उत्तर की बाट जोहता एक प्रश्न
मीरा कांत का नाटक ‘उत्तर प्रश्न’ स्त्री विमर्श के प्रश्नों की प्रासांगिकता पर उठने वाला ऐसा प्रश्न है जो अनेक वर्षों से उत्तर की बाट में मुंह बाय खड़ा है। पुरुष समाज के द्वारा निर्मित एक ऐसी व्यवस्था, जिसके हर क्षेत्र एवं हर स्थिति में उसी का वर्चस्व रहा है। ऐसे में एक बड़े प्रश्न के उत्तर की अपेक्षा और आकांक्षा इस नाटक में दिखाई देती है। स्त्री को उसके अस्तित्व एवं अस्मिता की पहचान कब मिलेगी? क्यों नहीं मिल रही? क्या कारण हैं? कल्हण के राजतरंगणी की कथा के इर्द-गिर्द घूमता यह नाटक कश्मीर की पहली महिला शासक यशोवती कि वह कथा है जो निस्संदेह ‘उत्तर प्रश्न’ में मीरा कांत ने कह दी है लेकिन ऐसी अनेक यशोवती हैं जिनकी कथाएं अभी भी अनकही, अनसुनी और अलिखित हैं। इस कथा के आधार पर यशोवती राजसत्ता पर पुरुष के एकाधिकार को चुनौती देती है तथा अपने अस्तित्व एवं स्त्री के राजधर्म की एक गंभीर परिचायिका के रूप में, एक राजा के रूप में, एक रामराज्य के रूप में एक आदर्श रुप प्रस्तुत करती है। कृष्ण के षड्यंत्र से यशोवती अपने पति दामोदर एवं कश्मीर के राजा को खो देती है। परंपरागत रुप से राज्य एवं राजा की प्रथा को बरकरार रखने के लिए सभी लोग यही चाहते हैं कि अगला राजा इसी वंश का हो और कोई विशिष्ट व्यक्तित्व का धनी, क्षत्रिय पुरुष हो। कृष्ण की यह इच्छा होती है कि राजगद्दी पर स्वयं यशोवती बैठे। क्योंकि कृष्ण अंतर्यामी हैं। इसलिए वे जानते हैं कि यशोवती गर्भ से है और उसके पुत्र ही होगा। इसलिए पुत्र के जन्म तक शासन यशोवती चलाए। यशोवती एक कुशल नारी शासक के रूप में अपने आप को प्रतिष्ठित करती है।
‘उत्तर प्रश्न’ नाटक कुल चार अंकों का है। पहले अंक में धर्माध्यक्ष, महामात्य एवं सेनाध्यक्ष के मध्य वार्तालाप होता है। सेनाध्यक्ष बार-बार कृष्ण के द्वारा किए गए युद्ध में षड्यंत्र एवं कूटनीति का जिक्र करते हैं। वे कहते हैं क्या कोई भी युद्ध कृष्ण ने नीति से लड़ा? नहीं, वे बात बात में तो सुदर्शन चक्र निकाल लेते हैंं।
इतिहास हमें सीख देता है किस्मत और गलत को छोड़कर संगत और न्यायिक पथ पर चलकर हम उसकी आगामी योजना बना सके, जिससे आने वाला समय और समाज बेहतर बने। यह इतिहास की परिभाषा नहीं बल्कि इतिहास से कुछ प्रेरणा लेने के सूत्र हैं, जिनको पकड़ के एक दिशा तय की जा सकती है। मीरा कांत का नाटक ‘उत्तर प्रश्न’ कहने को राजतरंगणी के इतिवृत के अनुसार ऐतिहासिक संदर्भों और चरित्रों पर आधारित है लेकिन ‘उत्तर प्रश्न’ में मात्र इतिहास ही नहीं बल्कि वर्तमान और भविष्य की अनेक गुत्थियों का भी खुलासा किया गया है। जिनका प्रतिबिंब आज के समय में भी देखा जा सकता है। ‘उत्तर प्रश्न’ कथा के संदर्भ में गोनन्दवंश कश्मीर नरेश महाराज गोनन्द ने जरासंध के कहने पर मथुरा पर आक्रमण किया और उसी युद्ध में यादव सेना को बुरी तरह से परास्त कर दिया। बलराम ने यादव सेना की रक्षा करते हुए गोनन्द को घेर लिया और उनका वद्ध कर दिया। गोनन्द के बाद उनका पुत्र दामोदर कश्मीर का राजा हुआ। गांधार देश के नरेश ने