खाली वैक्यूम को भरने की कोशिश
रंग संस्कार थियेटर ग्रुप के द्वारा तीन दिवसीय
‘ग्रीष्म नाट्य उत्सव’ 12 से 14 मई 2017 महावर ऑडिटोरियम अलवर में आयोजित किया
गया। इस ग्रीष्म नाट्य उत्सव में चार नाटक मंचित किए गए। इस नाट्य उत्सव में सबसे
ज्यादा कमी खली दर्शकों की।
बहुत
पहले मैंने एक जगह पढ़ा था कि नाटक करने वाले एवं उसको पसंद करने वाले हमेशा ही
संख्यात्मक दृष्टि से बहुत ही कम लोग रहे हैं। यह संख्या लगभग हर काल में ऐसी ही
रही है। पूर्व की तुलना में अब जनसंख्या लगातार बढ़ रही है। उसके अनुपात में भी कला
के प्रेमी उतने नहीं बढ़ रहे, जितने
बढ़ने चाहिए। फिर भी वे बिल्कुल नहीं है ऐसा भी नहीं कहा जा सकता, लेकिन जितने हैं वे अलग-अलग वर्गों में
बंटे हुए हैं। कोई भी कला प्रस्तुत करना या उससे जुड़ना, प्रारंभिक रूप में उसके प्रति जुनून, लगाव, प्रेम या समाज में परिवर्तन लाना आदि हो सकता है लेकिन धीरे-धीरे बाद
में वह व्यवसायिक, पैसे कमाना, प्रसिद्धि प्राप्त करना या किसी माध्यम
से कोई सरकारी या गैर सरकारी संस्था विभाग से योजनाएं ले करके अपने काम को आगे
बढ़ाना आदि हो जाता है या हो सकता है। कला के संवर्धन में सरकारें अक्सर उदासीन रही
हैं। किन्तु यह भी नहीं कहा जा सकता कि सरकारें कला को प्रोत्साहन नहीं दे रही
हैं। हां यह बात अलग है कि अनेक तरह की कलाओं को पोषित करने वाली छोटी छोटी
संस्थाओं को बंद कर दिया गया है या उनको मिलने वाली परियोजना, वित्त विभाग से लाभ, बजट इत्यादि की कटौती कर दी गई है।
बहुत पूर्व से ही इसी तरह की स्थिति या मानसिकता सरकारों की देखी जा सकती है। फिर
भी कला को करने वाले, उसको पसंद करने वाले लोग उसका निर्वहन
कर रहे हैं और सरकार से या अन्य जगह से सहयोग लेकर इन कलाओं को साध रहे हैं।
क्योंकि जीवन यापन करने के लिए पैसों की बहुत आवश्यकता होती है, जरूरी भी है। अतः किसी न किसी माध्यम
से व्यक्ति उनका अर्जन करेगा। अपने परिवार का पालन पोषण करेगा। बहुत सारे लोग अपने
परिवार का पालन करने के लिए अनेक माध्यम से पैसे कमाते हैं और उन माध्यमों के अंदर
भी वे अनेक प्रकार के झूठ,
प्रपंच, बेईमानी, घोटाले, भ्रष्टाचार इत्यादि का उपयोग करते हैं तो यह गलत होता है। क्योंकि
किसी भी प्रकार का व्यवसाय लगभग-लगभग बुरा नहीं है। समाज की बहू आयामिता के आधार
पर उस की आवश्यकता है। परंतु उस व्यवसाय कि यह मानसिकता बन जाए कि सिर्फ मेरे लाभ
के लिए किसी की भी हानि हो,
तो इस तरह का व्यवसाय गलत है। इस तरह
की व्यवसायीकरण की सोच, असंगत, अनैतिक आदि का प्रतिरोध करने के लिए कलाएं, साहित्यिक विधाएं एवं अनेक गतिविधियां
एक प्रमुख प्रतिपक्ष की भूमिका निभाती हैं। उनका प्रतिपक्ष या प्रतिरोध किसी भी
प्रकार से उनकी व्यक्तिगत रुप से अहित की कामना नहीं है। बल्कि जो उन की कार्यशैली
या पद्धति है उस में बदलाव हो और अधिक से अधिक समाज को लाभ मिले ऐसा दृष्टिकोण
