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Wednesday, May 17, 2017

One step further towards the theater : एक कदम और रंगमंच की ओर

एक कदम और रंगमंच की ओर
रंग संस्कार थियेटर ग्रुप अलवर की ओर से ग्रीष्म नाट्य उत्सव 12 से 14 मई 2017 महावर ऑडिटोरियम में आयोजित किया गया। रंग संस्कार थियेटर ग्रुप का यह इस वर्ष का तीसरा नाट्य उत्सव है।

 ग्रीष्म नाट्य उत्सव के अंतर्गत चार नाटक प्रस्तुत किए गए। पहला नाटक अंतोन चेखव की कहानी दा मैरिज प्रपोजल’ 12 मई को प्रस्तुत किया गया। इस कहानी का नाट्य रुपांतरण देशराज मीणा ने किया। दा मैरिज प्रपोजल एक ऐसी कहानी है जिसमें एक युवा अपने पड़ोस में रहने वाली लड़की के सामने विवाह का प्रस्ताव रखता है। उस युवती का पिता तो यही चाहता है कि जल्द से जल्द उसकी बेटी विवाह कर ले तो वह भी तुरंत अपने लिए पड़ोस में रहने वाली किसी महिला से अपना प्रेम प्रसंग प्रारंभ करे। युवक गुणगोविन्द और इन्दूमति में विवाह की बात होने से पूर्व ही झगड़ा प्रारंभ हो जाता है। वे दोनों कुछ ही देर में एक दूसरे के प्रति लगाव महसूस करते हैं, फिर कुछ ही देर में झगड़ने लगते हैं। युवती का पिता दोनों तरीके से इनमें सहयोग करता है। किन्तु नाटक का अंत सुखांत होता है। गुणगोविंद के विवाह के प्रस्ताव को इन्दुमति स्वीकार कर लेती है। इस नाटक का निर्देशन किया धीरेंद्र पाल सिंह ने, जिन्होंने गुणगोविंद की भूमिका भी निभाई। निर्देशकीय दृष्टि से काफी हद तक धीरेंद्र पाल सिंह का काम ठीक दिखाई दिया लेकिन गुणगोविंद की भूमिका के साथ वो बेहतर तरीके से न्याय नहीं कर पाए। धीरेन्द्र पाल सिंह की बॉडी लैंग्वेज, उनके भाव तथा संवाद अधिक प्रभाव नहीं छोड़ पाए। एक प्रेमी मन से निकलने वाले भावों की कमी धीरेन्द्र पाल सिंह के अभिनय में दिखाई दी। हालांकि कुछ जगह पर सूत्र पकड़ने का उन्होंने प्रयास किया। कलाकारों के मध्य आपसी तालमेल की कमी नजर आई। इंदुमति का अभिनय किया विमला डागला ने। विमला डागला की आवाज काफी प्रभावी है। लेकिन इन्दुमति के किरदार के साथ विमला असहज ही दिखाई दे रही थी। जिस तरह की परिस्थितियां नाटक के अंतर्गत मौजूद थीं, उस तरह का सार्थक अभिनय दिखाई नहीं दिया। धीरेंद्र पाल सिंह और विमला डागला दोनों के मध्य ये कमियां दिखाई दी। इन्दुमति के पिता की भूमिका निभाई योगेंद्र अग्रवाल ने, उन्होंने काफी प्रसाय किया अपने अभिनय से कुछ बेहतर करने का।

विमला डागला युवा है, सुंदर है और उर्जान्वित है। उसकी अच्छी आवाज से और अधिक संभावनाएं उसके द्वारा किरदार को बेहतर निभाने की दिखाई देती है। लेकिन इनका जब तक उपयोग नहीं किया जायेगा तब तक उसे भी और नाटको को भी लाभ नहीं मिलेगा। उससे और बेहतर काम करवाया जा सकता था लेकिन तालमेल की कमी के अभाव के कारण ऐसा संभव नहीं हो सका। हालांकि धीरेन्द्र पाल सिंह का यह प्रथम निर्देशन था, इसलिए उस दृष्टि से काफी सराहनीय कार्य है। पहले नाटक में काफी कुछ करने का प्रयास उन्होंने एक निर्देशक के बतौर किया।

