर शर्मा कृत ‘बिरादरी विभ्राट’, ‘पाखण्ड
प्रदर्शन’, तथा ‘स्वर्ग की सीधी सड़क’ सामाजिक
छुआछूत तथा वर्ग वैषम्य की हानियों को चित्रित
करते हैं। श्री सुदर्शन कृत ‘जब आँखें खुलती
हैं’ में वेश्या का हृदय-परिवर्तन स्वाध ीनता
संग्राम के वातावरण में चित्रित किया गया है।
आलोच्य युग में श्री रामनरेश त्रिपाठी कृत
‘समानाधिकार’, ‘सीजन डल है’, ‘स्त्रियों की
काउन्सिल’, पांडेय बेचन शर्मा उग्र-कृत ‘चार
बेचारे’, बेचारा सम्पादक’, बेचारा सुधारक’, श्री
रामदास-कृत ‘नाक में दम’, ‘जोरू का गुलाम’,
‘करेन्सी नोट’, ‘लबड़ धौं धौं’ आदि एकांकियों
को भी विशेष ख्याति प्राप्त हुई है।
भारतेन्दु युग में जिस राजनीतिक एकांकी की
प्रवृत्ति का उदय हुआ था वह प्रसाद-युग में
आकर और अधिक गतिशील हो गई। इस युग
में राष्ट्रीयता का स्वर सर्वाधिक मुखरित हुआ है।
राजनीतिक भावना से प्रभावित होकर
एकांकीकारों ने अपनी रचनाओं से
स्वतंत्रता-आन्दोलन, विदेशी शासन के प्रति
आक्रोश एवं घृणा तथा स्वतंत्रता की भावनाओं
का स्वर मुखरित किया है। इस संदर्भ में मंगल
प्रसाद विश्वकर्मा कृत ‘शेरसिंह’, सुदर्शन कृत
‘प्रताप प्रतिज्ञा’, ‘राजपूत की हार’, तथा ‘जब
आंखें खुलती हैं’ आदि राष्ट्रीय भावना से
ओतप्रोत एकांकी रचनाएं हैं। श्री ब्रजलाल
शास्त्री रचित ‘दुर्गावती’ में विद्रोह एवं स्वातंत्रय
भावना की प्रधानता है। ‘पन्ना धाय’ में
स्वामिभक्ति एवं अपूर्व बलिदान का चित्रण है।
बदरीनाथ भट्ट कृत ‘बापू का स्वर्ग समारोह’ में
राष्ट्रपिता बापू के अपूर्व त्याग एवं बलिदान युक्त
चरित्र का उद्घाटन किया गया है। श्री वृन्दावन
लाल वर्मा रचित ‘दुरंगी’ में भारतीय नारियों को
देश प्रेम की भावना जाग्रत करने में रत दिखाया
गया है। रामनरेश त्रिपाठी रचित ‘सीजन डल है’
में विदेशी बहिष्कार एवं स्वदेश की भावना का
चित्रण है। सेठ गोविन्द दास के ‘अपरिग्रह की
पराकाष्ठा’ में गांधीवाद के अपरिग्रह के सिद्धान्त
का चित्रण है। इस प्रकार हम देखते हैं कि
प्रसाद युग में विभिन्न राजनीतिक दृष्टिकोणों को
लेकर एकांकियों की रचना हुई। उन्होंने प्राचीन
भारतीय राष्ट्रीय गौरव की स्थापना करते हुए
भविष्य में उसकी प्राप्ति की ओर संकेत किया
है। भारत भूमि की स्वतंत्रता राष्ट्र-प्रेम, राष्ट्र
भक्ति की भावधारा का भारतीय मानव के
अन्तःकरण में उद्रेक करना इनका उद्देश्य रहा
है। चूंकि ये एकांकीकार स्वयं देशप्रेम की भावना
से आपूरित थे। अतः उसके चित्रण में
स्वाभाविकता एवं प्रभावोत्पादकता का प्राधान्य
रहा है। इनकी रचनाओं का परिणाम यह हुआ
कि पूर्व प्रसाद-युग में अंकुरित राष्ट्र-प्रेम की
भावना इस युग के एकांकीकारों के विचारों की
खाद प्राप्त करके भारतीय जनता के हृदय में
अधिक पुष्पित एवं पुल्लवित हो उठी।
प्रसाद-युगीन एकांकीकारों ने अनेक ऐतिहासिक
एकांकियों की रचना करके प्राचीन भारतीय
गौरव एवं अतीत के स्वरूप का स्मरण भारतीय
जनता को कराया। यद्यपि विदेशी सरकार का
भय होने के कारण ये भावना प्रत्यक्ष रूप से
प्रगट न हुई किन्तु इसमें निरन्तर विकास के
चिन्ह अंकित होते चले गये। जैसे-जैसे स्वतंत्रता