अपनी पुत्री के स्वयंवर का आयोजन किया, जिसमें यदुवंशी भी निमंत्रित थे। इस अवसर पर कश्मीर नरेश दामोदर अपने पिता की प्रतिशोध की अग्नि को शांत करने के लिए अपनी सेना सहित गांधार पहुंचे और यदुवंशियों पर आक्रमण कर दिया। इस युद्ध में कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से कश्मीर नरेश दामोदर की हत्या कर दी। कश्मीर नरेश दामोदर की मृत्यु के शोक दिनों की समाप्ति के बाद कृष्ण कश्मीर के नरेश का राज्याभिषेक कर उसे सिंहासन पर बैठाने के लिए एक मंत्रिमंडल का गठन करते हैं। जिसमें अनेक विरोध के बाद यह तय करते हैं कि दामोदर की पत्नी यशोवती कश्मीर का सिंहासन संभाले अर्थात वो कश्मीर की सामराज्ञी हों।
यह कथा एक ऐतिहासिक संदर्भ से जुड़ी हुई नजर आती है। ‘उत्तर प्रश्न’ नाटक चार अंकों में विराजित है। जिसमें पहला अंक यशोवति के राजसिंहासन पर बैठने की कृष्ण द्वारा घोषणा करने और सेनाध्यक्ष, धर्माध्यक्ष तथा महामात्य के बीच दामोदर को षड्यंत्र से मारा गया इत्यादि बातों पर द्वंद्वात्मक चर्चा पर केन्द्रित है। किंतु शेष तीनों अंकों में यशोवती का एक विशिष्ट चरित्र सामने आता है। जिसे इतिहास से बिना जोड़े भी देखा जा सकता है। यह नारी शासक किस तरह से अपने राज्य के अंदर अनेक प्रकार के षड्यंत्रों, कुचक्रों, अन्याय एवं व्यभिचार को समाप्त कर, एक न्यायिक व्यवस्था कायम करने की कोशिश करती है, यह दिखाई देता है। हालांकि यह बात अलग है कि उसकी इन तमाम कोशिशों के ऊपर राज्य अधिकारी महामात्य, सेनाध्यक्ष, धर्माध्यक्ष, राजस्व अधिकारी इत्यादि अनेक प्रकार के षड्यंत्र से उसे अपदस्त करना चाहते हैं और अनेक प्रकार की व्यूहरचना उसके विरूद्ध रचते हैं।
‘उत्तर प्रश्न’ नाटक मूलतः स्त्री को केंद्र में रखकर लिखा गया है। स्त्री के सामने अनेक प्रश्न हैं और प्रश्नों के कटघरे में खड़ी हुई स्त्री है। बल्कि कई बार तो स्थितियां ऐसी हो जाती हैं, जैसा कि नाटक का शीर्षक है, प्रश्न बाद में पूछा जाता है पहले स्त्री से उत्तर की अपेक्षा की जाती है। क्योंकि स्त्री का उत्तर एक स्वतंत्र और उसके विवेक का उत्तर नहीं बल्कि वह तो थौंपा गया, उससे कहलवाया गया वह उत्तर है जो पूर्व से सुनियोजित है। नाटक के शीर्षक से यह लगता है कि लेखिका ने यह शिर्षक बहुत सोच समझकर ‘प्रश्न उत्तर’ की बजाय ‘उत्तर प्रश्न’ रखा है। कृष्ण जब राजसिंहासन पर यशोवती को कश्मीर की सामराज्ञी घोषित करते हैं तो यशोवती के मन में उठे हुए प्रश्न का उत्तर नहीं देते हैं। वहां उसका प्रश्न उत्तर रहित है। जैसा कि नाटककार मीरा कांत भूमिका में लिखती हैं-‘‘यदि उसके गर्भ में कन्या भू्रण होता तो क्या कृष्ण उसका राज्याभिषेक कर भविष्य में कश्मीर मंडल का राज्य उसकी पुत्री को सौंपते? वह कृष्ण के इस छलावे को यह कहकर उजागर करती है कि कृष्ण ने एक स्त्री के राज्याभिषेक का ढोंग कर वस्तुतः पुत्र की माता अथवा भावी नरेश की संवाहिका का राज्याभिषेक किया जो अन्ततः पुरुष सत्ता स्थापित करने की कुटिल चाल थी।’’
