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Thursday, May 18, 2017

A question waited for a Answer : उत्तर की बाट जोहता एक प्रश्न

उत्तर की बाट जोहता एक प्रश्न
मीरा कांत का नाटक ‘उत्तर प्रश्न’ स्त्री विमर्श के प्रश्नों की प्रासांगिकता पर उठने वाला ऐसा प्रश्न है जो अनेक वर्षों से उत्तर की बाट में मुंह बाय खड़ा है। पुरुष समाज के द्वारा निर्मित एक ऐसी व्यवस्था, जिसके हर क्षेत्र एवं हर स्थिति में उसी का वर्चस्व रहा है। ऐसे में एक बड़े प्रश्न के उत्तर की अपेक्षा और आकांक्षा इस नाटक में दिखाई देती है। स्त्री को उसके अस्तित्व एवं अस्मिता की पहचान कब मिलेगी? क्यों नहीं मिल रही? क्या कारण हैं? कल्हण के राजतरंगणी की कथा के इर्द-गिर्द घूमता यह नाटक कश्मीर की पहली महिला शासक यशोवती कि वह कथा है जो निस्संदेह ‘उत्तर प्रश्न’ में मीरा कांत ने कह दी है लेकिन ऐसी अनेक यशोवती हैं जिनकी कथाएं अभी भी अनकही, अनसुनी और अलिखित हैं। इस कथा के आधार पर यशोवती राजसत्ता पर पुरुष के एकाधिकार को चुनौती देती है तथा अपने अस्तित्व एवं स्त्री के राजधर्म की एक गंभीर परिचायिका के रूप में, एक राजा के रूप में, एक रामराज्य के रूप में एक आदर्श रुप प्रस्तुत करती है। कृष्ण के षड्यंत्र से यशोवती अपने पति दामोदर एवं कश्मीर के राजा को खो देती है। परंपरागत रुप से राज्य एवं राजा की प्रथा को बरकरार रखने के लिए सभी लोग यही चाहते हैं कि अगला राजा इसी वंश का हो और कोई विशिष्ट व्यक्तित्व का धनी, क्षत्रिय पुरुष हो। कृष्ण की यह इच्छा होती है कि राजगद्दी पर स्वयं यशोवती बैठे। क्योंकि कृष्ण अंतर्यामी हैं। इसलिए वे जानते हैं कि यशोवती गर्भ से है और उसके पुत्र ही होगा। इसलिए पुत्र के जन्म तक शासन यशोवती चलाए। यशोवती एक कुशल नारी शासक के रूप में अपने आप को प्रतिष्ठित करती है। 
‘उत्तर प्रश्न’ नाटक कुल चार अंकों का है। पहले अंक में धर्माध्यक्ष, महामात्य एवं सेनाध्यक्ष के मध्य वार्तालाप होता है। सेनाध्यक्ष बार-बार कृष्ण के द्वारा किए गए युद्ध में षड्यंत्र एवं कूटनीति का जिक्र करते हैं। वे कहते हैं क्या कोई भी युद्ध कृष्ण ने नीति से लड़ा? नहीं, वे बात बात में तो सुदर्शन चक्र निकाल लेते हैंं।
इतिहास हमें सीख देता है किस्मत और गलत को छोड़कर संगत और न्यायिक पथ पर चलकर हम उसकी आगामी योजना बना सके, जिससे आने वाला समय और समाज बेहतर बने। यह इतिहास की परिभाषा नहीं बल्कि इतिहास से कुछ प्रेरणा लेने के सूत्र हैं, जिनको पकड़ के एक दिशा तय की जा सकती है। मीरा कांत का नाटक ‘उत्तर प्रश्न’ कहने को राजतरंगणी के इतिवृत के अनुसार ऐतिहासिक संदर्भों और चरित्रों पर आधारित है लेकिन ‘उत्तर प्रश्न’ में मात्र इतिहास ही नहीं बल्कि वर्तमान और भविष्य की अनेक गुत्थियों का भी खुलासा किया गया है। जिनका प्रतिबिंब आज के समय में भी देखा जा सकता है। ‘उत्तर प्रश्न’ कथा के संदर्भ में गोनन्दवंश कश्मीर नरेश महाराज गोनन्द ने जरासंध के कहने पर मथुरा पर आक्रमण किया और उसी युद्ध में यादव सेना को बुरी तरह से परास्त कर दिया। बलराम ने यादव सेना की रक्षा करते हुए गोनन्द को घेर लिया और उनका वद्ध कर दिया। गोनन्द के बाद उनका पुत्र दामोदर कश्मीर का राजा हुआ। गांधार देश के नरेश ने अपनी पुत्री के स्वयंवर का आयोजन किया, जिसमें यदुवंशी भी निमंत्रित थे। इस अवसर पर कश्मीर नरेश दामोदर अपने पिता की प्रतिशोध की अग्नि को शांत करने के लिए अपनी सेना सहित गांधार पहुंचे और यदुवंशियों पर आक्रमण कर दिया। इस युद्ध में कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से कश्मीर नरेश दामोदर की हत्या कर दी। कश्मीर नरेश दामोदर की मृत्यु के शोक दिनों की समाप्ति के बाद कृष्ण कश्मीर के नरेश का राज्याभिषेक कर उसे सिंहासन पर बैठाने के लिए एक मंत्रिमंडल का गठन करते हैं। जिसमें अनेक विरोध के बाद यह तय करते हैं कि दामोदर की पत्नी यशोवती कश्मीर का सिंहासन संभाले अर्थात वो कश्मीर की सामराज्ञी हों।
यह कथा एक ऐतिहासिक संदर्भ से जुड़ी हुई नजर आती है। ‘उत्तर प्रश्न’ नाटक चार अंकों में विराजित है। जिसमें पहला अंक यशोवति के राजसिंहासन पर बैठने की कृष्ण द्वारा घोषणा करने और सेनाध्यक्ष, धर्माध्यक्ष तथा महामात्य के बीच दामोदर को षड्यंत्र से मारा गया इत्यादि बातों पर द्वंद्वात्मक चर्चा पर केन्द्रित है। किंतु शेष तीनों अंकों में यशोवती का एक विशिष्ट चरित्र सामने आता है। जिसे इतिहास से बिना जोड़े भी देखा जा सकता है। यह नारी शासक किस तरह से अपने राज्य के अंदर अनेक प्रकार के षड्यंत्रों, कुचक्रों, अन्याय एवं व्यभिचार को समाप्त कर, एक न्यायिक व्यवस्था कायम करने की कोशिश करती है, यह दिखाई देता है। हालांकि यह बात अलग है कि उसकी इन तमाम कोशिशों के ऊपर राज्य अधिकारी महामात्य, सेनाध्यक्ष, धर्माध्यक्ष, राजस्व अधिकारी इत्यादि अनेक प्रकार के षड्यंत्र से उसे अपदस्त करना चाहते हैं और अनेक प्रकार की व्यूहरचना उसके विरूद्ध रचते हैं।
‘उत्तर प्रश्न’ नाटक मूलतः स्त्री को केंद्र में रखकर लिखा गया है। स्त्री के सामने अनेक प्रश्न हैं और प्रश्नों के कटघरे में खड़ी हुई स्त्री है। बल्कि कई बार तो स्थितियां ऐसी हो जाती हैं, जैसा कि नाटक का शीर्षक है, प्रश्न बाद में पूछा जाता है पहले स्त्री से उत्तर की अपेक्षा की जाती है। क्योंकि स्त्री का उत्तर एक स्वतंत्र और उसके विवेक का उत्तर नहीं बल्कि वह तो थौंपा गया, उससे कहलवाया गया वह उत्तर है जो पूर्व से सुनियोजित है। नाटक के शीर्षक से यह लगता है कि लेखिका ने यह शिर्षक बहुत सोच समझकर ‘प्रश्न उत्तर’ की बजाय ‘उत्तर प्रश्न’ रखा है। कृष्ण जब राजसिंहासन पर यशोवती को कश्मीर की सामराज्ञी घोषित करते हैं तो यशोवती के मन में उठे हुए प्रश्न का उत्तर नहीं देते हैं। वहां उसका प्रश्न उत्तर रहित है। जैसा कि नाटककार मीरा कांत भूमिका में लिखती हैं-‘‘यदि उसके गर्भ में कन्या भू्रण होता तो क्या कृष्ण उसका राज्याभिषेक कर भविष्य में कश्मीर मंडल का राज्य उसकी पुत्री को सौंपते? वह कृष्ण के इस छलावे को यह कहकर उजागर करती है कि कृष्ण ने एक स्त्री के राज्याभिषेक का ढोंग कर वस्तुतः पुत्र की माता अथवा भावी नरेश की संवाहिका का राज्याभिषेक किया जो अन्ततः पुरुष सत्ता स्थापित करने की कुटिल चाल थी।’’
यह प्रश्न सिर्फ यशोवती कृष्ण से ही नहीं करती है बल्कि अपने समय, अपने युग की हर यशोवति का प्रश्न उसके प्रतिपक्ष में खड़े हुए उस प्रतीक कृष्ण से है जो हमेशा उसकी ममता, माया, वात्सल्य, त्याग, समर्पण, श्रद्धा आदि के गुणों से उसे महिमा मंडित तो करता है परंतु उसके इन गुणों को न तो अपनाता है और न ही इन गुणों के प्रति व्यवहारिक रुप से उसके मन में कोई श्रद्धा होती है, बल्कि वह इन गुणों की आड़ में हमेशा ही उसकी अवहेलना करता है। ऐसे अनेक प्रश्न आज भी उत्तर के इंतजार में खड़े हुए हैं।



