‘दिग्दर्शक’
के दर्शन के लिए नहीं उमडे़ दर्शक
यह समीक्षा मात्र इस नाटक की समीक्षा नहीं है अपितु अलवर रंगमंच की समीक्षा है। क्योंकि इस नाटक एवं इन कलाकरों के बहाने अनेक बातों पर टिप्पणी इस समीक्षा में है।
अलवर के हारूमल तोलानी ऑडिटोरियम में 21
जनवरी 2022 को दिग्दर्शक नाटक का मंचन किया गया। लगभग 50 मिनट की अवधि
का यह नाटक प्रियम जानी द्वारा लिखा गया है और प्रियंका खांडेकर ने इसे निर्देशित
किया। तीन पुरुष पात्रीय नाटक ‘दिग्दर्शक’ नाटक और फिल्म के अभिनेताओं को केंद्र
में रखते हुए, परिवार की जिम्मेदारी भी एक कलाकार के लिए उतनी ही जरूरी है जितना कि
उसके लिए थिएटर या फिल्म में काम करना, इस बात को केन्द्र में रखकर लिखा गया
है।
अलवर में हारूमल तोलानी ऑडिटोरियम बनना
निश्चित रूप से अलवर के लिए एक सुखद कलात्मक संदेश है और नव तथा पुरातन सभी कलाकार,
कला
प्रेमी, साहित्य जगत के लोग यहां समय अंतराल पर आ रहे हैं और इस गैर सरकारी
ऑडिटोरियम में होने वाली प्रस्तुतियों के लिए उत्साहवर्धन कर रहे हैं। सरकार जहां
पर कलात्मक रूप को बढ़ावा देने के लिए कमजोर साबित हुई है, वहीं हारूमल तोलानी
एक बेहतर विकल्प के रूप में अलवर कलाजगत के लिए साबित हो रहा है। अलवर में प्रताप
ऑडिटोरियम जैसा विषाल, भव्य और सुंदर सरकारी ऑडिटोरियम होने के बाद भी गैर सरकारी ऑडिटोरियम
हारूमल तोलानी का चुनाव क्यों? इसकी वजह है प्रताप ऑडिटोरियम की दर
बहुत महंगी है। इस कारण अलवर के कलाकार एवं अलवर में होने वाली नाट्य एवं अन्य
कलात्मक-साहित्यिक प्रस्तुतियों के लिए अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। इस
कारण हारूमल तोलानी एक बेहतर विकल्प है।
अब सवाल यह है कि इसमें लगातार
प्रस्तुतियां और अच्छी प्रस्तुतियां होनी चाहिएं। 21 जनवरी को होने
वाली नाट्य प्रस्तुति दिग्दर्शक आलेख के रूप में निश्चित रूप से एक बेहद ही अच्छा
नाटक कहा जा सकता है। एक बहुत ही सामान्य सी कथा के ताने-बाने को आलेख के रूप में
रचने में लेखक सफल हुए हैं। एक व्यक्ति जो नाटक का, रंगमंच का
कलाकार होता है वह फिल्मी दुनिया का बड़ा स्टार बन जाता है और बड़ा स्टार बनने के
बाद वह अपने नाट्य गुरु के पास एक बार आता है और उनसे बातचीत करते हुए पूछता है कि
आप मुझसे नाराज क्यों हैं तथा आपको सिनेमा से नफरत क्यों हैं? नाट्य
गुरु उसे पहले तो जवाब नहीं देता है। फिर वह शर्त रखता है कि मैं तुमसे नाराज नहीं
हूं लेकिन फिर भी मैं तुम्हारी इस बात का जवाब तब दूंगा जब तुम मेरी बात का जवाब
दोगे कि तुम मुझे छोड़कर गए क्यों? तुम थिएटर छोड़कर फिल्मों में क्यों गए?