होता है या होना चाहिए। इसी तरह से ही नाटक, संगीत, साहित्यिक, सांस्कृतिक या अन्य कला की विधाओं से
जुड़े हुए लोग अपनी इन कलात्मक गतिविधियों का संवर्धन करने के लिए किसी न किसी
प्रकार का सरकारी या गैर सरकारी सहयोग लेते हैं।
यह तो अमुमन देखा ही गया है कि कला को करने
वाले लोग, प्रारंभ में कभी भी धनाढ्य वर्ग से
नहीं रहे। हां वह बात अलहदा है कि उसको करते करते वे लोग प्रसिद्ध हो गए और पैसे
वाले हो गए। किंतु मूलतः प्रारंभ में उनका ध्येय यह नहीं होता है। अर्थात कलाकार
के पास अभाव की जिंदगी हो और वह फिर भी कला का संवर्धन या उससे प्रेम करता रहे तो
यह भी ठीक नहीं है। क्योंकि जिस तरह से एक अध्यापक अपनी अध्येतावृति से वेतन पाता
है और साथ ही वह शिक्षा देकर समाज में एक बेहतर और सामाजिक कार्य भी करता है। ठीक
उसी प्रकार से कलाकार भी अपनी कला की प्रस्तुति अपने शौक के लिए या समाज में
परिवर्तन के लिए, असंगत के विरुद्ध बोलने के लिए करता
है। किंतु वह यह भी अपेक्षा रखता है या रखनी चाहिए कि या तो इस कला के माध्यम से
या किसी दूसरे माध्यम से जुड़कर वह अपने परिवार का पालन पोषण करने के लिए
जीविकापार्जन करे। जिससे की उसका जीवन भी चल सके। अर्थात कहीं न कहीं से उसे वेतन
मिलता रहे।
अलवर में अनेक समस्याएं हैं, जो साहित्यिक एवं कलात्मक गतिविधियों
से जुड़ी हुई हैं और सीधे-सीधे नाटक से जुड़ी हुई हैं। यहां सांस्कृतिक गतिविधियों
से जुड़ी हुई अनेक संस्थाएं हैं, कलाकार
भी हैं, दर्शक भी हैं। लेकिन जैसा की अनेक
जगहों पर होता है कि संस्थाएं एवं कलाकार एक दूसरे से वैचारिक रूप से या व्यक्तिगत
रुप से मतभेद या मनभेद रखती हैं। इसके बजाय इनके मध्य एक सुखद प्रतिस्पर्धा हो तो
वह इन कलात्मक गतिविधियों को बेहतर बनाने में मदद कर सकती है। परंतु यदि एक
व्यक्ति या संस्था दूसरे को नीचा दिखाकर स्वयं को विशिष्ट बनाने की कोशिश करे तो
वहां अनेक तरह की दिक्कतें आती हैं। जहां तक मुझे लगता है ऐसी स्थिति किसी को ही
ऊपर नहीं बढ़ने देती है। रंग संस्कार थियेटर ग्रुप द्वारा आयोजित ग्रीष्म नाट्य
उत्सव में प्रस्तुत नाटकों एवं कलाकारों की समीक्षात्मक रुप से खूबियों एवं
खामियों को अलग से रेखांकित किया जा सकता है। किन्तु मूलतः यहां नाटक/रंगमंच के
संवर्धन की बात है तो उसमें अलवर के रंगकर्मी, कला
प्रेमी, साहित्यकार आदि की भूमिका प्रमुख होगी
न कि आम दर्शक की। क्योंकि ग्रीष्म नाट्य उत्सव में इन सबकी उदासीनता कहीं न कहीं
खली। जबकि ऐसी स्थिति में अलवर में एक सरकारी भव्य प्रेक्षागृह प्रताप ऑडिटोरियम
निर्मित हो चुका है, परंतु वह बहुत अधिक दाम पर उपलब्ध होता
है। अतः उसके लिए सिर्फ बातों से ही संघर्षरत दिखाई देने वाले अलवर के रंगकर्मी यह
अपेक्षा करें कि वह उन्हें कम से कम दर में इसी तरह से उपलब्ध हो जायेगा, यह एक तरह से थियेटर या कला के प्रति
बेईमानी लगती है। दूसरी बात, यदि