दूसरे और तीसरे अंक में मीरा कांत स्पष्ट रुप से नाटक के कथानक और पात्रों के माध्यम स्त्री के चरित्र को स्पष्ट करती हैं। स्त्री किसी भी रुप से एक राजा के रूप में असक्षम और अयोग्य नहीं है। प्रथम दृश्य में जब कृष्ण यशोवती का अभिवादन करते हैं तो वे कहते हैं-‘‘(हाथ जोड़कर) अप्रतिम योद्धा कश्मीर नरेश स्वर्गीय दामोदर की भार्या रानी यशोवती को कृष्ण का अभिवादन।’’ मीरा कांत बहुत ही संजीदा रुप से रुप से यह कहती हैं कि यशोवती का अर्थ है स्त्री का कोई स्वतंत्र परिचय नहीं है। वह हमेशा अपने पिता, पति, पुत्र के संबोधन से ही पहचानी गई है। उसका अपना अस्तित्व, उसकी अपनी पहचान, उसकी अपनी अस्मिता गौण कर दी गई है। ऐसी स्थितियों में यदि कुछ समय के लिए ही सही, पर उस राजसत्ता के ऊपर यदि स्त्री विराजमान होती है तो इस पुरुषवादी मानसिकता के ऊपर गंभीर चोट है और पुरुषों के मस्तिष्क में कुटिल विचार एवं षड्यंत्र के कीड़े कुलबुलाते हैं। ‘‘महामंत्री-राजसिंहासन पर स्त्री! कृष्ण-महामंत्री कोई आपत्ति है क्या? महामंत्री-आपत्ति तो नहीं वासुदेव........परंतु यह अनहोनी होगी........राजसिंहासन पर स्त्री के होने की कोई परंपरा तो नहीं है। कृष्ण-परंपराएं तो बनाई जाती हैं जो भविष्य में स्वयं नियम बन जाती हैं।’’ इन्हीं चले आ रहे परंपरागत मूल्यों के पहाड़ के नीचे स्त्री दबी और कुचली जाती रही है। इन्हीं परंपराओं के कारण स्त्री की स्वतंत्रता, अस्मिता और पहचान उसको नहीं मिल पाई। क्योंकि ऐसा करने से पुरुष वर्चस्ववादी सत्ता को अपनी सत्ता खतरे में दिखाई देने लगती है। अतः वह किसी भी रुप में यह नहीं चाहता कि स्त्री का वर्चस्व स्थापित हो। इसलिए वह कहता है-‘‘महामन्त्री-आप तो द्रष्टा हैं प्रभु........यदि स्त्री सत्ता के केन्द्र में आ गयी तो समाज का सन्तुलन बिगड़ न जाएगा? इस समाज में सबकी अपनी-अपनी विशेष भूमिकाएं हैं तभी तो समाज.....।’’ 
अर्थात पुरुषवादी मानसिकता पहले ही यह सोच कर बैठी है कि स्त्री के लिए चूल्हा, चौका, बर्तन, झाडू़, बच्चे, ये सब हैं। इन्हीं कार्यों के लिए वह नियुक्त है, इससे अधिक और परे कुछ विशिष्ट अगर वह करती है तो फिर वह बेशर्म है, बेहया है, कुलटा है। लेकिन मीरा कांत इसके माध्यम से भविष्य के अनदेखे पक्षों और स्त्री की ताकत की पहचान कराना चाहती हैं। कृष्ण कहते हैं-‘स्त्री शक्ति के बहुमुखी आयामों को अभी समाज ने न जाना है न परखा है........विश्वास रखिए महामंत्री स्त्रियां इस निकष पर भी खरी उतरेंगी।’’ लेकिन विडंबना यही है कि पुरुष ने स्त्री के साथ अपने अनुभव को सही सहयोगात्मक बनाने की बजाय उसे आदेशात्मक रूप में हमेशा इस्तेमाल किया, ताकि स्त्री दबी रहे। 
दूसरे और तीसरे अंक में यशोवति के राज्य संचालन, न्याय प्रक्रिया आदि को प्रमुख रुप से प्रस्तुत किया गया है। राजस्व अधिकारी, न्यायमंत्री एवं भ्रष्ट अधिकारियों के खिलाफ यशोवति कड़े कदम उठाती है और निर्णय लेती है। ग्रामीण जनों में एक संदेश व्याप्त होता है कि एक श्रेष्ठ न्यायिक राजव्यवस्था महारानी के सिंहासन पर रहते हुए कायम हो गई है। ‘‘हां अब तो सिंहासन पर भी महारानी हैं। वे ममतामयी तो हैं पर इन भेड़ियों.........इन भ्रष्ट अधिकारियों के सामने कहां ठहर पाएंगी? अब तो ऐसे ही चलेगा राज! राजसिंहासन पर कोई राजा होता तो बात और थी!’’ यहां यह भी स्पष्ट है कि पुरुषवादी मानसिकता की शिकार आम जनता और अधिकारी दोनों ही स्त्री के प्रतिभावान और विशिष्ट सत्ता संचालक होने के बाद भी उससे न भय मानते हैं और न उसके आदेश का पालन करते हैं। क्योंकि मानसिक रूप से स्त्री की छवि इन कामों के लिए जैसे निर्मित ही नहीं है। इसलिए वह जब इस तरह के कार्य करती है तो या तो वह हंसी की पात्र बनती है या उसका उपहास उड़ाया जाता है। 
तीसरे अंक में लेखिका ने एक जगह लिखा है कि ‘‘(प्रकाश मंच पर मंत्रीगणों की ओर है और जनसामान्य लगभग अंधेरे में है।)’’ यह नाटक की ब्लॉकिंग को तय करने के लिए लिखा गया है। परंतु मुझे लगता है कहीं न कहीं आमजन और राजस्व अधिकारियों के मध्य का सच भी नाटककार बयां कर रही हैं। राज्य व्यवस्था बनाम सामान्यजन, पुरुषवादी मानसिकता बनाम स्त्री, यह द्वंद्व नाटककार मीरा कांत के चेतन में नहीं तो अवचेतन में जरूर कहीं न कहीं रहा होगा। सदियों से आम जन और स्त्री अंधकार में हैं और प्रकाश मंच पर है या प्रधानों पर है। इसी लकीर को, इसी रेखा को तोड़कर एक सपाट समतल समझ और समाज बनाने की कोशिश मीरा कांत ‘उत्तर प्रश्न’ में अनेक प्रश्न खड़े करके करना चाहती हैं। इन प्रश्नों के लिए वे उत्तर की अपेक्षा नहीं करती बल्कि उनके समाधान हांे और विकल्प रूप में कुछ समय के लिए ही सही पर एक बानगी के रूप में यशोवती का चरित्र इसी तरह का खड़ा किया गया है।
आम जन के प्रति मूलतः नगरवासियों या अधिकारियों के मन में क्या धारणा होती है उसे लेखिका यहां बताती हैं-‘‘प्रहरी एक-शांत रहें यह सभागृह है..........गांव की चौपाल नहीं है! यहां......यहां......इस और.....। प्रहरी दो-किनारे बैठो......मार्ग छोड़ो..........और लोग भी आते होंगे। नागरिक-देखो तो कैसा अधिकार जता रहा है। इसके भीतर तो आग लग रही होगी.........हम गांव वालों को यहां देखकर।’’ योजना के अनुसार सब कुछ न होना, पूर्व नियोजित कार्यक्रम के अनुसार न होना। यह एक तरह से सामंतवादी राजसत्ता, पुरुष मानसिकता की परिचायक मांग है। सामान्यतः गांव का सहज और सरल व्यक्ति किसी पूर्व नियोजित योजना के अनुसार सभी काम नहीं करता है बल्कि वो किसान और मजदूर स्थिति और परिस्थिति के अनुसार अपने आप को ठाल लेता है। यह भी कहा जा सकता है कि वह अपने एक ही अधोवस्त्र को प्रत्येक मौसम के अनुकूल ओढ़ना, बिछाना, पगड़ी या अंगोछा बना लेता है। वह सभागृह के नियम भले ही न जानता हो लेकिन वह सम्मान और मर्यादा को अच्छी तरह से जानता है। लेकिन उसकी छोटी-छोटी हरकतों से उसे ऐसा आभास दिलाया जाता है कि वह जाहिल है, गवार है, उसे समझ नहीं है। यह निश्चित रुप से पूंजीवादी, सत्तावादी और सामंतवादी मानसिकता का परिचय है।
तीसरे अंक में यशोवति आम जन और स्त्री के अधिकारों के साथ पूर्ण न्याय करने की कोशिश करती हैं। वह हर स्तर पर यह चाहती हैं कि स्त्री का सम्मान हो। इसलिए वह कहती हैं-‘‘ तथ्यों की पुष्टि हो जाने के पश्चात दोषसिद्ध आरोपी को दंडित किया जाएगा और वही दंड दिया जाएगा जो किसी भी सामान्य जन को दूसरे व्यक्ति को बलात् बंदी बनाने के लिए दिया जाता है। हमारे शासन में नारी का कोई भी रूप अपने मानवीय अधिकारों से वंचित न होगा। वह चाहे परवश पत्नी हो अथवा कोई अबोध बालिका।’’ सामंत समरसेन की पत्नी कमलप्रभा ने जब कन्या को जन्म दिया तो वे किसी अन्य स्त्री में आशक्त हो गए। इस तरह से उनके द्वारा अपनी पत्नी एवं बालिका के साथ अन्याय करने पर उन पर इस तरह की न्यायिक प्रक्रिया अपनाई गई। स्त्री का इस तरह से सम्मान करना एवं एक सामंत को दंड देना, एक स्त्री के द्वारा सुशासन चलना आदि राज्य के अन्य पदाधिकारियों को रास नहीं आता है। मंत्री, सेनाध्यक्ष, महामात्य, धर्माध्यक्ष आदि बहुत परेशान हो जाते हैं। इसलिए वे कहते हैं-‘‘महामात्य-कश्मीर मंडल को ये दुर्दिन भी देखने थे.......महारानी दे रही हैं राजाज्ञा! सेनाध्यक्ष-अब यह विधवा विलाप रहने दीजिए! महामात्य-आप देख रहे हैं...........यह शासन नहीं दुश्शासन है! महाराज दामोदर के समय में महामात्य के समक्ष ऐसे वचन कहने का दुस्साहस कोई कर सकता था?’’
चौथे अंक में महारानी यशोवति पुत्र को जन्म देती हैं। सभी लोग बधाई देतें हैं। गीत गाते हैं। धर्माध्यक्ष, महामात्य उसके नामकरण और जागरण के साथ-साथ उसका राज्याभिषेक भी तुरंत करवाना चाहते हैं। यशोवति इस तरह के कार्यों से एक तरह से आश्चर्य चकित है लेकिन खुश भी। अब स्त्री की स्वतंत्रता, स्त्री का यश, उसका वर्चस्व समाप्त हो गया है। यशोवति बार-बार कहती हैं कि ‘‘राजकुमार का राज्याभिषेक! परंतु राजकुमार तो अभी शिशु हैं, अबोध हैं। धर्माध्यक्ष-महादेवी ऐसे पूर्व उदाहरणों का इतिहास साक्षी रहा है। ऐसे निर्णय तो मुहूर्त शास्त्र के अनुसार ही लिए जाते हैं।’’ यहां स्पष्ट है कि जब-जब पुरुष सत्ता ने अपने अधिकारों के वर्चस्व को स्त्री से अधिक श्रेष्ठ बताया है तब तब इतिहास को मोड़ा है, अपने अनुकूल बनाया है और अनेक उदाहरण ऐसे प्रस्तुत किए जिसमें चली आ रही परंपरा को भी तोड़ा है।
‘उत्तर प्रश्न’ नाटक की भूमिका में एक जगह पर मीरा कांत राजतरंगणी की कथा का उल्लेख करते हुए कृष्ण के माध्यम से एक तार्किक प्रश्न यह उठाती हैं कि ‘‘कश्मीर नरेश कोई कश्मीर वासी ही होना चाहिए। इस बिंदु पर आकर यह नाटक आज के कश्मीर के विशेष संवैधानिक दर्जे और अनुच्छेद 370 का एक सूक्ष्म संकेत भी देता है।’’ किन्तु सवाल इसके साथ एक और भी खड़ा होता है कि यह स्थिति तो प्रत्येक राज्य, प्रत्येक देश, व्यक्ति जगह और समाज के साथ लागू हो सकती है, कि वहां की स्थिति या परिस्थितियां को बेहतर तरीके से वहां के स्थानीय लोग ही जानते हों तो फिर यदि यह नियम लागू हो तो सभी जगह लागू हों, सिर्फ एक जगह की क्यों? हालांकि इस बात की कोई पक्षधरता मीरा कांत नहीं करती हैं। किंतु वह एक सांकेतिक सूत्र देती हैं, जिसकी आड़ में अनेक अर्थ नजर आते हैं। किंतु मुझे लगता है यह समस्या का समाधान नहीं है बल्कि तात्कालिक परिस्थितियों के आधार पर किसी बड़ी योजना या नीति के तहत कुछ समय के लिए परिस्थिति के अनुरूप या अनुकूल लिया गया ऐसा निर्णय है जिसके माध्यम से एक बेहतर विकल्प खोजा जा सकता है।
मीरा कांत एक प्रश्न और उठाती हैं। बल्कि एक के बाद एक प्रश्नों के ऊपर प्रश्नों की झड़ी ही लगा देती हैं। वे कहती हैं-‘‘इससे भी बड़ा प्रश्न मेरे तार्किक मन ने आहिस्ता से प्रस्तुत किया था कि इसके पश्चात यशोवति का क्या हुआ? वह जीवित रही भी या नहीं? उसने राज सिंहासन स्वेच्छा से छोड़ा या उसे पुरुष सत्ता ने साम-दाम, दंड-भेद से पदच्युत किया?’’ उत्तर की अपेक्षा में उपेक्षित ये प्रश्न और स्त्री अपने अस्तित्व, गुण, आदि की पहचान के लिए प्रतिक्षारत हैं। स्त्री के अस्तित्व को पहचान मिले इसके लिए एक पहल और मुहिम का हिस्सा है ‘उत्तर प्रश्न’। जो अनेक प्रश्नों की श्रंृखला के रूप में खड़ा हुआ है। स्त्री के इन मुद्दों और मार्मिक बिंदुओं को लेकर ये प्रश्न जो पूर्व में भी अनुत्तरित थे, आज भी अनुत्तरित हैं और भविष्य में भी अनुत्तरित.......?? स्वराज प्रकाशन से 2016 में प्रकाशित यह नाटक ‘उत्तर प्रश्न’ अपने आप में अनेक प्रश्न करता है। नाटक की भाषा बड़ी परिमार्जित, संस्कृत शब्दावली से संश्लिप्त है। मीरा कांत का इस तरह की भाषा पर एक अच्छा अधिकार दिखाई देता है। भाषा पात्रानुकुल के साथ साथ स्थान एवं चरित्र के अनुकुल भी नजर आती है। क्योंकि नाटक जिस परिवेश का है, उस पौराणिक कथा को संस्कृतनिस्ट भाषा के माध्यम से प्रस्तुत करना नाटककार के लिए अनिवार्य है। इसलिए मीरा कांत नाटक के लिए उसी तरह की भाषा का प्रयोग करती हैं। विशिष्ट रुप से पहले अंक में कृष्ण, महामात्य, धर्माध्यक्ष और सेनाध्यक्ष के बीच के संवाद बहुत ही मार्मिक, कटाक्षपूर्ण और प्रांजल भाषा से लबरेज हैं। निश्चित रुप से इस तरह की भाषा लिखना सहज नहीं है। परंतु जब नाटककार नाटक के कथानक और चरित्रों के साथ जुड़ता है तो वह अपने आपको वहीं महसूस करता है। अतः उसी परिवेश या चरित्र की भाषा उसके लिए कही जाती है। क्योंकि किसी भी चरित्र को सबसे पहले वही अभिनीत करता है, लिखता है। वह लिखते हुए एक तरह से अभिनीत भी करता है। अतः वहां कई बार नाटककार नहीं चरित्र बोलता है। भाषा, शब्द और संवाद उसी के अनुरुप हो जाते हैं। 

