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Friday, May 5, 2017

Kabir's harshness is hidden in the sweetness : कबीर की कर्कशता में छुपी है मधुरता


‘मोको कहां ढूंढे रे बंदे’ रमेश खत्री जी का यह पहला प्रकाशित नाटक है। इस नाटक का ताना बाना उन्होंने कबीर को केंद्र में रखते हुए बुना है। रमेश खत्री अपनी बात में कहते हैं कि ‘इस नाटक में कबीर के जीवन के अनेक स्तरों को पकड़ने की कोशिश की गई है।’ कबीर को लेकर विद्वानों में बहुत मतभेद हैं, उनके जन्म, जाति, धर्म, जन्म स्थान, रचना प्रक्रिया आदि को ले करके। यह बात सिर्फ कबीर पर ही लागू नहीं होती है। भारतीय दृष्टिकोण से अनेक ऐसे साहित्यकार हैं जिनकी इन सभी ऊपर लिखित स्थितियों के बारे में प्रमाणिक, स्पष्ट और एक राय विद्वानों की नहीं है। इसके अनेक कारण हैं। जिनकी तह में जाना यहां विषयांतर होगा। किंतु यह बात सही है कि कबीर अपने समय के समाज सहित संस्कृति और परंपरा को जितना क्रांतिकारी रुप से कचोटते हैं उतना दूसरा रचनाकार नहीं। कबीर की भाषा और स्वभाव कई जगह पर अख्खड़ दिखाई देते हैं। ऐसा अक्खड़ रचनाकार उस समय में कोई और नहीं दिखाई देता। उसका एक बड़ा कारण यह है कि तात्कालिक समय की सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक रुढ़िवादी परंपराओं पर चोट करने की सबसे ज्यादा हिमाकत जिस स्वभाव के अंतर्गत हो सकती है वह कबीर में दिखाई देती है। कबीर के दोहे, समाज सेवा तथा उनके जीवन के अनेक महत्त्वपूर्ण पक्षों को उठाते हुए रमेश खत्री बताते हैं कि कैसे कबीर, कबीर बनते हैं। वे एक सामाजिक फरिश्ता बनते हैं। एक साहित्यिक चेतना का व्यक्ति कवि से पहले कैसे समाज सुधारक बनता है। 
कबीर पर लिखना चुनौति है और नाटक लिखना और भी चुनौति है। इस चुनौति को स्वीकार किया रमेश खत्री ने। इस नाटक की भूमिका लिखी वरिष्ठ रंगकर्मी रणवीर सिंह जी ने। उन्होंने भूमिका में एक जगह लिखा-‘‘कबीर की जिंदगी पर नाटक लिखने के लिए हिम्मत चाहिए।’’ मुझे लगता है इसके पीछे यह मानसिकता रही होगी कि मूलतः नाटक का काम असंगत के प्रति प्रतिरोध पैदा करना है और हिन्दुस्तानी नाट्य परंपरा में यह प्रतिरोध का स्वर इसके जन्म से ही दिखाई देता है। रुढ़िवादी परंपराओं, आडंबरों तथा समाज में व्याप्त अंधविश्वासों के प्रति आक्रोशमयी प्रतिरोधी आवाज जितना मुखर होके कबीर उठाते हैं वह अन्य के यहां नहीं दिखाई देती। इसीलिए कबीर की साखियां आज की परिस्थितियों में भी बहुत ज्यादा प्रासांगिक नजर आती हैं। किंतु कबीर का प्रासांगिक होना है, कबीर की महानता या उनके साहित्य की विशेषता है, ऐसा मैं नहीं मानता। कबीर प्रासांगिक इसलिए हैं कि हमारे विकास की चाल धीमी है। राजनीतिक षड्यंत्र, सामाजिक परिस्थितियां और धार्मिक घटाटोपांे के अंतरजाल में फंसा हुआ भारतीय समाज आज भी उन्हीं दायरो में कैद है, जिनके लिए कबीर अपने समय में लड़ रहे थे। यदि आज भी वही परिस्थिति या क्रूरता विद्यमान है तो यह कबीर की प्रासांगिकता या बुद्ध के लेखन की महानता नहीं बल्कि हमारे विकास के पैमाने पर एक जोरदार चांटा है। इस तरह के विषय के ऊपर लिखना और वह भी नाटक लिखना वास्तव में एक चुनौती और हिम्मत का काम है। 
