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Tuesday, February 15, 2022

आधुनिक काल-हिंदी साहित्य का इतिहास-पार्ट-7

आधुनिक काल-हिंदी साहित्य का इतिहास-पार्ट-7



 

अव्यय -अर्थ, परिभाषा, भेद, उदाहरण

 अव्यय 



अव्यय का शाब्दिक अर्थ होता है - जिन शब्दों 

के रूप में लिंग, वचन, पुरुष, कारक, काल आदि 

की वजह से कोई परिवर्तन नहीं होता उसे 

अव्यय शब्द कहते हैं। अव्यय शब्द हर स्थिति में 

अपने मूल रूप में रहते हैं। इन शब्दों को 

अविकारी शब्द भी कहा जाता है।

जैसे - जब, तब, अभी, अगर, वह, वहाँ, यहाँ, 

इधर, उधर, किन्तु, परन्तु, बल्कि, इसलिए,

अतएव, अवश्य, तेज, कल, धीरे, लेकिन, चूँकि,

क्योंकि आदि।

अव्यय के भेद -

1. क्रिया-विशेषण अव्यय

2. संबंधबोधक अव्यय

3. समुच्चयबोधक अव्यय

4. विस्मयादिबोधक अव्यय

5. निपात अव्यय

1. क्रिया-विशेषण अव्यय

जिन शब्दों से क्रिया की विशेषता का पता 

चलता है उसे क्रिया -विशेषण कहते हैं। जहाँ 

पर यहाँ, तेज, अब, रात, धीरे-धीरे, प्रतिदिन, 

सुंदर, वहाँ, तक, जल्दी, अभी, बहुत आते हैं 

वहाँ पर क्रियाविशेषण अव्यय होता है।

जैसे - (1) वह यहाँ से चला गया।

(2) घोड़ा तेज दौड़ता है।

(3) अब पढ़ना बंद करो।

(4) बच्चे धीरे-धीरे चल रहे थे।

(5) वे लोग रात को पहुँचे।

(6) सुधा प्रतिदिन पढ़ती है।

(7) वह यहाँ आता है।

(8) रमेश प्रतिदिन पढ़ता है।

(9) सुमन सुंदर लिखती है।

(10) मैं बहुत थक गया हूं।

क्रिया -विशेषण अव्यय के भेद 

1. कालवाचक क्रियाविशेषण अव्यय

2. स्थानवाचक क्रियाविशेषण अव्यय

3. परिमाणवाचक क्रियाविशेषण अव्यय

4. रीतिवाचक क्रियाविशेषण अव्यय


1. कालवाचक क्रियाविशेषण अव्यय - जिन 

अव्यय शब्दों से कार्य के व्यापार के होने का 

पता चले उसे कालवाचक क्रियाविशेषण अव्यय 

कहते हैं।

जहाँ पर आजकल , अभी , तुरंत , रातभर , 

दिन , भर , हर बार , कई बार , नित्य , कब , 

यदा , कदा , जब , तब , हमेशा , तभी , 

तत्काल , निरंतर , शीघ्र पूर्व , बाद , पीछे , 

घड़ी-घड़ी , अब , तत्पश्चात , तदनन्तर , कल 

, फिर , कभी , प्रतिदिन , दिनभर , आज , 

परसों , सायं , पहले , सदा , लगातार आदि 

आते है वहाँ पर कालवाचक क्रियाविशेषण अव्यय 

होता है।

जैसे - वह नित्य टहलता है।

वे कब गए।

सीता कल जाएगी।

वह प्रतिदिन पढ़ता है।

दिन भर वर्षा होती है।

कृष्ण कल जायेगा।

2. स्थान क्रियाविशेषण अव्यय - जिन अव्यय 

शब्दों से कार्य के व्यापार के होने के स्थान का 

पता चले उन्हें स्थानवाचक क्रियाविशेषण अव्यय 

कहते हैं।

जहाँ पर यहाँ , वहाँ , भीतर , बाहर , इधर , 

उधर , दाएँ , बाएँ , कहाँ , किधर , जहाँ , 

पास , दूर , अन्यत्र , इस ओर , उस ओर , 

ऊपर , नीचे , सामने , आगे , पीछे , आमने 

आते है वहाँ पर स्थानवाचक क्रियाविशेषण 

अव्यय होता है।

जैसे - मैं कहाँ जाऊं ?

तारा किधर गई ?

सुनील नीचे बैठा है।

इधर -उधर मत देखो।

वह आगे चला गया।

उधर मत जाओ।

3. परिमाणवाचक क्रियाविशेषण अव्यय - जिन 

अव्यय शब्दों से कार्य के व्यापार के परिणाम का 

पता चलता है उसे परिमाणवाचक क्रियाविशेषण 

अव्यय कहते हैं। जिन अव्यय शब्दों से 

नाप-तोल का पता चलता है।

जहाँ पर थोडा, काफी, ठीक, ठाक, बहुत, कम, 

अत्यंत, अतिशय, बहुधा, थोडा -थोडा, अधिक, 

अल्प, कुछ, पर्याप्त, प्रभूत, न्यून, बूंद-बूंद, स्वल्प, 

केवल, प्रायः, अनुमानतः, सर्वथा, उतना, जितना, 

खूब, तेज, अति, जरा, कितना, बड़ा, भारी, 

अत्यंत, लगभग, बस, इतना, क्रमशः आदि आते 

हैं वहाँ पर परिमाणवाचक क्रियाविशेषण अव्यय 

कहते हैं।


जैसे - मैं बहुत घबरा रहा हूँ।

वह अतिशय व्यथित होने पर भी मौन है।

उतना बोलो जितना जरूरी हो।

रमेश खूब पढ़ता है।

गाड़ी तेज चल रही है।

सविता बहुत बोलती है।

कम खाओ।

4. रीतिवाचक क्रियाविशेषण अव्यय - जिन 

अव्यय शब्दों से कार्य के व्यापार की रीति या 

विधि का पता चलता है उन्हें रीतिवाचक 

क्रियाविशेषण अव्यय कहते हैं।

जहाँ पर ऐसे, वैसे, अचानक, इसलिए, कदाचित, 

यथासंभव, सहज, धीरे, सहसा, एकाएक, झटपट, 

आप ही, ध्यानपूर्वक, धडाधड, यथा, ठीक, 

सचमुच, अवश्य, वास्तव में, निस्संदेह, बेशक, 

शायद , संभव है , हाँ , सच , जरुर , जी , 

अतएव , क्योंकि , नहीं , न , मत , कभी नहीं , 

कदापि नहीं , फटाफट , शीघ्रता , भली-भांति , 

ऐसे , तेज , कैसे , ज्यों , त्यों आदि आते हैं 

वहाँ पर रीतिवाचक क्रियाविशेषण अव्यय कहते 

हैं।

जैसे - जरा, सहज एवं धीरे चलिए।

हमारे सामने शेर अचानक आ गया।

कपिल ने अपना कार्य फटाफट कर दिया।

मोहन शीघ्रता से चला गया।

वह पैदल चलता है।

2. संबंधबोधक अव्यय - जिन अव्यय शब्दों के 

कारण संज्ञा के बाद आने पर दूसरे शब्दों से 

उसका संबंध बताते हैं उन शब्दों को 

संबंधबोधक शब्द कहते हैं। ये शब्द संज्ञा से 

पहले भी आ जाते हैं।

जहाँ पर बाद , भर , के ऊपर , की और , 

कारण , ऊपर , नीचे , बाहर , भीतर , बिना , 

सहित , पीछे , से पहले , से लेकर , तक , के 

अनुसार , की खातिर , के लिए आते हैं वहाँ पर 

संबंधबोधक अव्यय होता है।

जैसे -  मैं विद्यालय तक गया।

स्कूल के समीप मैदान है।

धन के बिना व्यवसाय चलाना कठिन है।

सुशील के भरोसे यह काम बिगड़ गया।

मैं पूजा से पहले स्नान करता हूँ।

मैंने घर के सामने कुछ पेड़ लगाये हैं।

उसका साथ छोड़ दीजिये।

छत पर कबूतर बैठा है।

राम भोजन के बाद जायेगा।

मोहन दिन भर खेलता है।

छत के ऊपर राम खड़ा है।

रमेश घर के बाहर पुस्तक रख रहा था।

पाठशाला के पास मेरा घर है।

विद्या के बिना मनुष्य पशु है।

प्रयोग की पुष्टि से संबंधबोधक अव्यय के भेद-

1. सविभक्तिक

2. निर्विभक्तिक

3. उभय विभक्ति


1. सविभक्तिक - जो अव्यय शब्द विभक्ति के 

साथ संज्ञा या सर्वनाम के बाद लगते हैं उन्हें 

सविभक्तिक कहते हैं। जहाँ पर आगे , पीछे , 

समीप , दूर , ओर , पहले आते हैं वहाँ पर 

सविभक्तिक होता है।

जैसे - घर के आगे स्कूल है।

उत्तर की ओर पर्वत हैं।

लक्ष्मण ने पहले किसी से युद्ध नहीं किया था।

2. निर्विभक्तिक - जो शब्द विभक्ति के बिना 

संज्ञा के बाद प्रयोग होते हैं उन्हें निर्विभक्तिक 

कहते हैं। जहाँ पर भर , तक , समेत , पर्यन्त 

आते हैं वहाँ पर निर्विभक्तिक होता है।

जैसे - वह रात तक लौट आया।

वह जीवन पर्यन्त ब्रह्मचारी रहा।

वह बाल बच्चों समेत यहाँ आया।

3. उभय विभक्ति- जो अव्यय शब्द विभक्ति रहित 

और विभक्ति सहित दोनों प्रकार से आते हैं उन्हें 

उभय विभक्ति कहते हैं। जहाँ पर द्वारा , रहित , 

बिना , अनुसार आते हैं वहाँ पर उभय विभक्ति 

होता है।

जैसे -  पत्रों के द्वारा संदेश भेजे जाते हैं।

रीति के अनुसार काम होना है।

3. समुच्चयबोधक अव्यय - जो शब्द दो शब्दों , 

वाक्यों और वाक्यांशों को जोड़ते हैं उन्हें 

समुच्चयबोधक अव्यय कहते हैं। इन्हें योजक भी 

कहा जाता है। ये शब्द दो वाक्यों को परस्पर 

जोड़ते हैं।

जहाँ पर और , तथा , लेकिन , मगर , व , 

किन्तु , परन्तु , इसलिए , इस कारण , अतरू , 

क्योंकि , ताकि , या , अथवा , चाहे , यदि , 

कि , मानो , आदि , यानि , तथापि आते हैं 

वहाँ पर समुच्चयबोधक अव्यय होता है।

जैसे - सूरज निकला और पक्षी बोलने लगे।

छुट्टी हुई और बच्चे भागने लगे।

किरन और मधु पढने चली गईं।

मंजुला पढने में तो तेज है परन्तु शरीर से 

कमजोर है।

तुम जाओगे कि मैं जाऊं।

माता जी और पिताजी।

मैं पटना आना चाहता था लेकिन आ न सका।

तुम जाओगे या वह आयेगा।

सुनील निकम्मा है इसलिए सब उससे घृणा 

करते हैं।

गीता गाती है और मीरा नाचती है।

यदि तुम मेहनत करते तो अवश्य सफल होगे।


समुच्चयबोधक अव्यय के भेद-

1. समानाधिकरण समुच्चयबोधक अव्यय

2. व्यधिकरण समुच्चयबोधक अव्यय

1. समानाधिकरण समुच्चयबोधक अव्यय- जिन 

शब्दों से समान अधिकार के अंशों के जुड़ने का 

पता चलता है उन्हें समानाधिकरण 

समुच्चयबोधक अव्यय कहते हैं।

जहाँ पर किन्तु , और , या , अथवा , तथा , 

परन्तु , व , लेकिन , इसलिए , अतरू , एवं 

आते है वहाँ पर समानाधिकरण समुच्चयबोधक 

अव्यय होता है।

जैसे-कविता और गीता एक कक्षा में पढ़ते हैं।

मैं और मेरी पुत्री एवं मेरे साथी सभी साथ थे।

2. व्यधिकरण समुच्चयबोधक अव्यय - जिन 

अव्यय शब्दों में एक शब्द को मुख्य माना जाता 

है और एक को गौण। गौण वाक्य मुख्य वाक्य 

को एक या अधिक उपवाक्यों को जोड़ने का 

काम करता है। जहाँ पर चूँकि , इसलिए , 

यद्यपि , तथापि , कि , मानो , क्योंकि , यहाँ , 

तक कि , जिससे कि , ताकि , यदि , तो , 

यानि आते हैं वहाँ पर व्यधिकरण समुच्चयबोधक 

अव्यय होता है।

जैसे - मोहन बीमार है इसलिए वह आज नहीं 

आएगा।

यदि तुम अपनी भलाई चाहते हो तो यहाँ से 

चले जाओ।

मैंने दिन में ही अपना काम पूरा कर लिया ताकि 

मैं शाम को जागरण में जा सकूं।

4. विस्मयादिबोधक अव्यय - जिन अव्यय शब्दों 

से हर्ष , शोक , विस्मय , ग्लानी , लज्जा , 

घृणा, दुःख , आश्चर्य आदि के भाव का पता 

चलता है उन्हें विस्मयादिबोधक अव्यय कहते हैं। 

इनका संबंध किसी पद से नहीं होता है। इसे 

घोतक भी कहा जाता है। विस्मयादिबोधक 

अव्यय में (!) चिन्ह लगाया जाता है।

जैसे -  वाह! क्या बात है।

हाय! वह चल बसा।

आह! क्या स्वाद है।

अरे! तुम यहाँ कैसे।

छिः छिः! यह गंदगी।

वाह! वाह! तुमने तो कमाल कर दिया।

अहो! क्या बात है।

अहा! क्या मौसम है।

अरे! आप आ गये।

हाय! अब मैं क्या करूँ।

अरे! पीछे हो जाओ, गिर जाओगे।

हाय! राम यह क्या हो गया।

भाव के आधार पर विस्मयादिबोधक अव्यय के 

भेद-

(1) हर्षबोधक

(2) शोकबोधक

(3) विस्मयादिबोधक

(4) तिरस्कारबोधक

(5) स्वीकृतिबोधक

(6) संबोधनबोधक

(7) आशिर्वादबोधक


(1) हर्षबोधक- जहाँ पर अहा! , धन्य! , 

वाह-वाह! , ओह! , वाह! , शाबाश! आते हैं 

वहाँ पर हर्षबोधक होता है।

(2) शोकबोधक - जहाँ पर आह! , हाय! , 

हाय-हाय! , हा, त्राहि-त्राहि! , बाप रे! आते हैं 

वहाँ पर शोकबोधक आता है।

(3) विस्मयादिबोधक- जहाँ पर हैं! , ऐं!, ओहो!, 

अरे वाह! आते हैं वहाँ पर विस्मयादिबोधक होता 

है।

(4) तिरस्कारबोधक- जहाँ पर छिः! , हट! , 

धिक्! , धत! , छिःछिः! , चुप! आते हैं वहाँ पर 

तिरस्कारबोधक होता है।

(5) स्वीकृतिबोधक- जहाँ पर हाँ-हाँ! , अच्छा!, 

ठीक! , जी हाँ! , बहुत अच्छा! आते हैं वहाँ पर 

स्वीकृतिबोधक होता है।

(6) संबोधनबोधक - जहाँ पर रे! , री! , अरे! , 

अरी! , ओ! , अजी! , हैलो! आते हैं वहाँ पर 

संबोधनबोधक होता है।

(7) आशीर्वादबोधक- जहाँ पर दीर्घायु हो! , 

जीते रहो! आते हैं वहाँ पर आशिर्वादबोधक 

होता है।

5. निपात अव्यय - जो वाक्य में नवीनता या 

चमत्कार उत्पन्न करते हैं उन्हें निपात अव्यय 

कहते हैं। जो अव्यय शब्द किसी शब्द या पद 

के पीछे लगकर उसके अर्थ में विशेष बल लाते 

हैं उन्हें निपात अव्यय कहते हैं। इसे अवधारक 

शब्द भी कहते हैं। जहाँ पर ही , भी , तो , 

तक ,मात्र , भर , मत , सा , जी , केवल आते 

हैं वहाँ पर निपात अव्यय होता है।

जैसे- प्रशांत को ही करना होगा यह काम।

सुहाना भी जाएगी।

तुम तो सनम डूबोगे ही, सब को डुबाओगे।

वह तुमसे बोली तक नहीं।

पढाई मात्र से ही सब कुछ नहीं मिल जाता।

तुम उसे जानते भर हो।

राम ने ही रावण को मारा था।

रमेश भी दिल्ली जाएगा।

तुम तो कल जयपुर जाने वाले थे।

राम ही लिख रहा है।


क्रिया -विशेषण और संबंधबोधक अव्यय में 

अंतर -

जब अव्यय शब्दों का प्रयोग संज्ञा या सर्वनाम के 

साथ किया जाता है तब ये संबंधबोधक होते हैं 

और जब अव्यय शब्द क्रिया की विशेषता प्रकट 

करते हैं तब ये क्रिया -विशेषण होते हैं।

जैसे - बाहर जाओ।

घर से बाहर जाओ।

उनके सामने बैठो।

मोहन भीतर है।

घर के भीतर सुरेश है।

बाहर चले जाओ।


अनेकार्थी शब्द

 अनेकार्थी शब्द



ऐसे शब्द, जिनके अनेक अर्थ होते है, अनेकार्थी 

शब्द कहलाते हैं।

दूसरे शब्दों में- जिन शब्दों के एक से अधिक 

अर्थ होते हैं, उन्हें अनेकार्थी शब्द कहते हैं।

अनेकार्थी का अर्थ है- एक से अधिक अर्थ देने 

वाला।

भाषा में कुछ ऐसे शब्दों का प्रयोग होता है, जो 

अनेकार्थी होते हैं। खासकर यमक और श्लेष 

अलंकारों में इसके अधिकाधिक प्रयोग देखे जाते 

हैं। नीचे लिखे उदाहरणों को देखें-

‘‘करका मनका डारि दैं मन का मनका फेर।’’ 

(कबीरदास)

‘‘रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून।

पानी गए न ऊबरै, मोती, मानुष, चुन।’’ (रहीम)

‘‘चली चंचला, चंचला के घर से, तभी चंचला 

चमक पड़ी।’’

उपर्युक्त उदाहरणों में प्रयुक्त शब्दों के अर्थ 

देखें-

मनका- माला के दाने, मन (चित्त) का

पानी- चमक (मोती के लिए)

इज्जत (मानव के लिए)

जल (चूना, आटे के लिए)

चंचला- लक्ष्मी, स्त्री, बिजली

इन उदाहरणों से पता चलता है कि अनेकार्थी 

षब्दों का कितना महत्त्व है। एक षब्द किस 

तरह से पूरी पंक्ति का भाव और अर्थ बदल 

देता है। 

एक बात इन अनेकार्थी षब्दों में ध्यान देने की 

है कि ये विलोम षब्द नहीं होते हैं। विलोम 

षब्द से पृथक होते हैं। आप उदाहरणों से 

बेहतर तरीके से समझ पायेंगे।

यहाँ कुछ प्रमुख अनेकार्थी शब्द दिए जा रहे हैं।

( अ, आ )