प्रस्तुति-
डॉ. प्रदीप कुमार
ग्राम/पोस्ट-बास कृपाल नगर, 
तहसील-किशनगढ़-बास, जिला-अलवर,
राजस्थान, पिन न. 301405, मोबाईल नं.-9460142690, 
esy&pradeepbas@gmail.com CykWx&http://pradeepprasann.blogspot.in/2017/03/blog-post.html

Wednesday, May 17, 2017

One step further towards the theater : एक कदम और रंगमंच की ओर

एक कदम और रंगमंच की ओर
रंग संस्कार थियेटर ग्रुप अलवर की ओर से ग्रीष्म नाट्य उत्सव 12 से 14 मई 2017 महावर ऑडिटोरियम में आयोजित किया गया। रंग संस्कार थियेटर ग्रुप का यह इस वर्ष का तीसरा नाट्य उत्सव है।

 ग्रीष्म नाट्य उत्सव के अंतर्गत चार नाटक प्रस्तुत किए गए। पहला नाटक अंतोन चेखव की कहानी दा मैरिज प्रपोजल’ 12 मई को प्रस्तुत किया गया। इस कहानी का नाट्य रुपांतरण देशराज मीणा ने किया। दा मैरिज प्रपोजल एक ऐसी कहानी है जिसमें एक युवा अपने पड़ोस में रहने वाली लड़की के सामने विवाह का प्रस्ताव रखता है। उस युवती का पिता तो यही चाहता है कि जल्द से जल्द उसकी बेटी विवाह कर ले तो वह भी तुरंत अपने लिए पड़ोस में रहने वाली किसी महिला से अपना प्रेम प्रसंग प्रारंभ करे। युवक गुणगोविन्द और इन्दूमति में विवाह की बात होने से पूर्व ही झगड़ा प्रारंभ हो जाता है। वे दोनों कुछ ही देर में एक दूसरे के प्रति लगाव महसूस करते हैं, फिर कुछ ही देर में झगड़ने लगते हैं। युवती का पिता दोनों तरीके से इनमें सहयोग करता है। किन्तु नाटक का अंत सुखांत होता है। गुणगोविंद के विवाह के प्रस्ताव को इन्दुमति स्वीकार कर लेती है। इस नाटक का निर्देशन किया धीरेंद्र पाल सिंह ने, जिन्होंने गुणगोविंद की भूमिका भी निभाई। निर्देशकीय दृष्टि से काफी हद तक धीरेंद्र पाल सिंह का काम ठीक दिखाई दिया लेकिन गुणगोविंद की भूमिका के साथ वो बेहतर तरीके से न्याय नहीं कर पाए। धीरेन्द्र पाल सिंह की बॉडी लैंग्वेज, उनके भाव तथा संवाद अधिक प्रभाव नहीं छोड़ पाए। एक प्रेमी मन से निकलने वाले भावों की कमी धीरेन्द्र पाल सिंह के अभिनय में दिखाई दी। हालांकि कुछ जगह पर सूत्र पकड़ने का उन्होंने प्रयास किया। कलाकारों के मध्य आपसी तालमेल की कमी नजर आई। इंदुमति का अभिनय किया विमला डागला ने। विमला डागला की आवाज काफी प्रभावी है। लेकिन इन्दुमति के किरदार के साथ विमला असहज ही दिखाई दे रही थी। जिस तरह की परिस्थितियां नाटक के अंतर्गत मौजूद थीं, उस तरह का सार्थक अभिनय दिखाई नहीं दिया। धीरेंद्र पाल सिंह और विमला डागला दोनों के मध्य ये कमियां दिखाई दी। इन्दुमति के पिता की भूमिका निभाई योगेंद्र अग्रवाल ने, उन्होंने काफी प्रसाय किया अपने अभिनय से कुछ बेहतर करने का।

विमला डागला युवा है, सुंदर है और उर्जान्वित है। उसकी अच्छी आवाज से और अधिक संभावनाएं उसके द्वारा किरदार को बेहतर निभाने की दिखाई देती है। लेकिन इनका जब तक उपयोग नहीं किया जायेगा तब तक उसे भी और नाटको को भी लाभ नहीं मिलेगा। उससे और बेहतर काम करवाया जा सकता था लेकिन तालमेल की कमी के अभाव के कारण ऐसा संभव नहीं हो सका। हालांकि धीरेन्द्र पाल सिंह का यह प्रथम निर्देशन था, इसलिए उस दृष्टि से काफी सराहनीय कार्य है। पहले नाटक में काफी कुछ करने का प्रयास उन्होंने एक निर्देशक के बतौर किया।

एक तरह से प्रस्तुति एक तरफी सी दिखाई दी। दर्शकों के माध्यम से देखें तो दर्शक उससे जुड़ नहीं पाए। कलाकारों में भी एक-दूसरे के प्रति सहयोग या जुड़ाव दिखाई नहीं दिया। एक समन्वय का भाव जिस तरह का एक कलाकार से दूसरे कलाकार के मध्य होता है वह गायब था। दोनों के मध्य किसी तरह की प्रतिक्रिया का आदान प्रदान ही नहीं हुआ। हालांकि स्क्रिप्ट भी इतनी प्रभावी नहीं थी और न ही भाषा एवं संवाद अपनी छाप छोड़ पाए। किंतु फिर भी कुछ परिश्रम की मांग करने वाला यह नाटक यदि अच्छे से प्रयास और तालमेल के द्वारा प्रस्तुत किया जाए तो एक बेहतर प्रस्तुति साबित हो सकता है। इस नाटक की प्रकाश व्यवस्था संभाली शिव सिंह पालावत ने। संगीत दिया देवेंद्र सिंह ने एवं मंच परे अन्य सहयोगी भूमिका में थे साजिद आलम और रिषभ।