खुदा न खासता प्रताप ऑडिटोरियम कम से कम दर पर या निःशुल्क उपलब्ध हो भी जाए, तो कम से कम लगभग पिछले दो वर्ष के
कार्यक्रमों के प्रति अलवर के रंगकर्मियों या कला, साहित्यिक संस्थाओं की स्थिति को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि कुछ
संस्थाएं और कुछ कलाकारों को छोड़ दें तो लगभग लगभग नाटक प्रस्तुति का हाल वैसा ही
रहेगा जो अभी है। अर्थात प्रताप ऑडिटोरियम मिलने के बाद नाट्य प्रस्तुतियों में बढ़ोतरी
हो जायेगी ऐसा अभी तो प्रतीत नहीं हो रहा। क्योंकि आमजन तो नाटक का दर्शक तक बनेगा
जब उसके सामने नाट्य प्रस्तुतियों का सिलसिला लगातार चलेगा। सिनेमा या अन्य
गतिविधियों की तुलना में उसके सामने नाटक एक बड़े विकल्प के रूप में होगा, तब वह उसे चुनेगा या उससे जुड़ेगा।
क्योंकि आम दर्शक इसकी गहराई से वाकिफ नहीं है। मैं यहां निराशा की बात नहीं कर
रहा हूं, लेकिन जो यथार्थ स्थिति है, जो खाली वैक्यूम दिखाई दे रहा है, उसे प्रस्तुत कर रहा हूँ। यह कड़वा भी
हो सकता है और अनेक लोगों के लिए कष्टदाई भी, परंतु
इस नासूर को निकाले बिना ही मर्ज ठीक होगी, ऐसी
आशा और अपेक्षा करना संभवतः हम जिस काम को करने जा रहे हैं या कर रहे हैं उसके
प्रति ही नहीं एक व्यक्ति के रुप में भी हमें बेईमानी महसूस होगी। यहां आम दर्शक
की कला के प्रति जो रुचि या समर्पण की संख्या होती है, वह आनुपातिक रुप से लगभग कम है किंतु
सवाल तो उन पर उठता है जो इस माध्यम से जुड़े हुए हैं, जो अपने आप को कला के प्रेमी, थियेटरिस्ट, नाटक करने वाले, रंगकर्मी, साहित्यकार, लेखक या कवि कहते हैं। वरिष्ठ ही नहीं
बल्कि अब तो कनिष्ठ रंगकर्मी भी यह अपेक्षा करने लग गया है कि जब तक उसके पास
व्यक्तिगत रुप से कोई बुलावा, संदेश, फोन, निमंत्रण पत्र इत्यादि नहीं आयेगा, वह नाटक देखने के लिए नहीं आयेगा। वह यह भी अपेक्षा करता है कि मैं
तो रंगकर्मी हूं, साहित्यकार हूं इसलिए मुझे तो नाटक
निःशुल्क देखने का अधिकार है और जो लोग नाटक प्रस्तुत कर रहे उन्हें दिखाना भी
चाहिए।
पहली बात तो यह कि जिस तरह की उदासीनता या
नकारात्मक दृष्टिकोण या नजरिया नाटक या कला के प्रति परिवारों का, समाज का, सरकारों का होता है वह नजरिया कम से कम उन लोगों का नहीं होना चाहिए
जो इस माध्यम में किसी भी रुप से जुड़े हुए हैं। दूसरी बात जिस तरह से दूसरी
गतिविधियां के लिए हम लोग पैसा खर्च करते हैं, समय
पर जाते हैं, इसी तरह से नाटक के लिए भी हमें थोड़ा
पैसा खर्च करना पड़ेगा और वह इसलिए कि यदि हम चाहते हैं कि नाटक से कुछ पैसा अर्जन
हो, जिससे कि कलाकार भी एक ठीक-ठाक सा जीवन
यापन कर सके, उसे वहां से पैसा मिल सके तो हमें
स्वयं भी उसके लिए पहल करनी होगी। आम दर्शक की बात अलग है परंतु रंगकर्मी का, कला प्रेमी का कितना सहयोग और समर्पण
है नाटक/रंगकर्म के संवर्धन में या कलाकारों की प्रगति में यह महत्वपूर्ण सवाल है।