अपवाद- कलंक, वह प्रचलित प्रसंग जो नियम 

के विरुद्ध हो।

अतिथि- मेहमान, साधु, यात्री, अपरिचित व्यक्ति, 

यज्ञ में सोमलता लाने वाला, अग़्नि, राम का 

पोता या कुश का बेटा।

अरुण- लाल, सूर्य, सूर्य का सारथी, इत्यादि ।

आपत्ति- विपत्ति, एतराज।

अपेक्षा- इच्छा, आवश्यकता, आशा, इत्यादि।

आराम- बाग, विश्राम, रोग का दूर होना, निरोग 

होना।

अंक- भाग्य, गिनती के अंक, नाटक के अंक, 

चिन्ह संख्या, गोद।

अंबर- आकाश, अमृत, वस्त्र।

अनंत- आकाश, ईश्वर, विष्णु, अंतहीन, शेष 

नाग।

अर्थ- मतलब, कारण, लिए, भाव, हेतु, अभिप्राय, 

धन, आशय, प्रयोजन।

अवकाश- छुटटी, अवसर, अंतराल

आम- आम का फल, सर्वसाधारण, रंज, मामूली, 

सामान्य।

अन्तर- शेष, दूरी, हृदय, भेद।

अधर- धरती (आकाश के बीच का स्थान), 

पाताल, नीचा, होंठ।

अर्क- इन्द्र, सूर्य, रस, अकबन।

अंकुर- कोंपल, नोंक, सूजन, रोआँ।

अंकुश- रोक, हाथी को वश में करने का लोहे 

का छोटा अस्त्र।

अंजन- काजल, रात, माया, लेप।

अंश- हिस्सा, कोण का अंश, किरण।

अंत- मरण, अवसान, सीमा।

अनन्त- आकाश, अन्तहीन, विष्णु।

अच्युत- कृष्ण, स्थिर, अविनाशी।

अपर- दूसरा, इतर, पंखहीन।

अपंग- अपाहिज, तिलक, नेत्रों के कोने।

अग्र- पहाड़, वृक्ष, अचल।

अग्र- मुख्य, आगे, नोंक, शिखर।

अमृत- सुधा, जल, अमर, सुन्दर।

अन्तर- मध्य, ह्रदय, व्यवधान, भेद।

अज- ब्रह्मा, बकरा, दशरथ का पिता।

अक्ष- आँख, धुरी, आत्मा, पहिया, पासा।

अक्षर- अविनाशी, वर्ण, आत्मा, आकाश, मोक्ष।

अमल- निर्मल, अभ्यास, समय, नशा।

अमर- देवता, पारा, अविनाशी।

अलि- भौंरा, मदिरा, कुत्ता।

अरिष्ट- लहसुन, नीम, कौवा।

अहि- सर्प, सूर्य, कष्ट।

अचल- स्थिर, पर्वत, दृढ़।

अटक- बाधा, भ्रमणशील, उलझन।

अरुण- लाल रंग, सूर्य, सिन्दूर।

आत्मा- प्राण, अग्नि, सूर्य।

आकार- स्वरूप, चेष्टा, बुलाना।

आशुग- वायु, तीर, पत्र।

आली- सखी, पंक्ति।

अधिवास- निवास, पड़ोसी, बस्ती, हठ।

अनल- आग, परमेश्वर, जीव, विष्णु।

अपाय- जाना, लोप, नाश, हानि, उपद्रव।

अभय- निर्भयता, शिव, निरापद।

अभिनिवेश- आग्रह, संकल्प, अनुराग, दृढ़ 

निश्चय।

अयोनि- अजन्मा, नित्य, मौलिक, कोख।

अशोक- मगधराज, शोकरहित, एक वृक्ष।

आँख- नयन, परख, सन्तान, छिद्र।

आनंद- ख़ुशी, मदिरा, शिव, एक छंद।

आभीर- अहीर, एक राग।

अगज- हाथी से भिन्न, पहाड़ से उत्पन्न।

( इ, उ )

ईश्वर- परमात्मा, स्वामी, शिव, पारा, पीतल।

इतर- दूसरा, साधारण, नीच।

इंगित- संकेत, अभिप्राय, हिलना-डूलना।

इन्द्र- देवराज, राजा, रात्रि।

उत्तर- उत्तर दिशा, जवाब, हल, अतीत, पिछला, 

बाद का इत्यादि।

उग्र- विष, प्रचंड, महादेव।

उद्योग- परिश्रम, धंधा, कारखाना।

उदार- दाता, बड़ा, सरल, अनुकूल।

( ए, ओ )

एकांत- तत्पर, स्वस्थचित्त।

एकाक्ष- काना, कौवा।

ऐरावती- इरावती नदी, बिजली, वटपत्री।

ओक- पक्षी, शूद्र, मतली, घर, पनाह।

औसत- बीच का, साधारण, दरमियानी

( क )

कर- हाथ, टैक्स, किरण, सूँड़ ।

काल- समय, मृत्यु, यमराज।

कला- अंश, किसी कार्य को अच्छी तरह करने 

का कौशल।

कर्ण- कर्ण (नाम), कान।

कुशल- खैरियत, चतुर ।

कल- बीता हुआ दिन, आने वाला दिन, मशीन।

कर्ण- कर्ण (नाम), कान।

काम- वासना, कामदेव, कार्य, पेशा, धंधा।

कनक- सोना, धतूरा, पलाश, गेंहूँ।

कुंद- भोंथरा, एक मूल।

कुल- वंश, सब।

कृष्ण- काला, कन्हैया, वेदव्यास।

केतु- एक ग्रह, ध्वज, श्रेष्ठ, चमक।

कोट- परिधान, किला।

कोटि- श्रेणी, करोड़, गणना।

कंक- यम, क्षत्रिय, युधिष्ठिर।

कंकण- कंगन, मंगलसूत्र, विवाह-सूत्र।

कंटक- घड़ियाल, काँटा, दोष।

कक्ष- कमरा, काँख, लता, रनिवास, बाजू।

कटाक्ष- आक्षेप, तिरछी निगाह, व्यंग्य।

कर्क- केंकड़ा, आग, एक राशि, आईना, सफेद।

काक- कौआ, लँगड़ा आदमी, अतिधृष्ट।

कादम्ब- कदम्ब, ईख, बाण, खट्टी मदिरा।

कृत्स्न- जल, कोख, पेट।

कैरव- कुमुद, कमल, शत्रु, ठग।

केवल- एकमात्र, विशुद्ध ज्ञान।

कंद- शकरकन्द, बादल, मिश्री।

कलत्र- स्त्री, कमर।

केलि- परिहास, खेल, पृथ्वी।

कमल- हिरण, पंकज, ताम्बा, आकाश।

कल्प- सबेरा, शराब।

कक्ष्या- राजा की देहरी, कमरबंद।

कसरत- व्यायाम, अधिकता।

कबंध- जल, बादल, एक राक्षस।

कौरव- धृतराष्ट्रादि, गीदड़।

कम्बल- आँसू, ऊनी वस्त्र, गाय के गले का 

रास।

कंबु- शंख, कंगन।

कलाप- समूह, तरकश, मोर की पूँछ, चाँद, 

व्यापार।

कस- बल, परीक्षा, तलवार की लचक।

कान्तार- टेढ़ा मार्ग, वन।

कांड- गुच्छा, दुर्घटना।

काट- द्रोह, आपसी विरोध।

कैतन- ध्वजा, घर, कार्य, आमंत्रण।

कुरंग- हिरण, नीला, बदरंग।

कुंभ- घड़ा, एक राशि, हाथी का मस्तक।

कुटिल- टेढ़ा, दुष्ट, घुंघराला।

कौपीन- लँगोटा, अकार्य, गीद्ध।

कौशिक- विश्वामित्र, नेवला, उल्लू, सँपेरा, इन्द्र।

( ख )

खग- पक्षी, तारा, गन्धर्व, जुगनू, बाण।

खर- दुष्ट, गधा, तिनका, कड़ा, तीक्ष्ण, मोटा, 

एक राक्षस।

खल- दुष्ट, धतूरा, बेहया, धरती, सूर्य, दवा 

कूटने का खरल।

खैर- कत्था, कुशल।

खंज- खंजन, लँगड़ा

( ग, घ )

गण- समूह, मनुष्य, भूतप्रेतादि, शिव के गण, 

छन्द में गिनती के पद, पिंगल के गण।

गुरु- शिक्षक, ग्रहविशेष, श्रेष्ठ, बृहस्पति, भारी, 

बड़ा, भार।

गो- बाण, आँख, वज्र, गाय, स्वर्ग, पृथ्वी, 

सरस्वती, सूर्य, बैल, इत्यादि।

गुण- कौशल, शील, रस्सी, स्वभाव, लाभ, 

विशेषता, धनुष की डोरी।

गति- पाल, हालत, चाल, दशा, मोक्ष, पहुँच।

गदहा- गधा, मूर्ख, वैद्य।

ग्रहण- लेना, चन्द्र, सूर्यग्रहण।

गोविंद- कृष्ण, गोष्ठी का स्वामी।

गोत्र- वंश, वज्र, पहाड़, नाम।

गिरा- सरस्वती, गिरना, वाणी।

गौर- गोरा, विचार।

घन- बादल, अधिक, घना, गणित का घन, 

पिण्ड, हथौड़ा ।

घट- घड़ा, देह, ह्रदय, किनारा।

घाट- नावादि से उतरने-चढ़ने का स्थान, 

तरफ।

घृणा- घिन, बादल।

( च, छ )

चरण- पग, पंक्ति, पद्य का भाग।

चंचला- लक्ष्मी, स्त्री, बिजली।

चोटी- शिखर, सिर, वेणी।

चन्द्र- शशि, कपूर, सोना, सुन्दर।

चाँद- चन्द्रमा, सिर।

चारा- पशुखाद्य, उपाय।

चक्र- पहिया, चाक, भँवर, समूह, बवंडर।

चय- समूह, नींव, टीला, तिपाई, किले का 

फाटक।

छन्द- इच्छा, पद, वृत्त।

( ज, ठ )

जलज- कमल, मोती, शंख, मछली, जोंक, 

चन्द्रमा, सेवार।

जाल- फरेब, बुनावट, फंदा, किरण, जाला।

जीवन- जल, प्राण, जीविका, जीवित।

जलधर- बादल, समुद्र।

जड़- मूल, मूर्ख।

जौ- वेग, शरिक्त, अन्न विशेष।

जंग- युद्ध, लोहे में लगी कार्बनपरत।

जयन्त- इन्द्रपुत्र, शिव, चाँद, एक ताल।

जरा- बुढ़ापा, थोड़ा।

ज्येष्ठ (जेठ)- पति का बड़ा भाई, बड़ा, हिन्दी 

महीना।

ठाट- श्रृंगार, आडंबर।

ठाकुर- देवता, हजाम, क्षत्रिय।

( त, थ )

तीर- बाण, किनारा, तट।

तारा- आँख की पुतली, नक्षत्र, तारक, प्यारा, 

बालि की स्त्री, बृहस्पति की स्त्री।

तंत्र- दवा, उपासना, पद्धति, सूत, कपड़ा।

तत्त्व- मूल, वस्त्र, ब्रह्मा, पदार्थ।

तल्प- खाट, अटारी, स्त्री।

तनु- शरीर, मूर्ति, अल्प, कोमल, पतला।

ताल- लय, एक वृक्ष, झील, हड़ताल।

तार्क्ष्य- घोड़ा, गरुड़, सर्प, स्वर्ण, रथ।

तात- पूज्य, प्यारा, मित्र, पिता, तप्त।

तमचर- उल्लू, राक्षस, चोर।

तीर्थ- देवस्थान, शास्त्र, गुरु।

थान- स्थान, अदद, पशुओं के बाँधने की 

जगह।

( द )

दल- समूह, सेना, पत्ता, पत्र, नाश, हिस्सा, पक्ष, 

भाग, चिड़ी।

दंड- सज़ा, डंडा, आक्रमण, दमन, एक व्यायाम।

द्रव्य- वस्तु, धन।

द्विज- पक्षी, दाँत, ब्राह्मण, गणेश।

द्वीप- टापू, आश्रम, हाथी, अवलम्ब।

द्रोण- द्रोणाचार्य, डोंगी, कौआ।

दर्शन- मुलाकात, एक शास्त्र, स्वप्न, तत्त्वज्ञान।

दिनेश- उक्ति, भिक्षा, सूर्य, आदेश।

( ध, न )

धन- सम्पति, शुभ कार्य, श्रेय, न्याय, योग।

धर्म- प्रकृति, स्वभाव, कर्तव्य, सम्प्रदाय।

धात्री- उपमाता, पृथ्वी, आँवला।

धाम- घर, शरीर, देवस्थान।

धार- प्रवाह, किनारा, सेना।

धनंजय- अर्जुन, नाग।

नंद- हर्ष, परमेश्वर, मगधराज, मेढ़क।

नंदा- आनंद, ननद, संपत्ति।

निशान- तेज करना, चिह्न, यादगार, पताका।

नाक- नासिका, स्वर्ग, मान।

नागर- चतुर, नागरिक, सोंठ।

नाग- हाथी, पर्वत, बादल, साँप।

नग- पर्वत, वृक्ष, रत्न विशेष, चाव, अचल, 

नगीना।

निशाचर- राक्षस, प्रेत, उल्लू, साँप, चोर।

( प, फ )

पद- चरण, शब्द, पैर, स्थान, उद्यम, रक्षा, 

ओहदा, कविता का चरण।

पानी- जल, चमक, इज्जत ।

पक्ष- पन्द्रह दिन का समय, ओर, पंख, बल, घर, 

सहाय, पार्टी।

पत्र- पत्ता, चिठ्ठी, पंख।

पृष्ठ- पीठ, पत्रा, पीछे का भाग।

प्रभाव- सामर्थ्य, असर, महिमा, दबाव।

पतंग- सूर्य, पक्षी, टिड्डी, फतिंगा, गुड्डी।

पय- दूध, अन्न, पानी।

पर- पंख, ऊपर, बाद, किन्तु।

पति- स्वामी, ईश्वर।

पयोधर- स्तन, बादल।

पीठ- पृष्ठभाग, पीढ़ा।

पान- पेय, द्रव्य, तांबूल, शराब।

पाश- बंधन, रस्सी, पशु।

पोत- नाव, बच्चा, दाव।

प्रतीक- चिह्न, प्रतिमा, उल्टा।

प्रवाल- मूँगा, नया पत्ता, वीणादंड।

पुष्कर- तालाब, कमल, आकाश, तलवार।

पिशुन- चुगलखोर, केसर, नारद, नीच, क्रूर, 

मूर्ख।

पूत- पुत्र, पवित्र किया हुआ, शंख।

पूरण- वृष्टि, मरना, सेतु, सम्पूर्ण।

फल- लाभ, मेवा, नतीजा, पेड़ का फल, तलवार, 

भाले की नोक।

फन- साँप का फण, हूनर।

( ब, भ )

बल- सेना, ताकत, बलराम, शक्ति।

बेला- एक फूल, वक्ता, समय, बरतन।

बाद- पीछे, व्यर्थ, सिवाय।

बस- गाड़ी, वश, समाप्ति।

बाला- लड़की, आभूषण, वलय।

बंध- बंधन, गाँठ, निर्माण, बाँध (नदी के 

किनारे)।

बीर- बहादुर, सखी, चरागाह।

बलि- राजा बलि, बलिदान, उपहार, कर 

इत्यादि।

भग- ऐश्वर्य, चाँद, यश, ज्ञान, और वैराग्य।

भूत- अतीत, वस्तुतः, सत्य, प्राप्त।

भीत- डरा हुआ, भित्ति, दीवार।

भव- संसार, शुभ, मेघ, जन्म।

भोर- सुबह, सीधा, भूलने का स्वभाव।

भेद- रहस्य, तात्पर्य, अन्तर, प्रकार।

भाग- हिस्सा, विभाजन, भाग्य।

भार- काम, बोझा, सहारा, रक्षा।

( म )

मयूख- कान्ति, किरण, ज्वाला।

मन्यु- क्रोध, दीनता, यज्ञ, चिन्ता।

मधु- शराब, शहद, बसंत, दूध, मीठा।

मान- सम्मान, इज्जत, अभिमान, नाप-तौल, 

मानना।

मित्र- दोस्त, सूर्य, प्रिय, साँप।

मूल- जड़, पहला, वृक्ष की जटा।

मूक- गूँगा, विवश, चुपचाप।

मंडल- जिला, हल्का, बिम्ब, क्षितिज।

मणि- कीमती पत्थर, श्रेष्ठजन, बकरी के गले 

की थैली।

मद- घमंड, हर्ष, शराब।

मल- मैल, कफ, पाप, बुराई।

मा- माता, मत, मान, लक्ष्मी।

मात्रा- इन्द्रिय, धन, परिमाण।

मत- राय, वोट, नही।

महावीर- हनुमान, बहुत बलवान्, जैन तीर्थकर।

मुद्रा- मुहर, आकृति, सिक्का, अँगूठी, रूप, धन।


अनेक शब्दों के लिए एक शब्द

 अनेक शब्दों के लिए एक शब्द



भाषा की सुदृढ़ता, भावों की गम्भीरता और 

चुस्त शैली के लिए यह आवश्यक है कि 

लेखक शब्दों (पदों) के प्रयोग में संयम से 

काम ले, ताकि वह विस्तृत विचारों या भावों 

को थोड़े-से-थोड़े शब्दों में व्यक्त कर सके। 

समास, तद्धित और कृदन्त वाक्यांश या वाक्य 

एक शब्द या पद के रूप में संक्षिप्त किये जा 

सकते हैं। ऐसी हालत में मूल वाक्यांश या 

वाक्य के शब्दों के अनुसार ही एक शब्द या 

पद का निर्माण होना चाहिए।

दूसरी बात यह कि वाक्यांश को संक्षेप में 

सामासिक पद का भी रूप दिया जाता है। 

कुछ ऐसे लाक्षणिक पद या शब्द भी हैं, जो 

अपने में पूरे एक वाक्य या वाक्यांश का अर्थ 

रखते हैं। भाषा में कई शब्दों के स्थान पर 

एक शब्द बोल कर हम भाषा को प्रभावशाली 

एवं आकर्षक बनाते हैं।

जैसे- राम कविता लिखता है, अनेक शब्दों के 

स्थान पर हम एक ही शब्द कवि का प्रयोग 

कर सकते हैं।

दूसरा उदाहरण- ‘जिस स्त्री का पति मर चुका 

हो’ शब्द-समूह के स्थान पर ‘विधवा’ शब्द 

अच्छा लगेगा।

इसी प्रकार, अनेक शब्दों के स्थान पर एक 

शब्द का प्रयोग कर सकते हैं।

यहाँ पर अनेक शब्दों के लिए एक शब्द के 

कुछ उदाहरण दिए जा रहे हैं-

( अ )

अनुचित बात के लिए आग्रह- (दुराग्रह)

अण्डे से जन्म लेने वाला- (अण्डज)

अपने देश से दूसरे देश में सामान जाना- 

(निर्यात)

अपनी हत्या स्वयं करना- (आत्महत्या)

अवसर के अनुसार बदल जाने वाला- 

(अवसरवादी)

अच्छे चरित्र वाला- (सच्चरित्र)

आज्ञा का पालन करने वाला- (आज्ञाकारी)

अत्यंत सुन्दर स्त्री- (रूपसी)

आकाश में उड़ने वाला- (नभचर)

आलोचना करने वाला- (आलोचक)

आगे होनेवाला- (भावी)

आँखों के सामने- (प्रत्यक्ष)

आँखों से परे- (परोक्ष)

अपने परिवार के साथ- (सपरिवार)

आशा से अतीत (अधिक)- (आशातीत)

आकाश या गगन चुमनेवाला- (आकाशचुम्बी, 

गगनचुम्बी)

आलोचना के योग्य- (आलोच्य)

आया हुआ- (आगत)

अवश्य होनेवाला- (अवश्यम्भावी)

अत्यधिक वृष्टि- (अतिवृष्टि)

अपने बल पर निर्भर रहने वाला- (स्वावलम्बी 

या आत्मनिर्भर)

अचानक हो जाने वाला- (आकस्मिक)

आदि से अन्त तक- (आद्योपान्त)

आगे का विचार करने वाला- (अग्रसोची)

आढ़त का व्यापर करने वाला- (आढ़तिया)

आवश्यकता से अधिक वर्षा- (अतिवृष्टि)