13 मई को मंचित होने वाला नाटक अर्थात दूसरा नाटक था आधी रात के बाद। यह डॉक्टर शंकर शेष द्वारा लिखा गया नाटक है जो कि काफी प्रसिद्ध है। आधी रात के बादऐसा नाटक है जिसमें चोर चोरी करने आता है एक जज के घर में। वह भी मात्र ढाई सौ रुपए की। क्योंकि वह जानता है कि ढाई सौ रुपए की चोरी करने से वह जेल में बंद हो सकता है। इसलिए वह चोरी जेल में बंद होने के लिए करना चाहता है। उसके पीछे की सारी कहानी वह एक घंटे तक जज से बात करते हुए सुनाता है कि क्यों चोरी करना चाहता है। समाज की अनेक विसंगतियों के ऊपर वह सवाल खड़ा करता है कि क्या इस तरह से छोटा मोटा सामान चुराने वाले ही चोर है या बड़े-बड़े बिल्डर, उद्योगपति, नेता, मंत्री जो समाज के साथ बेईमानी करते हैं, चीटिंग करते हैं, धोखा देते हैं, अतिरिक्त पैसा और संपत्ति होने के बाद भी अनेक प्रकार के घोटाले बेईमानियां करके लोगों को बेवकूफ बनाते हैं, सामान में मिलावट करते हैं, ड्रग्स की सप्लाई करते हैं, ये सब चोर हैं? ऐसे अनेक सवाल उठाता है आधी रात के बाद। जज का एक पड़ोसी पत्रकार होता है, जो बीच बीच में घर में लाइट चलते हुए देखकर उनसे सहज भाव से कुछ बात करने के लिए आ जाता है। जैसे चाय के लिए चाय पत्ती, दूध वगैरह मांगने के लिए आता रहता है और वह चोर को उनका विशिष्ट मेहमान समझकर, काफी लंबी बात चलेगी, देर तक जागते रहोगे यह कहता है।


नाटक का निर्देशन किया शिव सिंह पालावत ने और साथ ही चोर की दमदार भूमिका को भी शिव सिंह पालावत ने अभिनीत किया। अपने हाव भाव एवं सशक्त अदाकारी के साथ चोर के किरदार को बखुबी प्रस्तुत किया शिव सिंह पालावत ने। जज की भूमिका में थे योगेंद्र अग्रवाल। योगेंद्र अग्रवाल के पास कहने के लिए विशेष संवाद नहीं थे। वे सिर्फ चोर की कहानी को सुन रहे थे या कहानी को आगे बढ़ाने के लिए बस बीच-बीच में प्रश्न या जिज्ञासा प्रकट करते थे। फिर क्या हुआ? आगे? चोर के द्वारा की गई चोरी से संबंधित सवाल, उसके द्वारा चुराए गए पैसों का क्या किया? उसकी प्रेम कहानी किस तरह से आगे बढ़ी। इन सबको जानने के लिए उनके बहुत सीमित संवाद थे। लेकिन उन सीमित संवादों में भी योगेंद्र अग्रवाल जज के रूप में अपने अभिनय से अपना प्रमुख प्रभाव छोड़ते हैं। विशेष रुप से उनके शरीर का डील डोल इस भूमिका के लिए एकदम सूट करता है। पड़ोसी की भूमिका निभाई कृष्ण कुमार शर्मा ने। उनके भी नाटक में तीन या चार संवाद थे लेकिन प्रभावी थे। शंकर शेष ने यह नाटक सच में बहुत खूबसूरत अंदाज में लिखा है। इस नाटक की बहुत अच्छी प्रकाश व्यवस्था को संभाला देशराज मीणा ने। संगीत दिया हेमेंद्र सिंह ने। कुल मिलाकर एक अच्छी प्रस्तुति का आभास कराया आधी रात के बाद ने। समसामयिक विसंगतियों के ऊपर कटाक्ष करते हुए अनेक प्रश्नों को खड़ा करता है यह नाटक।


 तीसरे दिन यानी 14 मई को सुरेंद्र वर्मा द्वारा लिखा नाटक मरणोपरांतखेला गया। मरणोपरांत का निर्देशन किया अंकुश शर्मा ने। मरणोपरांत एक स्त्री के मरने के बाद उसके पति एवं प्रेमी की मुलाकात का वर्णन है। दोनों पहली बार मिलते हैं और उन दोनों के मध्य उस स्त्री को लेकर बातचीत होती है। उस स्त्री का प्रेमी तो उसके पति के बारे में जानता था लेकिन उसका पति नहीं जानता था कि मेरी पत्नी का कहीं प्रेम प्रसंग भी चल रहा है। बहुत द्वंद्वात्मक और कसी हुई भाषा से सजा यह नाटक अपने संजिता संवादों के कारण एक मार्मिक प्रस्तुति बनता है। एक पति को जब पता लगे कि उसकी पत्नी का किसी अन्य पुरुष के साथ संबंध है तो उस की क्या स्थिति होती है, वह बेचैनी, दुख और कुछ न कर पाने की छटपटाहट पति की भूमिका निभाने वाले अंकुश शर्मा के किरदार में दिखाई दी। अंकुश शर्मा ने पति की भूमिका को बेहतर तरीके से प्रस्तुत किया। प्रेमी की भूमिका में थे कृश सारेश्वर। कृश सारेश्वर एक मंजे हुए कलाकार हैं। प्रेमी के किरदार की छटपटाहट, विविशता, असमंजस की स्थिति, चाहकर भी कुछ न कह पाने की द्वंद्वात्मक स्थिति को बहुत ही खूबसरत अभिनय के साथ कृश सारेश्वर प्रस्तुत करते हैं। कृश बहुत कुछ कहना चाहते हैं लेकिन कह नहीं पाते, लेकिन इस न कहने में जो उनका अभिनय कहता है वह सब बयां कर जाता है। वह अपनी प्रेमिका के पति के समक्ष खड़ा है इस बात का आभास उसके शरीर के भावों से बहुत बार प्रकट होता है। वह बहुत कुछ कहना चाहता है, संवादों के माध्यम से लेकिन विविश होकर चुप हो जाता है। संवाद के माध्यम से वे जितना कहते हैं उससे अधिक बिना संवाद के कहते हैं और वह साफ सुनाई और दिखाई देता है। यह एक कलाकार की अभिनय क्षमता है। जो मौन में बोलती है। उसके मन में चल रहे द्वंद्व, दुख, दर्द की स्थिति उसके चेहरे से साफ दिखाई देती है। कृश सारेश्वर इसमें सफल होते हैं। सुरेन्द्र वर्मा ने बहुत ही गंभीर और धीमी गति से चलने वाला यह नाटक बहुत ही संजिदा संवादों से सजाया है। जिसे अंकुश शर्मा एवं कृश सारेश्वर ने अपने जबरदस्त अभिनय के माध्यम से संवारा है। कृश सारेश्वर का अभिनय इनता सात्विक होता है कि वे मंच पर अपनी बेचैनी और द्वंद्व की स्थिति को अपने अश्रुओं  के माध्यम से जीवित कर देते हैं। इन संजिदा संवादों को और बेहतर बनाया मदन मोहन के आलाप ने। मदन मोहन ने अपने सधे हुए सुर एवं आवाज से कृश सारेश्वर एवं अंकुश शर्मा के अभिनय को संबल दिया।


चौथी और इस ग्रीष्म नाट्य उत्सव की अंतिम प्रस्तुति थी उसके इंतजार में। यह नाटक मेरे द्वारा लिखा गया है और इसके दूसरे अंक की भूमिका में मैं हूं। उसके इंतजार मेंनाटक का निर्देशन एवं प्रकाश व्यवस्था संभाली देशराज मीणा ने। संगीत दिया शिव सिंह पालावत ने। पहले अंक में दो बेरोजगार युवक छोटी मोटी चोरी करते हैं। वे अखबार में कोई काम तलाश रहे हैं। इसी बीच वे समाज की अनेक समस्याओं, घटनाओं तथा क्षेत्रों में व्याप्त अनैतिकता, विसंगती आदि पर बहुत ही गंभीर चोट करते हैं। अभिनय की दृष्टि से युवक एक भूमिका में रिषभ और दो की भूमिका में हेमेंद्र सिंह ने काफी अच्छा प्रयास किया है। किंतु बीच बीच में तालमेल की कमी यहां भी दिखाई दी। रिषभ का उतावलापन एवं हेमेन्द्र सिंह की धीमी गति ने नाटक को अनेक जगह पर गति से अवरूद्ध किया। दोनों ही युवा कलाकार हैं। जोश है, उमंग है, लेकिन अभी अनुभव की कमी नजर आ रही है। हेमेन्द्र का स्वर अच्छा है लेकिन वह धीमा है। उसकी आवाज दर्शक तक नहीं पहुंच पा रही थी, या जिस स्तर पर पहुंचनी चाहिए वह स्तर नहीं था। रिषभ में चंचलता है इसलिए वह चलने के बजाय भागता है। वह तुरंत संवाद खत्म करना चाहता है। संवादों के मर्म को जानने के बजाय उन्हें सिर्फ उच्चारित करने में प्रभाव कम हो जाता है। चाहे संवाद कितने भी बेहतर क्यों न हों।


रिषभ में अपने संवादों को बोलकर उससे निजात पाने की जल्दबाजी दिखाई देती है। जबकि हेमेंद्र बहुत धीमी गति से चलता है। दोनों की यह स्वभावगत स्थिति है। जो कहीं न कहीं प्रस्तुति को बाधित कर बेहतर प्रस्तुति बनाने में अड़चन पैदा करती है। लेकिन दोनों ने एक अच्छा प्रयास किया है। दोनों में संभावना बहुत है। इसलिए आगे उसमें सुधार होगा। इसी प्रस्तुति के दूसरे अंक में एक बाजार का दृश्य दिखाया गया है। जिसमें एक लड़की को अकेला पाकर कुछ लोग उसके साथ बतमजी करते हैं और वह मौन रहती है। उसे छेड़ते हैं और उसका लाभ उठाते हैं। एक दूसरे दृश्य में इसी तरह एक दूसरी लड़की आती है वे लड़के उसे भी छेड़ते हैं लेकिन वह लड़की उनका मुकाबला करती है, उनका सामना करती है, उन्हें जवाब देती और लड़कों को हताश और निराश कर देती है। वह एक बड़ा प्रश्न छोड़ती है कि हमें स्वयं आगे आना होगा, कब तक हम दूसरों के सहारे छुपते रहेंगे, चुप रहेंगे और सहते रहेंगे। बाजार के दृश्य में नम्रता, विमला डागला, धीरेंद्र सिंह, योगेंद्र अग्रवाल, हेमेंद्र सिंह, रिषभ, कृष्ण कांत शर्मा आदि मौजूद थे। प्रदीप कुमार इसी बाजार से निकलकर एक बस के लिए जाते हैं लेकिन बस छूट जाती है। वे इंतजार करते हैं बस का और तब तक वहीं बैठकर एक प्रेम कहानी के माध्यम से अनेक सवाल खड़े करते हैं। अपनी कविताओं से एवं संजिता संवादों से दर्शकों को मजबूर करते हैं तालिया बजाने के लिए। समसामयिक घटनाओं पर गंभीर कटाक्ष इस नाटक में दिखाई देता हैं तथा सहज हास्य के द्वारा लोगों को गुदगुदाते के लिए भी वे मजबूर करते हैं।