जो संस्थाएं अलवर में मॉडर्न थियेटर करती हैं वे अधिकतर निःशुल्क करती हैं या फिर
करती ही नहीं हैं। अतः इस रिवाज को भी बदलना होगा। इसका तात्पर्य यह कतई नहीं है
कि हमेशा ही आप टिकिट से करें। लेकिन इस परंपरा को बदलना होगा ताकि थियेटर और
थियेटर कलाकार को सम्मान मिल सके। कुछ स्थितियां इस तरह की भी हैं कि लोग अपेक्षा
करते हैं कि हम अगर नाटक देखेंगे तो विशिष्ट व्यक्ति का देखेंगे, जो हमारे परिचित हैं। जिनसे वैचारिक और
मत या मन भेद हमारे नहीं हैं। यह कोई बाधा नहीं है कि प्रतिदिन प्रत्येक प्रस्तुति
में हर रंगकर्मी उपस्थित हो किंतु अपेक्षा तो की जा सकती है अधिक से अधिक उसकी
उपस्थिति हो। यदि कोई दूसरा महत्त्वपूर्ण कार्य न आए तो। क्योंकि कुछ महत्त्वपूर्ण
काम आने पर हम नाटक ही नहीं दूसरी भी गतिविधियों को छोड़ देते हैं। अतः किसी
विशिष्ट महत्त्वपूर्ण कार्य की वजह से न आना कोई नाटक के प्रति प्रेम कम होना नहीं
है। लेकिन आना भी नहीं और उसके बाद टीका टिप्पणी करना या फिर इसलिए नहीं आना कि
हमें निमंत्रित पत्र नहीं दिया, हमारे
पास ‘पास’ नहीं पहुंचा,
हमें फोन करके कहा नहीं गया या फिर हम
तो बहुत ही वरिष्ठ और विशिष्ट हैं, अतः
हमें जब तक विशिष्ट सम्मान नहीं दिया जाएगा तब तक हम नाटक देखने नहीं जायेंगे। इस
तरह की सोच को रखना यह असंगत है। यह नाटक के प्रति प्रेम नहीं है। इस तरह की सोच
को बदलना होगा। क्योंकि नाटक किसी एक व्यक्ति का काम नहीं है और न ही हो सकता है।
उसमें सहभागिता-सामाजिकता जरूरी है। अतः सबका योगदान चाहिए। आर्थिक सहयोग भी नाटक
के लिए अपेक्षित है। नाटक बिना किसी सहयोग के नहीं हो सकता। अर्थात सरकारी या गैर
सरकारी संस्थाओं से या व्यक्तियों से इसके लिए अपेक्षित सहयोग लिया जाता है।
सरकारी या गैर सरकारी संस्थाओं से वित्तीय सहयोग तब तक लेने में कोई दिक्कत नहीं
है जब तक कि वे हमारे सिद्धांत और हमारी कला में किसी प्रकार की विशिष्ट बाधा
उत्पन्न न करें। लोगों को यह सोचना चाहिए कि यदि हम किसी कारणवस उस व्यक्ति की
प्रस्तुति में शामिल नहीं हो सकते तो कोई बात नहीं, किन्तु कम से कम उसके संवर्धन में उसके विकास में बाधा तो उत्पन्न न
करें। किसी का किसी भी कारण से किसी से भी मतभेद हो सकता है, लेकिन यह ध्यान रखें कि आप और वह एक ही
माध्यम से जुड़े हुए हैं। इसलिए उसके विकास एवं संवर्धन के लिए तो हमें सकारात्मक
होना चाहिए। उसमें आप नकारात्मक भूमिका तो कम से कम न ही निभाएं। यदि कोई
नकारात्मक भूमिका निभाता है तो वह उस कला का संवर्धन नहीं करना चाहते हैं बल्कि उस
की आड़ में व्यक्तिगत रुप से प्रसिद्धि या प्रशंसा प्राप्त करना चाहते हैं।
इस तरह के अनेक सवाल ग्रीष्म नाट्य उत्सव के
दौरान महसूस किए गए। ये सवाल कोई बाहर से पैदा नहीं हुए या कोई विदेश से नहीं आए, किसी दूसरे व्यक्ति ने धकेले नहीं हैं, ये हमने पैदा किये हैं। अतः इनका उत्तर