आन्दोलनों में तीव्रता आई, त्यों-त्यों उनका स्वर
एकांकियों में अधिकाधिक मुखरित होने लगा।
इन एकांकीकारों ने भारतीय नारी के पतिव्रत
धर्म के महान आदर्श, उनकी त्याग एवं
बलिदानमयी भावना अपने राष्ट्र के हित के लिए
सर्वस्व त्याग की भावना, राष्ट्रहित के लिए प्राणों
की वलि चढ़ाना, कर्त्तव्यों के प्रति जागरूकता
आदि सद्गुणों का चित्रण अपनी कृतियों में
किया है।
मंगलाप्रसाद विश्वकर्मा कृत ‘शेरसिंह’ में
राष्ट्रीयता, स्वातंत्रय प्रेम तथा भारतीय अतीत के
गौरवशाली स्वरूप की प्रतिष्ठा है। श्री आनन्दी
प्रसाद श्रीवास्तव कृत ‘नूरजहां’, ‘चाणक्य और
चन्द्रगुप्त’, ‘शिवाजी और भारत राजलक्ष्मी’
ऐतिहासिक कृतियाँ हैं। श्री ब्रजलाल शास्त्री
रचित ‘दुर्गावती’, ‘पप्रिनी’, ‘पन्ना’, ‘तारा’, ‘किरण
देवी’, आदि ऐतिहासिक आदर्शवाद से प्रभावित
अतीत गौरव को स्पष्ट करने वाली रचनाएं हैं।
श्री सुदर्शनकृत ‘राजपूत की हार’, ‘प्रताप
प्रतिज्ञा’, आदि में राजपूती शौर्य, राजपूती स्त्रियों
का स्वदेश हित हेतु कर्त्तव्य का पालन एवं देश
प्रेम की भावना का प्रभावपूर्ण वर्णन हुआ है। सेठ
गोविन्ददास ने तो बहुत बड़ी संख्या में
ऐतिहासिक एकांकियों की रचना की है, जिनमें
‘बुद्ध के सच्चे स्नेही कौन’? ‘बुद्ध की एक
शिष्या’, ‘सहित या रहित’, ‘अपरिग्रह की
पराकाष्ठा’, ‘चौतन्य का संन्यास’, ‘सूखे संतरे’
आदि ऐतिहासिक धारा के अन्तर्गत आते हैं।
इनमें प्राचीन भारतीय गौरव एवं संस्कृति की
प्रतिष्ठा, आचार-विचार का प्रतिपादन सेठ जी
का प्रमुख उद्देश्य रहा है। गोविन्द वल्लभ पंत के
‘विष कन्या’, ‘भस्म रेखा’, ‘एकाग्रता की परीक्षा’
आदि ऐतिहासिक कथावस्तु पर आधारित हैं।
इस प्रकार प्रसाद युग में अनेक ऐतिहासिक
एकांकियों की रचना हुई जिनके माध्यम से
भारत के अतीतमय गौरव एवं संस्कृति पर
दृष्टिपात किया गया।
प्रसाद-युगीन कुछ एकांकीकारों ने धार्मिक
पौराणिकक्षेत्र में भी प्रवेश किया है। प्रसाद-युग
के धार्मिक एकांकी अपने पूर्व युग में विरचित
एकांकी नाटकों से भिन्न थे। भारतेन्दु-युग में
इनका विषय प्रधान रूप से राम तथा कृष्ण की
कथाओं से ही सम्बद्ध रहा। प्रसाद युग में अन्य
पौराणिक कथाओं को भी महत्त्व दिया गया
क्योंकि सामाजिक सुधार की प्रवृत्ति का प्राधान्य
होने के कारण धार्मिक एकांकियों से जनता
सन्तुष्ट नहीं होती थी। जनता की धार्मिक
अश्रद्धा का कारण धार्मिक भ्रष्टाचारों का प्रधान्य
एवं वास्तविक धर्म के स्वरूप का लोप होना था।
अतः वह धार्मिक क्षेत्र में सुधार परमावश्यक
समझती थी। अतः कुछ धार्मिक कथाओं को
आधार रूप में ग्रहण कर भारत के प्राचीन
धार्मिक आदर्शों को प्रस्तुत करना इस युग के
कलाकारों को युक्ति संगत प्रतीत हुआ। धार्मिक
पौराणिक एकांकी धारा को प्रवाहित करने में
राधेश्याम कथावाचक कृत ‘कृष्ण-सुदामा’,
‘शान्ति के दूत भगवान’, ‘सेवक के रूप में
भगवान कृष्ण’, जयदेव शर्मा रचित ‘न्याय और
अन्याय’, जयशंकर प्रसाद कृत ‘सज्जन’ और
‘करुणालय’ आनन्दी प्रसाद-कृत ‘पार्वती और
सीता’, चतुरसेन शास्त्री कृत ‘सीताराम’,
‘राधा-कृष्ण’, ‘हरिश्चन्द्र शैव्या’, आदि के नाम
उल्लेखनीय हैं। इस प्रकार प्रसाद-युग में कुछ