एक तरह से प्रस्तुति एक तरफी सी दिखाई दी। दर्शकों के माध्यम से देखें तो दर्शक उससे जुड़ नहीं पाए। कलाकारों में भी एक-दूसरे के प्रति सहयोग या जुड़ाव दिखाई नहीं दिया। एक समन्वय का भाव जिस तरह का एक कलाकार से दूसरे कलाकार के मध्य होता है वह गायब था। दोनों के मध्य किसी तरह की प्रतिक्रिया का आदान प्रदान ही नहीं हुआ। हालांकि स्क्रिप्ट भी इतनी प्रभावी नहीं थी और न ही भाषा एवं संवाद अपनी छाप छोड़ पाए। किंतु फिर भी कुछ परिश्रम की मांग करने वाला यह नाटक यदि अच्छे से प्रयास और तालमेल के द्वारा प्रस्तुत किया जाए तो एक बेहतर प्रस्तुति साबित हो सकता है। इस नाटक की प्रकाश व्यवस्था संभाली शिव सिंह पालावत ने। संगीत दिया देवेंद्र सिंह ने एवं मंच परे अन्य सहयोगी भूमिका में थे साजिद आलम और रिषभ।


13 मई को मंचित होने वाला नाटक अर्थात दूसरा नाटक था आधी रात के बाद। यह डॉक्टर शंकर शेष द्वारा लिखा गया नाटक है जो कि काफी प्रसिद्ध है। आधी रात के बादऐसा नाटक है जिसमें चोर चोरी करने आता है एक जज के घर में। वह भी मात्र ढाई सौ रुपए की। क्योंकि वह जानता है कि ढाई सौ रुपए की चोरी करने से वह जेल में बंद हो सकता है। इसलिए वह चोरी जेल में बंद होने के लिए करना चाहता है। उसके पीछे की सारी कहानी वह एक घंटे तक जज से बात करते हुए सुनाता है कि क्यों चोरी करना चाहता है। समाज की अनेक विसंगतियों के ऊपर वह सवाल खड़ा करता है कि क्या इस तरह से छोटा मोटा सामान चुराने वाले ही चोर है या बड़े-बड़े बिल्डर, उद्योगपति, नेता, मंत्री जो समाज के साथ बेईमानी करते हैं, चीटिंग करते हैं, धोखा देते हैं, अतिरिक्त पैसा और संपत्ति होने के बाद भी अनेक प्रकार के घोटाले बेईमानियां करके लोगों को बेवकूफ बनाते हैं, सामान में मिलावट करते हैं, ड्रग्स की सप्लाई करते हैं, ये सब चोर हैं? ऐसे अनेक सवाल उठाता है आधी रात के बाद। जज का एक पड़ोसी पत्रकार होता है, जो बीच बीच में घर में लाइट चलते हुए देखकर उनसे सहज भाव से कुछ बात करने के लिए आ जाता है। जैसे चाय के लिए चाय पत्ती, दूध वगैरह मांगने के लिए आता रहता है और वह चोर को उनका विशिष्ट मेहमान समझकर, काफी लंबी बात चलेगी, देर तक जागते रहोगे यह कहता है।


नाटक का निर्देशन किया शिव सिंह पालावत ने और साथ ही चोर की दमदार भूमिका को भी शिव सिंह पालावत ने अभिनीत किया। अपने हाव भाव एवं सशक्त अदाकारी के साथ चोर के किरदार को बखुबी प्रस्तुत किया शिव सिंह पालावत ने। जज की भूमिका में थे योगेंद्र अग्रवाल। योगेंद्र अग्रवाल के पास कहने के लिए विशेष संवाद नहीं थे। वे सिर्फ चोर की कहानी को सुन रहे थे या कहानी को आगे बढ़ाने के लिए बस बीच-बीच में प्रश्न या जिज्ञासा प्रकट करते थे। फिर क्या हुआ? आगे? चोर के द्वारा की गई चोरी से संबंधित सवाल, उसके द्वारा चुराए गए पैसों का क्या किया? उसकी प्रेम कहानी किस तरह से आगे बढ़ी। इन सबको जानने के लिए उनके बहुत सीमित संवाद थे। लेकिन उन सीमित संवादों में भी योगेंद्र अग्रवाल जज के रूप में अपने अभिनय से अपना प्रमुख प्रभाव छोड़ते हैं। विशेष रुप से उनके शरीर का डील डोल इस भूमिका के लिए एकदम सूट करता है। पड़ोसी की भूमिका निभाई कृष्ण कुमार शर्मा ने। उनके भी नाटक में तीन या चार संवाद थे लेकिन प्रभावी थे। शंकर शेष ने यह नाटक सच में बहुत खूबसूरत अंदाज में लिखा है। इस नाटक की बहुत अच्छी प्रकाश व्यवस्था को संभाला देशराज मीणा ने। संगीत दिया हेमेंद्र सिंह ने। कुल मिलाकर एक अच्छी प्रस्तुति का आभास कराया आधी रात के बाद ने। समसामयिक विसंगतियों के ऊपर कटाक्ष करते हुए अनेक प्रश्नों को खड़ा करता है यह नाटक।