यह प्रश्न सिर्फ यशोवती कृष्ण से ही नहीं करती है बल्कि अपने समय, अपने युग की हर यशोवति का प्रश्न उसके प्रतिपक्ष में खड़े हुए उस प्रतीक कृष्ण से है जो हमेशा उसकी ममता, माया, वात्सल्य, त्याग, समर्पण, श्रद्धा आदि के गुणों से उसे महिमा मंडित तो करता है परंतु उसके इन गुणों को न तो अपनाता है और न ही इन गुणों के प्रति व्यवहारिक रुप से उसके मन में कोई श्रद्धा होती है, बल्कि वह इन गुणों की आड़ में हमेशा ही उसकी अवहेलना करता है। ऐसे अनेक प्रश्न आज भी उत्तर के इंतजार में खड़े हुए हैं।
दूसरे और तीसरे अंक में मीरा कांत स्पष्ट रुप से नाटक के कथानक और पात्रों के माध्यम स्त्री के चरित्र को स्पष्ट करती हैं। स्त्री किसी भी रुप से एक राजा के रूप में असक्षम और अयोग्य नहीं है। प्रथम दृश्य में जब कृष्ण यशोवती का अभिवादन करते हैं तो वे कहते हैं-‘‘(हाथ जोड़कर) अप्रतिम योद्धा कश्मीर नरेश स्वर्गीय दामोदर की भार्या रानी यशोवती को कृष्ण का अभिवादन।’’ मीरा कांत बहुत ही संजीदा रुप से रुप से यह कहती हैं कि यशोवती का अर्थ है स्त्री का कोई स्वतंत्र परिचय नहीं है। वह हमेशा अपने पिता, पति, पुत्र के संबोधन से ही पहचानी गई है। उसका अपना अस्तित्व, उसकी अपनी पहचान, उसकी अपनी अस्मिता गौण कर दी गई है। ऐसी स्थितियों में यदि कुछ समय के लिए ही सही, पर उस राजसत्ता के ऊपर यदि स्त्री विराजमान होती है तो इस पुरुषवादी मानसिकता के ऊपर गंभीर चोट है और पुरुषों के मस्तिष्क में कुटिल विचार एवं षड्यंत्र के कीड़े कुलबुलाते हैं। ‘‘महामंत्री-राजसिंहासन पर स्त्री! कृष्ण-महामंत्री कोई आपत्ति है क्या? महामंत्री-आपत्ति तो नहीं वासुदेव........परंतु यह अनहोनी होगी........राजसिंहासन पर स्त्री के होने की कोई परंपरा तो नहीं है। कृष्ण-परंपराएं तो बनाई जाती हैं जो भविष्य में स्वयं नियम बन जाती हैं।’’ इन्हीं चले आ रहे परंपरागत मूल्यों के पहाड़ के नीचे स्त्री दबी और कुचली जाती रही है। इन्हीं परंपराओं के कारण स्त्री की स्वतंत्रता, अस्मिता और पहचान उसको नहीं मिल पाई। क्योंकि ऐसा करने से पुरुष वर्चस्ववादी सत्ता को अपनी सत्ता खतरे में दिखाई देने लगती है। अतः वह किसी भी रुप में यह नहीं चाहता कि स्त्री का वर्चस्व स्थापित हो। इसलिए वह कहता है-‘‘महामन्त्री-आप तो द्रष्टा हैं प्रभु........यदि स्त्री सत्ता के केन्द्र में आ गयी तो समाज का सन्तुलन बिगड़ न जाएगा? इस समाज में सबकी अपनी-अपनी विशेष भूमिकाएं हैं तभी तो समाज.....।’’
अर्थात पुरुषवादी मानसिकता पहले ही यह सोच कर बैठी है कि स्त्री के लिए चूल्हा, चौका, बर्तन, झाडू़, बच्चे, ये सब हैं। इन्हीं कार्यों के लिए वह नियुक्त है, इससे अधिक और परे कुछ विशिष्ट अगर वह करती है तो फिर वह बेशर्म है, बेहया है, कुलटा है। लेकिन मीरा कांत इसके माध्यम से भविष्य के अनदेखे पक्षों और स्त्री की ताकत की पहचान कराना चाहती हैं। कृष्ण कहते हैं-‘स्त्री शक्ति के बहुमुखी आयामों को अभी समाज ने न जाना है न परखा है........विश्वास रखिए महामंत्री स्त्रियां इस निकष पर भी खरी उतरेंगी।’’ लेकिन विडंबना यही है कि पुरुष ने स्त्री के साथ अपने अनुभव को सही सहयोगात्मक बनाने की बजाय उसे आदेशात्मक रूप में हमेशा इस्तेमाल किया, ताकि स्त्री दबी रहे।