अधिकार या कब्जे में आया हुआ- (अधिकृत)

अन्य से सम्बन्ध न रखने वाला- (अनन्य)

अभिनय करने योग्य- (अभिनेय)

अभिनय करने वाला पुरुष- (अभिनेता)

अभिनय करने वाली स्त्री- (अभिनेत्री)

अच्छा-बुरा समझने की शक्ति का अभाव- 

(अविवेक)

अपने हिस्से या अंश के रूप में कुछ देना- 

(अंशदान)

अनुकरण करने योग्य- (अनुकरणीय)

आत्मा व परमात्मा का द्वैत (अलग-अलग 

होना) न माननेवाला- (अद्वैतवादी)

अल्प (कम) वेतन भोगनेवाला (पानेवाला)- 

(अल्पवेतनभोगी)

अध्ययन (पढ़ना) का काम करनेवाला- 

(अध्येता)

अध्यापन (पढ़ाने) का काम करनेवाला- 

(अध्यापक)

आग से झुलसा हुआ- (अनलदग्ध)

अपने प्राण आप लेने वाला- (आत्मघाती)

अर्थ या धन से सम्बन्ध रखने वाला- (आर्थिक)

आयोजन करने वाला व्यक्ति- (आयोजक)

आशुलिपि (शार्ट हैण्ड) जाननेवाला लिपिक- 

(आशुलिपिक)

अपनी इच्छा के अनुसार काम करनेवाला- 

(इच्छाचारी)

आड़ या परदे के लिये रथ या पालकी को 

ढकनेवाला कपड़ा- (ओहार)

अपनी विवाहित पत्नी से उत्पन्न (पुत्र)- 

(औरस (पुत्र)

अपने कर्तव्य का निर्णय न कर सकने वाला- 

(किंकर्तव्यविमूढ़)

अधिक दिनों तक जीने वाला- (चिरंजीवी)

अन्न को पचाने वाली जठर (पेट) की अग्नि- 

(जठराग्नि)

अपनी झक (धुन) में मस्त रहने वाला- 

(झक्की)

आँवला, हर्र (हैडअ) व बहेड़ा- (त्रिफला)

अनुचित या बुरा आचरण करने वाला- 

(दुराचारी)

अपराध और उन पर दण्ड देने के नियम 

निर्धारित करने वाला प्रश्न - (दण्डसंहिता)

अभी-अभी जन्म लेने वाला- (नवजात)

आधे से अधिक लोगों की सम्मिलित एक राय- 

(बहुमत)

अपना हित चाहने वाला- (स्वार्थी)

अपनी इच्छा से दूसरों की सेवा करने वाला- 

(स्वयंसेवक)

अपने देश से प्यार करने वाला- (देशभक्त)

अपने देश के साथ विश्वासघात करने वाला- 

(देशद्रोही)

अनुचित बात के लिए आग्रह- (दुराग्रह)

आँख की बीमारी- (दृष्टिदोष)

अपने पति के प्रति अनन्य अनुराग रखने 

वाली- (पतिव्रता)

अपने पद से हटाया हुआ- (पदच्युत)

अपने को पंडित माननेवाला- (पंडितम्मन्य)

आटा पीसने वाली स्त्री-(पिसनहारी)

आँखों के समक्ष- (प्रत्यक्ष)

आय से अधिक व्यर्थ खर्च करने वाला- 

(फिजूलखर्ची)

आय-व्यय, लेन-देन का लेखा करने वाला- 

(लेखाकार)

अपने परिवार के साथ है जो- (सपरिवार)

अपने ही बल पर निर्भर रहने वाला- 

(स्वावलम्बी)

अविवाहित लड़की- (कुमारी या कुंवारी)

अगहन और पूस में पड़ने वाली ऋतु- (हेमन्त)

अधः (नीचे) लिखा हुआ- (अधोलिखित)

आचार्य की पत्नी- (आचार्यानी)

अनुवाद करनेवाला- (अनुवादक)

अनुवाद किया हुआ- (अनूदित)

अनेक राष्ट्रों में आपस में होनेवाली बात- 

(अन्तर्राष्ट्रीय)

आत्मा या अपने आप पर विश्वास- 

(आत्मविश्वास)

आलस्य में जँभाई लेते हुए देह टूटना- 

(अँगड़ाई)

अंग पोंछने का वस्त्र- (अँगोछा)

अति सूक्ष्म परिमाण- (अणिमा)

आज के दिन से पूर्व का काल- (अनद्यतनभूत)

अनुभव प्राप्त- (अनुभवी)

असम्बद्ध विषय का- (अविवक्षित)

आठ पदवाला- (अष्टपदी)

अनुमान किया हुआ- (अनुमानित)

अनिश्चित जीविका- (आकाशवृत्ति)

आम का बगीचा- (अमराई)

अनुसंधान की इच्छा- (अनुसंधित्सा)

आकाश से तारे का टूटना- (उपप्लव)

अन्य देश का पुरुष- (उपही)

अँगुलियों में होनेवाला फोड़ा- (इकौता)

अपना नाम स्वयं लिखना- (हस्ताक्षर)

अपना मतलब साधनेवाला- (स्वार्थी)

अगस्त्य की पत्नी- (लोपामुद्रा)

अँधेरी रात- (तमिस्रा)

अशुभ विचार- (व्यापाद)

अंडों से निकली छोटी मछलियों का समूह- 

(पोताधान)

अस्तित्वहीन वस्तु का विश्लेषण- 

(काकदन्तपरीक्षण)

अधिक रोएँ वाला- (लोमश)

अमावस्या की रात- (कुहू)

( इ, ई )

ईश्वर में आस्था रखने वाला- (आस्तिक)

ईश्वर पर विश्वास न रखने वाला- (नास्तिक)

इतिहास का ज्ञाता- (इतिहासज्ञ)

इन्द्रियों को जीतनेवाला- (जितेन्द्रिय)

इन्द्रियों की पहुँच से बाहर- (अतीन्द्रिय)

इतिहास से सम्बन्ध रखने वाला- (ऐतिहासिक)

इन्द्रियों को वश में करने वाला- (इन्द्रियजित)

इंद्रियों पर किया जानेवाला वश- 

(इंद्रियाविग्रह)

इस लोक से सम्बन्धित- (ऐहिक)

इन्द्रजाल करने वाला- (ऐन्द्रजालिक)

इंद्रियों से संबंधित- (ऐंद्रिक)

इस लोक से संबंध रखनेवाला- (ऐहलौकिक)

ईश्वर या स्वर्ग का खजाँची- (कुबेर)

इन्द्रपुरी की वेश्या- (अमरांगना)

इन्द्र का महल- वैजयन्त

( ऊ )

ऊपर कहा हुआ- (उपर्युक्त)

ऊपर आने वाला श्वास- (उच्छवास)

ऊपर की ओर जानेवाला-(उर्ध्वगामी)

ऊपर की ओर बढ़ती हुई साँस- (उर्ध्वश्वास)

उपचार या ऊपरी दिखावे के रूप में होने 

वाला- (औपचारिक)

उच्च न्यायालय का न्यायाधीश- (न्यायमूर्ति)

उपकार के प्रति किया गया उपकार- 

(प्रत्युपकार)

ऊपर लिखा गया- (उपरिलिखित)

उतरती युवावस्था- (अधेर)

उत्तर दिशा- (उदीची)

उच्च वर्ण के पुरुष के साथ निम्न वर्ण की स्त्री 

का विवाह- (अनुलोम विवाह)

उसी समय का- (तत्कालीन)

( ऐ )

एक ही समय में वर्तमान- (समसामयिक)

एक स्थान से दूसरे स्थान को हटाया हुआ- 

(स्थानान्तरित)

एक भाषा की लिखी हुई बात को दूसरी भाषा 

में लिखना या कहना- (अनुवाद)

ऐसा व्रत, जो मरने पर ही समाप्त 

हो-(आमरणव्रत)

ऐसा ग्रहण जिसमें सूर्य या चन्द्र का पूरा बिम्ब 

ढँक जाय- (खग्रास)

ऐसा जो अंदर से खाली हो- (खोखला)

ऐसा तर्क जो देखने पर ठीक प्रतीत होता हो, 

किन्तु वैसा न हो- (तर्काभास)

एक व्यक्ति द्वारा चलायी जाने वाली शासन 

प्रणाली- (तानाशाही)

एक राजनीतिक दल को छोड़कर दूसरे दल में 

शामिल होने वाला- (दलबदलू)

एक देश से माल दूसरे देश में जाने की 

क्रिया- (निर्यात)

ऐतिहासिक युग के पूर्व का- (प्रागैतिहासिक)

एक महीने में होने वाला- (मासिक)

एक ही जाति का- (सजातीय)

एक ही समय में उत्पन्न होने वाला- 

(समकालीन)

एक ही समय में वर्तमान- (समसामयिक)

ऐसी भूमि जो उपजाऊ नहीं हो- (ऊसर)

एक सप्ताह में होने वाला- (साप्ताहिक)

( क )

किसी पद का उम्मीदवार- (प्रत्याशी)

कीर्तिमान पुरुष- (यशस्वी)

कम खर्च करने वाला- (मितव्ययी)

कम जानने वाला- (अल्पज्ञ)

कम बोलनेवाला- (मितभाषी)

कम अक्लवाला- (अल्पबुद्धि)

कठिनाई से समझने योग्य- (दुर्बाेध)

कल्पना से परे हो- (कल्पनातीत)

किसी की हँसी उड़ाना- (उपहास)

कुछ दिनों तक बने रहने वाला- (टिकाऊ)

किसी बात को बढ़ा-चढ़ाकर कहना- 

(अतिशयोक्ति)

कठिनता से प्राप्त होने वाला- (दुर्लभ)

किसी विषय को विशेषरूप से जाननेवाला- 

(विशेषज्ञ)

किसी काम में दूसरे से बढ़ने की इच्छा या 

उद्योग- (स्पर्द्धा)

क्रम के अनुसार- (यथाक्रम)

कार्य करनेवाला- (कार्यकर्त्ता)

करने योग्य- (करणीय, कर्तव्य)

किसी कथा के अंतर्गत आने वाली दूसरी 

कथा- (अन्तःकथा)

कर या शुल्क का वह अंश जो किसी 

कारणवश अधिक से अधिक लिया जाता है- 

(अधिभार)

किसी पक्ष का समर्थन करने वाला- (अधिवक्ता)

किसी कार्यालय या विभाग का वह अधिकारी 

जो अपने अधीन कार्य करने वाले कर्मचारियों 

की निगरानी रखे- (अधीक्षक)

किसी सभा, संस्था का प्रधान- (अध्यक्ष)

किसी कार्य के लिए दी जाने वाली सहायता- 

(अनुदान)

किसी मत या प्रस्ताव का समर्थन करने की 

क्रिया- (अनुमोदन)

किसी व्यक्ति या सिद्धान्त का समर्थन करने 

वाला- (अनुयायी)

किसी कार्य को बार-बार करना- (अभ्यास)

किसी वस्तु का भीतरी भाग- (अभ्यन्तर)

किसी वस्तु को प्राप्त करने की तीव्र इच्छा- 

(अभीप्सा)

किसी प्राणी को न मारना- (अहिंसा)

किसी बात पर बार-बार जोर देना- (आग्रह)

किसी पात्र आदि के अन्दर का स्थान, जिसमें 

कोई चीज आ सके-(आयतन)

किसी अवधि से संबंध रखने वाला- (आवधिक)

किसी देश के वे निवासी जो पहले से वहाँ 

रहते रहे हैं- (आदिवासी)

किसी चीज या बात की इच्छा रखनेवाला- 

(इच्छुक)

किन्हीं घटनाओं का कालक्रम से किया गया 

वृत- (इतिवृत)

किसी नई चीज का बनाना- (ईजाद, 

अविष्कार)

किसी के बाद उसकी संपत्ति प्राप्त करने 

वाला- (उत्तराधिकारी)

किसी एक पक्ष से संबंधित- (एकपक्षीय)

कष्टों या काँटों से भरा हुआ- (कंटकाकीर्ण)

किसी के उपकार को न मानने वाला- 

(कृतघ्न)

किसी की कृपा से पूरी तरह संतुष्ट- (कृतार्थ)

कारागार से संबंध रखने वाला- (कारागारिक)

कार्य करने वाला व्यक्ति- (कार्यकर्ता)

किन्हीं निश्चित कार्यों के लिए बनायी गयी 

समिति- (कार्यसमिति)

क्रम के अनुसार- (क्रमानुसार)

किसी विचार/निर्णय को कार्यरूप देना- 

(कार्यान्वयन)

कुंती का पुत्र- (कौंतेय)

किसी के घर की होनेवाली तलाशी- 

(खानातलाशी)

किसी के इर्द-गिर्द घेरा डालने की क्रिया- 

(घेराबन्दी)

करुण स्वर में चिल्लाना- (चीत्कार)

किसी को सावधान करने के लिए कही जाने 

वाली बात- (चेतावनी)

किसी वस्तु का चौथा भाग- (चतुर्थांश)

किसी काम या व्यक्ति में छिद्र या दोष 

निकालने का कार्य- (छिद्रान्वेषण)

कर्मचारियों आदि को छाँटकर निकालने की 

क्रिया- (छँटनी)

किसी भी बात को जानने की इच्छा- 

(जिज्ञासा)

कुछ जानने या ज्ञान प्राप्त करने की चाह- 

(जिज्ञासा)

किसी के सम्पूर्ण जीवन के कार्यों का विवरण- 

(जीवनचरित)

काँटेदार झाड़ियों का समूह- (झाड़झंखाड़)

किसी ग्रंथ या रचना की टीका करनेवाला- 

(टीकाकार)

किराए पर चलनेवाली मोटर गाड़ी- (टैक्सी)

किसी पद अथवा सेवा से मुक्ति का पत्र- 

(त्यागपत्र)

किसी भी पक्ष का समर्थन न करने वाला- 

(तटस्थ)

कोई काम या पद छोड़ देने के लिये लिखा 

गया पत्र- (त्यागपत्र)

कुछ निश्चित लम्बाई का कपड़ा- (थान)

किसी के पास रखी हुई दूसरे की वस्तु- 

(थाती/धरोहर/अमानत)

कपड़ा सिलाई का व्यवसाय करने वाला- 

(दर्जी)

किसी के साथ सम्बन्ध न रखने वाला- 

(निःसंग)

कही हुई बात को बार-बार कहना- 

(पिष्टपेषण)

किसी आरोप के उत्तर में किया जाने वाला 

आरोप- (प्रत्यारोप)

किसी टूटी-फूटी वस्तु का फिर से र्निर्माण- 

(पुनर्निर्माण)

किसी देवता पर चढ़ाने के लिए मारा जाने 

वाला पशु- (बलि)

(किसी पद पर) जो पहले रहा हो- (भूतपूर्व)

किसी बात का गूढ़ रहस्य जानने वाला- 

(मर्मज्ञ)

किसी मत को मानने वाला- (मतानुयायी)

क्रम के अनुसार- (यथाक्रम)

कुबेर की नगरी- (अलकापुरी)

किसी छोटे से प्रसन्न हो उसका उपकार 

करना- (अनुग्रह)

किसी के दुःख से दुःखी होकर उस पर दया 

करना- (अनुकम्पा)

किसी श्रेष्ठ का मान या स्वागत- (अभिनन्दन)

किसी विशेष वस्तु की हार्दिक इच्छा- 

(अभिलाषा)

किसी के शरीर की रक्षा करनेवाला- 

(अंगरक्षक)

किसी को भय से बचाने का वचन देना- 

(अभयदान)

केवल फल खाकर रहनेवाला- (फलाहारी)

किसी कलाकार की कलापूर्ण रचना-

(कलाकृति)

करने की इच्छा- (चिकीर्षा)

कुबेर का बगीचा- (चौत्ररथ)

कुबेर का पुत्र- (नलकूबर)

कुबेर का विमान- (पुष्पक)

कच्चे मांस की गंध- (विस्र)

कमल के समान गहरा लाल रंग- (शोण)

काला पीला मिला रंग- (कपिश)

केंचुए की स्त्री- (शिली)

कुएँ की जगत- (वीनाह)

केवल वर्षा पर निर्भर- (बारानी)

कलम की कमाई खानेवाला- (मसिजीवी)

कुएँ के मेढ़क के समान संकीर्ण बुद्धिवाला- 

(कूपमंडुक)

काला पानी की सजा पाया कैदी- (दामुल 

कैदी)

किसी काम में दखल देना- (हस्तक्षेप)

कुसंगति के कारण चरित्र पर दोष- (कलंक)


अलंकार अलंकार सम्पूर्ण परिचय

 अलंकार

अलंकार सम्पूर्ण परिचय 



आज  हम काव्यशास्त्र 

के अंतर्गत अलंकार 

पढेंगे। परीक्षा के लिए उपयोगी  

उदाहरण भी अच्छे से जानेंगे साथ 

ही वीडियो के अंत में या अलंकार 

से संबंधित एक अलग वीडियो 

आपके लिए परीक्षापयोगी महत्त्वपूर्ण 

वस्तुनिष्ठ प्रश्न -उत्तर की भी 

तैयार की जायेगी।


अलंकार का अर्थ एवं परिभाषा-

अलंकार शब्द दो शब्दों के योग से 

मिलकर बना है- ‘अलम्’ एवं ‘कार’,

जिसका अर्थ है- आभूषण या 

विभूषित 

करने वाला। काव्य की शोभा बढ़ाने 

वाले तत्व को अलंकार कहते हैं। 

दूसरे शब्दों में जिन उपकरणों या 

शैलियों से काव्य की सुंदरता बढ़ती 

है, उसे अलंकार कहते हैं।

अलंकारों की निम्न विशेषताएँ होती 

हैं

अलंकार काव्य सौन्दर्य का मूल है।

अलंकारों का मूल वक्रोक्ति या 

अतिशयोक्ति है।

अलंकार और अलंकार्य में कोई भेद 

नहीं है।

अलंकार काव्य का शोभाधायक धर्म 

है।

अलंकार काव्य का सहायक तत्त्व 

है।

स्वभावोक्ति न तो अलंकार है तथा न 

ही काव्य है अपितु वह केवल वार्ता 

है।

ध्वनि, रस, संधियों, वृत्तियों, गुणों, 

रीतियों को भी अलंकार नाम से 

पुकारा जा सकता है।

अलंकार रहित उक्ति श्रृंगाररहिता 

विधवा के समान है।

अलंकार के प्रकार-

अलंकार तीन प्रकार के होते हैं।

ष्1. षब्दालंकार

  2. अर्थालंकार

3. उभयलंकार

1. शब्दालंकार-

जहाँ शब्दों के कारण काव्य की 

शोभा बढ़ती है, वहाँ शब्दालंकार 

होता है। इसके अंतर्गत 

अनुप्रास, यमक, श्लेष और 

पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार आते हैं।

2. अर्थालंकार-

जहाँ अर्थ के कारण काव्य की शोभा 

में वृध्दि होती है, वहाँ अर्थालंकार 

होता है। इसके अंतर्गत 

उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, अतिशयोक्ति, 

अन्योक्ति, अपन्हुति, विरोधाभास आदि  

अलंकार शामिल हैं।

3. उभयालंकार

जहाँ अर्थ और शब्द दोनों के कारण 

काव्य की शोभा में वृध्दि हो, 

उभयालंकार होता है। इसके दो 

भेद हैं-

1. संकर 2. संसृष्टि

शब्दालंकार के प्रकार-

1.अनुप्रास अलंकार-

जहाँ काव्य में किसी वर्ण की आवृत्ति 

एक से अधिक बार होती है, वहाँ 

अनुप्रास अलंकार होता है।

उदाहरण-

”तरनि-तनूजा तट तमाल तरुवर 

बहु छाए।”

यहाँ पर ‘त’ वर्ण की आवृत्ति एक से 

अधिक बार हुई है। इसी प्रकार 

अन्य उदाहरण निम्नांकित हैं-

‘चारु चंद्र की चंचल किरणें, खेल 

रही हैं जल-थल में।’