रंगमंचीय दृष्टि से ग्रीष्म नाट्य उत्सवएक अच्छा कार्यक्रम साबित हुआ। अलवर में नाटकों के क्षेत्र में एक सशक्त पहचान बनाने में रंग संस्कार थियेटर ग्रुप धीरे धीरे सक्रिय है। रंग संस्कार थियेटर गु्रप जिस तरह से लगातार नाटक कर रहा है निश्चित रुप से उसके सद्प्रयासों से अलवर के रंगकर्म का भविष्य बेहतर और सुनहरा है, ऐसी आशा की जा सकती है। अनेक रंगकर्मी एवं रंग संस्थाओं के सामने सवाल भी छोड़ता है, कि आप सब भी प्रयास करें तो उसका हौसला बुलंद होगा। दर्शकों की कमी उसे जरुर खलती है लेकिन उन दर्शकों में जो भी आए हैं वे बहुत मायने रखते हैं। कला के लिए हमेशा कम ही लोग रहे हैं लेकिन जो लोग सक्रिय रहे हैं वे विशिष्ट रहे हैं। इस नाट्य उत्सव को नियोजित करने में देशराज मीणा जी का जितना आभार व्यक्त किया जाए कम है। निश्चित रुप से देशराज मीणा थियेटर के लिए एक जुनूनी और समर्पित व्यक्ति हैं और इसी दिशा में वह आगे बढ़ रहे हैं। वे ओर आगे बढ़े, बुलंदियों को छुएं, उन्नति करें, ऐसी आशा एवं शुभेच्छा।
प्रस्तुति-
डॉ. प्रदीप कुमार
ग्राम/पोस्ट-बास कृपाल नगर,
तहसील-किशनगढ़-बास, जिला-अलवर,
राजस्थान, पिन न. 301405, मोबाईल नं.-9460142690,
esy&pradeepbas@gmail.com CykWx&http://pradeepprasann.blogspot.in/2017/03/blog-post.html




Try to fill empty vacuum : खाली वैक्यूम को भरने की कोशिश

खाली वैक्यूम को भरने की कोशिश
रंग संस्कार थियेटर ग्रुप के द्वारा तीन दिवसीय ग्रीष्म नाट्य उत्सव’ 12 से 14 मई 2017 महावर ऑडिटोरियम अलवर में आयोजित किया गया। इस ग्रीष्म नाट्य उत्सव में चार नाटक मंचित किए गए। इस नाट्य उत्सव में सबसे ज्यादा कमी खली दर्शकों की।


बहुत पहले मैंने एक जगह पढ़ा था कि नाटक करने वाले एवं उसको पसंद करने वाले हमेशा ही संख्यात्मक दृष्टि से बहुत ही कम लोग रहे हैं। यह संख्या लगभग हर काल में ऐसी ही रही है। पूर्व की तुलना में अब जनसंख्या लगातार बढ़ रही है। उसके अनुपात में भी कला के प्रेमी उतने नहीं बढ़ रहे, जितने बढ़ने चाहिए। फिर भी वे बिल्कुल नहीं है ऐसा भी नहीं कहा जा सकता, लेकिन जितने हैं वे अलग-अलग वर्गों में बंटे हुए हैं। कोई भी कला प्रस्तुत करना या उससे जुड़ना, प्रारंभिक रूप में उसके प्रति जुनून, लगाव, प्रेम या समाज में परिवर्तन लाना आदि हो सकता है लेकिन धीरे-धीरे बाद में वह व्यवसायिक, पैसे कमाना, प्रसिद्धि प्राप्त करना या किसी माध्यम से कोई सरकारी या गैर सरकारी संस्था विभाग से योजनाएं ले करके अपने काम को आगे बढ़ाना आदि हो जाता है या हो सकता है। कला के संवर्धन में सरकारें अक्सर उदासीन रही हैं। किन्तु यह भी नहीं कहा जा सकता कि सरकारें कला को प्रोत्साहन नहीं दे रही हैं। हां यह बात अलग है कि अनेक तरह की कलाओं को पोषित करने वाली छोटी छोटी संस्थाओं को बंद कर दिया गया है या उनको मिलने वाली परियोजना, वित्त विभाग से लाभ, बजट इत्यादि की कटौती कर दी गई है। बहुत पूर्व से ही इसी तरह की स्थिति या मानसिकता सरकारों की देखी जा सकती है। फिर भी कला को करने वाले, उसको पसंद करने वाले लोग उसका निर्वहन कर रहे हैं और सरकार से या अन्य जगह से सहयोग लेकर इन कलाओं को साध रहे हैं। क्योंकि जीवन यापन करने के लिए पैसों की बहुत आवश्यकता होती है, जरूरी भी है। अतः किसी न किसी माध्यम से व्यक्ति उनका अर्जन करेगा। अपने परिवार का पालन पोषण करेगा। बहुत सारे लोग अपने परिवार का पालन करने के लिए अनेक माध्यम से पैसे कमाते हैं और उन माध्यमों के अंदर भी वे अनेक प्रकार के झूठ, प्रपंच, बेईमानी, घोटाले, भ्रष्टाचार इत्यादि का उपयोग करते हैं तो यह गलत होता है। क्योंकि किसी भी प्रकार का व्यवसाय लगभग-लगभग बुरा नहीं है। समाज की बहू आयामिता के आधार पर उस की आवश्यकता है। परंतु उस व्यवसाय कि यह मानसिकता बन जाए कि सिर्फ मेरे लाभ के लिए किसी की भी हानि हो, तो इस तरह का व्यवसाय गलत है। इस तरह की व्यवसायीकरण की सोच, असंगत, अनैतिक आदि का प्रतिरोध करने के लिए कलाएं, साहित्यिक विधाएं एवं अनेक गतिविधियां एक प्रमुख प्रतिपक्ष की भूमिका निभाती हैं। उनका प्रतिपक्ष या प्रतिरोध किसी भी प्रकार से उनकी व्यक्तिगत रुप से अहित की कामना नहीं है। बल्कि जो उन की कार्यशैली या पद्धति है उस में बदलाव हो और अधिक से अधिक समाज को लाभ मिले ऐसा दृष्टिकोण होता है या होना चाहिए। इसी तरह से ही नाटक, संगीत, साहित्यिक, सांस्कृतिक या अन्य कला की विधाओं से जुड़े हुए लोग अपनी इन कलात्मक गतिविधियों का संवर्धन करने के लिए किसी न किसी प्रकार का सरकारी या गैर सरकारी सहयोग लेते हैं।


यह तो अमुमन देखा ही गया है कि कला को करने वाले लोग, प्रारंभ में कभी भी धनाढ्य वर्ग से नहीं रहे। हां वह बात अलहदा है कि उसको करते करते वे लोग प्रसिद्ध हो गए और पैसे वाले हो गए। किंतु मूलतः प्रारंभ में उनका ध्येय यह नहीं होता है। अर्थात कलाकार के पास अभाव की जिंदगी हो और वह फिर भी कला का संवर्धन या उससे प्रेम करता रहे तो यह भी ठीक नहीं है। क्योंकि जिस तरह से एक अध्यापक अपनी अध्येतावृति से वेतन पाता है और साथ ही वह शिक्षा देकर समाज में एक बेहतर और सामाजिक कार्य भी करता है। ठीक उसी प्रकार से कलाकार भी अपनी कला की प्रस्तुति अपने शौक के लिए या समाज में परिवर्तन के लिए, असंगत के विरुद्ध बोलने के लिए करता है। किंतु वह यह भी अपेक्षा रखता है या रखनी चाहिए कि या तो इस कला के माध्यम से या किसी दूसरे माध्यम से जुड़कर वह अपने परिवार का पालन पोषण करने के लिए जीविकापार्जन करे। जिससे की उसका जीवन भी चल सके। अर्थात कहीं न कहीं से उसे वेतन मिलता रहे।