दूसरे और तीसरे अंक में यशोवति के राज्य संचालन, न्याय प्रक्रिया आदि को प्रमुख रुप से प्रस्तुत किया गया है। राजस्व अधिकारी, न्यायमंत्री एवं भ्रष्ट अधिकारियों के खिलाफ यशोवति कड़े कदम उठाती है और निर्णय लेती है। ग्रामीण जनों में एक संदेश व्याप्त होता है कि एक श्रेष्ठ न्यायिक राजव्यवस्था महारानी के सिंहासन पर रहते हुए कायम हो गई है। ‘‘हां अब तो सिंहासन पर भी महारानी हैं। वे ममतामयी तो हैं पर इन भेड़ियों.........इन भ्रष्ट अधिकारियों के सामने कहां ठहर पाएंगी? अब तो ऐसे ही चलेगा राज! राजसिंहासन पर कोई राजा होता तो बात और थी!’’ यहां यह भी स्पष्ट है कि पुरुषवादी मानसिकता की शिकार आम जनता और अधिकारी दोनों ही स्त्री के प्रतिभावान और विशिष्ट सत्ता संचालक होने के बाद भी उससे न भय मानते हैं और न उसके आदेश का पालन करते हैं। क्योंकि मानसिक रूप से स्त्री की छवि इन कामों के लिए जैसे निर्मित ही नहीं है। इसलिए वह जब इस तरह के कार्य करती है तो या तो वह हंसी की पात्र बनती है या उसका उपहास उड़ाया जाता है।
तीसरे अंक में लेखिका ने एक जगह लिखा है कि ‘‘(प्रकाश मंच पर मंत्रीगणों की ओर है और जनसामान्य लगभग अंधेरे में है।)’’ यह नाटक की ब्लॉकिंग को तय करने के लिए लिखा गया है। परंतु मुझे लगता है कहीं न कहीं आमजन और राजस्व अधिकारियों के मध्य का सच भी नाटककार बयां कर रही हैं। राज्य व्यवस्था बनाम सामान्यजन, पुरुषवादी मानसिकता बनाम स्त्री, यह द्वंद्व नाटककार मीरा कांत के चेतन में नहीं तो अवचेतन में जरूर कहीं न कहीं रहा होगा। सदियों से आम जन और स्त्री अंधकार में हैं और प्रकाश मंच पर है या प्रधानों पर है। इसी लकीर को, इसी रेखा को तोड़कर एक सपाट समतल समझ और समाज बनाने की कोशिश मीरा कांत ‘उत्तर प्रश्न’ में अनेक प्रश्न खड़े करके करना चाहती हैं। इन प्रश्नों के लिए वे उत्तर की अपेक्षा नहीं करती बल्कि उनके समाधान हांे और विकल्प रूप में कुछ समय के लिए ही सही पर एक बानगी के रूप में यशोवती का चरित्र इसी तरह का खड़ा किया गया है।
आम जन के प्रति मूलतः नगरवासियों या अधिकारियों के मन में क्या धारणा होती है उसे लेखिका यहां बताती हैं-‘‘प्रहरी एक-शांत रहें यह सभागृह है..........गांव की चौपाल नहीं है! यहां......यहां......इस और.....। प्रहरी दो-किनारे बैठो......मार्ग छोड़ो..........और लोग भी आते होंगे। नागरिक-देखो तो कैसा अधिकार जता रहा है। इसके भीतर तो आग लग रही होगी.........हम गांव वालों को यहां देखकर।’’ योजना के अनुसार सब कुछ न होना, पूर्व नियोजित कार्यक्रम के अनुसार न होना। यह एक तरह से सामंतवादी राजसत्ता, पुरुष मानसिकता की परिचायक मांग है। सामान्यतः गांव का सहज और सरल व्यक्ति किसी पूर्व नियोजित योजना के अनुसार सभी काम नहीं करता है बल्कि वो किसान और मजदूर स्थिति और परिस्थिति के अनुसार अपने आप को ठाल लेता है। यह भी कहा जा सकता है कि वह अपने एक ही अधोवस्त्र को प्रत्येक मौसम के अनुकूल ओढ़ना, बिछाना, पगड़ी या अंगोछा बना लेता है। वह सभागृह के नियम भले ही न जानता हो लेकिन वह सम्मान और मर्यादा को अच्छी तरह से जानता है। लेकिन उसकी छोटी-छोटी हरकतों से उसे ऐसा आभास दिलाया जाता है कि वह जाहिल है, गवार है, उसे समझ नहीं है। यह निश्चित रुप से पूंजीवादी, सत्तावादी और सामंतवादी मानसिकता का परिचय है।