यहाँ पर ‘च’ वर्ण की आवृत्ति एक से 

अधिक बार हुई है।

‘बंदउँ गुरु पद पदुम परागा।

सुरुचि सुवास सरस अनुरागा।।’

यहाँ पर ‘स’ वर्ण की आवृत्ति एक से 

अधिक बार हुआ है।

‘रघुपति राघव राजा राम।

पतित पावन सीताराम।।’

यहाँ पर ‘र‘ वर्ण की आवृत्ति चार 

बार एवं ‘प‘ वर्ण की आवृत्ति एक 

से अधिक बार हुई है।

अतः यहां अनुप्रास अलंकार है।

2. यमक अलंकार-

जिस काव्य में एक शब्द एक से 

अधिक बार आए किन्तु उसके अर्थ 

अलग-अलग हों, वहाँ यमक 

अलंकार होता है।

उदाहरण-

‘कनक कनक ते सौ गुनी मादकता 

अधिकाय।

या खाए बौरात नर या पाए 

बौराय।।’

इस पद में ‘कनक’ शब्द की आवृत्ति 

दो बार हुई है। पहले ‘कनक’ का 

अर्थ ‘सोना’ तथा दूसरे ‘कनक’ का 

अर्थ ‘धतूरा’ है। अतः यहां यमक 

अलंकार है। 

अन्य उदाहरण-

‘माला फेरत जुग गया, फिरा न मन 

का फेर।

कर का मनका डारि दे, मन का 

मनका फेर।।’

इस पद में ‘मनका‘ शब्द की आवृत्ति 

दो बार हुई है। पहले ‘मनका‘ का 

अर्थ ‘माला की गुरिया या माला का 

मनका है।‘ तथा दूसरे 

‘मनका‘ का अर्थ ‘मन’ है।

‘ऊँचे घोर मंदर के अंदर रहनवारी

ऊँचे घोर मंदर के अंदर रहाती हैं।’

इस पद में ‘घोर मंदर‘ शब्द की 

आवृत्ति दो बार हुई है। पहले ‘घोर 

मंदर‘ का अर्थ ‘ऊँचे महल‘ तथा 

दूसरे ‘घोर मंदर‘ का अर्थ ‘कंदराओं 

से‘ है।

‘कंद मूल भोग करैं कंदमूल भोग 

करैं,

तीन बेर खाती ते बे तीन बेर खाती 

हैं।’

इस पद में ‘कंदमूल‘ और ‘बेर’ शब्द 

की आवृत्ति दो बार हुई है। पहले 

‘कंदमूल‘ का अर्थ ‘फलों से’ है तथा 

दूसरे ‘कंदमूल‘ का अर्थ ‘जंगलों में 

पाई जाने वाली जड़ियों से‘ है। इसी 

प्रकार पहले ‘तीन बेर’ से आशय 

तीन बार से है तथा दूसरे ‘तीन बेर’ 

से आशय मात्र तीन बेर (एक 

प्रकार का फल) से है ।

‘भूषण शिथिल अंग, 

भूषण शिथिल अंग,

बिजन डोलाती ते बे 

बिजन डोलाती हैं।’

‘तो पर वारों उर बसी, 

सुन राधिके सुजान।

तू मोहन के उर बसी, 

ह्वै उरबसी समान।।’

‘देह धरे का गुन यही, 

देह देह कछु देह,

बहुरि न देही पाइए, 

अबकी देह सुदेह।’

‘मूरति मधुर मनोहर देखी।

भयउ विदेह-विदेह विसेखी।।’

’’सारंग ले सारंग उड्यो, 

सारंग पुग्यो आय।

जे सारंग सारंग कहे, 

मुख को सारंग जाय।।’’

3. श्लेष अलंकार-

श्लेष का अर्थ- चिपका हुआ। किसी 

काव्य में प्रयुक्त होनें वाले किसी एक 

शब्द के एक से अधिक अर्थ हों, 

उसे श्लेष अलंकार कहते हैं। इसके 

दो भेद हैं- शब्द श्लेष और अर्थ 

श्लेष।

शब्द श्लेष- जहाँ एक शब्द के 

अनेक अर्थ होते हैं, वहाँ शब्द श्लेष 

होता है। जैसे-

‘रहिमन पानी राखिए, 

बिन पानी सब सून।

पानी गए न ऊबरे, 

मोती, मानुस, चून।।’

यहाँ दूसरी पंक्ति में ‘पानी’ 

शब्द तीन अर्थों में प्रयुक्त हुआ है।

मोती के अर्थ में- चमक, मनुष्य के 

अर्थ में-सम्मान या प्रतिष्ठा तथा चून 

के अर्थ में-जल।

अर्थ श्लेष- जहाँ एकार्थक शब्द से 

प्रसंगानुसार एक से अधिक अर्थ 

होते हैं, वहाँ अर्थ श्लेष अलंकार 

होता है।

जैसे-नर की अरु नल-नीर की 

गति एकै कर जोय

जेतो नीचो ह्वै चले, तेतो ऊँचो

होय।।

इसमें दूसरी पंक्ति में ‘नीचो ह्वै चले’ 

और ‘ऊँचो होय’ शब्द सामान्यतः 

एक अर्थ का बोध कराते है, किन्तु 

नर और नलनीर के प्रसंग में भिन्न 

अर्थ की प्रतीत कराते हैं।

‘जो रहीम गति दीप की, 

कुल कपूत गति सोय।

बारे उजियारो करे, 

बढ़ै अंधेरो होय।’

यहाँ बारे का अर्थ ‘लड़कपन’ और 

‘जलाने से है और ’बढे’ का अर्थ 

‘बड़ा होने’ और ‘बुझ जाने’ से है

‘‘चरण धरत चिन्ता करत 

भावत नींद न सोर।

सुबरण को ढूँढ़त फिरै, 

कवि कामी अरु चोर।।’’

4. प्रश्न अलंकार-

जहाँ काव्य में प्रश्न किया जाता है, 

वहाँ प्रश्न अलंकार होता है। जैसे-

जीवन क्या है? निर्झर है।

मस्ती ही इसका पानी है।

5.वीप्सा अलंकार या पुनरुक्ति प्रकाश 

अलंकार-

घबराहट, आश्चर्य, घृणा या रोचकता 

आदि को प्रकट करने के लिए

किसी शब्द को काव्य में दोहराना 

ही वीप्सा या पुनरुक्ति प्रकाश 

अलंकार है।

उदाहरण-

‘मधुर-मधुर मेरे दीपक जल।

विहग-विहग

फिर चहक उठे ये पुंज-पुंज

कल- कूजित कर उर का निकुंज

चिर सुभग-सुभग।

लहरों के घूँघट से झुक-झुक, 

दशमी शशि निज तिर्यक मुख,

दिखलाता, मुग्धा-सा रुक-रुक।

अर्थालंकार-

1. उपमा अलंकार-

काव्य में जब दो भिन्न वस्तुओं में

समान गुण धर्म के कारण तुलना या 

समानता की जाती है, तब वहाँ 

उपमा अलंकार होता है।

उपमा के अंग-

उपमा के 4 अंग हैं।

1 उपमेय- जिसकी तुलना की जाय 

या उपमा दी जाय। जैसे- 

‘मुख चन्द्रमा के समान सुंदर है।’

इस उदाहरण में मुख उपमेय है।

2 उपमान- जिससे तुलना की जाय 

या जिससे उपमा दी जाय। उपर्युक्त 

उदाहरण में चन्द्रमा उपमान है।

3 साधारण धर्म- उपमेय और 

उपमान में विद्यमान समान गुण या 

प्रकृति को साधारण धर्म कहते हैं। 

ऊपर दिए गए उदाहरण में ‘सुंदर‘ 

साधारण धर्म है जो उपमेय और 

उपमान दोनों में मौजूद है।

4 वाचक षब्द-समानता बताने वाले 

शब्द को वाचक शब्द कहते हैं। 

ऊपर दिए गए उदाहरण में वाचक 

शब्द ‘समान’ है। (सा, सरिस, सी, 

इव, समान, जैसे, जैसा, जैसी आदि 

वाचक शब्द हैं)

उल्लेखनीय- जहाँ उपमा के चारों 

अंग उपस्थित होते हैं, वहाँ पूर्णाेपमा 

अलंकार होता है। जब उपमा के 

एक या एक से अधिक अंग लुप्त 

होते हैं, तब लुप्तोपमा अलंकार होता 

है।

उपमा के उदाहरण-

1. पीपर पात सरिस मन डोला।

2. राधा जैसी सदय-हृदया विश्व 

प्रेमानुरक्ता ।

3. माँ के उर पर शिशु -सा, 

समीप सोया धारा में एक द्वीप।

4. सिन्धु सा विस्तृत है अथाह,

एक निर्वासित का उत्साह

5. ”चरण कमल -सम कोमल”

2. रूपक अलंकार-

जब उपमेय में उपमान का निषेध 

रहित आरोप करते हैं, तब रूपक 

अलंकार होता है। दूसरे शब्दों में 

जब उपमेय और उपमान में 

अभिन्नता या अभेद दिखाते हैं, तब 

रूपक अलंकार होता है।

उदाहरण-

चरण-कमल बंदउँ हरिराई।

राम कृपा भव-निशा सिरानी

बंदउँ गुरुपद पदुम- परागा।

सुरुचि सुवास सरस अनुरागा।।

चरण सरोज पखारन लागा

‘‘उदित उदयगिरि मंच पर, 

रघुवर बाल-पतंग।

बिकसे संत सरोज सब, 

हरषे लोचन-भृंग।।’’

‘‘बीती विभावरी जाग री।

अम्बर-पनघट में डूबो रही 

तारा-घट उषा नागरी।।’’

‘‘नारि-कुमुदिनी अवध सर 

रघुवर विरह दिनेश।

अस्त भये प्रमुदित भई, 

निरखि राम राकेश।।’’

3. उत्प्रेक्षा अलंकार-

जहाँ उपमेय में उपमान की संभावना 

की जाती है, वहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार 

होता है। उत्प्रेक्षा के लक्षण- मनहु, 

मानो, जनु, जानो, ज्यों, जान आदि 

षब्द होते हैं। उदाहरण-

दादुर धुनि चहु दिशा सुहाई।

वेद पढ़हिं जनु बटु समुदाई।।

मेरे जान पौनों सीरी 

ठौर कौ पकरि कौनों,

घरी एक बैठि कहूँ 

घामैं बितवत हैं।

मानो तरु भी झूम रहे हैं, 

मंद पवन के झोकों से’

4. अतिशयोक्ति अलंकार-

काव्य में जहाँ किसी बात को बढ़ा 

चढ़ा के कहा जाए, वहाँ अतिशयोक्ति 

अलंकार होता है। उदाहरण-

‘हनुमान की पूँछ में, 

लग न पायी आग।

लंका सगरी जल गई, 

गए निशाचर भाग।।’

‘आगे नदिया पड़ी अपार, 

घोडा कैसे उतरे पार।

राणा ने सोचा इस पार, 

तब तक चेतक था उस पार।।’

‘देखि सुदामा की दीन दसा,

करुना करिकै करणानिधि रोए।

पानी परात को हाथ छुयौ नहिं,

नैनन के जल सों पग धोए।’

5. अन्योक्ति अलंकार-

जहाँ उपमान के बहाने उपमेय का 

वर्णन किया जाय या कोई बात सीधे 

न कहकर किसी के सहारे की जाय, 

वहाँ अन्योक्ति अलंकार होता है। 

जैसे-

‘नहिं पराग नहिं मधुर मधु, 

नहिं विकास इहिकाल।

अली कली ही सौं बंध्यो, 

आगे कौन हवाल।।’

इहिं आस अटक्यो रहत, 

अली गुलाब के मूल।

अइहैं फेरि बसंत रितु, 

इन डारन के मूल।।’

‘माली आवत देखकर 

कलियन करी पुकार।

फूले-फूले चुन लिए, 

काल्हि हमारी बार।।

6. अपन्हुति अलंकार

अपन्हुति का अर्थ है छिपाना या 

निषेध करना। काव्य में जहाँ उपमेय 

को निषेध कर उपमान का आरोप 

किया जाता है, वहाँ अपन्हुति 

अलंकार होता है। उदाहरण-

‘यह चेहरा नहीं 

गुलाब का ताजा फूल है।

नये सरोज, उरोजन थे, 

मंजुमीन, नहिं नैन।

कलित कलाधर, बदन नहिं 

मदनबान, नहिं सैन।।

सत्य कहहूँ हौं दीन दयाला।

बंधु न होय मोर यह काला।।

7. व्यतिरेक अलंकार-

जब काव्य में उपमान की अपेक्षा 

उपमेय को बहुत बढ़ा चढ़ा कर 

वर्णन किया जाता है, वहाँ व्यतिरेक 

अलंकार होता है। जैसे-

जिनके जस प्रताप के आगे ।

ससि मलिन रवि सीतल लागे।

8. संदेह अलंकार-

जब उपमेय में उपमान का संशय हो 

तब संदेह अलंकार होता है। या 

जहाँ रूप, रंग या गुण की समानता 

के कारण किसी वस्तु को देखकर 

यह निश्चित न हो कि वही वस्तु 

है और यह संदेह अंत तक बना 

रहता है, वहाँ सन्देह अलंकार होता 

है। उदाहरण-

‘कहूँ मानवी यदि मैं तुमको 

तो ऐसा संकोच कहाँ?

कहूँ दानवी तो उसमें है 

यह लावण्य की लोच कहाँ?

वन देवी समझूँ तो वह 

तो होती है भोली-भाली।।

विरह है या वरदान है।

सारी बिच नारी है कि 

नारी बिच सारी है।

कि सारी ही की नारी है 

कि नारी ही की सारी है।

कहहिं सप्रेम एक-एक पाहीं।

राम-लखन सखि होहिं की नाहीं।।


9. विरोधाभास अलंकार-

जहाँ बाहर से विरोध दिखाई दे 

किन्तु वास्तव में विरोध न हो। 

जैसे-

‘ना खुदा ही मिला 

ना बिसाले सनम।

ना इधर के रहे 

ना उधर के रहे।।

जब से है आँख लगी 

तबसे न आँख लगी।

या अनुरागी चित्त की, 

गति समझे नहिं कोय।

ज्यों-ज्यों बूड़े स्याम रंग, 

त्यों-त्यों उज्ज्वल होय।।

सरस्वती के भंडार की 

बड़ी अपूरब बात।

ज्यों खरचौ त्यों-त्यों बढे, 

बिन खरचे घट जात।

शीतल ज्वाला जलती है, 

ईंधन होता दृग जल का। 

यह व्यर्थ साँस चल-चलकर,

करती है काम अनिल का।

10. वक्रोक्ति अलंकार-

जहाँ किसी उक्ति का अर्थ जान 

बूझकर वक्ता के अभिप्राय से अलग 

लिया जाता है, वहाँ वक्रोक्ति 

अलंकार होता है। उदाहरण-

‘कौ तुम? हैं घनश्याम हम।

तो बरसों कित जाई।

मैं सुकमारि नाथ बन जोगू।

तुमहिं उचित तप मो कहँ भोगू।।

इसके दो भेद हैं- 

(1) श्लेष वक्रोक्ति 

(2) काकु वक्रोक्ति

(1) श्लेष वक्रोक्ति- जहाँ शब्द के 

श्लेषार्थ के द्वारा श्रोता वक्ता के 

कथन से भिन्न अर्थ अपनी रुचि या 

परिस्थिति के अनुकूल अर्थ ग्रहण 

करता है, उसे श्लेष वक्रोक्ति 

अलंकार कहते हैं।

जैसे- एक कबूतर देख हाथ में 

पूछा, कहाँ अपर है?

उसने कहा, अपर कैसा? वह तो 

उड़ गया सपर है।।

नूरजहाँ से जहाँगीर ने पूछा कि 

‘अपर’ अर्थात दूसरा कबूतर कहाँ 

है? नूरजहाँ ने ‘अपर’ का अर्थ 

लगाया- पर (पंख) से हीन और 

उत्तर दिया कि वह पर-हीन नहीं 

था, बल्कि परवाला था, इसलिए तो 

उड़ गया। यहाँ वक्ता के अभिप्राय से 

बिल्कुल भित्र अभिप्राय श्रोता के 

उत्तर में है।

श्लेष वक्रोक्ति दो प्रकार के होते हैं-

(1) भंगपद श्लेषवक्रोक्ति

(2) अभंगपद श्लेषवक्रोक्ति

(1) भंगपद श्लेषवक्रोक्ति का 

उदाहरण इस प्रकार है-

प्रश्र- अयि गौरवशालिनी, मानिनि, 

आज सुधास्मित क्यों बरसाती नहीं?

उत्तर- निज कामिनी को प्रिय, गौ, 

अवशा, अलिनी भी कभी कहि जाती 

कहीं ?

यहाँ नायिका को नायक ने 

गौरवशालिनी कहकर मनाना चाहा 

है। नायिका नायक से इतनी तंग 

और चिढ़ी थी कि अपने प्रति इस 

गौरवशालिनी सम्बोधन से चिढ़ गयी; 

क्योंकि नायक ने उसे एक नायिका 

का गौरव देने के बजाय गौ 

(सीधी-सादी गाय, जिसे जब चाहो 

चुमकारकर मतलब गाँठ लो), 

अवशा (लाचार), अलिनी (यों ही 

मँडरानेवाली मधुपी) समझकर 

लगातार तिरस्कृत किया था। 

नायिका ने नायक के प्रश्र का उत्तर 

न देकर प्रकारान्तर से वक्रोक्ति या 

टेढ़े ढंग की उक्ति से यह कहा, 

हाँ, तुम तो मुझे गौरवशालिनी ही 

समझते हो ! अर्थात, 

गौः$अवशा$अलिनी=गौरवशालिनी।

जब यही समझते हो, तो तुम्हारा 

मुझे गौरवशालिनी कहकर पुकारना 

मेरे लिए कोई अर्थ नहीं रखता- 

नायिका के उत्तर में यही दूसरा अर्थ 

वक्रता से छिपा हुआ है, जिसे 

नायक को अवश्य समझना पड़ा 

होगा। कहा कुछ जाय और 

समझनेवाले उसका अर्थ कुछ ग्रहण 

करें- इस नाते यह वक्रोक्ति है। इस 

वक्रोक्ति को प्रकट करनेवाले पद 

गौरवशालिनी में दो अर्थ (एक हे 

गौरवशालिनी और दूसरा गौः, 

अवशा, अलिनी) श्लिष्ट होने के 

कारण यह श्लेषवक्रोक्ति है। और, 

इस गौरवशालिनी पद को 

गौः$अवशा$अलिनी में तोड़कर 

दूसरा श्लिष्ट अर्थ लेने के कारण 

यहाँ भंगपद श्लेषवक्रोक्ति अलंकार 

है।


(2) अभंगपद श्लेषवक्रोक्ति का 

उदाहरण इस प्रकार है-

एक कबूतर देख हाथ में पूछा, 

कहाँ अपर है?

उसने कहा, अपर कैसा?