 तीसरे दिन यानी 14 मई को सुरेंद्र वर्मा द्वारा लिखा नाटक मरणोपरांतखेला गया। मरणोपरांत का निर्देशन किया अंकुश शर्मा ने। मरणोपरांत एक स्त्री के मरने के बाद उसके पति एवं प्रेमी की मुलाकात का वर्णन है। दोनों पहली बार मिलते हैं और उन दोनों के मध्य उस स्त्री को लेकर बातचीत होती है। उस स्त्री का प्रेमी तो उसके पति के बारे में जानता था लेकिन उसका पति नहीं जानता था कि मेरी पत्नी का कहीं प्रेम प्रसंग भी चल रहा है। बहुत द्वंद्वात्मक और कसी हुई भाषा से सजा यह नाटक अपने संजिता संवादों के कारण एक मार्मिक प्रस्तुति बनता है। एक पति को जब पता लगे कि उसकी पत्नी का किसी अन्य पुरुष के साथ संबंध है तो उस की क्या स्थिति होती है, वह बेचैनी, दुख और कुछ न कर पाने की छटपटाहट पति की भूमिका निभाने वाले अंकुश शर्मा के किरदार में दिखाई दी। अंकुश शर्मा ने पति की भूमिका को बेहतर तरीके से प्रस्तुत किया। प्रेमी की भूमिका में थे कृश सारेश्वर। कृश सारेश्वर एक मंजे हुए कलाकार हैं। प्रेमी के किरदार की छटपटाहट, विविशता, असमंजस की स्थिति, चाहकर भी कुछ न कह पाने की द्वंद्वात्मक स्थिति को बहुत ही खूबसरत अभिनय के साथ कृश सारेश्वर प्रस्तुत करते हैं। कृश बहुत कुछ कहना चाहते हैं लेकिन कह नहीं पाते, लेकिन इस न कहने में जो उनका अभिनय कहता है वह सब बयां कर जाता है। वह अपनी प्रेमिका के पति के समक्ष खड़ा है इस बात का आभास उसके शरीर के भावों से बहुत बार प्रकट होता है। वह बहुत कुछ कहना चाहता है, संवादों के माध्यम से लेकिन विविश होकर चुप हो जाता है। संवाद के माध्यम से वे जितना कहते हैं उससे अधिक बिना संवाद के कहते हैं और वह साफ सुनाई और दिखाई देता है। यह एक कलाकार की अभिनय क्षमता है। जो मौन में बोलती है। उसके मन में चल रहे द्वंद्व, दुख, दर्द की स्थिति उसके चेहरे से साफ दिखाई देती है। कृश सारेश्वर इसमें सफल होते हैं। सुरेन्द्र वर्मा ने बहुत ही गंभीर और धीमी गति से चलने वाला यह नाटक बहुत ही संजिदा संवादों से सजाया है। जिसे अंकुश शर्मा एवं कृश सारेश्वर ने अपने जबरदस्त अभिनय के माध्यम से संवारा है। कृश सारेश्वर का अभिनय इनता सात्विक होता है कि वे मंच पर अपनी बेचैनी और द्वंद्व की स्थिति को अपने अश्रुओं  के माध्यम से जीवित कर देते हैं। इन संजिदा संवादों को और बेहतर बनाया मदन मोहन के आलाप ने। मदन मोहन ने अपने सधे हुए सुर एवं आवाज से कृश सारेश्वर एवं अंकुश शर्मा के अभिनय को संबल दिया।


चौथी और इस ग्रीष्म नाट्य उत्सव की अंतिम प्रस्तुति थी उसके इंतजार में। यह नाटक मेरे द्वारा लिखा गया है और इसके दूसरे अंक की भूमिका में मैं हूं। उसके इंतजार मेंनाटक का निर्देशन एवं प्रकाश व्यवस्था संभाली देशराज मीणा ने। संगीत दिया शिव सिंह पालावत ने। पहले अंक में दो बेरोजगार युवक छोटी मोटी चोरी करते हैं। वे अखबार में कोई काम तलाश रहे हैं। इसी बीच वे समाज की अनेक समस्याओं, घटनाओं तथा क्षेत्रों में व्याप्त अनैतिकता, विसंगती आदि पर बहुत ही गंभीर चोट करते हैं। अभिनय की दृष्टि से युवक एक भूमिका में रिषभ और दो की भूमिका में हेमेंद्र सिंह ने काफी अच्छा प्रयास किया है। किंतु बीच बीच में तालमेल की कमी यहां भी दिखाई दी। रिषभ का उतावलापन एवं हेमेन्द्र सिंह की धीमी गति ने नाटक को अनेक जगह पर गति से अवरूद्ध किया। दोनों ही युवा कलाकार हैं। जोश है, उमंग है, लेकिन अभी अनुभव की कमी नजर आ रही है। हेमेन्द्र का स्वर अच्छा है लेकिन वह धीमा है। उसकी आवाज दर्शक तक नहीं पहुंच पा रही थी, या जिस स्तर पर पहुंचनी चाहिए वह स्तर नहीं था। रिषभ में चंचलता है इसलिए वह चलने के बजाय भागता है। वह तुरंत संवाद खत्म करना चाहता है। संवादों के मर्म को जानने के बजाय उन्हें सिर्फ उच्चारित करने में प्रभाव कम हो जाता है। चाहे संवाद कितने भी बेहतर क्यों न हों।