‘मोको कहां ढूंढे रे बंदे’ को रमेश खत्री जी ने दस अंकों में विभाजित किया है। रमेश खत्री जी इस नाटक में अनेक जगह पर बहुत जल्दी में दिखाई देते हैं। जैसे इस नाटक में कबीर के पूरे जीवन दृश्य को दिखाना चाहते हैं। जिसके कारण दृश्य की अधिकता, पात्रों की अधिकता एवं इस तरह की स्थिति या घटनाएं पैदा हो गईं जो संभवतः मंचीय दृष्टिकोण से इस नाटक को खेलने में बाधा पैदा करती हैं। दूसरी बात अनेक जगह पर कथानक, संवाद एवं भाषा स्थिल हो गई है। तीसरी बात ‘मोको कहां ढूंढे़ रे बंदे’ नाटक में कबीर का चरित्र एक सशक्त पुंज की बजाए अनेक टुकड़ों में बिखरा हुआ नजर आता है, जिसके कारण कबीर का सूत्र जहां भी पाठक के साथ जुड़ने लगता है वह कुछ ही देर में बिखर जाता है। क्योंकि भाषा एवं संवाद इतने ताकतवर नहीं हैं कि वह बहुत देर तक दर्शक या पाठक को जोड़े रखंे। नाटक में छोटे-छोटे दृश्य एवं वर्तनी की अशुद्धि भी अनेक जगह पर खलती है। ये तमाम स्थितियां यह संकेत देती हैं कि रमेश खत्री जी बहुत जल्दबाजी में दिखाई देते हैं। वे बहुत कुछ इसी नाटक में कहना चाहते हैं। कबीर को संपूर्ण प्रस्तुत करने का लोभ, उनको अधिक लाभ नहीं देता।
‘मोको कहां ढूंढ़े रे बंदे’ नाटक में कबीर के सामाजिक सरोकारों को एवं उनके द्वारा समाज के लिए किए जाने वाले भले कार्यों को रेखांकित किया गया है। जहां पर भी कबीर बेबसी, गरीबी, लाचारी, मासूमियत और भूख से व्याकुल बच्चे एवं परिवारों को देखते हैं तो उनका सहयोग करने के लिए तत्पर हो जाते हैं। ‘‘न जाने कितने दिनों के भूखे थे बेचारे। किसी को भी इन बच्चों पर थोड़ी भी दया नहीं आई अम्मा। इनकी अम्मा तो भूख से ही मर गई......... बेचारी। नीमा-(व्यंग्य करते हुए) तेरे होते हुए किसी और को जरूरत भी क्या थी? तू है तो सही सभी पर दया करने वाला......... एक अकेला शहर भर में.............।’’ यह कबीर के कार्यों का वह लेखा जोखा है जो निस्संदेह कबीर को कवि से पहले एक समाज सेवी बनाता है। इसीलिए कबीर समाज से वर्ग, वर्ण को समाप्त करके मनुष्य और सिर्फ मनुष्य बने रहने की वकालत करते हैं। कबीर व्यक्तिगत नहीं सामाजिक हित के लिए किए जाने वाले कार्यों को प्रमुखता देते हैं और इसी कारण कबीर असंगति के विरुद्ध तत्काल कदम ही नहीं उठाते बल्कि उसके समाधान के लिए तत्पर हो जाते हैं। इसलिए रमेश खत्री कहते हैं-‘‘बस एक ही रास्ता है। ऐसी बानी बोलो जो सबकी समझ में आए........और ऐसे काम करो जो अधिक से अधिक लोगों की भलाई का हो......... जिससे सभी का हित हो........... सामुहिक हित।’’ सामान्यतः इस सामुहिक हित की वकालत आम जन नहीं करता, जो कि उनकी बड़ी पूंजी है। इस पूंजी को सहेज कर रखने के लिए एवं उसको ताकत के रूप में बचाए-बनाए रखने के लिए कबीर बार-बार इस सामाजिकता पर बल देते हैं। 