वह उड़ गया, सपर है।

यहाँ जहाँगीर ने नूरजहाँ से 

पूछा-एक ही कबूतर तुम्हारे पास है, 

अपर (दूसरा) कहाँ गया! नूरजहाँ 

ने दूसरे कबूतर को भी उड़ाते हुए 

कहा- अपर (बे-पर) कैसा, वह तो 

इसी कबूतर की तरह सपर (पर 

वाला) था, सो उड़ गया।

अपने प्यारे कबूतर के उड़ जाने पर 

जहाँगीर की चिन्ता का मख़ौल 

नूरजहाँ ने उसके अपर (दूसरे) 

कबूतर को अपर (बे-पर) के 

बजाय सपर (परवाला) सिद्ध कर 

वक्रोक्ति के द्वारा उड़ाया। यहाँ 

अपर शब्द को बिना तोड़े ही 

दूसरा और बेपरवाला दो अर्थ 

लगने से अभंगश्लेष हुआ।


(2)काकु वक्रोक्ति- जहाँ किसी 

कथन का कण्ठ की ध्वनि के कारण 

दूसरा अर्थ निकलता है, उसे काकु 

वक्रोक्ति अलंकार कहते हैं।

कण्ठध्वनि की विशेषता से अन्य अर्थ 

कल्पित हो जाना ही काकु वक्रोक्ति 

है।

यहाँ अर्थ परिवर्तन मात्र कण्ठध्वनि 

के कारण होता है, शब्द के कारण 

नहीं। अतः यह अर्थालंकार है। 

किन्तु मम्मट ने इसे कथन-शैली के 

कारण शब्दालंकार माना है।

काकु वक्रोक्ति का उदाहरण है-

कह अंगद सलज्ज जग माहीं। 

रावण तोहि समान कोउ नाहीं।

कह कपि धर्मसीलता तोरी। 

हमहुँ सुनी कृत परतिय चोरी।। 

-तुलसीदास

रामचरितमानस के 

रावण-अंगद-संवाद में काकु 

वक्रोक्ति देखी जा सकती है।

वक्रोक्ति और श्लेष में भेद- दोनों में 

अर्थ में चमत्कार दिखलाया जाता 

है। श्लेष में चमत्कार का आधार 

एक शब्द के दो अर्थ हैं, वक्रोक्ति में 

यह चमत्कार कथन के तोड़-मरोड़ 

या उक्ति के ध्वन्यर्थ द्वारा प्रकट 

होता है। मुख्य अन्तर इतना ही है।

श्लेष और यमक में भेद- श्लेष में 

शब्दों की आवृत्ति नहीं होती- वहाँ 

एक शब्द में ही अनेक अर्थों का 

चमत्कार रहता है। यमक में अनेक 

अर्थ की व्यंजना के लिए एक ही 

शब्द को बार-बार दुहराना पड़ता 

है।

दूसरे शब्दों में, श्लेष में जहाँ एक 

ही शब्द से भिन्न-भिन्न अर्थ लिया 

जाता है, वहाँ यमक में भिन्न-भिन्न 

अर्थ के लिए शब्द की आवृत्ति करनी 

पड़ती है। दोनों में यही अन्तर है।


11. भ्रांतिमान अलंकार-

जहाँ प्रस्तुत को देखकर किसी 

विशेष साम्यता के कारण किसी 

दूसरी वस्तु का भ्रम हो जाता है, 

वहाँ भ्रांतिमान अलंकार होता है। 

उदाहरण-

चंद के भरम होत मोड़ है कुमुदनी।

नाक का मोती अधर की कान्ति से,

बीज दाड़िम का समझकर भ्रान्ति से,

देखकर सहसा हुआ शुक मौन है,

सोचता है, अन्य शुक कौन है।

बादल काले-काले 

केशों को देखा निराले।

नाचा करते हैं हरदम 

पालतू मोर मतवाले।।

12. ब्याज स्तुति अलंकार

काव्य में जहाँ देखने, सुनने में निंदा 

प्रतीत हो किन्तु वह वास्तव में 

प्रशंसा हो, वहाँ ब्याजस्तुति अलंकार 

होता है।

दूसरे शब्दों में- काव्य में जब निंदा 

के बहाने प्रशंसा की जाती है, तो 

वहाँ ब्याजस्तुति अलंकार होता है।

उदाहरण-

गंगा क्यों टेढ़ी-मेढ़ी चलती हो?

दुष्टों को शिव कर देती हो।

क्यों यह बुरा काम करती हो?

नरक रिक्त कर दिवि भरती हो।

स्पष्टीकरण-यहाँ देखने, सुनने में

गंगा की निंदा प्रतीत हो रही है 

किन्तु वास्तव में यहाँ गंगा की 

प्रशंसा की जा रही है, अतः यहाँ 

ब्याजस्तुति अलंकार है।

रसिक शिरोमणि, छलिया ग्वाला,

माखनचोर, मुरारी।

वस्त्र-चोर ,रणछोड़, हठीला‘

मोह रहा गिरधारी।

स्पष्टीकरण- यहाँ देखने में कृष्ण 

की निंदा प्रतीत होता है, किन्तु 

वास्तव में प्रशंसा की जा रही है। 

अतः यहाँ व्याजस्तुति अलंकार है।

13. ब्याजनिंन्दा अलंकार

काव्य में जहाँ देखने, सुनने में 

प्रशंसा प्रतीत हो किन्तु वह वास्तव 

में निंदा हो, वहाँ ब्याजनिंदा अलंकार 

होता है।

दूसरे शब्दों में- काव्य में जब 

प्रशंसा के बहाने निंदा की जाती है,

तो वहाँ ब्याजनिंदा अलंकार होता 

है।

उदाहरण

तुम तो सखा श्यामसुंदर के,

सकल जोग के ईश।

स्पष्टीकरण- यहाँ देखने, सुनने में 

श्रीकृष्ण के सखा उध्दव की प्रशंसा 

प्रतीत हो रही है, किन्तु वास्तव में 

उनकी निंदा की जा रही है। अतः 

यहाँ ब्याजनिंदा अलंकार हुआ।

समर तेरो भाग्य यह 

कहा सराहयो जाय।

पक्षी करि फल आस जो, 

तुहि सेवत नित आय।

स्पष्टीकरण- यहाँ पर समर 

(सेमल) की प्रशंसा करना प्रतीत हो 

रहा है किन्तु वास्तव में उसकी निंदा 

की जा रही है। क्योंकि पक्षियों को 

सेमल से निराशा ही हाथ लगती है।

राम साधु तुम साधु सुजाना

राम मातु भलि मैं पहिचाना


14. विशेषोक्ति अलंकार

काव्य में जहाँ कारण होने पर भी 

कार्य नहीं होता, वहाँ विशेषोक्ति 

अलंकार होता है।

उदाहरण 

न्हाये धोए का भया, 

जो मन मैल न जाय।

मीन सदा जल में रहय, 

धोए बास न जाय।।

नेहु न नैननि कौ कछु, 

उपजी बड़ी बलाय।

नीर भरे नित प्रति रहै, 

तऊ न प्यास बुझाय।।

मूरख ह्रदय न चेत, 

जो गुरु मिलहिं बिरंचि सम

फूलहि फलहि न बेत, 

जदपि सुधा बरसहिं जलद

स्पष्टीकरण- उपर्युक्त उदाहरण में 

कारण होते हुए भी कार्य का न 

होना बताया जा रहा है ।

15. विभावना अलंकार-

जहाँ कारण के न होते हुए भी कार्य 

का होना पाया जाय, वहां विभावना 

अलंकार होता है ।

जैसे-

बिनु पग चलै सुनै बिनु काना।

 कर बिनु करम करै विधि नाना।।

 आनन रहित सकल रस भोगी ।

 बिनु बानी बकता बड़ जोगी।।

स्पष्टीकरण- उपर्युक्त उदाहरण में 

कारण न होते हुए भी कार्य का 

होना बताया जा रहा है । बिना पैर 

के चलना, बिनाकान के सुनना, 

बिना हाथ के नाना कर्म करना, 

बिना मुख के सभी रसों का भोग 

करना और बिना वाणी के वक्ता 

होना कहा गया है । अतः यहाँ 

विभावना अलंकार है ।

निंदक नियरे राखिए, 

आँगन कुटी छवाय।

बिन पानी साबुन 

निरमल करे स्वभाव।।


16. मानवीकरण अलंकार

जब काव्य में प्रकृति को मानव के 

समान चेतन समझकर उसका वर्णन 

किया जाता है, तब मानवीकरण 

अलंकार होता है 

जैसे-

1. है विखेर देती वसुंधरा 

मोती सबके सोने पर,

रवि बटोर लेता उसे 

सदा सबेरा होने पर ।

2. उषा सुनहले तीर बरसाती

जय लक्ष्मी- सी उदित हुई ।

3. केशर -के केश

 कली से छूटे ।

4. दिवस अवसान का समय

मेघमय आसमान से उतर रही

वह संध्या-सुन्दरी सी परी 

धीरे-धीरे।

17.समासोक्ति अलंकार

जहाँ पर कार्य, लिंग या विशेषण की 

समानता के कारण प्रस्तुत के कथन 

में अप्रस्तुत व्यवहार का समावेश 

होता है अथवा अप्रस्तुत का स्फुरण 

होता है तो वहाँ समासोक्ति अलंकार 

माना जाता है।

समासोक्ति में प्रयुक्त शब्दों से प्रस्तुत 

अर्थ के साथ-साथ एक अप्रस्तुत 

अर्थ भी सूचित होता है जो यद्यपि 

प्रसंग का विषय नहीं होता है, फिर 

भी ध्यान आकर्षित करता है।

उदाहरण 

1. ‘‘कुमुदिनी हुँ प्रफुल्लित भई, 

साँझ कलानिधि जोई।’’

यहाँ प्रस्तुत अर्थ है- ‘‘संध्या के 

समय चन्द्र को देखकर कुमुदिनी 

खिल उठी।’’

अर्थ- इस अर्थ के साथ ही यहाँ 

यह अप्रस्तुत अर्थ भी निकलता है 

कि संध्या के समय कलाओं के निधि 

अर्थात् प्रियतम को देखकर नायिका 

प्रसन्न हुई।

2. ‘‘चंपक सुकुमार तू, 

धन तुव भाग्य विसाल।

तेरे ढिंग सोहत सुखद, 

सुंदर स्याम तमाल।।’’

3. ‘‘नहिं पराग नहिं मधुर मधु 

नहिं विकास इहि काल।

अली कली ही सों बिन्ध्यो, 

आगे कौन हवाल।।’’

यहाँ भ्रमर के कली से बंधने के 

प्रस्तुत अर्थ के साथ-साथ राजा के 

नवोढ़ा रानी के साथ बंधने का 

अप्रस्तुत अर्थ भी प्रकट हो रहा है। 

अतः यहाँ समासोक्ति अलंकार है।


महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तर अलंकार 

1. ’’ध्वनि-मयी कर के गिरी कंदरा।

कलित-कानन केलि निकुंज को।’’

उपर्युक्त पंक्तियों में अलंकार है ?

(अ) छेकानुप्रास (ब) वृत्त्यनुप्रास

(स) लाटानुप्रास (द) यमक

उत्तर- वृत्त्यनुप्रास

2. रंभा भूमत हौ कहा, 

कुछक दिन के हेत।

तुमते केते है गए, 

और हैं यदि खेत।

उपुयक्त पंक्तियों में अलंकार है ?

(अ) वक्रोक्ति (ब) विरोधाभास

(स) लोकोक्ति (द) अन्योक्ति

उत्तर-अन्योक्ति

3. बङे न हूते गुनन बिनु विरद 

बङाई पाए।

कहत धतूरे सों कनक गहनो 

गढ़ो न जाए।

उपर्युक्त पंक्तियों में अलंकार है ?

(अ) अतिशयोक्ति (ब) प्रतिवस्तूपमा

(स) अर्थान्तरन्यास

(द) विरोधाभास

उत्तर-अर्थान्तरन्यास

4. बढ़त-बढ़त सम्पत्ति सलिल 

मन-सरोज बढ़ जाए।

घटत-घटत फिर ना घटै करु 

समूल कुम्हिलाय।।

उपुर्यक्त पंक्तियों में अलंकार है ?

(अ)यमक (ब) विरोधाभास

(स) श्लेष (द) रूपक

उत्तर-रूपक

5. अब अलि रही गुलाब में, अपत 

कटीली डार।

उपर्युक्त पंक्ति में अलंकार है ?

(अ) उपमा (ब) उत्प्रेक्षा

(स) अन्योक्ति (द) अतिशयोक्ति

उत्तर-अन्योक्ति

6. तू रूप में किरन में, सौदर्य है 

सुमन में।

पंक्ति में अलंकार है-

(अ) विभावना (ब) रूपक

(स) यथासंख्य (द) उल्लेख

उत्तर-उल्लेख

7. माया महाठगिनि हम जानी।

तिरगुन फांस लिए कर डौले, बोलै 

मधुरी बानी।

उपर्युक्त पंक्तियों में अलंकार है ?

(अ) श्लेष (ब) यमक

(स) रूपक (द) अन्योक्ति

उत्तर-श्लेष

8. पट-पीत मानहुं तङित रुचि, 

सुचि नौमि जनक सुतावंर।

पंक्ति में अलंकार निहित है ?

(अ) उपमा  (ब) रूपक

(स) उत्प्रेक्षा (द) उदाहरण

उत्तर-उपमा

9. गर्व करउ रघुनन्दन जिन मन 

माँह,

देखउ आपन मूरति सिय के छाँह।

उपर्युक्त पंक्तियों में अलंकार है ?

(अ) व्यतिरेक (ब) रूपक

(स) अतिशयोक्ति (द) प्रतीप

उत्तर-प्रतीप

10. ’कमल-नैन’ में अलंकार है ?

(अ) रूपक (ब) उपमा

(स) उत्प्रेक्षा (द) श्लेष

उत्तर-रूपक 

11. नहिं पराग नहिं मधुर, मधु, 

नहिं विकास बेहि काल।

अली कली ही सों बध्यो, 

आगे कौन हवाल।।

उपर्युक्त पंक्तियों में अलंकार है ?

(अ) रूपक (ब) विशेषोक्ति

(स) अन्योक्ति  (द) अतिशयोक्ति

उत्तर-अन्योक्ति

12. भरतहि होई न राजमदु 

विधि हरि हर पाद पाई।

कबहुँ कि काँजी सीकरनि 

छीर सिंधु बनसाई।।

इसमें अलंकार निहित है ?

(अ) उदाहरण (ब) दृष्टान्त

(स) निदर्शना (द) व्यतिरेक

उत्तर-दृष्टान्त

13. माला फेरत युग गया, 

फिरा न मन का फेर।

कर का मनका छाङि दे, 

मन का मनका फेर।।

उपर्युक्त पंक्तियों में अलंकार है ?

(अ) अनुप्रास (ब) श्लेष

(स) यमक  (द) रूपक

उत्तर-यमक

14. सोहत ओढ़े पीत पट, 

स्याम सलोने गात।

मनहुँ नील मनि सैल पर 

आतप परयो प्रभात।।

इसमें अलंकार निहित है ?

(अ) यमक (ब) उत्प्रेक्षा

(स) रूपक (द) श्लेष

उत्तर-उत्प्रेक्षा

15. मुख बाल-रवि-सम लाल होकर 

ज्वाल-सा बोधित हुआ- 

में अलंकार है ?

(अ) उपमा (ब) उत्प्रेक्षा

(स) उपमेयोपमा (द) रूपक

उत्तर-उपमा

16. मेखलाकार पर्वत अपार

अपने सहस्त्र दृग सुमन फाङ,

अवलोक रहा था बार-बार

नीचे जल मंे निज महाकार।

उपर्युक्त पंक्तियों में अलंकार है ?

(अ) उपमा (ब) रूपक

(स) उत्प्रेक्षा (द) यमक

उत्तर-रूपक

17. निरजीवौ जोरी जुरै, 

क्यों न सनेह गंभीर।

को घटि ये वृषभानुजा, 

वे हलधर के बीर।।

उपर्युक्त पंक्तियों में अलंकार है ?

(अ) यमक (ब) रूपक

(स) श्लेष (द) उत्प्रेक्षा

उत्तर-श्लेष

18. सब प्राणियों  के मत्तमनोमयूर 

आ नचा रहा।

उपर्युक्त पंक्ति में अलंकार है ?

(अ) उपमा (ब) रूपक

(स) श्लेष (द) उत्प्रेक्षा

उत्तर-रूपक

19. वह इष्ट देव के मंदिर की 

पूजा-सी,

वह दीप शिखा-सी शांत भाव में 

लीन

वह टूटे तरू की छूटी लता-सी 

दीन,

दलित भारत की विधवा है- में 

अलंकार है ?

(अ) उपमा (ब) रूपक

(स) उत्प्रेक्षा (द) यमक

उत्तर-उपमा

20. राम-नाम अवलंबु बिनु, 

परमार्थ की आस,

अरसत बारिद बूंद गहि, 

चाहत चढ़न अकास।

इसमें अलंकार निहित है ?

(अ) रूपक (ब) उत्प्रेक्षा

(स) उपमा (द) अतिशयोक्ति

उत्तर-उत्प्रेक्षा

21. वही मनुष्य है जो मनुष्य के 

लिए मरे।

इसमें अलंकार निहित है ?

(अ) छेकानुप्रास (ब) वृत्यनुप्रास

(स) लाटानुप्रास (द) यमक

उत्तर-लाटानुप्रास

22. तरनि तनुजा तट तमाल तरुवर 

बहु छाए- में अलंकार है ?

(अ) अनुप्रास (ब) यमक

(स) उत्प्रेक्षा (द) उपमा

उत्तर-अनप्रास

23. मखमल के झूले पर पङे हाथी 

-सा टीला।

उपर्युक्त पंक्ति में अलंकार है ?

(अ) रूपक (ब) उपमा

(स) उत्प्रेक्षा (द) उल्लेख

उत्तर-उपमा

24. अति मलीन, वृषभानु कुमारी।

अधमुख रहित, उरध नहीं चितवत्,

ज्यांे गथ हारे थकित जुआरी।

छूटे चिकुर बदन कुम्हिलानो, ज्यों

नलिनी हिसकर की मारी।।

उपर्युक्त पंक्तियों में अलंकार है ?

(अ) अनुप्रास (ब) उत्प्रेक्षा

(स) रूपक (द) उपमा 

उत्तर-उपमा

25. पीपर पात सरिस मन डोला- 

में अलंकार निहित है ?

(अ) उपमा (ब) उत्प्रेक्षा

(स) रूपक (द) उल्लेख

उत्तर-उपमा

26. तीन बेर खाती थी वे तीन बेर 

खाती हैं- में अलंकार निहित है ?

(अ) अनुप्रास (ब) श्लेष

(स) यमक (द) अन्योक्ति

उत्तर-यमक

27. बीती विभावरी जाग री।

अम्बर-पनघट में डुबो रही 

तारा-घट उषा-नागरी।

उपर्युक्त पंक्ति में अलंकार है-

(अ) उपमा (ब) उत्प्रेक्षा

(स) रूपक (द) उपमेयोपमा

उत्तर-रूपक

28. चर मरर खुल गए अरर 

रवस्फुटों से- में अलंकार है ?

(अ) अनुप्रास (ब) श्लेष

(स) यमक (द) उत्प्रेक्षा

उत्तर-अनुप्रास

29. बाँधा था विधु को किसने, 

इन काली जंजीरों से।

मणिवाले फणियों का मुख, 

क्यों भरा हुआ हीरों से।।

उपर्युक्त पंक्तियों में अलंकार है ?

(अ) रूपक (ब) अतिशयोक्ति

(स) श्लेष (द) विरोधाभास

उत्तर-अतिषयोक्ति

30. कनक-कनक ते सौगुनी 

मादकता अधिकाय।

उपर्युक्त पंक्ति में अलंकार है ?

(अ) उपमा (ब) यमक

(स) अनुप्रास (द) श्लेष

उत्तर-यमक

31. ज्यों-ज्यों बूङे स्याम रंग, 

त्यौं-त्यौं उज्ज्वल होय।

पंक्ति में अलंकार है ?

(अ) उत्प्रेक्षा (ब) विरोधाभास

(स) उपमा (द) यमक

उत्तर-विरोधाभास

32. चरण-कमल बन्दौ हरि राई।

पंक्ति में अलंकार है ?

(अ) श्लेष (ब) उपमा

(स) रूपक (द) अतिशयोक्ति

उत्तर-रूपक

33. तापस बाला-सी गंगा कूल।

पंक्ति में अलंकार है ?