तो
वह कलाकार बताता है आपने एक थिएटर कलाकार की भूमिका तो बेहतर तरीके से निभाई परंतु
एक पिता की भूमिका निभाने में कहीं न कहीं आप कमजोर साबित हुए। आपके बेटे को एक
पिता के रूप में आपका प्रेम नहीं मिल सका। वह उन तमाम चीजों से वंचित रहा जिसके
कारण कि उसका भविष्य और उसका संवेदनात्मक, भावनात्मक विकास बेहतर हो सकता था। उसी
ने ही मुझे प्रेरित किया कि मेरे पिताजी के तुम बहुत ही पसंदीदा कलाकार हो। अतः
तुम उन्हें धोखा दे दो और नाटक छोड़कर फिल्मों में चले जाओ और फिल्मों में अधिक
पैसा एवं प्रतिष्ठा भी है। तुम वहां सफल भी हो सकते हो और शायद तुम्हारे कारण मुझे
मेरा पिता मिल जायेगा। यह सुनकर नाट्य गुरु को बहुत दुख होता है। वह कहता है कि
मैं तुम्हारी फिल्में देखता हूं लेकिन मैं चाहता था कि एक अच्छा होनहार थिएटर में
काम करने वाला व्यक्ति जिससे दूसरे लोग भी प्रेरणा ले सकें, वह यदि थिएटर
में होता तो निश्चित रूप से थिएटर का, कला का और ज्यादा भविष्य संवर सकता था।
बेहतर हो सकता था। नाट्य गुरू इस बात पर दुख प्रकट करता है कि एक अच्छा पिता वह
नहीं बन सका। बाद में दोनों खुष होते हैं कि दोनों ने ही अपना कार्य किया। लेकिन
कुछ छूट भी गया।
नाटक में एक जगह कुछ संवाद हैं कि
‘थिएटर में आप इतना ऊंचा बोलो कि सभी दर्शक सुन सकें, इतना सही
उच्चारण हो कि भाषा और किरदार के साथ न्याय हो सके, इस तरह से चलो
कि वहां पर वह चाल आप की नहीं बल्कि उस किरदार की लगे, मंच पर उस समय
ऐसा व्यवहार करो कि वहां पर आपको नहीं लोग उस किरदार के रूप में आपको पहचानें।’
लेकिन जब यही सारी चीजें स्वयं कलाकार न करता हुआ दिखाई देता हो तो उस नाटक के साथ
ही अन्याय नहीं, रंगमंच के साथ, कला के साथ एवं नाटक देखने आए दर्शकों
के साथ भी अन्याय है। यह बात इस नाटक में दिखाई दी।
नाटक में दर्शकों का अभाव एक सबसे बड़ी
समस्या रही है लेकिन यह अभाव है क्यों? जो दर्शक हमारे पास आज किसी भी कारण से
आ गया है, क्या हम उसे उस 1 घंटे में ऐसा कुछ दे पाते हैं जिससे
कि वह पुनः आने के लिए प्रेरित हो, लालायित हो, बेचैन हो या
मजबूर हो? कलाकार के पास इन सवालों के जवाब यदि हैं तो शायद दर्शक नाटक देखने
आयेगा। एक नाटक अभिनेता के रूप में अक्सर ये कमियां अनेक कलाकारों के रूप में
दिखाई देती हैं। विशेष रूप से अलवर के कलाकारों के संदर्भ में बात करें तो।
लगातार नाट्य प्रस्तुतियां करना कोई
बहुत बड़ी बात नहीं है लेकिन अच्छी प्रस्तुतियां करना बड़ी बात है। हां यह जरूर है
कि लगातार प्रस्तुतियां भी कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में कुछ लोगों को
प्रेरित करती हैं, वह भी एक प्रेरणा का संदेश है। परंतु यदि वह कमजोर रहती है तो वह
कहीं न कहीं थिएटर को, कला को, दर्शकों को भी कमजोर करती है। कलाकार की कलात्मक प्रस्तुतियां इतनी