आज के समय में पर्यावरण का बहुत महत्त्व है। रमेश खत्री कबीर के माध्यम से धरती, वृक्ष और पर्यावरण के महत्त्व को रेखांकित करते हुए कहते हैं-‘‘यह पेड़ भी तो धरती मां का सिंगार ही है ना माई। इनकी हरियाली हमारा और पशु पक्षियों का जीवन है माई।’’ इनको बचाना और लगाना हम सब की जिम्मेदारी है। इस नाटक के शीर्षक के अनुरूप रमेश खत्री ‘मोको कहां ढूंढ़े रे बंदे’ मैं तो तेरे पास में, हर जगह पर, हर दृष्टिकोण से अनेक स्थितियों पर, पक्षों और पहलुओं को रेखांकित करते हैं। उन पर अपनी पैनी दृष्टि से कबीर के चित्र को प्रस्तुत करते हैं। इसलिए पूरे नाटक में कबीर एक रंग में नहीं बल्कि विविध रंगों में रंगे हुए नजर आते हैं। यही कारण है कि कबीर किसी वर्ग, वर्ण, जाति या धर्म के कटघरे मंे खड़े नहीं होते बल्कि वे सभी के लिए समान हैं। नाटक में एक बुढ़िया कहती है-‘‘सच कहती हूं बेटा। तू न तो हिंदू है और न ही मुसलमान बल्कि इन दोनों से ऊपर तू एक इंसान है। एक ऐसा इंसान जो सबका ख्याल रखता है। सब से प्यार करता है। सबके भले की सोचता है हमेशा। बस इसलिए ही तू सच्चा इंसान है रे बेटा। यही सब जात पात से ऊपर है, इंसानियत ही आदमी को भगवान बनाती है, जाति पाती तो उसे हैवान बनाती है।’’ कबीर के व्यक्तित्व एवं चरित्र के माध्यम से रमेश खत्री जी समाज को एक पुंज में बने रहने की प्रेरणा देते हैं। क्योंकि कबीर का पूरा व्यक्तित्व ही इसी तरह का है। वह किसी खाके में बैठकर किसी एक का नहीं सब का होना चाहते हैं और सब का मनुष्य रूपी भगवान ही हो सकता है। स्वयं भगवान नहीं, क्योंकि भगवान को तो धर्म के आधार पर लोगों ने बांट दिया है। इसलिए जो सबका हो जाए वही विशिष्ट हो जाता है। वह कहीं पर भी दुख, संताप, पीड़ा, असामाजिक आडंबर, भेदभाव आदि देखता है तो दूसरे का दुख दर्द उसे अपना दुख दर्द लगता है। इसलिए कबीर कहते हैं-‘‘एक बेसहारा विधवा भिखारन और उसके साथ भूख से बिलबिलाते बच्चों की पीड़ा मुझसे देखी नहीं गई लोई..............। पैसे तो मेरे पास थे नहीं.........तो मैं भी क्या करता...........अब तुम ही बताओ..........तो मैंने अपनी चादर ही उस बनिए को दे दी और उनको आटा, दाल, चावल दिलवा दिये....।’’ यह व्यक्तित्व का वह पक्ष है जो सबके लिए सहज और समान है। किंतु रमेश खत्री कबीर के इसी व्यक्तित्व को इसलिए विशिष्ट और महत्त्व देते हैं क्योंकि असहज और सामान्य पक्ष गायब होता जा रहा है।