एकांकीकारों ने धार्मिक पौराणिक एकांकी की
प्रवृत्ति को आगे बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण योग दिया।
भारतेन्दु-युग में जिस हास्य-व्यंग्य-प्रधान धारा
को सामाजिक सुधार-हेतु माध्यम के रूप में
स्वीकार किया गया था उसका निर्वाह
प्रसाद-युग में भी दृष्टिगोचर होता है। इन
एकांकीकारों ने समाज में प्रचलित अनेक
जीर्ण-शीर्ण रूढ़ियों, कुप्रथाओं एवं परम्पराओं
पर व्यंग्य किये हैं। उनका लक्ष्य सामाजिक,
धार्मिक एवं राजनीतिक सुधार ही अधिक रहा
है। श्री बद्रीनाथ भट्ट रचित ‘चुंगी की उम्मेदवारी’
में चुनाव की प्रणाली पर व्यंग्य किया गया है।
श्री जी. पी. श्रीवास्तव रचित ‘दुमदार आदमी’,
‘पत्र-पत्रिका सम्मेलन’, ‘अच्छा उपर्फ अक्ल की
मरम्मत’, ‘न घर का न घाट का’, ‘गड़बड़झाला’,
‘लकड़बग्घा’, ‘घर का मनेजर’ आदि हास्य व्यंग्य
प्रधान एकांकी हैं जिनमें विभिन्न धार्मिक एवं
सामाजिक कुरीतियों व रूढ़ियों पर व्यंग्यात्मक
प्रहार किये गये हैं। इन रचनाओं में लेखक ने
दहेज समस्या, विवाह समस्या तथा सामाजिक
विरूपताओं एवं मिथ्या प्रदर्शन की भावना पर
सुन्दर व्यंग्य किया है। इसी सन्दर्भ में
द्वारिकाप्रसाद गुप्त रचित ‘बशर्ते कि’ बद्रीनाथ
रचित ‘लबड़ धौं-धौं’, ‘पुराने हकीम का नया
नौकर’, ‘मिस अमेरिकन’, ‘रेगड़ समाचार के
एडीटर की धूल दच्छना’ आदि हास्य व्यंग्य
प्रधान रचनाएं हैं जिनमें मध्यम तथा अल्प
शिक्षित वर्ग की समस्याओं का चित्रण किया गया
है। भट्ट जी का यह हास्य शिष्ट एवं सुरुचिपूर्ण
बन पड़ा है। श्री रामचन्द्र रघुनाथ रचित
‘पाठशाला का एक दृष्य’, ‘सभी हा: हा’, ‘मदद
मदद’, ‘यमराज का क्रोध’, रूप नारायण पांडेय
रचित ‘समालोचना रहस्य’, गरीबदास कृत ‘मियाँ
की जूती मियां के सिर’, मुकन्दीलाल श्रीवास्तव
कृत ‘घर का सुख कहीं नहीं है’, श्री गोविन्द
वल्लभ पंत रचित ‘140 डिग्री.’, ‘काला जादू’,
पांडेय बेचन शर्मा उग्र कृत ‘चार बेचारे’, ‘बेचारा
अध्यापक’, ‘बेचारा सुध ारक’, सेठ गोविन्ददास
कृत ‘हंगर स्ट्राइक’, ‘उठाओ खाओ खाना अथवा
बफेडिनर’, ‘वह मेरा क्यों?’ आदि रचनाएं इसी
श्रेणी के अन्तर्गत आती हैं।
इस प्रकार स्पष्ट है कि प्रसाद-युग में भी
विभिन्न एकांकीकारों ने विविध क्षेत्रीय समस्याओं
एवं परिस्थितियों के उद्घाटन हेतु हास्य व्यंग्य
को महत्व दिया तथा उसका सफलतापूर्वक
प्रयोग भी किया। प्रसाद-युग के उपर्युक्त
प्रतिभाशाली एकांकीकारों के अतिरिक्त अन्य
अनेक एकांकीकार भी हुए जिन्होंने एकांकी के
क्षेत्र में अपनी रचनात्मक प्रतिभा का परिचय
दिया है। अनेक एकांकीकारों ने अन्य भाषाओं में
लिखित एकांकियों का हिन्दी अनुवाद भी प्रस्तुत
किया। यद्यपि इस युग में आधुनिक युग की
अपेक्षा विकास नगण्य कहा जाता है किन्तु इसमें
संदेह नहीं कि प्रसाद-युग में आकर नाट्यकला
विषयक मान्यताओं में क्रांतिकारी परिवर्तन हुए।
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि इस युग
ने आगामी एकांकीकारों को एक पुष्ट आधारभूमि
प्रदान की जिसमें आधुनिक एकांकी साहित्य और
भी स्वतंत्र रूप से विकसित हुआ।
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