अलवर में अनेक समस्याएं हैं, जो साहित्यिक एवं कलात्मक गतिविधियों से जुड़ी हुई हैं और सीधे-सीधे नाटक से जुड़ी हुई हैं। यहां सांस्कृतिक गतिविधियों से जुड़ी हुई अनेक संस्थाएं हैं, कलाकार भी हैं, दर्शक भी हैं। लेकिन जैसा की अनेक जगहों पर होता है कि संस्थाएं एवं कलाकार एक दूसरे से वैचारिक रूप से या व्यक्तिगत रुप से मतभेद या मनभेद रखती हैं। इसके बजाय इनके मध्य एक सुखद प्रतिस्पर्धा हो तो वह इन कलात्मक गतिविधियों को बेहतर बनाने में मदद कर सकती है। परंतु यदि एक व्यक्ति या संस्था दूसरे को नीचा दिखाकर स्वयं को विशिष्ट बनाने की कोशिश करे तो वहां अनेक तरह की दिक्कतें आती हैं। जहां तक मुझे लगता है ऐसी स्थिति किसी को ही ऊपर नहीं बढ़ने देती है। रंग संस्कार थियेटर ग्रुप द्वारा आयोजित ग्रीष्म नाट्य उत्सव में प्रस्तुत नाटकों एवं कलाकारों की समीक्षात्मक रुप से खूबियों एवं खामियों को अलग से रेखांकित किया जा सकता है। किन्तु मूलतः यहां नाटक/रंगमंच के संवर्धन की बात है तो उसमें अलवर के रंगकर्मी, कला प्रेमी, साहित्यकार आदि की भूमिका प्रमुख होगी न कि आम दर्शक की। क्योंकि ग्रीष्म नाट्य उत्सव में इन सबकी उदासीनता कहीं न कहीं खली। जबकि ऐसी स्थिति में अलवर में एक सरकारी भव्य प्रेक्षागृह प्रताप ऑडिटोरियम निर्मित हो चुका है, परंतु वह बहुत अधिक दाम पर उपलब्ध होता है। अतः उसके लिए सिर्फ बातों से ही संघर्षरत दिखाई देने वाले अलवर के रंगकर्मी यह अपेक्षा करें कि वह उन्हें कम से कम दर में इसी तरह से उपलब्ध हो जायेगा, यह एक तरह से थियेटर या कला के प्रति बेईमानी लगती है। दूसरी बात, यदि खुदा न खासता प्रताप ऑडिटोरियम कम से कम दर पर या निःशुल्क उपलब्ध हो भी जाए, तो कम से कम लगभग पिछले दो वर्ष के कार्यक्रमों के प्रति अलवर के रंगकर्मियों या कला, साहित्यिक संस्थाओं की स्थिति को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि कुछ संस्थाएं और कुछ कलाकारों को छोड़ दें तो लगभग लगभग नाटक प्रस्तुति का हाल वैसा ही रहेगा जो अभी है। अर्थात प्रताप ऑडिटोरियम मिलने के बाद नाट्य प्रस्तुतियों में बढ़ोतरी हो जायेगी ऐसा अभी तो प्रतीत नहीं हो रहा। क्योंकि आमजन तो नाटक का दर्शक तक बनेगा जब उसके सामने नाट्य प्रस्तुतियों का सिलसिला लगातार चलेगा। सिनेमा या अन्य गतिविधियों की तुलना में उसके सामने नाटक एक बड़े विकल्प के रूप में होगा, तब वह उसे चुनेगा या उससे जुड़ेगा। क्योंकि आम दर्शक इसकी गहराई से वाकिफ नहीं है। मैं यहां निराशा की बात नहीं कर रहा हूं, लेकिन जो यथार्थ स्थिति है, जो खाली वैक्यूम दिखाई दे रहा है, उसे प्रस्तुत कर रहा हूँ। यह कड़वा भी हो सकता है और अनेक लोगों के लिए कष्टदाई भी, परंतु इस नासूर को निकाले बिना ही मर्ज ठीक होगी, ऐसी आशा और अपेक्षा करना संभवतः हम जिस काम को करने जा रहे हैं या कर रहे हैं उसके प्रति ही नहीं एक व्यक्ति के रुप में भी हमें बेईमानी महसूस होगी। यहां आम दर्शक की कला के प्रति जो रुचि या समर्पण की संख्या होती है, वह आनुपातिक रुप से लगभग कम है किंतु सवाल तो उन पर उठता है जो इस माध्यम से जुड़े हुए हैं, जो अपने आप को कला के प्रेमी, थियेटरिस्ट, नाटक करने वाले, रंगकर्मी, साहित्यकार, लेखक या कवि कहते हैं। वरिष्ठ ही नहीं बल्कि अब तो कनिष्ठ रंगकर्मी भी यह अपेक्षा करने लग गया है कि जब तक उसके पास व्यक्तिगत रुप से कोई बुलावा, संदेश, फोन, निमंत्रण पत्र इत्यादि नहीं आयेगा, वह नाटक देखने के लिए नहीं आयेगा। वह यह भी अपेक्षा करता है कि मैं तो रंगकर्मी हूं, साहित्यकार हूं इसलिए मुझे तो नाटक निःशुल्क देखने का अधिकार है और जो लोग नाटक प्रस्तुत कर रहे उन्हें दिखाना भी चाहिए।


पहली बात तो यह कि जिस तरह की उदासीनता या नकारात्मक दृष्टिकोण या नजरिया नाटक या कला के प्रति परिवारों का, समाज का, सरकारों का होता है वह नजरिया कम से कम उन लोगों का नहीं होना चाहिए जो इस माध्यम में किसी भी रुप से जुड़े हुए हैं। दूसरी बात जिस तरह से दूसरी गतिविधियां के लिए हम लोग पैसा खर्च करते हैं, समय पर जाते हैं, इसी तरह से नाटक के लिए भी हमें थोड़ा पैसा खर्च करना पड़ेगा और वह इसलिए कि यदि हम चाहते हैं कि नाटक से कुछ पैसा अर्जन हो, जिससे कि कलाकार भी एक ठीक-ठाक सा जीवन यापन कर सके, उसे वहां से पैसा मिल सके तो हमें स्वयं भी उसके लिए पहल करनी होगी। आम दर्शक की बात अलग है परंतु रंगकर्मी का, कला प्रेमी का कितना सहयोग और समर्पण है नाटक/रंगकर्म के संवर्धन में या कलाकारों की प्रगति में यह महत्वपूर्ण सवाल है। जो संस्थाएं अलवर में मॉडर्न थियेटर करती हैं वे अधिकतर निःशुल्क करती हैं या फिर करती ही नहीं हैं। अतः इस रिवाज को भी बदलना होगा। इसका तात्पर्य यह कतई नहीं है कि हमेशा ही आप टिकिट से करें। लेकिन इस परंपरा को बदलना होगा ताकि थियेटर और थियेटर कलाकार को सम्मान मिल सके। कुछ स्थितियां इस तरह की भी हैं कि लोग अपेक्षा करते हैं कि हम अगर नाटक देखेंगे तो विशिष्ट व्यक्ति का देखेंगे, जो हमारे परिचित हैं। जिनसे वैचारिक और मत या मन भेद हमारे नहीं हैं। यह कोई बाधा नहीं है कि प्रतिदिन प्रत्येक प्रस्तुति में हर रंगकर्मी उपस्थित हो किंतु अपेक्षा तो की जा सकती है अधिक से अधिक उसकी उपस्थिति हो। यदि कोई दूसरा महत्त्वपूर्ण कार्य न आए तो। क्योंकि कुछ महत्त्वपूर्ण काम आने पर हम नाटक ही नहीं दूसरी भी गतिविधियों को छोड़ देते हैं। अतः किसी विशिष्ट महत्त्वपूर्ण कार्य की वजह से न आना कोई नाटक के प्रति प्रेम कम होना नहीं है। लेकिन आना भी नहीं और उसके बाद टीका टिप्पणी करना या फिर इसलिए नहीं आना कि हमें निमंत्रित पत्र नहीं दिया, हमारे पास पासनहीं पहुंचा, हमें फोन करके कहा नहीं गया या फिर हम तो बहुत ही वरिष्ठ और विशिष्ट हैं, अतः हमें जब तक विशिष्ट सम्मान नहीं दिया जाएगा तब तक हम नाटक देखने नहीं जायेंगे। इस तरह की सोच को रखना यह असंगत है। यह नाटक के प्रति प्रेम नहीं है। इस तरह की सोच को बदलना होगा। क्योंकि नाटक किसी एक व्यक्ति का काम नहीं है और न ही हो सकता है। उसमें सहभागिता-सामाजिकता जरूरी है। अतः सबका योगदान चाहिए। आर्थिक सहयोग भी नाटक के लिए अपेक्षित है। नाटक बिना किसी सहयोग के नहीं हो सकता। अर्थात सरकारी या गैर सरकारी संस्थाओं से या व्यक्तियों से इसके लिए अपेक्षित सहयोग लिया जाता है। सरकारी या गैर सरकारी संस्थाओं से वित्तीय सहयोग तब तक लेने में कोई दिक्कत नहीं है जब तक कि वे हमारे सिद्धांत और हमारी कला में किसी प्रकार की विशिष्ट बाधा उत्पन्न न करें। लोगों को यह सोचना चाहिए कि यदि हम किसी कारणवस उस व्यक्ति की प्रस्तुति में शामिल नहीं हो सकते तो कोई बात नहीं, किन्तु कम से कम उसके संवर्धन में उसके विकास में बाधा तो उत्पन्न न करें। किसी का किसी भी कारण से किसी से भी मतभेद हो सकता है, लेकिन यह ध्यान रखें कि आप और वह एक ही माध्यम से जुड़े हुए हैं। इसलिए उसके विकास एवं संवर्धन के लिए तो हमें सकारात्मक होना चाहिए। उसमें आप नकारात्मक भूमिका तो कम से कम न ही निभाएं। यदि कोई नकारात्मक भूमिका निभाता है तो वह उस कला का संवर्धन नहीं करना चाहते हैं बल्कि उस की आड़ में व्यक्तिगत रुप से प्रसिद्धि या प्रशंसा प्राप्त करना चाहते हैं।


इस तरह के अनेक सवाल ग्रीष्म नाट्य उत्सव के दौरान महसूस किए गए। ये सवाल कोई बाहर से पैदा नहीं हुए या कोई विदेश से नहीं आए, किसी दूसरे व्यक्ति ने धकेले नहीं हैं, ये हमने पैदा किये हैं। अतः इनका उत्तर और समाधान भी हमें खोजना होगा और जहां तक मैं समझता हूं इसका उत्तर और समाधान हम न जानते हों ऐसा नहीं है बल्कि जानबूझ कर हम उसे अनुत्तरित ही रहने देना चाहते हैं। क्योंकि पैसे, प्रसिद्धि, और प्रतिष्ठा की भूख ने जिस तरीके से अन्य लोगों को अंधा कर दिया उसी भीड़ में हम भी शामिल हो गए हैं। संभवतः इसीलिए हमने वही चश्मे लगा लिए हैं जिनकी दृष्टि से दूसरे लोग इस पूरे भौतिक संसार की सुख सुविधाओं को अपनाने और पाने की दृष्टि से देखते हैं। हम भी उसी तरह की आशाएं अपने मन में पाले हुए हैं और ऊपर से साहित्यकार, कलाकार, रंगकर्मी का मुखौटा पहन रखा है। यह मुखौटा नाटक के समय किसी विशेष प्रकार के किरदार को अभिनीत करने के लिए पहना जाता है तो निश्चित रुप से सार्थक है किंतु यदि व्यक्ति हमेशा स्वयं को छिपाकर अन्यत्र बनने की कोशिश करता है तो वह न कलाकार रहता है और न ही आम व्यक्ति।