(अ) श्लेष (ब) उत्प्रेक्षा

(स) रूपक (द) उपमा

उत्तर-उपमा

34. नवल सुन्दर श्याम शरीर।

पंक्ति में अलंकार है ?

(अ) उल्लेख (ब) उपमा

(स) रूपक (द) अतिशयोक्ति

उत्तर-उल्लेख

35. ऊंचे घोर मन्दर के अंदर 

रहनवारी,

ऊंचे घोर मन्दर के अंदर रहती है।

पंक्ति में अलंकार है ?

(अ) यमक (ब) उपमा

(स) श्लेष (द) रूपक

उत्तर- यमक

36. यह देखिए, अरविंद से शिशुवृंद 

कैसे सो रहे।

पंक्ति में अलंकार है ?

(अ) उत्प्रेक्षा (ब) उपमा

(स) रूपक (द) यमक

उत्तर-उपमा

37. हनुमान की पूँछ में 

लग न पाई आग।

लंका सिगरी जल गई, 

गए निसाचर भाग।।

पंक्ति में अलंकार है ?

(अ) श्लेष 

(ब) रूपक

(स) अतिशयोक्ति 

(द) विरोधाभास

उत्तर-अतिषयोक्ति

38. मो सम कौन कुटिल खल 

कामी। पंक्ति में अलंकार है ?

(अ) वक्रोक्ति (ब) उत्प्रेेक्षा

(स) उपमा (द) इनमें से कोई नहीं

उत्तर- वक्रोक्ति

39. रहिमन जो गति दीप की, 

कुल कपूल गति सोय।

बारे उजियारे लगै, 

बढ़ै अंधेरो होय।।

पंक्ति में अलंकार है ?

(अ) उपमा (ब) रूपक

(स) यमक (द) श्लेष

उत्तर-श्लेष

40. संदेसनि मधुवन-कूप भरे।

पंक्ति में अलंकार है ?

(अ) रूपक (ब) वक्राक्ति

(स) अन्योक्ति (द) अतिशयोक्ति

उत्तर-अतिषयोक्ति

41. रहिमन पानी राखिये, 

बिनु पानी सब सून।

पानी गए न ऊबरै, 

मोती मानूस चून।।

पंक्ति में अलंकार है ?

(अ) श्लेष (ब) उत्प्रेक्षा

(स) रूपक (द) अनुप्रास

उत्तर-श्लेष

42. जहाँ उपमेय में उपमान की 

समानता की संभावना व्यक्त की 

जाती है, वहाँ अलंकार होता है ?

(अ) उत्प्रेक्षा (ब) उपमा

(स) रूपक (द) सन्देह

उत्तर-उत्प्रेक्षा

43. उपमेय पर उपमान का अभेद 

आरोप होने पर होता है

(अ) उपमालंकार (ब) रूपकालंकार

(स) श्लेषालंकार (द) उत्प्रेक्षालंकार

उत्तर- रूपकालंकार

44. जहाँ उपमेय का निषेध करके 

उपमान का आरोप किया जाय, वहाँ 

होता है ?

(अ) रूपक अलंकार 

(ब) उत्प्रेक्षा अलंकार

(स) अपह्नुति अलंकार 

(द) उपमा अलंकार

उत्तर- अपह्नुति अलंकार

45. निम्नलिखित में से कौन 

सादृश्यमूलक अलंकार नहीं है ?

(अ) उपमा (ब) रूपक

(स) विशेषोक्ति (द) उत्प्रेक्षा

उत्तर- विशेषोक्ति

46. किस पंक्ति में ’अपह्नुति’ अलंकार 

है ?

(अ) इसका मुख चन्द्रमा के समान 

है।

(ब) चन्द्र इसके मुख के समान है।

(स) इसका मुख ही चन्द्र है।

(द) यह चन्द्र नहीं मुख है।

उत्तर-यह चन्द्र नहीं मुख है।

47. ’रावण सिर सरोज बनचारी।

चलि रघुवीर सिली-मुख धारी।’

सिली-मुख में अलंकार है ?

(अ) श्लेष (ब) लाटानुप्रास

(स) वृत्यनुप्रास (द) उपमा

उत्तर-उपमा

48. ’उषा सुनहले तीर बरसती

जयलक्ष्मी सी उदित हुई।’

इसमें अलंकार है

(अ) मानवीकरण (ब) दृष्टान्त

(स) सन्देह (द) विरोधाभास

उत्तर-मानवीकरण

49. ’उसी तपस्वी से लम्बे थे देवदार 

दो-चार खङे’-में अलंकार है ?

(अ) श्लेष (ब) अतिशयोक्ति

(स) परिसंख्या (द) प्रतीप

उत्तर-परिसंख्या

50. ’बिनु पद चलै सुनै बिनु काना।

कर बिनु कर्म करै विधि नाना।’

इस चौपाई में अलंकार है

(अ) विषम (ब) विभावना

(स) असंगति (द) तद्गुण

उत्तर-विभावना

51. ’अब अलि रही गुलाब में, 

अपत कँटीली डार’ मंे कौनसा 

अलंकार है ?

(अ) उपमा (ब) उत्प्रेक्षा

(स) अन्योक्ति (द) अतिशयोक्ति

उत्तर-उपमा

52. नहिं पराग नहिं मधुर मधु, 

नहीं विकास इहि काल।

अली कली ही सौं बिध्यौं, 

आगे कौन हवाल।।

प्रस्तुत पंक्तियों में कौनसा अलंकार 

है ?

(अ) रूपक (ब) विशेषोक्ति

(स) अन्योक्ति (द) अतिशयोक्ति

उत्तर-अन्योक्ति

53. ’’खिली हुई हवा आई फिरकी 

सी आई, चल गई’’- में अलंकार 

है?

(अ) संभावना (ब) उत्प्रेक्षा

(स) उपमा (द) अनुप्रास

उत्तर-अनुप्रास

54. ’’पापी मनुज भी आज मुख से, 

राम नाम निकालते’’ -इस 

काव्य-पंक्ति में अलंकार है ?

(अ) विभावना (ब) उदाहरण

(स) विरोधाभास (द) दृष्टान्त

उत्तर-विरोधाभास

55. ’’काली घटा का घमंड घटा’’

उपर्युक्त पंक्ति में कौनसा अलंकार 

है?

(अ) यमक (ब) उपमा

(स) उत्प्रेक्षा (द) रूपक

उत्तर-यमक

56. कनक कनक ते सौ गुनी, 

मादकता अधिकाय।

वा खाए बौराए जग, 

या पाए बौराय ।।

ऊपर के दोहे में ’कनक’ का क्या 

अर्थ है ?

(अ) कण (ब) सोना

(स) धतूरा एवं सोना (द) धतूरा

उत्तर- धतूरा एवं सोना

57. दुपहर दिवस जानि घर सूनो 

ढूँढ़ि-ढँढोरि आपही आयो- में 

अलंकार है ?

(अ) यमक (ब) अनुप्रास

(स) उपमा (द) रूपक

उत्तर-अनुप्रास

58. कै वह टूटी-सी छानी हती, 

कहँ कंचन के अब धाम सुहावत।

पंक्ति में अलंकार है ?

(अ) रूपक (ब) उपमा

(स) यमक (द) श्लेष

उत्तर-उपमा

59. पुष्प-पुष्प में तद्रांलस लालसा 

खींच लूँगा मैं। पंक्ति में अलंकार है?

(अ) श्लेष (ब) पुनरावृति

(स) उपमा (द) रूपक

उत्तर-उपमा

60. दिन में रास्ता भूल जाएगा 

सूरज। पंक्ति में अलंकार है ?

(अ) उपमा (ब) अतिशयोक्ति

(स) रूपक (द) श्लेष

उत्तर-अतिषयोक्ति

61. सावन के अंधहि ज्यांे सूझत रंग 

हरो। पंक्ति में अलंकार है ?

(अ) उपमा (ब) रूपक

(स) श्लेष (द) उत्प्रेक्षा

उत्तर-उत्प्रेक्षा

62. देख लो साकेत नगरी है यही 

स्वर्ग से मिलने गगन जा रही है।

पंक्ति में अलंकार है ?

(अ) रूपक (ब) अतिशयोक्ति

(स) उपमा (द) श्लेष

उत्तर-अतिषयोक्ति


हिन्दी एकांकी पार्ट-4 एकांकी से संबंधित कुछ प्रष्न और हिन्दी की महत्त्वपूर्ण एंकाकियां

 हिन्दी एकांकी

पार्ट-4



एकांकी से संबंधित कुछ प्रष्न और हिन्दी की 

महत्त्वपूर्ण एंकाकियां

एकांकी नाटक के समान अभिनय से सम्बन्धित 

विधा है ,इसमें किसी विषय को एक ही अंक में 

प्रस्तुत किया जाता है 

एकांकी का निर्माण रूपक के किस भेद से किया 

जाता है- अंक

एकांकी के समकक्ष रूपक के अन्य भेद माने 

जाते हैं- भाण, व्यायोग, वीथी, अंक प्रहसन

एकांकी का विकास ’एक अंक वाला’ का 

अभिप्राय है- अँग्रेजी  के ’वन एक्ट प्ले’

एक अंकीय भास की रचनाओं का प्रेरक एकांकी 

विकसित है- मध्यम व्यायोग, दूत वाक्य, 

कर्णभार, उरुभंग-दूत-घटोत्कच।

संस्कृत में एकांकी का सार्थक शब्द माना जाता 

है-गोष्ठी

एकांकी का अन्य नाम है- छोटा नाटक, लघु 

नाटक, नाटिका

प्रथम एकांकी के रचनाकार- भारतेन्दु-बसंतपूजा 

(1872), जयशंकर प्रसाद-एक घूँट (1928), 

रामकुमार वर्मा-बादल की मृत्यु (1930) भुवनेश्वर 

प्रसाद- कारवाँ (1935)

काल की दृष्टि से भारतेन्दु की एकांकी को 

प्रथम एकांकी माना जाता है। लेकिन एंकाकियों 

के तत्वों को देखते हुए कुछ विद्वान एक घूंट 

को और कुछ विद्वान बादल की मृत्यु को हिन्दी 

की प्रथम एकांकी मानते हैं।

हिन्दी के प्रमुख एकांकीकारों की एकांकियां

रामकुमार वर्मा-

बादल की मृत्यु (1930), पृथ्वीराज की आँखें 

(1937), रेशमी टाई (1949), चारुमित्र (1943), 

विभूति (1943), सप्तकिरण (1947), रूपरंग 

(1948), कौमुदी महोत्सव (1949),धु्रर्वतारिका 

(1950), ऋतुराज (1951), रजतरश्मि (1952), 

दीपदान (1954), कामकन्दला (1955), कपूर 

(1956), इन्द्रधनुष (1957), रिमझिम (1957), 

औरंगजेब की आखिरी रात, दस मिनट, 

मयूरपंख, बापू, विजयपर्व, कङा और कृपाण, 

नाना फडनवीस, महाराणा प्रताप, शिवाजी, 

अशोक का शोक, जौहर की ज्योति, अग्निशिखा, 

जयादित्य, संत तुलसीदास, जय वर्द्धमान, 

भगवान बुद्ध, समुद्रगुप्त, पराक्रमांक, सम्राट 

कनिष्क, स्वयंवरा, वत्सराज उदयन, महामेघवाहन 

खारवेल, जहीरुद्दीन मुहम्मद बाबर।

भुवनेश्वर-

कारवाँ (1935), श्यामा (1938), एक साम्यहीन 

साम्यवादी (1934), सवा आठ बजे (1938), 

आदमखोर (1938), शैतान, प्रतिभा का विवाह 

(1936), स्ट्राइक, रहस्य रोमांच, मृत्यु (1936), 

लॉटरी (1935), सीकों की गाङी (1950), 

चंगेजखाँ, ऊसर, पतिता (1944), ताँबे के कीङे 

(1946), अकबर (1950), इतिहास की केंचुल 

(1948), फोटोग्राफ के सामने (1945), रोशनी 

और आग (1941), सिकन्दर (1950), आजादी की 

नींद (1948)

उपेन्द्रनाथ ’अश्क’-

देवताओं की छाया में, चरवाहे, तूफान से पहले, 

मोहब्बत, कासवर्ड पहेली, आपस का समझौता, 

विवाह के दिन, जोंक, चिलम, खिङकी, 

जीवनसाथी, चुम्बक, मैमना, चमत्कार, अंधीगली, 

आदिमार्ग, अंजो दीदी, कैसा साब-कैसी आया, 

बतसिया, समाना मालिक, कैद और उङान, 

अधिकार का रक्षक, स्वर्ग की झलक, साहब को 

जुकाम है, जोंक, पर्दा उठाओं पर्दा गिराओ, 

सूखी डाली, भँवर, लक्ष्मी का स्वागत, पापी 

(1937)

उदयशंकर भट्ट

एक ही कब्र में (1936), आदिम युग, दुर्गा, नेता, 

नकली और असली, बङे आदमी की मृत्यु, विष 

की पुङिया, मुंशी अनोखेलाल, प्रथम विवाह, मनु 

और मानव, कुमार संभव, गिरती दीवारें, पिशाचों 

का नाच, बीमार का इलाज, आत्म प्रदान, जीवन, 

वापसी, मंदिर के द्वार पर दो अतिथि, अघटित, 

अंधकार, नये मेहमान, नया नाटक, विस्फोट, 

बाबूजी, धूम्रशिखा, महस्वतंत्रता का युग, 

मायोपिया, अपनी-अपनी खाट पर, वार्गेन, 

गृहदशा, गांधीजी का रामराज्य, धर्म परम्परा, 

एकला चलो रे, अमर अर्चना, मालती-माधव, वन 

महोत्सव, मदन-दहन, दस हजार, सेठ 

भालचन्द, विश्वमित्र, मत्स्यगंधा समस्या का अन्त, 

आज का आदमी, वर निर्वाचन, स्त्री का हृदय, 

पर्दे के पीछे। 

सेठ गोविन्ददास-

स्पर्धा (1935), बुद्ध की एक शिष्या, नानक की 

नमाज, तेगबहादुर की भविष्यवाणी, परमहंस का 

पत्नीप्रेम, कृषियज्ञ, बुद्ध के सच्चे सनेही कौन?, 

मानवमन मैत्री, ईद और होली, हंगर-स्ट्राइक, 

सच्चा कांग्रेसी कौन? बन्द नोट, जाति उत्थान, 

वह मरा क्यों?

जगदीश चन्द्र माथुर-

मेरी बाँसुरी (1936), भोर का तारा, घोंसले, 

भाषण, बंदी, शारदीया, कलिंग विजय, रीढ़ की 

हड्डी, मकङी का जाला, खण्डहर, कबूतर-खाना, 

ओ मेरे सपने, खिङकी की राह

लक्ष्मीनारायण लाल-

मङवे का भोर, अन्धा कुआँ, ताजमहल के आँसू, 

पर्वत के पीछे, नाटक बहुरंगी और दूसरा 

दरवाजा

विष्णु प्रभाकर-

स्वाधीनता संग्राम, लिपस्टिक की मुस्कान, दृष्टि 

खोज, प्रकाश और परछाईं, ऊँचा पर्वत, ये 

रेखाएँ-ये दायरे, अशोक, मैं मानव हूँ, मैं तुम्हें 

क्षमा करूँगा, बीमार, गहरा सागर, तीसरा 

आदमी, डरे हुए लोग, अभया

वृन्दावन लाल वर्मा-

लो भाई पंचो लो, कश्मीर का काँटा

भगवती चरण वर्मा -चौपाल, सबसे बङा आदमी

नरेश मेहता-सुबह के घण्टे

जैनेन्द्र कुमार-टकराहट

हरिकृष्ण ’प्रेमी’-मातृ मन्दिर, राष्ट्रमन्दिर, 

न्यायमन्दिर, वाणी मन्दिर

विनोद रस्तोगी-

पुरुष का पाप, पत्नी का परित्याग, साम्राज्य और 

सुहागरात, सौंदर्य का प्रायश्चित, आज मेरा 

विवाह है, दो चाँद, प्यास और प्यास, काला 

दाग, कसम कुरान की, सोना और मिट्टी, रथ के 

पहिए, पैसा, जनसेवा और लङकी, मुन्ना मर 

गया, मंगल मानव और मशीन

प्रभाकर माचवे-

गली की मोङ पर, पागलखाने में, पंचकन्या, 

पर्वतश्री, रामगिरि, संकट पर संकट, वधू चाहिए, 

गाँधी की राह पर

धर्मवीर भारती-नदी प्यासी थी

मोहन राकेश-अण्डे के छिलके

मार्कण्डेय-पत्थर और परछाइयाँ

राजपूत मलिक-

आँधी की दिया, मिट्टी परछाइयाँ, जमीन आसमाँ, 

चार राज की बात, हाथी के दाँत, भूखी आँखें, 

शीशे का घर, कविता का भूत, घरौंदा, धुँए के 

बादल, बरगद का पेङ, डायन, पहली रात, दिन 

की दीवाली, रजनीगंधा, धरोहर, कनिप्रिया, 

दोहरा व्यक्तित्व, टूटती कङी, संशय, सम्मोहन

गणेश प्रसाद द्विवेदी-

सोहाग बन्दी, वह फिर आई थी, परदे का अपर 

पार्श्व, शर्माजी, दूसरा उपाय ही क्या है?, सर्वस्व 

समर्पण, कामरेड, गोष्ठी, परीक्षा, रपट, रिहर्सल, 

धरतीमाता

गोविन्द बल्लभ पंत-अंगूर की बेटी, विषकन्या, 

व्यथित हृदय

कमलाकान्त वर्मा-उस पार, प्राणदान, पुष्पफल


हिन्दी एकांकी पार्ट-3 स्वातंत्रयोत्तर युग


हिन्दी एकांकी  पार्ट-3  स्वातंत्रयोत्तर युग



हिन्दी एकांकी के विकास की चौथी अवस्था


स्वतंत्रता के पश्चात् प्रारम्भ होती है, जिसे


स्वातंत्रयोत्तर युग के नाम से जाना जाता है।


इस अवस्था में हिन्दी एकांकियों पर रेडियो का


प्रभाव बड़ी गहराई से पड़ा है। रेडियो नाटकों


के रूप में नाटकों का नवीन रूप हमारे समक्ष


आया। रेडियो माध्यम होने के कारण श्रोतागण


इसमें रुचि लेने लगे। इसलिए रेडियो एकांकियों


की मांग इस युग में अधिक रही। डॉ. दशरथ


ओझा ने लिखा है कि ‘हिन्दी के जितने-नाटक


आज रेडियो स्टेशनों पर अभिनीत होते हैं उतने


सिनेमा की प्रयोगशालाओं में भी नहीं होते


होंगे। अतः नाट्यकला का भविष्य रेडियो-रूपक


के रचयिताओं के हाथ में है।’