प्रभावी होनी चाहिए कि एक बार उस कला में रुचि रखने वाला व्यक्ति देखे तो वह पुनः
देखने के लिए लालायित हो और दोबारा आपके नाम से उस कला को देखने के लिए वह आए तथा
अन्य लोगों को भी लाए। सवाल यह है कि यह कैसे हो? तो यह होगा
परिश्रम के साथ, डेडीकेशन के साथ। हमारी तकनीकी चीजें अगर किसी रूप से बहुत प्रभावी
नहीं हैं तो उनकी खामियां कहीं न कहीं नजरअंदाज की जा सकती हैं। जैसे उदाहरण के
लिए हमारे पास कॉस्टयूम प्रॉपर नहीं है, लाइट प्रॉपर नहीं है, साउंड
की व्यवस्था प्रॉपर नहीं है, स्टेज पर जो प्रॉपर्टी चाहिए वह नहीं
है या मेकअप प्रॉपर नहीं है तो ये सारी कमियां कहीं न कहीं एक दर्शक नजरअंदाज कर
सकता है। हालांकि ये सभी रंगमंच के अंग हैं और इनके बिना रंगमंच, अभिनय
अधूरा है, नाटक अधूरा है। लेकिन फिर भी मुख्य रूप से कलाकार का कार्य सबसे
प्रमुख है। यदि वह अपने अभिनय में, अपनी कला में, अपने कार्य में
कहीं पर भी कमजोर साबित होता है तो वह एक दर्शक को ज्यादा बडी कमी के रूप में
अखरता है। अतः अलवर के निर्देशकों को इस ओर ध्यान देने की बहुत आवश्यकता है। कई
बार किसी सामान्य दर्शक की या नाटक में रुचि रखने वाले दर्शक की एक सामान्य
टिप्पणी नाटक को देखने के बाद होती है कि ‘मजा नहीं आया’। तो प्रस्तुति देने वाले
कलाकारों को या नाटक से जुड़े हुए, उस प्रस्तुति से जुड़े हुए लोगों को यह
टिप्पणी थोड़ी सी अच्छी नहीं लगती है। लेकिन इस टिप्पणी का अर्थ यह जरूर है कि कहीं
न कहीं वह व्यक्ति अपनी जिन अपेक्षाओं को, अपनी जिन आकांक्षाओं को लेकर के आया था
उनकी पूर्ति नहीं हुई। क्योंकि जो प्रस्तुति आप दे रहे हैं उसके साथ उसका जुड़ाव उस
रूप में नहीं हो पाया जिस रूप में आप करना चाहते थे। क्योंकि यदि आप उस रूप में एक
दर्शक का जुड़ाव करते तो शायद उसके मुंह से यह टिप्पणी नहीं निकलती और वह आपकी कला
के प्रति, नाटक के प्रति चाहे बहुत प्रफुल्लित नहीं होता लेकिन प्रेरित होता और
उसके मन में जिज्ञासा और अपेक्षाएं जन्म लेती कि शायद एक अलग तरह का कलात्मक अनुभव
रहा यह। जिसको जीने का, समझने का, देखने का, करने का भी अपना एक अलहदा आनंद है और वह उसे बार-बार देखने के लिए
प्रेरित होता और अन्य लोगों को प्रेरित भी करता। (इसमें हम उन दर्षकों को नहीं गिन
रहे हैं जो 12 साल से छोटे हैं या जिन्होंने नाटक के बारे कुछ भी न सुना, पढा
हो।) अलवर के नाट्य निर्देशकों को, अलवर के कलाकारों को, अलवर
के कला और साहित्य प्रेमियों को इस ओर ध्यान देने की शायद कुछ अधिक आवश्यकता है।
कुणाल सिंह, निखिल कुमार,
योगेन्द्र
चौहान के द्वारा यह नाटक अभिनीत किया गया। कुणाल सिंह की बात करें तो एक समर्पित
कलाकार तो कुणाल सिंह हैं, लेकिन अच्छे अभिनेता के रूप में अभी
कुणाल सिंह की प्रस्तुति आनी शेष है। इन तीनों कलाकारों में कुणाल सिंह ही सबसे