रंग संस्कार थिएटर ग्रुप अपने आप में अकेली ऐसी संस्था है जो गत दो वर्षों से अलवर में निरंतर नाटक कर रही है। इस संस्था को संचालित करने वाले देशराज मीणा अकेले इस मुहिम में लगे हुए दिखाई देते हैं। कुछ दो चार लोग उनके विशिष्ट हैं जो उनका उत्सव या कार्यक्रम के समय सहयोग करते हैं। यह उन व्यक्तियों का देशराज के प्रति या उससे भी पहले मूलतः नाटक के प्रति विशिष्ट लगाव हो सकता है। कोई भी व्यक्ति जब प्रस्तुति देता है तो उसका श्रेय उसे तो मिलता ही है, लेकिन साथ ही हमें यह भी सोचने की आवश्यकता है कि हम जिस विधा से जुड़े हुए हैं, उसका संवर्धन यदि होता है तो किसी न किसी रूप में उसका श्रेय हमें भी मिलता है। अतः उस श्रेय को महसूस करते हुए अलवर में सक्रिय, साझा, सकारात्मक, सहयोगात्मक रंगकर्म सक्रिय हो, लगातार हो, उसकी प्रस्तुतियां हों और अलवर में ही नहीं बल्कि दूर दराज अनेक शहरों में भी अलवर की प्रस्तुतियों को सराहा जाये, इस तरह की शुरुआत की अपेक्षा जब तक हम लोग अपने सहयोगात्मक दृष्टिकोण से नहीं दिखाएंगे तब तक अलवर में नाटक/रंगकर्म का विकास संभव नहीं है। रंग संस्कार थियेटर ग्रुप अनेक आलोचना, नाउम्मीदों, नकारात्मक दृष्टिकोणों के बावजूद भी लगातार मंच पर सक्रिय है, यह बहुत बड़ी बात है। उसके पास कोई खजाना नहीं है लेकिन माद्दा, जुनून और हिम्मत है। इसलिए इसी वर्ष अगले माह 17-18 जून को फिर से एक नाट्य उत्सव करने जा रहा है। एक नई उम्मीद, आशा एवं सोच के साथ सभी लोग उत्साहित होकर सहयोग देंगे और अपने अपने स्तर पर भी कम से कम दो महा में एक नाटक प्रस्तुत करेंगे ऐसी आशा के साथ जय अलवर रंगकर्म।

प्रस्तुति-
डॉ. प्रदीप कुमार
ग्राम/पोस्ट-बास कृपाल नगर,
तहसील-किशनगढ़-बास, जिला-अलवर,
राजस्थान, पिन न. 301405, मोबाईल नं.-9460142690,
esy&pradeepbas@gmail.com CykWx&http://pradeepprasann.blogspot.in/2017/03/blog-post.html


Friday, May 5, 2017

Kabir's harshness is hidden in the sweetness : कबीर की कर्कशता में छुपी है मधुरता