स्वातंत्रयोत्तर युगीन हिन्दी एकांकी का स्वरूप


विविधता लिए हुए है। इनमें एक ओर परम्परागत


शैली में राष्ट्रीय भावना प्रधान एकांकी लिखे गये


तो दूसरी ओर ध्वनि नाट्य तथा गीति नाट्य का


भी विकास हुआ। इस युग के एकांकीकारों ने


सामाजिक, राजनीतिक, मानवतावादी तथा


यथार्थवादी विचारधाराओं से प्रभावित होकर


एकांकियों की रचना की। इन एकांकीकारों का


दृष्टिकोण प्रगतिशील तत्त्वों से प्रभावित रहा।


जिससे इनकी रचनाओं में पूँजीवाद विरोध, वर्ग


संघर्ष, सड़ी-गली रूढ़ि़यों के प्रति अनास्था,


मानव अन्तर्मन की सूक्ष्म भावनाओं का विश्लेषण,


भ्रष्टाचार उन्मूलन, कृषक एवं मजदूर की दयनीय


स्थिति तथा ब्रिटिश सरकार के प्रति असन्तोष


आदि विचार व्यक्त हुए।


इस क्षेत्र में विनोद रस्तोगी रचित ‘बहू की


विदा’, कणाद ऋषि भटनागर रचित ‘नया


रास्ता’, तथा ‘अपना घर’ दहेज की कुप्रथा का


पर्दाफाश करते हैं। विनोद रस्तोगी, जयनाथ


नलिन, लक्ष्मीनारायण लाल, राजाराम शास्त्री,


कैलाश देव, विष्णु प्रभाकर, प्रभाकर माचवे,


रेवतीसरण शर्मा, श्री चिरंजीत, भारत भूषण


अग्रवाल, कृष्ण किशोर, करतार सिंह दुग्गल,


स्वरूप कुमार बख्षी, गोविंद लाल माथुर आदि


ने समाज में परिव्याप्त विभिन्न सामाजिक


रूढ़ियों एवं विकृतियों के चित्र खींचे हैं। इस


युग के एकांकीकारों का यथार्थपरक दृष्टिकोण


एवं मानवीय मूल्यों के प्रति विशेष आग्रह रहा


है। विष्णु प्रभाकर के ‘बन्धन मुक्त’ में अछूतोद्धार,


‘पाप’ में अविवाहित युवती का अनुचित पैगाम,


‘साहस’ में निर्धनता और वेश्यावृत्ति, ‘प्रतिशोध’


तथा ‘इंसान’ में हिन्दू-मुस्लिम झगड़ों से उत्पन्न


साम्प्रदायिकता की समस्या, ‘वीर पूजा’ में


शरणार्थी समस्या, ‘किरण और कुहासा’ में


अन्तर्जातीय-विवाह की सामाजिक समस्याओं का


चित्रण किया गया है। विष्णु प्रभाकर पर


गाँधीवाद का प्रभाव स्पष्ट रूप से परिलक्षित


होता है। इनके ‘स्वतंत्रता का अर्थ’, ‘काम’,


सर्वाेदय, ‘समाज सेवा’, ‘नया काश्मीर’ आदि


एकांकियों में गांधीवादी सामाजिक एवं आर्थिक


विचारधाराओं की अभिव्यक्ति हुई है। चिरंजीत के


एकांकी यथार्थ एवं कल्पना का सम्मिलित रूप


प्रकट करते हैं। सामाजिक एकांकियों में इनका


यथार्थवादी आलोचनात्मक एवं व्यंग्यात्मक


दृष्टिकोण रहा है। कणाद ऋषि भटनागर कृत


‘नया रास्ता’ तथा ‘लांछन’ में नारी स्वातंत्रय एवं


समानाधिकार का स्वर मुखरित हुआ है।


देवीलाल सामर कृत ‘परित्यक्त’, देवराज दिनेश


कृत ‘समस्या सुलझ गई’, विधवा पुनर्विवाह का


समर्थन करते हैं। इस प्रकार स्पष्ट है कि


स्वातंत्रयोत्तर एकांकीकारों ने अपनी रचनाओं में


उन विविध सामाजिक समस्याओं का चित्रण


किया है जो सहज ही मानव संवेदनाओं का


संस्पर्श करती हैं।


आलोच्य युग में हिन्दी एकांकी में राजनीतिक


जीवन, स्वाधीनता संघर्ष, बंगाल का अकाल,


भुखमरी, फासीवाद का विरोध, जागीरदारी और


देशी नरेशों का जीवन तथा अन्य अनेक राष्ट्रीय


एवं अन्तर्राष्ट्रीय समस्याएं प्रकट हुई हैं। गाँधी


जी द्वारा स्वतंत्रता प्राप्ति हेतु चलाये गये विभिन्न


आन्दोलनों एवं क्रिया-कलापों का चित्रण भी इन


एकांकियों में मिलता है। स्वतंत्रता प्राप्त करने के


पश्चात् हिन्दी एकांकीकारों की लेखनी निर्बाध


रूप से निर्भय होकर चल पड़ी। अतः उन्होंने


अपनी लेखनी से ब्रिटिश प्रशासकों के काले


कारनामों का भी भण्डाफोड़ उन्मुक्त रूप से


किया तथा देशद्रोहियों की वैयक्तिक स्वार्थों की


पूर्ति हेतु ब्रिटिश सरकार के प्रति चाटुकारिता


की प्रवृत्ति का चित्रण करते हुए उनकी कटु


आलोचना भी की है। जयनाथ नलिन की राष्ट्रीय


रचनाओं में सृजनात्मक प्रवृत्ति के दर्शन होते हैं।


देश की स्वतंत्रता, इसके लिए किया गया


बलिदान, त्याग, सतत उद्योग एवं कर्म की


आवश्यकता के महत्त्व का प्रतिपादन इनकी


रचनाओं में हुआ है। इनके ‘विद्रोही की


गिरफ्तारी’, ‘देश की मिट्टी’, ‘युग के बाद’,


‘लाल दिन’ आदि राष्ट्रीय भावना से परिपूर्ण


एकांकी हैं। विष्णु प्रभाकर ने जो राजनीतिक


भावना से परिपूर्ण एकांकी लिखे उनमें


राजनीतिक उथल-पुथल, समाज पर राजनीतिक


प्रभाव, स्वतंत्रता आन्दोलन तथा राजनीतिक


गौरव का चित्रांकन किया है। इस श्रेणी के


प्रमुख एकांकी-‘क्रांति’, ‘कांग्रेस मैन बनो’,


‘हमारा स्वाधीनता संग्राम’ आदि हैं। ‘हमारा


स्वाधीनता संग्राम’, संयम, स्वतंत्रता का अर्थ,


काम, सर्वाेदय आदि गांधीवादी भावना से


प्रभावित रचनाएं हैं। राष्ट्र के प्रति कर्त्तव्य एवं


जागरूकता का चित्रण प्रेमराज शर्मा कृत ‘गाँधी


की आंधी’। देवीलाल सागर ने ‘बहादुर शाह’,


‘वाजिद अली शाह’, तथा ‘शेरशाह सूरी’ में


परिपूर्णानन्द वर्मा ने राष्ट्रीय एकता एवं संगठन


का संकेत किया है। भारतीय नारी द्वारा


राजनीतिक क्षेत्र में दिये गये सक्रिय सहयोग का


चित्रण भी इन एकांकीकारों ने किया है।


प्रसादोत्तर युग में ऐतिहासिक राजनीतिक एकांकी


की धारा तीव्रवेग से प्रवाहित हो रही थी। इस


युग के एकांकीकारों ने प्राचीन ऐतिहासिक पात्रों


के महान चरित्रों को समक्ष रख भारतीय


इतिहास का गौरवमय चित्र सामने रखा तथा


देशद्रोहियों को उनके दुष्कृत्यी पर धिक्कारा।


इसी धारा का पोषण स्वातंत्रयोत्तर युगीन


एकांकीकारों ने उन्मुक्त हृदय से किया है। इन


एकांकीकारों ने मुगलकाल से लेकर ब्रिटिश


काल तक के इतिहास को अपनी एकांकी


रचनाओं में प्रस्तुत किया है। भारतीय स्वतंत्रता


की लड़ाई का इतिहास प्रस्तुत कर आगामी पीढ़ी


के लिए एक अमूल्य धरोहर प्रदान की है। साथ


ही गाँधीवाद से प्रभावित एकांकीकारों ने गांधी


के सत्य, अहिंसा एवं मानवतावादी एवं शान्तिपूर्ण


अहिंसात्मक आन्दोलन की स्वतंत्रता के युद्ध की


पृष्ठभूमि में अभिव्यक्ति की है। श्री विनोद


रस्तोगी ने ‘पुरुष का पाप’, ‘पत्नी परित्याग’,


‘साम्राज्य और सोहाग’, ‘प्यार और प्यास’ आदि


एकांकियों में ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को आधार


बना आधुनिक समस्याओं पर प्रकाश डाला है।


देवीलाल सागर ने ‘वीर बल्लू’, ‘ओ नीला घोड़ा


वा असवार’, तथा ‘जीवन दान’, शीर्षक


ऐतिहासिक एकांकियों में प्राचीन राजपूती शौर्य,


मातृभूमि प्रेम, स्वातंत्रय प्रेम तथा त्याग का


सुन्दर चित्रण किया है। प्रो. जयनाथ नलिन ने


‘देश की मिट्टी’, ‘विद्रोही की गिरफ्रतारी’ आदि


एकांकियों में देश की स्वतंत्रता, देश हेतु किए


गए शौर्यपूर्ण बलिदान, देश सेवा तथा देश के


प्रति कर्त्तव्य का सन्देश दिया है। श्री


परिपूर्णानन्द वर्मा ने ‘वाजिद अली शाह’,


‘शेरशाह सूरी’ तथा ‘बहादुरशाह’ आदि में तीनों


मुगल बादशाहों के शासन-काल की सुन्दर


झांकी प्रस्तुत की है। प्रेमनारायण टंडन ने


‘अजात शत्रु’, ‘गान्धार पतन’, ‘संकल्प’, ‘माता’


की रचना ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर की है। विष्णु


प्रभाकर रचित ‘अशोक’ शीर्षक एकांकी जहाँ


हिंसा पर अहिंसा, असत्य पर सत्य तथा दानवता


पर मानवता की विजय को चित्रित करता है वहीं


ऐतिहासिक पात्र कलिंग कुमार के देशभक्तिपूर्ण


बलिदान, शौर्य, वीरता एवं दृढ़ता का भी सुन्दर


उदाहरण प्रस्तुत करता है। इस प्रकार ये


एकांकीकार ऐतिहासिक एकांकी प्रवृत्ति को आगे


बढ़ाने का कार्य कर रहे हैं।


स्वातन्त्रयोत्तर युगीन एकांकीकारों ने अपनी


रचनाओं में प्राचीन सांस्कृतिक, पौराणिक,


धार्मिक तथा नैतिक प्रसंगों की अभिव्यक्ति अपनी


एकांकी रचनाओं में नवीन विचारों तथा तर्क की


कसौटी पर नवीन ढंग से की है। प्रो. कैलासदेव


बृहस्पति ने अतीत भारत की सांस्कृतिक परम्परा


का पुनरुत्थान तथा उसके आदर्शमय अतीत


गौरव का चित्रांकन अपने पौराणिक तथा


ऐतिहासिक रूपकों में किया है। इसके ‘सागर


मंथन’, ‘विश्वामित्र’, ‘स्वर्ग में क्रान्ति’, आदि


महत्वपूर्ण रेडियो रूपक हैं जिनमें भारतीय


सांस्कृतिक गौरव का कलात्मक चित्रण किया


गया है। कणाद ऋषि भटनागर ने ‘आज का


ताजा अखबार’, में भारतीय संस्कृति की महत्ता


चित्रित की है। ओंकारनाथ दिनकर रचित


गणतंत्र की गंगा, अभिसारिका, सीताराम दीक्षित


रचित ‘रक्षाबन्धन’, देवीलाल सामर रचित ‘आत्मा


की खोज’, ‘ईश्वर की खोज’ आदि में पौराणिक


एवं धार्मिक कथानकों के आधार पर प्राचीन


भारतीय राजनैतिक, सांस्कृतिक मानवतावादी एवं


दार्शनिक आदर्शों की प्रतिष्ठा की है। इनमें से


कतिपय एकांकियों में गांधीवादी विचारधारा की


अभिव्यक्ति हुई है।


आलोच्य युगीन एकांकीकारों ने विभिन्न


वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक एवं राजनैतिक


समस्याओं का चित्रण हास्य व्यंग्य प्रधान शैली में


किया है। जैसे देवीलाल सामर ने ‘वल्लभ’,


‘तवायफ के घर बगावत’, ‘उपन्यास का


परिच्छेद’, ‘अमीर की बस्ती अछूत’ आदि में


आश्रयहीन तिरस्कृत विधवाओं, समाज के उनके


प्रति दुर्व्यवहार, छुआछूत, रूढ़ियों तथा परिवारों


में होने वाले छोटे-छोटे अत्याचारों पर व्यंग्य


किया है। प्रो. जयनाथ नलिन ने ‘संवेदना सदन’,


‘शान्ति सम्मेलन’, ‘वर निर्वाचन’, ‘नेता’, ‘मेल


मिलाप’ आदि व्यंग्य प्रधान एकांकी लिखे हैं।


लक्ष्मीनारायण लाल ने ‘गीत के बोल’, ‘मूर्ख’,


‘सरकारी नौकरी’, ‘कला का मूल्य’, ‘रिश्तेदार’


आदि भावना प्रधान कटु व्यंग्य मिश्रित एकांकियों


का सृजन किया है। कृष्ण किशोर श्रीवास्तव


रचित ‘मछली के आंसू’, जीवन का अनुवाद’,


‘आँख’, ‘बेवकूफ की रानी’ आदि में सामाजिक


यथार्थ चित्रण कर कटु व्यंग्यात्मक प्रहार किया


गया है। इसके अतिरिक्त राजाराम शास्त्री, श्री


चिरंजीत आदि को हास्य रस के छोटे-छोटे


व्यंग्यात्मक एकांकी लिखने में अच्छी सफलता


मिली है।


उपर्युक्त एकांकीकारों के अतिरिक्त स्वातंत्रयोत्तर


युग में अन्य अनेक प्रतिभा सम्पन्न एकांकीकार


भी उल्लेखनीय हैं जिन्होंने अपनी प्रतिभा का


परिचय देते हुए हिन्दी एकांकी को सम्पन्न एवं


समृद्ध बनाने में महत्त्वपूर्ण योग दिया है। कुछ


एकांकीकारों ने मनोविश्लेषण प्रधान एकांकियों


की रचना की जिनमें मानसिक कुण्ठाओं एवं


जटिल भावना-ग्रन्थियों का तार्किक विश्लेषण


प्रस्तुत किया। इस युग में विविध विषयों एवं


समस्याओं को लेकर बहुत बड़ी संख्या में


एकांकियों की रचना हुई।


संक्षिप्ततः, हिन्दी एकांकी का विकास क्रमशः


भारतेन्दु-युग, प्रसाद-युग, प्रसादोत्तर-युग तथा


स्वतंत्रयोत्तर-युग में सम्पन्न हुआ। भारतेन्दु युग


में जो एकांकी लिखे गये वे प्रायः नाटक का ही


लघु रूप थे। इस युग में एकांकी का स्वतंत्र


रूप नहीं मिलता। किन्तु प्रसाद-युग से प्रारम्भ


होकर स्वातंत्रयोत्तर काल तक इसका स्वतंत्र


स्वरूप निश्चित हुआ जो निश्चित रूप से प्रगति


युग कहा जा सकता है। ऐसे विकास-क्रम को


देखते हुए कहा जा सकता है कि निश्चय ही


हिन्दी एकांकी का भविष्य उज्ज्वल होगा।

हिन्दी एकांकी पार्ट-2 प्रसादोत्तर-युग

 हिन्दी एकांकी 

पार्ट-2

प्रसादोत्तर-युग



प्रसादोत्तर-युग हिन्दी एकांकी के विकास की 

तीसरी अवस्था है जिसका समय सन् 1938 से 

1947 ई. (स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व) तक रहा। 

इसके भी हम दो उप-सोपान मान सकते हैं।

(१) 1938 ई. से 1940 ई. तक और

(२) 1941 ई. से 1947 ई. तक।

प्रथम सोपान अर्थात् इस काल के प्रारम्भिक 

समय में हिन्दी एकांकी में अपने समय की 

विभिन्न समस्याओं एवं परिस्थितियों पर 

तर्क-वितर्क मिलता है। तभी कुछ विचित्र एवं 

क्रांतिकारी परिस्थितियों ने विषय, शैली, और 

दृष्टिकोण को भी नया मोड़ दिया। हिन्दी के 

अनेक एकांकीकार इस समय पाश्चात्य नाट्य 

शैलियों एवं विकसित प्रवृत्तियों से प्रभावित हो 

उनका अनुकरण कर रहे थे। इब्सन, विल्यिम 

आर्चर, बर्नार्ड शॉ आदि ख्याति प्राप्त पाश्चात्य 

लेखकों का प्रभाव हिन्दी एकांकीकारों पर पड़ 

ही रहा था। अतः इस युग के एकांकीकारों ने 

परम्परागत एकांकी-तत्त्वों का निर्वाह करने के 

साथ-साथ अभिनव शिल्प-रूपों को भी स्थान 

दिया तथा विषय की दृष्टि से एकांकी को मात्र 

मनोरंजन की वस्तु न बनाकर उसमें मानव 

जीवन की सामयिक समस्याओं एवं विरूपताओं 

का चित्रण प्रारम्भ कर दिया। अर्थात् इस समय 

हिन्दी एकांकी आदर्शवाद के एकांगी घेरे से 

निकल कर यथार्थवाद की ओर बढ़ा। सन् 1940 

से 1947 तक का समय भारत के लिए आपत्तियों 

का समय था। युद्ध की विभीषिकाएं, बंगाल का 

अकाल, आजादी की हुंकार, विदेशी शासकों के 

लोमहर्षक अत्याचार, चोर बाजारी आदि इन्हीं 

सात वर्षों के भीतर की ही बातें हैं। इन सबने 

हमारे चिन्तन और हमारी कला को प्रभावित 

किया। एकांकी भी इनसे अछूता नहीं रह सका। 

कृत्रिमता की बजाय स्वाभाविक और सहज जीवन 

को प्रतिबिम्बित करने वाले एकांकी की रचना 

प्रारम्भ हुई। इन एकांकियों में नाटकीय अभिनय 

के स्थान पर सरल अभिनयात्मक संकेत दिये 

जाने लगे। इसमें परम्परागत रंगमंच-विधान 

सम्पूर्ण रूप से परिवर्तित हो गया और उससे 

सहजता, सरलता, स्वाभाविकता एवं यथार्थ के 

दर्शन होने लगे। शिल्प विधान के अनावश्यक 

आडम्बर बन्धन से इस युग का एकांकी साहित्य 

मुक्त हो गया। संकलन त्रय को वस्तुतः इसी 

समय एकांकी का अनिवार्य अंग माना जाने 

लगा। अब एकांकी केवल साहित्यिक विधा ही न 

रह गयी अपितु इस युग में रंगमंच की स्थापना 

के साथ उसके स्वरूप में भी अन्तर परिलक्षित 

हुआ। इस समय तक ‘हंस’ तथा ‘विश्वमित्र’ 

आदि पत्रिकाओं में एकांकी नाटक एकांकी के 

नाम से प्रकाशित होने प्रारम्भ हो गये तथा 

इनकी प्रारम्भिक भूमिकाओं में एकांकी के शिल्प 

आदि पर विचार प्रस्तुत किये जाने लगे। जिस 

प्रकार भारतेन्दु-युग और प्रसाद-युग में हिन्दी 

एकांकी की विविध प्रवृत्तियाँ उभरी थीं उसी 

प्रकार प्रसादोत्तर युग में भी हिन्दी एकांकी की 

विविध प्रवृत्तियां परिलक्षित होती हैं। वास्तव में 

प्रस्तुत युग में भी पूर्वयुगीन प्रवृत्तियों को ही 

आधार बनाकर एकांकियों की रचना हुई किन्तु 

उनको आदर्शवाद के स्थान पर यथार्थवादी 

आधारभूमि पर निर्मित किया गया।

प्रसादोत्तर युग में यद्यपि एकांकी की अनेक 

प्रवृत्तियों को प्रश्रय मिला है तथापि सामाजिक 

एकांकी की प्रवृत्ति पर लगभग सभी युगीन 

एकांकीकारों ने अपनी लेखनी चलाई। प्रस्तुत 

युग के प्रमुख एकांकीकार डॉ. रामकुमार वर्मा ने 

तो अनेक सामाजिक समस्या प्रधान एकांकियों 

की रचना करके हिन्दी एकांकी साहित्य को 

बहुमूल्य धरोहर प्रदान की है। इन्होंने जीवन की 

वास्तविकता को अपने एकांकियों का आधार 

बनाया। इस दृष्टि से इनके ‘एक तोले अफीम 

की कीमत’, ‘अठारह जुलाई की शाम’, ‘दस 

मिनट’, ‘स्वर्ग का कमरा’, ‘जवानी की डिब्बी’, 

‘आंखों का आकाश’, ‘रंगीन स्वप्न’, आदि 

एकांकी सामाजिक एकांकी की प्रवृत्ति का 

प्रतिनिधित्व करते हैं। वर्मा जी के समान 

उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’ का ध्यान भी विविध वैयक्तिक, 