अनेक असामाजिक तत्व कबीर के द्वारा किये जाने वाले सामाजिक कार्याें का विरोध करते हैं। कबीर को एवं उनके द्वारा किये जाने वाले अच्छे कार्यों को तोड़ने के लिए समाज तथा व्यक्ति को वर्ग एवं वर्ण में बांटते हैं। परवेज, समसुल, बशीर और रघुनाथ इसी तरह के चरित्र हैं, जो हर दौर के कबीर के सामने खलनायक के रुप में प्रस्तुत होते हैं। रमेश खत्री इन खल चरित्रों पर कबीर के माध्यम से सीधा वार नहीं करवाते हैं बल्कि ये लोग जिस आम जन को तोड़ने का प्रयास करते हैं, उन्हीं के माध्यम से इनके परिवर्तन की वकालत करते हैं। इस तरीके में एक बेहतर समाधान है। क्योंकि जिस चेतना को जगाने का काम साहित्य करता है उसी चेतना की पक्षधरता रमेश खत्री करते हैं। जिसकी आवश्यकता आज के दौर में और भी अधिक है। कबीर के संदेशों का यही प्रभाव है। धर्मदास कहते हैं-‘‘ठीक है बाबा..........जैसा आप कह रहे हो हम करते हैं। चलो भाईयों, लग जाओ गरीबों की जान बचाने में, इससे बड़ा पुण्य तुम्हें कहीं भी नहीं मिलेगा।’’ धर्म ग्रंथों में दी गई पाप और पुण्य की परिभाषा को ठेंगा दिखाता हुआ यह संवाद निस्संदेह बहुत कम और छोटे शब्दों में बहुत बड़ी बात कहने का प्रयास करता है। रमेश खत्री पूरे नाटक में बिखराव के रूप में ही सही किंतु अनेक जगह पर ऐसी सुक्तियां कहते हैं जो पाठक को विचार करने के लिए मजबूर करती हैं। यह इस नाटक की एक बड़ी उपलब्धि कही जा सकती है।
नाटक के लिए कहानी चुनते वक्त यह जरूरी है कि उसका कथानक प्रभावी हो। कथानक को प्रभावी बनाने के लिए नायक और खलनायक की परिकल्पना की जाती है। ये चरित्र ही अपने विचारों से समाज को प्रेरणादाई बनाते हैं। इसीलिए रमेश खत्री कबीर के सामने प्रतिद्वंदी के रूप में इस तरह का समाज खड़ा करते हैं, जिसमें परवेज, समसुल, बशीर और रघुनाथ जैसे लोग दिखाई देते हैं। इस तरह के तथाकथित समाज के ठेकेदार जब समाज को बांटते हैं तो हर युग का कबीर अपने अंतर्मन से बडे़ खिन्न स्वर में यही बात कहता है-‘‘रैदास कभी सोचा भी नहीं था कि हमारे यहां पर भी जाति.........धर्म, संप्रदाय और भाषा के नाम पर इस तरह से दीवारें खड़ी हो जायेंगी। इंसान और इंसान के बीच इतनी दूरी पैदा हो जायेगी। वह एक दूसरे से इतना दूर चला जायेगा..........कभी सोचा भी नहीं था। मैं तो यह सोच कर भी अचंभित हूं कि इंसान इस तरह से एक दूसरे का दुश्मन बन जायेगा। वह अपने ही भाईयों के साथ ऐसी घिनौनी हरकत करने लगेगा। मुझे तो यह भी अंदेशा है कि एक दिन ये लोग एक दूसरे का खून भी बहाने न लग जायें।’’ कबीर के चरित्र को घड़ने में रमेश खत्री जिस आशंका को याद करते हैं निस्संदेह वह चिंताजनक है और अनेक जगह पर अपनी सीमा लांघ भी चुकी है। अनेक वर्गों और कटघरों में बंटा हुआ इंसान इस आधुनिक और औपचारिक उपभोक्तावादी युग में जितना अपना सोच रहा है उतना दूसरे का नहीं। इसलिए बड़े ही आवेश और क्रोध के साथ रमेश खत्री कबीर से कहलाते हैं-‘‘तो फिर और क्या बांटना बाकी रह गया है राजा साहब............जो आप लोग आपस में मिलकर नहीं रह सकते........? आप लोगों ने जातियां बांटी, धर्म बांटे, जबानें बांटी..........यहां तक कि परमात्मा तक को बांट लिया आप लोगों ने........... अब तो बस इंसान को ही बांटना बाकी रह गया है तो उसे भी बांट लीजिए........ निकालिए अपनी-अपनी तलवारें और कर दीजिए हमारे दो टुकड़े। एक टुकड़ा मुसलमान कबीरदास हो जाएगा और दूसरा हिंदू कबीरदास.......... फिर चाहे तो जलाईये या फिर दफन कीजिए और तब सारी दुनिया जान जायेगी और देख लेगी कि जाति, धर्म, भाषा और यहां तक कि बड़े-बड़े दुश्मनों से भी हार न मानने वाला ये कबीरदास............हारा है तो सिर्फ अपने ही लोगों से.........सिर्फ अपने ही लोगों से.........हारा है।’’ ये सिर्फ कबीरदास के नहीं अपने युग के उस सच्चे आम व्यक्ति के शब्द हैं जो राजनीतिक शक्तियों के बीच में पिस कर हमेशा अपनों से ही परास्त हुआ है और उसकी पराजय किसी की जीत का सिरमौर नहीं बनी बल्कि सभी के लिए पराजय ही रही है। यह बात अलग है कि कुछ लोग उसे क्षणिक आनंद और जीत मानते हैं।
सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक आदि अनेक पक्षों पर कबीर के चरित्र एवं जीवन के माध्यम से कटाक्ष करने वाला तथा सोचने के लिए मजबूर करने वाला यह नाटक ‘मोको कहां ढूंढे़ रे बंदे’ आज के युग की अनेक स्थितियों में प्रासांगिक नजर आता है। यह प्रासंगिकता निस्संदेह कबीर के विचारों के साथ-साथ उनके पद और दोहांे की भी है। जैसा की पूर्व में कहा गया है कि यह नाटक रंगमंचीय दृष्टिकोण से कुछ जगह पर बाधा उत्पन्न कर सकता है। परंतु इसे ठीक से थोड़ा संपादित करके और उचित निर्देशक के हाथों में जाकर एक अच्छी प्रस्तुति और अच्छे नाटक के रूप में खेला जा सकता है। आशा है कि यह खेला जाएगा। जिस तरह के सवाल ‘मोको कहां ढूंढ़े रे बंदे’ के माध्यम से रमेश खत्री उठाते हैं वे इसी जमीन से खड़े हुए हैं, कोई आकाश से नहीं उतरे हैं। इसलिए उनका हल भी यहीं खोजना होगा, यहीं तलाश करना होगा, अन्यत्र जाकर नहीं। क्योंकि कबीरदास जी कहते हैं ‘मोको कहां ढूंढे़ रे बंदे’ मैं तो तेरे पास में, ना मैं मंदिर, ना मैं मस्जिद, ना काबे कैलाश में, खोजी हो तो तुरंत ही मिलिए पल भर की तलाश में।’ 

प्रस्तुति-
प्रदीप कुमार
ग्राम/पोस्ट-बास कृपाल नगर, 
तहसील-किशनगढ़-बास, जिला-अलवर,
राजस्थान, पिन न. 301405, मोबाईल नं.-9460142690, मेल-pradeepbas@gmail.com CykWx&http://pradeepprasann.blogspot.in/2017/03/blog-post.html

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