‘मोको कहां ढूंढे रे बंदे’ रमेश खत्री जी का यह पहला प्रकाशित नाटक है। इस नाटक का ताना बाना उन्होंने कबीर को केंद्र में रखते हुए बुना है। रमेश खत्री अपनी बात में कहते हैं कि ‘इस नाटक में कबीर के जीवन के अनेक स्तरों को पकड़ने की कोशिश की गई है।’ कबीर को लेकर विद्वानों में बहुत मतभेद हैं, उनके जन्म, जाति, धर्म, जन्म स्थान, रचना प्रक्रिया आदि को ले करके। यह बात सिर्फ कबीर पर ही लागू नहीं होती है। भारतीय दृष्टिकोण से अनेक ऐसे साहित्यकार हैं जिनकी इन सभी ऊपर लिखित स्थितियों के बारे में प्रमाणिक, स्पष्ट और एक राय विद्वानों की नहीं है। इसके अनेक कारण हैं। जिनकी तह में जाना यहां विषयांतर होगा। किंतु यह बात सही है कि कबीर अपने समय के समाज सहित संस्कृति और परंपरा को जितना क्रांतिकारी रुप से कचोटते हैं उतना दूसरा रचनाकार नहीं। कबीर की भाषा और स्वभाव कई जगह पर अख्खड़ दिखाई देते हैं। ऐसा अक्खड़ रचनाकार उस समय में कोई और नहीं दिखाई देता। उसका एक बड़ा कारण यह है कि तात्कालिक समय की सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक रुढ़िवादी परंपराओं पर चोट करने की सबसे ज्यादा हिमाकत जिस स्वभाव के अंतर्गत हो सकती है वह कबीर में दिखाई देती है। कबीर के दोहे, समाज सेवा तथा उनके जीवन के अनेक महत्त्वपूर्ण पक्षों को उठाते हुए रमेश खत्री बताते हैं कि कैसे कबीर, कबीर बनते हैं। वे एक सामाजिक फरिश्ता बनते हैं। एक साहित्यिक चेतना का व्यक्ति कवि से पहले कैसे समाज सुधारक बनता है। 
कबीर पर लिखना चुनौति है और नाटक लिखना और भी चुनौति है। इस चुनौति को स्वीकार किया रमेश खत्री ने। इस नाटक की भूमिका लिखी वरिष्ठ रंगकर्मी रणवीर सिंह जी ने। उन्होंने भूमिका में एक जगह लिखा-‘‘कबीर की जिंदगी पर नाटक लिखने के लिए हिम्मत चाहिए।’’ मुझे लगता है इसके पीछे यह मानसिकता रही होगी कि मूलतः नाटक का काम असंगत के प्रति प्रतिरोध पैदा करना है और हिन्दुस्तानी नाट्य परंपरा में यह प्रतिरोध का स्वर इसके जन्म से ही दिखाई देता है। रुढ़िवादी परंपराओं, आडंबरों तथा समाज में व्याप्त अंधविश्वासों के प्रति आक्रोशमयी प्रतिरोधी आवाज जितना मुखर होके कबीर उठाते हैं वह अन्य के यहां नहीं दिखाई देती। इसीलिए कबीर की साखियां आज की परिस्थितियों में भी बहुत ज्यादा प्रासांगिक नजर आती हैं। किंतु कबीर का प्रासांगिक होना है, कबीर की महानता या उनके साहित्य की विशेषता है, ऐसा मैं नहीं मानता। कबीर प्रासांगिक इसलिए हैं कि हमारे विकास की चाल धीमी है। राजनीतिक षड्यंत्र, सामाजिक परिस्थितियां और धार्मिक घटाटोपांे के अंतरजाल में फंसा हुआ भारतीय समाज आज भी उन्हीं दायरो में कैद है, जिनके लिए कबीर अपने समय में लड़ रहे थे। यदि आज भी वही परिस्थिति या क्रूरता विद्यमान है तो यह कबीर की प्रासांगिकता या बुद्ध के लेखन की महानता नहीं बल्कि हमारे विकास के पैमाने पर एक जोरदार चांटा है। इस तरह के विषय के ऊपर लिखना और वह भी नाटक लिखना वास्तव में एक चुनौती और हिम्मत का काम है। 
‘मोको कहां ढूंढे रे बंदे’ को रमेश खत्री जी ने दस अंकों में विभाजित किया है। रमेश खत्री जी इस नाटक में अनेक जगह पर बहुत जल्दी में दिखाई देते हैं। जैसे इस नाटक में कबीर के पूरे जीवन दृश्य को दिखाना चाहते हैं। जिसके कारण दृश्य की अधिकता, पात्रों की अधिकता एवं इस तरह की स्थिति या घटनाएं पैदा हो गईं जो संभवतः मंचीय दृष्टिकोण से इस नाटक को खेलने में बाधा पैदा करती हैं। दूसरी बात अनेक जगह पर कथानक, संवाद एवं भाषा स्थिल हो गई है। तीसरी बात ‘मोको कहां ढूंढे़ रे बंदे’ नाटक में कबीर का चरित्र एक सशक्त पुंज की बजाए अनेक टुकड़ों में बिखरा हुआ नजर आता है, जिसके कारण कबीर का सूत्र जहां भी पाठक के साथ जुड़ने लगता है वह कुछ ही देर में बिखर जाता है। क्योंकि भाषा एवं संवाद इतने ताकतवर नहीं हैं कि वह बहुत देर तक दर्शक या पाठक को जोड़े रखंे। नाटक में छोटे-छोटे दृश्य एवं वर्तनी की अशुद्धि भी अनेक जगह पर खलती है। ये तमाम स्थितियां यह संकेत देती हैं कि रमेश खत्री जी बहुत जल्दबाजी में दिखाई देते हैं। वे बहुत कुछ इसी नाटक में कहना चाहते हैं। कबीर को संपूर्ण प्रस्तुत करने का लोभ, उनको अधिक लाभ नहीं देता।
‘मोको कहां ढूंढ़े रे बंदे’ नाटक में कबीर के सामाजिक सरोकारों को एवं उनके द्वारा समाज के लिए किए जाने वाले भले कार्यों को रेखांकित किया गया है। जहां पर भी कबीर बेबसी, गरीबी, लाचारी, मासूमियत और भूख से व्याकुल बच्चे एवं परिवारों को देखते हैं तो उनका सहयोग करने के लिए तत्पर हो जाते हैं। ‘‘न जाने कितने दिनों के भूखे थे बेचारे। किसी को भी इन बच्चों पर थोड़ी भी दया नहीं आई अम्मा। इनकी अम्मा तो भूख से ही मर गई......... बेचारी। नीमा-(व्यंग्य करते हुए) तेरे होते हुए किसी और को जरूरत भी क्या थी? तू है तो सही सभी पर दया करने वाला......... एक अकेला शहर भर में.............।’’ यह कबीर के कार्यों का वह लेखा जोखा है जो निस्संदेह कबीर को कवि से पहले एक समाज सेवी बनाता है। इसीलिए कबीर समाज से वर्ग, वर्ण को समाप्त करके मनुष्य और सिर्फ मनुष्य बने रहने की वकालत करते हैं। कबीर व्यक्तिगत नहीं सामाजिक हित के लिए किए जाने वाले कार्यों को प्रमुखता देते हैं और इसी कारण कबीर असंगति के विरुद्ध तत्काल कदम ही नहीं उठाते बल्कि उसके समाधान के लिए तत्पर हो जाते हैं। इसलिए रमेश खत्री कहते हैं-‘‘बस एक ही रास्ता है। ऐसी बानी बोलो जो सबकी समझ में आए........और ऐसे काम करो जो अधिक से अधिक लोगों की भलाई का हो......... जिससे सभी का हित हो........... सामुहिक हित।’’ सामान्यतः इस सामुहिक हित की वकालत आम जन नहीं करता, जो कि उनकी बड़ी पूंजी है। इस पूंजी को सहेज कर रखने के लिए एवं उसको ताकत के रूप में बचाए-बनाए रखने के लिए कबीर बार-बार इस सामाजिकता पर बल देते हैं। 
आज के समय में पर्यावरण का बहुत महत्त्व है। रमेश खत्री कबीर के माध्यम से धरती, वृक्ष और पर्यावरण के महत्त्व को रेखांकित करते हुए कहते हैं-‘‘यह पेड़ भी तो धरती मां का सिंगार ही है ना माई। इनकी हरियाली हमारा और पशु पक्षियों का जीवन है माई।’’ इनको बचाना और लगाना हम सब की जिम्मेदारी है। इस नाटक के शीर्षक के अनुरूप रमेश खत्री ‘मोको कहां ढूंढ़े रे बंदे’ मैं तो तेरे पास में, हर जगह पर, हर दृष्टिकोण से अनेक स्थितियों पर, पक्षों और पहलुओं को रेखांकित करते हैं। उन पर अपनी पैनी दृष्टि से कबीर के चित्र को प्रस्तुत करते हैं। इसलिए पूरे नाटक में कबीर एक रंग में नहीं बल्कि विविध रंगों में रंगे हुए नजर आते हैं। यही कारण है कि कबीर किसी वर्ग, वर्ण, जाति या धर्म के कटघरे मंे खड़े नहीं होते बल्कि वे सभी के लिए समान हैं। नाटक में एक बुढ़िया कहती है-‘‘सच कहती हूं बेटा। तू न तो हिंदू है और न ही मुसलमान बल्कि इन दोनों से ऊपर तू एक इंसान है। एक ऐसा इंसान जो सबका ख्याल रखता है। सब से प्यार करता है। सबके भले की सोचता है हमेशा। बस इसलिए ही तू सच्चा इंसान है रे बेटा। यही सब जात पात से ऊपर है, इंसानियत ही आदमी को भगवान बनाती है, जाति पाती तो उसे हैवान बनाती है।’’ कबीर के व्यक्तित्व एवं चरित्र के माध्यम से रमेश खत्री जी समाज को एक पुंज में बने रहने की प्रेरणा देते हैं। क्योंकि कबीर का पूरा व्यक्तित्व ही इसी तरह का है। वह किसी खाके में बैठकर किसी एक का नहीं सब का होना चाहते हैं और सब का मनुष्य रूपी भगवान ही हो सकता है। स्वयं भगवान नहीं, क्योंकि भगवान को तो धर्म के आधार पर लोगों ने बांट दिया है। इसलिए जो सबका हो जाए वही विशिष्ट हो जाता है। वह कहीं पर भी दुख, संताप, पीड़ा, असामाजिक आडंबर, भेदभाव आदि देखता है तो दूसरे का दुख दर्द उसे अपना दुख दर्द लगता है। इसलिए कबीर कहते हैं-‘‘एक बेसहारा विधवा भिखारन और उसके साथ भूख से बिलबिलाते बच्चों की पीड़ा मुझसे देखी नहीं गई लोई..............। पैसे तो मेरे पास थे नहीं.........तो मैं भी क्या करता...........अब तुम ही बताओ..........तो मैंने अपनी चादर ही उस बनिए को दे दी और उनको आटा, दाल, चावल दिलवा दिये....।’’ यह व्यक्तित्व का वह पक्ष है जो सबके लिए सहज और समान है। किंतु रमेश खत्री कबीर के इसी व्यक्तित्व को इसलिए विशिष्ट और महत्त्व देते हैं क्योंकि असहज और सामान्य पक्ष गायब होता जा रहा है।
अनेक असामाजिक तत्व कबीर के द्वारा किये जाने वाले सामाजिक कार्याें का विरोध करते हैं। कबीर को एवं उनके द्वारा किये जाने वाले अच्छे कार्यों को तोड़ने के लिए समाज तथा व्यक्ति को वर्ग एवं वर्ण में बांटते हैं। परवेज, समसुल, बशीर और रघुनाथ इसी तरह के चरित्र हैं, जो हर दौर के कबीर के सामने खलनायक के रुप में प्रस्तुत होते हैं। रमेश खत्री इन खल चरित्रों पर कबीर के माध्यम से सीधा वार नहीं करवाते हैं बल्कि ये लोग जिस आम जन को तोड़ने का प्रयास करते हैं, उन्हीं के माध्यम से इनके परिवर्तन की वकालत करते हैं। इस तरीके में एक बेहतर समाधान है। क्योंकि जिस चेतना को जगाने का काम साहित्य करता है उसी चेतना की पक्षधरता रमेश खत्री करते हैं। जिसकी आवश्यकता आज के दौर में और भी अधिक है। कबीर के संदेशों का यही प्रभाव है। धर्मदास कहते हैं-‘‘ठीक है बाबा..........जैसा आप कह रहे हो हम करते हैं। चलो भाईयों, लग जाओ गरीबों की जान बचाने में, इससे बड़ा पुण्य तुम्हें कहीं भी नहीं मिलेगा।’’ धर्म ग्रंथों में दी गई पाप और पुण्य की परिभाषा को ठेंगा दिखाता हुआ यह संवाद निस्संदेह बहुत कम और छोटे शब्दों में बहुत बड़ी बात कहने का प्रयास करता है। रमेश खत्री पूरे नाटक में बिखराव के रूप में ही सही किंतु अनेक जगह पर ऐसी सुक्तियां कहते हैं जो पाठक को विचार करने के लिए मजबूर करती हैं। यह इस नाटक की एक बड़ी उपलब्धि कही जा सकती है।
नाटक के लिए कहानी चुनते वक्त यह जरूरी है कि उसका कथानक प्रभावी हो। कथानक को प्रभावी बनाने के लिए नायक और खलनायक की परिकल्पना की जाती है। ये चरित्र ही अपने विचारों से समाज को प्रेरणादाई बनाते हैं। इसीलिए रमेश खत्री कबीर के सामने प्रतिद्वंदी के रूप में इस तरह का समाज खड़ा करते हैं, जिसमें परवेज, समसुल, बशीर और रघुनाथ जैसे लोग दिखाई देते हैं। इस तरह के तथाकथित समाज के ठेकेदार जब समाज को बांटते हैं तो हर युग का कबीर अपने अंतर्मन से बडे़ खिन्न स्वर में यही बात कहता है-‘‘रैदास कभी सोचा भी नहीं था कि हमारे यहां पर भी जाति.........धर्म, संप्रदाय और भाषा के नाम पर इस तरह से दीवारें खड़ी हो जायेंगी। इंसान और इंसान के बीच इतनी दूरी पैदा हो जायेगी। वह एक दूसरे से इतना दूर चला जायेगा..........कभी सोचा भी नहीं था। मैं तो यह सोच कर भी अचंभित हूं कि इंसान इस तरह से एक दूसरे का दुश्मन बन जायेगा। वह अपने ही भाईयों के साथ ऐसी घिनौनी हरकत करने लगेगा। मुझे तो यह भी अंदेशा है कि एक दिन ये लोग एक दूसरे का खून भी बहाने न लग जायें।’’ कबीर के चरित्र को घड़ने में रमेश खत्री जिस आशंका को याद करते हैं निस्संदेह वह चिंताजनक है और अनेक जगह पर अपनी सीमा लांघ भी चुकी है। अनेक वर्गों और कटघरों में बंटा हुआ इंसान इस आधुनिक और औपचारिक उपभोक्तावादी युग में जितना अपना सोच रहा है उतना दूसरे का नहीं। इसलिए बड़े ही आवेश और क्रोध के साथ रमेश खत्री कबीर से कहलाते हैं-‘‘तो फिर और क्या बांटना बाकी रह गया है राजा साहब............जो आप लोग आपस में मिलकर नहीं रह सकते........? आप लोगों ने जातियां बांटी, धर्म बांटे, जबानें बांटी..........यहां तक कि परमात्मा तक को बांट लिया आप लोगों ने........... अब तो बस इंसान को ही बांटना बाकी रह गया है तो उसे भी बांट लीजिए........ निकालिए अपनी-अपनी तलवारें और कर दीजिए हमारे दो टुकड़े। एक टुकड़ा मुसलमान कबीरदास हो जाएगा और दूसरा हिंदू कबीरदास.......... फिर चाहे तो जलाईये या फिर दफन कीजिए और तब सारी दुनिया जान जायेगी और देख लेगी कि जाति, धर्म, भाषा और यहां तक कि बड़े-बड़े दुश्मनों से भी हार न मानने वाला ये कबीरदास............हारा है तो सिर्फ अपने ही लोगों से.........सिर्फ अपने ही लोगों से.........हारा है।’’ ये सिर्फ कबीरदास के नहीं अपने युग के उस सच्चे आम व्यक्ति के शब्द हैं जो राजनीतिक शक्तियों के बीच में पिस कर हमेशा अपनों से ही परास्त हुआ है और उसकी पराजय किसी की जीत का सिरमौर नहीं बनी बल्कि सभी के लिए पराजय ही रही है। यह बात अलग है कि कुछ लोग उसे क्षणिक आनंद और जीत मानते हैं।
सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक आदि अनेक पक्षों पर कबीर के चरित्र एवं जीवन के माध्यम से कटाक्ष करने वाला तथा सोचने के लिए मजबूर करने वाला यह नाटक ‘मोको कहां ढूंढे़ रे बंदे’ आज के युग की अनेक स्थितियों में प्रासांगिक नजर आता है। यह प्रासंगिकता निस्संदेह कबीर के विचारों के साथ-साथ उनके पद और दोहांे की भी है। जैसा की पूर्व में कहा गया है कि यह नाटक रंगमंचीय दृष्टिकोण से कुछ जगह पर बाधा उत्पन्न कर सकता है। परंतु इसे ठीक से थोड़ा संपादित करके और उचित निर्देशक के हाथों में जाकर एक अच्छी प्रस्तुति और अच्छे नाटक के रूप में खेला जा सकता है। आशा है कि यह खेला जाएगा। जिस तरह के सवाल ‘मोको कहां ढूंढ़े रे बंदे’ के माध्यम से रमेश खत्री उठाते हैं वे इसी जमीन से खड़े हुए हैं, कोई आकाश से नहीं उतरे हैं। इसलिए उनका हल भी यहीं खोजना होगा, यहीं तलाश करना होगा, अन्यत्र जाकर नहीं। क्योंकि कबीरदास जी कहते हैं ‘मोको कहां ढूंढे़ रे बंदे’ मैं तो तेरे पास में, ना मैं मंदिर, ना मैं मस्जिद, ना काबे कैलाश में, खोजी हो तो तुरंत ही मिलिए पल भर की तलाश में।’ 

प्रस्तुति-
प्रदीप कुमार
ग्राम/पोस्ट-बास कृपाल नगर, 
तहसील-किशनगढ़-बास, जिला-अलवर,
राजस्थान, पिन न. 301405, मोबाईल नं.-9460142690, मेल-pradeepbas@gmail.com CykWx&http://pradeepprasann.blogspot.in/2017/03/blog-post.html
 
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