और समाधान भी हमें खोजना होगा और जहां तक मैं समझता हूं इसका उत्तर और समाधान हम न
जानते हों ऐसा नहीं है बल्कि जानबूझ कर हम उसे अनुत्तरित ही रहने देना चाहते हैं।
क्योंकि पैसे, प्रसिद्धि, और प्रतिष्ठा की भूख ने जिस तरीके से
अन्य लोगों को अंधा कर दिया उसी भीड़ में हम भी शामिल हो गए हैं। संभवतः इसीलिए
हमने वही चश्मे लगा लिए हैं जिनकी दृष्टि से दूसरे लोग इस पूरे भौतिक संसार की सुख
सुविधाओं को अपनाने और पाने की दृष्टि से देखते हैं। हम भी उसी तरह की आशाएं अपने
मन में पाले हुए हैं और ऊपर से साहित्यकार, कलाकार, रंगकर्मी का मुखौटा पहन रखा है। यह
मुखौटा नाटक के समय किसी विशेष प्रकार के किरदार को अभिनीत करने के लिए पहना जाता
है तो निश्चित रुप से सार्थक है किंतु यदि व्यक्ति हमेशा स्वयं को छिपाकर अन्यत्र
बनने की कोशिश करता है तो वह न कलाकार रहता है और न ही आम व्यक्ति।
रंग संस्कार थिएटर ग्रुप अपने आप में अकेली ऐसी
संस्था है जो गत दो वर्षों से अलवर में निरंतर नाटक कर रही है। इस संस्था को
संचालित करने वाले देशराज मीणा अकेले इस मुहिम में लगे हुए दिखाई देते हैं। कुछ दो
चार लोग उनके विशिष्ट हैं जो उनका उत्सव या कार्यक्रम के समय सहयोग करते हैं। यह
उन व्यक्तियों का देशराज के प्रति या उससे भी पहले मूलतः नाटक के प्रति विशिष्ट
लगाव हो सकता है। कोई भी व्यक्ति जब प्रस्तुति देता है तो उसका श्रेय उसे तो मिलता
ही है, लेकिन साथ ही हमें यह भी सोचने की
आवश्यकता है कि हम जिस विधा से जुड़े हुए हैं, उसका
संवर्धन यदि होता है तो किसी न किसी रूप में उसका श्रेय हमें भी मिलता है। अतः उस
श्रेय को महसूस करते हुए अलवर में सक्रिय, साझा, सकारात्मक, सहयोगात्मक रंगकर्म सक्रिय हो, लगातार हो, उसकी प्रस्तुतियां हों और अलवर में ही
नहीं बल्कि दूर दराज अनेक शहरों में भी अलवर की प्रस्तुतियों को सराहा जाये, इस तरह की शुरुआत की अपेक्षा जब तक हम
लोग अपने सहयोगात्मक दृष्टिकोण से नहीं दिखाएंगे तब तक अलवर में नाटक/रंगकर्म का
विकास संभव नहीं है। रंग संस्कार थियेटर ग्रुप अनेक आलोचना, नाउम्मीदों, नकारात्मक दृष्टिकोणों के बावजूद भी
लगातार मंच पर सक्रिय है,
यह बहुत बड़ी बात है। उसके पास कोई
खजाना नहीं है लेकिन माद्दा, जुनून
और हिम्मत है। इसलिए इसी वर्ष अगले माह 17-18
जून को फिर से एक नाट्य उत्सव करने जा रहा है। एक नई उम्मीद, आशा एवं सोच के साथ सभी लोग उत्साहित
होकर सहयोग देंगे और अपने अपने स्तर पर भी कम से कम दो महा में एक नाटक प्रस्तुत
करेंगे ऐसी आशा के साथ जय अलवर रंगकर्म।
प्रस्तुति-
डॉ. प्रदीप कुमार
ग्राम/पोस्ट-बास कृपाल नगर,
तहसील-किशनगढ़-बास, जिला-अलवर,
राजस्थान, पिन
न. 301405, मोबाईल नं.-9460142690,
esy&pradeepbas@gmail.com CykWx&http://pradeepprasann.blogspot.in/2017/03/blog-post.html
Very nice pradeep ji
ReplyDeleteबेहतरीन शुरुआत
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