रिषभ में अपने संवादों को बोलकर उससे निजात पाने की जल्दबाजी दिखाई देती है। जबकि हेमेंद्र बहुत धीमी गति से चलता है। दोनों की यह स्वभावगत स्थिति है। जो कहीं न कहीं प्रस्तुति को बाधित कर बेहतर प्रस्तुति बनाने में अड़चन पैदा करती है। लेकिन दोनों ने एक अच्छा प्रयास किया है। दोनों में संभावना बहुत है। इसलिए आगे उसमें सुधार होगा। इसी प्रस्तुति के दूसरे अंक में एक बाजार का दृश्य दिखाया गया है। जिसमें एक लड़की को अकेला पाकर कुछ लोग उसके साथ बतमजी करते हैं और वह मौन रहती है। उसे छेड़ते हैं और उसका लाभ उठाते हैं। एक दूसरे दृश्य में इसी तरह एक दूसरी लड़की आती है वे लड़के उसे भी छेड़ते हैं लेकिन वह लड़की उनका मुकाबला करती है, उनका सामना करती है, उन्हें जवाब देती और लड़कों को हताश और निराश कर देती है। वह एक बड़ा प्रश्न छोड़ती है कि हमें स्वयं आगे आना होगा, कब तक हम दूसरों के सहारे छुपते रहेंगे, चुप रहेंगे और सहते रहेंगे। बाजार के दृश्य में नम्रता, विमला डागला, धीरेंद्र सिंह, योगेंद्र अग्रवाल, हेमेंद्र सिंह, रिषभ, कृष्ण कांत शर्मा आदि मौजूद थे। प्रदीप कुमार इसी बाजार से निकलकर एक बस के लिए जाते हैं लेकिन बस छूट जाती है। वे इंतजार करते हैं बस का और तब तक वहीं बैठकर एक प्रेम कहानी के माध्यम से अनेक सवाल खड़े करते हैं। अपनी कविताओं से एवं संजिता संवादों से दर्शकों को मजबूर करते हैं तालिया बजाने के लिए। समसामयिक घटनाओं पर गंभीर कटाक्ष इस नाटक में दिखाई देता हैं तथा सहज हास्य के द्वारा लोगों को गुदगुदाते के लिए भी वे मजबूर करते हैं।



रंगमंचीय दृष्टि से ग्रीष्म नाट्य उत्सवएक अच्छा कार्यक्रम साबित हुआ। अलवर में नाटकों के क्षेत्र में एक सशक्त पहचान बनाने में रंग संस्कार थियेटर ग्रुप धीरे धीरे सक्रिय है। रंग संस्कार थियेटर गु्रप जिस तरह से लगातार नाटक कर रहा है निश्चित रुप से उसके सद्प्रयासों से अलवर के रंगकर्म का भविष्य बेहतर और सुनहरा है, ऐसी आशा की जा सकती है। अनेक रंगकर्मी एवं रंग संस्थाओं के सामने सवाल भी छोड़ता है, कि आप सब भी प्रयास करें तो उसका हौसला बुलंद होगा। दर्शकों की कमी उसे जरुर खलती है लेकिन उन दर्शकों में जो भी आए हैं वे बहुत मायने रखते हैं। कला के लिए हमेशा कम ही लोग रहे हैं लेकिन जो लोग सक्रिय रहे हैं वे विशिष्ट रहे हैं। इस नाट्य उत्सव को नियोजित करने में देशराज मीणा जी का जितना आभार व्यक्त किया जाए कम है। निश्चित रुप से देशराज मीणा थियेटर के लिए एक जुनूनी और समर्पित व्यक्ति हैं और इसी दिशा में वह आगे बढ़ रहे हैं। वे ओर आगे बढ़े, बुलंदियों को छुएं, उन्नति करें, ऐसी आशा एवं शुभेच्छा।
प्रस्तुति-
डॉ. प्रदीप कुमार
ग्राम/पोस्ट-बास कृपाल नगर,
तहसील-किशनगढ़-बास, जिला-अलवर,
राजस्थान, पिन न. 301405, मोबाईल नं.-9460142690,
esy&pradeepbas@gmail.com CykWx&http://pradeepprasann.blogspot.in/2017/03/blog-post.html




1 comment :

  1. अलवर में बड़े अच्छे नाट्य आयोजन की पठनीय रपट।
    बधाई और धन्यवाद।

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