तीसरे अंक में यशोवति आम जन और स्त्री के अधिकारों के साथ पूर्ण न्याय करने की कोशिश करती हैं। वह हर स्तर पर यह चाहती हैं कि स्त्री का सम्मान हो। इसलिए वह कहती हैं-‘‘ तथ्यों की पुष्टि हो जाने के पश्चात दोषसिद्ध आरोपी को दंडित किया जाएगा और वही दंड दिया जाएगा जो किसी भी सामान्य जन को दूसरे व्यक्ति को बलात् बंदी बनाने के लिए दिया जाता है। हमारे शासन में नारी का कोई भी रूप अपने मानवीय अधिकारों से वंचित न होगा। वह चाहे परवश पत्नी हो अथवा कोई अबोध बालिका।’’ सामंत समरसेन की पत्नी कमलप्रभा ने जब कन्या को जन्म दिया तो वे किसी अन्य स्त्री में आशक्त हो गए। इस तरह से उनके द्वारा अपनी पत्नी एवं बालिका के साथ अन्याय करने पर उन पर इस तरह की न्यायिक प्रक्रिया अपनाई गई। स्त्री का इस तरह से सम्मान करना एवं एक सामंत को दंड देना, एक स्त्री के द्वारा सुशासन चलना आदि राज्य के अन्य पदाधिकारियों को रास नहीं आता है। मंत्री, सेनाध्यक्ष, महामात्य, धर्माध्यक्ष आदि बहुत परेशान हो जाते हैं। इसलिए वे कहते हैं-‘‘महामात्य-कश्मीर मंडल को ये दुर्दिन भी देखने थे.......महारानी दे रही हैं राजाज्ञा! सेनाध्यक्ष-अब यह विधवा विलाप रहने दीजिए! महामात्य-आप देख रहे हैं...........यह शासन नहीं दुश्शासन है! महाराज दामोदर के समय में महामात्य के समक्ष ऐसे वचन कहने का दुस्साहस कोई कर सकता था?’’
चौथे अंक में महारानी यशोवति पुत्र को जन्म देती हैं। सभी लोग बधाई देतें हैं। गीत गाते हैं। धर्माध्यक्ष, महामात्य उसके नामकरण और जागरण के साथ-साथ उसका राज्याभिषेक भी तुरंत करवाना चाहते हैं। यशोवति इस तरह के कार्यों से एक तरह से आश्चर्य चकित है लेकिन खुश भी। अब स्त्री की स्वतंत्रता, स्त्री का यश, उसका वर्चस्व समाप्त हो गया है। यशोवति बार-बार कहती हैं कि ‘‘राजकुमार का राज्याभिषेक! परंतु राजकुमार तो अभी शिशु हैं, अबोध हैं। धर्माध्यक्ष-महादेवी ऐसे पूर्व उदाहरणों का इतिहास साक्षी रहा है। ऐसे निर्णय तो मुहूर्त शास्त्र के अनुसार ही लिए जाते हैं।’’ यहां स्पष्ट है कि जब-जब पुरुष सत्ता ने अपने अधिकारों के वर्चस्व को स्त्री से अधिक श्रेष्ठ बताया है तब तब इतिहास को मोड़ा है, अपने अनुकूल बनाया है और अनेक उदाहरण ऐसे प्रस्तुत किए जिसमें चली आ रही परंपरा को भी तोड़ा है।
‘उत्तर प्रश्न’ नाटक की भूमिका में एक जगह पर मीरा कांत राजतरंगणी की कथा का उल्लेख करते हुए कृष्ण के माध्यम से एक तार्किक प्रश्न यह उठाती हैं कि ‘‘कश्मीर नरेश कोई कश्मीर वासी ही होना चाहिए। इस बिंदु पर आकर यह नाटक आज के कश्मीर के विशेष संवैधानिक दर्जे और अनुच्छेद 370 का एक सूक्ष्म संकेत भी देता है।’’ किन्तु सवाल इसके साथ एक और भी खड़ा होता है कि यह स्थिति तो प्रत्येक राज्य, प्रत्येक देश, व्यक्ति जगह और समाज के साथ लागू हो सकती है, कि वहां की स्थिति या परिस्थितियां को बेहतर तरीके से वहां के स्थानीय लोग ही जानते हों तो फिर यदि यह नियम लागू हो तो सभी जगह लागू हों, सिर्फ एक जगह की क्यों? हालांकि इस बात की कोई पक्षधरता मीरा कांत नहीं करती हैं। किंतु वह एक सांकेतिक सूत्र देती हैं, जिसकी आड़ में अनेक अर्थ नजर आते हैं। किंतु मुझे लगता है यह समस्या का समाधान नहीं है बल्कि तात्कालिक परिस्थितियों के आधार पर किसी बड़ी योजना या नीति के तहत कुछ समय के लिए परिस्थिति के अनुरूप या अनुकूल लिया गया ऐसा निर्णय है जिसके माध्यम से एक बेहतर विकल्प खोजा जा सकता है।
मीरा कांत एक प्रश्न और उठाती हैं। बल्कि एक के बाद एक प्रश्नों के ऊपर प्रश्नों की झड़ी ही लगा देती हैं। वे कहती हैं-‘‘इससे भी बड़ा प्रश्न मेरे तार्किक मन ने आहिस्ता से प्रस्तुत किया था कि इसके पश्चात यशोवति का क्या हुआ? वह जीवित रही भी या नहीं? उसने राज सिंहासन स्वेच्छा से छोड़ा या उसे पुरुष सत्ता ने साम-दाम, दंड-भेद से पदच्युत किया?’’ उत्तर की अपेक्षा में उपेक्षित ये प्रश्न और स्त्री अपने अस्तित्व, गुण, आदि की पहचान के लिए प्रतिक्षारत हैं। स्त्री के अस्तित्व को पहचान मिले इसके लिए एक पहल और मुहिम का हिस्सा है ‘उत्तर प्रश्न’। जो अनेक प्रश्नों की श्रंृखला के रूप में खड़ा हुआ है। स्त्री के इन मुद्दों और मार्मिक बिंदुओं को लेकर ये प्रश्न जो पूर्व में भी अनुत्तरित थे, आज भी अनुत्तरित हैं और भविष्य में भी अनुत्तरित.......?? स्वराज प्रकाशन से 2016 में प्रकाशित यह नाटक ‘उत्तर प्रश्न’ अपने आप में अनेक प्रश्न करता है। नाटक की भाषा बड़ी परिमार्जित, संस्कृत शब्दावली से संश्लिप्त है। मीरा कांत का इस तरह की भाषा पर एक अच्छा अधिकार दिखाई देता है। भाषा पात्रानुकुल के साथ साथ स्थान एवं चरित्र के अनुकुल भी नजर आती है। क्योंकि नाटक जिस परिवेश का है, उस पौराणिक कथा को संस्कृतनिस्ट भाषा के माध्यम से प्रस्तुत करना नाटककार के लिए अनिवार्य है। इसलिए मीरा कांत नाटक के लिए उसी तरह की भाषा का प्रयोग करती हैं। विशिष्ट रुप से पहले अंक में कृष्ण, महामात्य, धर्माध्यक्ष और सेनाध्यक्ष के बीच के संवाद बहुत ही मार्मिक, कटाक्षपूर्ण और प्रांजल भाषा से लबरेज हैं। निश्चित रुप से इस तरह की भाषा लिखना सहज नहीं है। परंतु जब नाटककार नाटक के कथानक और चरित्रों के साथ जुड़ता है तो वह अपने आपको वहीं महसूस करता है। अतः उसी परिवेश या चरित्र की भाषा उसके लिए कही जाती है। क्योंकि किसी भी चरित्र को सबसे पहले वही अभिनीत करता है, लिखता है। वह लिखते हुए एक तरह से अभिनीत भी करता है। अतः वहां कई बार नाटककार नहीं चरित्र बोलता है। भाषा, शब्द और संवाद उसी के अनुरुप हो जाते हैं।
प्रस्तुति-
डॉ. प्रदीप कुमार
ग्राम/पोस्ट-बास कृपाल नगर,
तहसील-किशनगढ़-बास, जिला-अलवर,
राजस्थान, पिन न. 301405, मोबाईल नं.-9460142690,
esy&pradeepbas@gmail.com CykWx&http://pradeepprasann.blogspot.in/2017/03/blog-post.html
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