पारिवारिक एवं सामाजिक समस्याओं की ओर 

गया। इनकी एकांकी रचनाओं में ‘चरवाहे’, 

‘चिलमन’, ‘लक्ष्मी का स्वागत’, ‘पहेली’, ‘सूखी 

डाली’, ‘अन्धी गली’, ‘तूफान से पहले’, आदि 

सामाजिक दृष्टि से विशेष रूप से उल्लेखनीय 

हैं। इनमें लेखक ने युगीन सामाजिक रूढ़ियों, 

परम्पराओं, विरूपताओं विकृतियों, एवं 

अज्ञानताओं का बड़ा ही प्रभावोत्पादक किन्तु 

व्यंग्यात्मक चित्र उपस्थित किया है। युगीन 

एकांकीकार भुवनेश्वर-रचित ‘श्यामा एक 

वैवाहिक विडम्बना’, ‘स्ट्राइक’, ‘एक साम्यहीन 

साम्यवादी’ तथा ‘प्रतिमा का विवाह’ आदि प्रसिद्ध 

हैं। इसमें सामाजिक बाह्याडम्बर, स्त्री-पुरुष 

सम्बन्ध, यौन विषयक समस्याओं एवं प्राचीन 

अप्रगतिशील मान्यताओं का चित्रण किया गया है 

जो मानव जीवन के विकास पथ को अवरुद्ध 

किए हैं। श्री जगदीश चंद्र माथुर का दृष्टिकोण 

भी सामाजिक जीवन की समस्याओं के प्रति 

स्वस्थ एवं उदार रहा है। वे उन एकांकियों को 

सफल नहीं मानते जो समाज से निरपेक्ष होकर 

मात्र साहित्यिक विधा बनकर रह जाते हैं। 

उन्होंने ‘ओ मेरे सपने’ के पूर्व निवेदन में लिखा 

है कि ‘कौन ऐसा लेखक होगा कि जिसकी 

कलम पर सामाजिक समस्याएँ सवार न होती हों 

अनजाने ही या डंके की चोट के साथ?’ इस 

विचार के अनुसार उनके ‘मेरी बाँसुरी’, ‘खिड़की 

की राह’, ‘कबूतर खाना’, ‘भोर का तारा’, 

‘खंडहर’, आदि एकांकी उल्लेखनीय हैं। इनमें 

सामाजिक बन्धनों के प्रति तीव्र विद्रोही भावना 

व्यक्त हुई है। श्री शम्भुदयाल सक्सेना रचित 

‘कन्यादान’, ‘नेहरू के बाद’, ‘मुर्दाे का व्यापार’, 

‘नया समाज’, ‘नया हल नया खेत’, ‘सगाई’, 

‘मृत्युदान’ आदि एकांकी सामाजिक समस्याओं 

को प्रस्तुत करते हैं। सक्सेना जी पर गाँधीवादी 

जीवन का प्रत्यक्ष प्रभाव परिलक्षित होता है। यही 

कारण है कि इनकी रचनाओं में सादा जीवन का 

महत्त्व, मानवतावादी दृष्टिकोण की प्रतिष्ठा, 

नैतिक उन्नयन के प्रति आग्रह, बाह्याडम्बर के 

प्रति घृणा एवं कर्त्तव्य के प्रति जागरूकता के 

दर्शन होते हैं। हरिकृष्ण प्रेमी ने ‘बादलों के 

पार’, ‘वाणी मन्दिर’, ‘सेवा मन्दिर’, ‘घर या 

होटल’, ‘निष्ठुर न्याय’ आदि एकांकी रचनाओं में 

विविध सामाजिक समस्याओं का अंकन किया है 

जिनमें विधवा समस्या, ‘नारी की आधुनिकता’, 

वर्ग वैषम्य, जातीय बन्धन की संकीर्णता, प्राचीन 

परम्पराओं एवं मान्यताओं की अर्थहीनता, पुरुष 

की वासना, लोलुपता एवं दुश्चरित्रता आदि का 

चित्रण प्रमुख रूप के किया है। भगवतीचरण 

वर्मा कृत ‘मैं और केवल मैं’, ‘चौपाल में’ तथा 

‘बुझता दीपक’, में पीड़ित मानव की अन्तर्वेदना 

का करुण स्वर उभर कर सामने आया है। श्री 

रामवृक्ष बेनीपुरी रचित ‘नया समाज’, ‘अमर 

ज्योति’, तथा ‘गाँव का देवता’ आदि रचनाएं 

सामाजिक समस्या प्रधान हैं। श्री सद्गुरुशरण 

अवस्थी ने भारतीय संस्कृति के आदर्शों को 

उपयुक्त एवं उचित तर्काे की कसौटी पर कसकर 

उनको समाज के लिए उपयोगी सिद्ध किया 

जिनमें बुद्ध, तर्क एवं विवेक का प्राधान्य है। इस 

दृष्टि से ‘हाँ में नहीं का रहस्य’, ‘खद्दर’, ‘वे 

दोनों’ आदि विशेष महत्वपूर्ण रचनाएं हैं। इनके 

अतिरिक्त चन्द्रगुप्त विद्यालंकार रचित ‘प्यास’ 

तथा ‘दीनू’, श्री यज्ञदत्त शर्मा कृत ‘छोटी-बात’, 

‘साथ’, ‘दुविधा’, एस.सी. खत्री रचित,‘बन्दर की 

खोपड़ी’, ‘प्यारे सपने’, श्री सज्जाद जहीर रचित 

‘बीमार’ आदि रचनाओं में सामाजिक जीवन के 

सत्य को उभारते हुए और उनका सर्वपक्षीय 

चित्रण किया गया है।

प्रसादोत्तर युग राजनीतिक क्रांति का युग था। 

गाँधी जी का प्रभाव राजनीतिक जीवन में विशेष 

रूप से पड़ रहा था। दूसरी ओर ब्रिटिश सरकार 

का दमन चक्र भी राजनीतिक क्रांति को कुचलने 

के लिए तीव्र गति से चल रहा था। एकांकीकारों 

ने तत्कालीन राजनीतिक समस्याओं एवं 

गतिविधियों का चित्रण करना तथा देशवासियों 

में देशप्रेम एवं स्वतंत्रता की भावना को प्रबल 

करना अपना महान कर्त्तव्य समझा। श्री भगवती 

चरण वर्मा ने ‘बुझता दीपक’ में राजनीतिक दृष्टि 

से कांग्रेस के उच्च पदाधिकारियों अथवा नेताओं 

के खोखलेपन पर भी व्यंग्यात्मक प्रहार किया 

है। श्री हरिकृष्ण प्रेमी ने अपनी राजनीतिक 

रचनाओं में राष्ट्र के नवनिर्माण, देशभक्तों 

भारतीय नेताओं एवं जनता के स्वतंत्रता प्राप्ति 

हेतु किये जाने वाले कार्यों, हिन्दू-मुस्लिम 

संघर्ष, साम्प्रदायिक एकता की आवश्यकता, 

दासता की बेड़ियों को तोड़ने के लिए कृत 

संकल्प देशभक्तों की चारित्रिक महानता आदि 

को चित्रित किया है। इस दृष्टि से इनकी ‘राष्ट्र 

मन्दिर’, ‘मातृ-मन्दिर’, ‘मान-मन्दिर’ तथा ‘न्याय 

मन्दिर आदि उल्लेखनीय रचनाएं हैं। श्री लक्ष्मी 

नारायण मिश्र रचित ‘देश के शत्रु’ शीर्षक 

एकांकी में उन स्वार्थलोलुप व्यक्तियों पर 

व्यंग्यात्मक प्रहार किया गया है जो अपने क्षुद्र 

स्वार्थों की पूर्ति हेतु देश के प्रति अपने कर्त्तव्य 

को भुलाकर देशद्रोही बन बैठे हैं। जगदीश चंद्र 

माथुर रचित ‘भोर का तारा’ शीर्षक एकांकी में 

देशभक्त कवि के महान बलिदान की कहानी है। 

डा. सुधीन्द्र रचित ‘खून की होली’, ‘नया वर्ष’, 

‘नया संदेश’, ‘राखी’, ‘संग्राम’ आदि तथा 

चन्द्रगुप्त विद्यालंकार रचित ‘कासमोपोलिटन 

क्लबों’ आदि रचनाएँ राजनीतिक भावना से 

ओतप्रोत हैं। इस प्रकार युगीन एकांकीकारों ने 

राजनीतिक भावना से प्रभावित होकर राष्ट्रीयता 

का स्वर अपनी रचनाओं में प्रस्फुटित किया है।

आलोच्य युग में कुछ देशद्रोही वैयक्तिक स्वार्थों 

के कारण ब्रिटिश शासकों का साथ दे रहे थे। 

ऐसे देश-द्रोहियों को देशभक्ति की शिक्षा देने 

की दृष्टि से एकांकीकारों ने ऐतिहासिक पात्रों 

के आदर्श एवं त्यागमय चरित्र को प्रस्तुत करके 

प्राचीन भारतीय गौरव की ओर ध्यान भी 

आकर्षित करवाया। डॉ. वर्मा के ऐतिहासिक 

एकांकियों में ‘चारुमित्रा’, ‘पृथ्वीराज की आँखें’, 

‘दीपदान’, ‘रात का रहस्य’, ‘प्रतिशोध’, ‘राज 

श्री’, आदि प्रमुख हैं। जगदीशचन्द्र माथुर ने 

‘कलिंग विजय’, तथा ‘शारदीया’, शीर्षक 

एकांकियों की रचना ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर की 

है तथा भारतीय सांस्कृतिक वातावरण का 

प्रभावोत्पादक स्वरूप चित्रित किया है। राष्ट्रीय 

ऐतिहासिक भावना पर ‘सिकन्दर’, ‘जेरुसलम’ 

आदि एकांकियों की रचना करके भुवनेश्वर 

प्रसाद ने अपने देश प्रेम का परिचय दिया है।

हरिकृष्ण प्रेमी रचित ‘मान मन्दिर’, ‘न्याय 

मन्दिर’, ‘मातृ भूमि का मान’, ‘प्रेम अन्धा है’, 

‘रूपशिखा’ आदि राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत 

ऐतिहासिक रचनाएं हैं। श्री यज्ञदत्त शर्मा रचित 

‘प्रतिशोध’ तथा ‘हेलन’ में भारत के गौरवमय 

अतीत की झाँकी प्रस्तुत की गई है। डा. सत्येन्द्र 

रचित ‘कुणाल’, ‘प्रायश्चित, ‘विक्रम का आत्ममेघ’ 

में प्राचीन कथानक लेकर स्वस्थ तथा तार्किक 

विचारधारा का प्रतिपादित किया गया है। 

भारतीय सांस्कृतिक गौरव की प्रतिष्ठा, अतीत 

कालीन भारतीय गौरव की महत्ता तथा नागरिकों 

के चारित्रिक बल की अभिवृिद्ध करने वाले 

आदर्श पात्रों की सृष्टि करके लेखक ने राष्ट्रीय 

पुनर्निर्माण में सहयोग प्रदान किया है। 

गिरिजाकुमार माथुर रचित ‘विषपान’, ‘कमल और 

रोटी’, ‘वासवदत्ता’ आदि में देशभक्तिपूर्ण आत्म 

बलिदान तथा राष्ट्रीय स्वतंत्रता प्राप्ति हेतु किये 

गये शौर्यपूर्ण कार्यों का चित्रण है। श्री रामवृक्ष 

बेनीपुरी रचित ‘संघमित्रा’, ‘सिंहल विजय’, 

‘नेत्रदान’, ‘तथागत’, आदि इतिहास प्रसिद्ध 

घटनाओं पर आधारित हैं। इस प्रकार स्पष्ट है 

कि प्रसादोत्तर युग में अनेक एकांकीकारों ने 

बहुत बड़ी संख्या में ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के 

आधार पर एकांकियों की रचना करके प्राचीन 

भारतीय गौरव को वर्तमान के समक्ष रखा है।

धर्म-प्रधान देश के नागरिक होने के कारण 

भारतीय हिन्दी एकांकीकारों ने अपने एकांकियों 

की रचना धार्मिक आधार पर करने की प्रवृत्ति 

इस युग में भी नहीं छोड़ी। श्री शम्भुदयाल 

सक्सेना ने विशेष रूप से धार्मिक पौराणिक 

प्रसंगों पर आधारित एकांकियों की रचना की है। 

इन्होंने प्राचीन भारतीय सांस्कृतिक गौरव की 

प्रतिष्ठा करने की दृष्टि से उन गौरवशाली चित्रों 

को उपस्थित किया जिन्होंने भारतीय हिन्दू 

संस्कृति की मर्यादा को बनाये रखा। इनके द्वारा 

रचित ‘सीताहरण’, ‘शिला का उद्धार’, ‘उतराई’, 

‘सोने की मूर्ति’, ‘विदा’, ‘वनपथ’, ‘तापसी’, 

‘पंचवटी’ आदि एकांकी प्रमुख हैं। लगभग सभी 

एकांकियों में हिन्दू संस्कृति की महत्ता भारतीय 

आर्य सभ्यता के उच्चादर्शों, बौद्ध धर्म की भव्यता 

तथा भारतीय नैतिक दृष्टिकोण की श्रेष्ठता के 

स्वरूप का चित्रण किया गया है। डॉ. रामकुमार 

वर्मा ने ‘अन्धकार’ तथा ‘राजरानी सीता’, शीर्षक 

एकांकियों में पाप, पुण्य, प्रेम तथा वासना संबंधी 

प्रश्नों को उठाते हुए यह चित्रित किया है कि 

प्रेम के बिना वासना असम्भव है। लक्ष्मीनारायण 

मिश्र रचित ‘अशोक वन’, शीर्षक एकांकी में 

लेखक ने सीता के आदर्श चरित्र की 

विशेषताओं, पतिव्रत, चारित्रिक बल, तार्किक बुद्ध 

तथा सात्विक प्रवृत्ति की आकर्षक झांकी प्रस्तुत 

करके नीति एवं मर्यादा पर विशेष बल दिया है।

प्रो. सद्गुरुशरण अवस्थी रचित ‘कैकेयी’, 

‘सुदामा’, ‘प्रींद’, ‘शम्बूक’, ‘त्रिशंकु’ आदि 

एकांकियों में प्राचीन पौराणिक एवं धार्मिक पात्रों 

को मौलिक ढंग से नवीन तर्क, विचार, आदर्श 

एवं नैतिक तत्वों सहित प्रस्तुत किया है तथा इन 

पात्रों के माध्यम से प्राचीन भारतीय सभ्यता एवं 

संस्कृति का गौरव गुणगान किया है। अवस्थी 

जी ने अतीत की व्याख्या आधुनिक तथा नवीन 

दृष्टिकोण से की है।

आलोच्य युग में अनेक एकांकीकारों ने अनेक 

हास्य व्यंग्य प्रधान एकांकियों की रचना करके 

विभिन्न समसामयिक समस्याओं की अभिव्यक्ति 

एवं समाधान प्रस्तुत किया है। इन एकांकीकारों 

ने उन विभिन्न समस्याओं पर व्यंग्यात्मक प्रहार 

किया है। जो सामाजिक, साहित्यिक एवं 

राजनीतिक जीवन के लिए अभिशाप बनी हुई 

थीं। उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’ने विशेष रूप से इस 

श्रेणी के एकांकियों की रचना की। इनकी 

‘कइसा साब काइसी बीबी’, ‘जोंक’, ‘पक्का 

गाना’, ‘घपले’ आदि रचनाएँ हास्य व्यंग्य प्रधान 

हैं। भगवती चरण वर्मा रचित ‘दो कलाकार’ 

तथा ‘सबसे बड़ा आदमी’, में हास्यमय वातावरण 

की सृष्टि करते हुए व्यंग्यात्मक प्रहार किये गये 

हैं। गिरिजाकुमार माथुर ‘बरात चढ़े’, ‘मध्यस्थ’, 

‘पिकनिक’, श्री पृथ्वीनाथ शर्मा रचित ‘मुक्ति’ 

तथा डॉ. रामकुमार वर्मा रचित ‘रूप की बीमारी’ 

आदि रचनाएं हास्य व्यंग्य प्रधान हैं।

मनोवैज्ञानिक एकांकी की प्रवृत्ति का जन्म भी 

प्रसादोत्तर युग में हुआ। पाश्चात्य एकांकीकारों 

के प्रभावस्वरूप हिन्दी एकांकीकारों ने भी पात्रों 

के मन की गहराइयों में पहुंचकर उनके 

मनोभावों के चित्रण को परमावश्यक समझा। 

जगदीशचन्द्र माथुर रचित ‘मकड़ी का जाला’ 

शीर्षक एकांकी में अतीत की घटनाओं को स्वप्न 

के माध्यम से चित्रित करते हुए अवचेतन मन की 

ग्रंथियों का अत्यन्त कलात्मक ढंग से चित्रण 

किया है। ‘भुवनेश्वर प्रसाद’ रचित ‘ऊसर’, 

‘प्रतिमा का विवाह’ तथा ‘लाटरी’ आदि 

मनोविश्लेषण प्रधान मनोवैज्ञानिक रचनाएं हैं। 

इन रचनाओं पर फ्रायड के मनोविज्ञान का स्पष्ट 

प्रभाव है। श्री शम्भुदयाल सक्सेना रचित ‘जीवन 

धारणी’, ‘नन्दरानी’, ‘पंचवटी’ आदि, 

गिरिजाकुमार माथुर रचित ‘अपराधी’, श्री 

उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’ रचित ‘छटा बेटा’, ‘भंवर’, 

‘अंधी गली’, ‘मेमना’, ‘सूखी डाली’ आदि 

मनोवैज्ञानिक रचनाएं हैं। इन एकांकियों में मन 

की अतृप्त इच्छाओं, महत्वकांक्षाओं तथा मन की 

दबित अनुभूतियों का सजीव चित्रण किया गया 

है।

इस प्रकार, प्रसादोत्तर युग में पहुंचकर, हर दृष्टि 

से एकांकी साहित्य का एक स्वतंत्र अस्तित्व 

परिलक्षित होता है। अनेक पाश्चात्य नाटककारों 

जैसे इब्सन, शॉ, गाल्सवर्दी, चेखव आदि 

एकांकीकारों की रचनाओं का हिन्दी अनुवाद 

प्रारम्भ हो गया था। इन अंग्रेजी एकांकियों के 

हिन्दी अनुवादों की माँग रेडियो के क्षेत्र में 

अधिक थी। प्रो. अमरनाथ गुप्त ने ए. ए. मिलन 

के एकांकी का हिन्दी अनुवाद किया। कामेश्वर 

भार्गव द्वारा ‘पुजारी’ शीर्षक हिन्दी अनुवाद प्राप्त 

हुआ जो ‘विशप्स कैन्डिलस्टिक्स’ का हिन्दी 

अनुवाद है। इसके अतिरिक्त हैराल्ड व्रिगहाउस 

की रचनाओं के भी हिन्दी अनुवाद हुए। इस 

प्रकार आलोच्य युगीन एकांकीकारों ने विभिन्न 

नवीन प्रयोगों के द्वारा हिन्दी एकांकी साहित्य 

को समृिद्धशाली बनाया।


 
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