अनुभवी कलाकार हैं। फिर भी कुणाल सिंह की प्रस्तुति काफी कमजोर रही। हालांकि पूर्व
की तुलना में कुणाल में सुधार है लेकिन कुणाल से और अपेक्षाएं थीं और हैं। मंच पर
नाटक में अभिनय के रूप में निखिल कुमार और योगेन्द्र चौहान दोनों ही कलाकारों का
यह पहला प्रयास था। एक नाटक में अभिनय करने के रूप में देखा जाए तो पहले प्रयास
में ये काफी सफल रहे। इन बच्चों ने काफी मेहनत की। इनके निर्देशक ने इनसे काफी
मेहनत करवाई होगी या जिससे भी इन्होंने प्रेरणात्मक रूप से इन किरदारों के लिए जो
काम किया वह सराहनीय कहा जा सकता है। यूं हर काम में हमेशा कोई न कोई गुंजाइश रहती
है। संपूर्ण अपने आप में कोई नहीं होता। लेकिन फिर भी प्रेरणा देने का काम,
प्रभाव
डालने का काम इन्होंने किया। निखिल कुमार और योगेन्द्र चौहान नवोदित कलाकार होने
के बावजूद भी इनका प्रयास एक सराहनीय और बढ़ते कदम की ओर कहा जा सकता है। कुणाल को
जहां तक मैं जानता हूं उसका तीसरा या चौथा नाटक है यह और पिछले कई वर्षों से
लगातार वह नाटक कर रहे हैं। वह बात अलग है कुछ परिस्थितियों के कारण उन्होंने बीच
में नाटक छोड़ दिया था। एक दूरी बना ली थी और कुछ व्यक्तिगत कारणों से, समस्याओं
से जूझ रहे थे और उन समस्याओं से निकल करके नाटक करना भी अपने आप में एक बड़ा काम
है लेकिन जब आप मंच पर होते हो, तो एक दर्शक चाहे वह नवीन हो या पुराना,
वह
आपको उस पात्र के रूप में देखता है, आपसे जुड़ी हुई समस्याओं के रूप में
आपको नहीं देखता है। और वही दर्शक आपको उस मंच पर प्रस्तुति के लिए प्रेरित करने
वाले निर्देशक को या मंच पीछे काम करने वाले अन्य लोगों को भी उसी रूप में देखता
है। उसमें कहीं पर भी कमी नजर आती है तो व्यक्तिगत रूप से आपकी, आपके
निर्देशक की, नाट्य टीम की वह सबसे पहली कमी है। ये बातें सिर्फ इस प्रस्तुति पर
या इस प्रस्तुति से जुडे कलाकारों पर ही लागु नहीं होती है अपितु अन्य
प्रस्तुतियों और कलाकारों पर भी लागु होती हैं।
हालांकि हर व्यक्ति की अपनी सीमाएं
होती हैं। वह एक अलग बात है लेकिन जो लगभग चार-पांच वर्षों से या इससे अधिक नाटक
से जुड़े हुए हैं। नाटक के अनेक पक्षों पर काम कर चुके हैं, वे जब बार-बार
गलतियां करते हों तो शायद उन्हें वे गलतियां गलतियां न लगती होंगी या वे उन
गलतियों में या ऐसा करने के इतने अभ्यस्त हो जाते हैं कि उन्हें यही सबसे उच्चतम
और बेहतर श्रेणी लगती हो। या फिर यह कह सकते हैं कि उनका एक तरह से कंफर्ट जोन बन
जाता है यह, और इस कंफर्ट जोन में रहने के कारण उन्हें यह लगता है कि अच्छा कर
रहे हैं, बेहतर कर रहे हैं। लेकिन एक दर्शक को वह कमी खलती है। उससे बाहर
निकलने की आवश्यकता है।
आज की तारीख में सोशल मीडिया, यूटयूब
का तेज गति से चलने वाला जमाना है। यदि इंटरेस्ट नहीं आता है तो व्यक्ति तुरंत
चैनल बदल देता है या उसे फॉरवर्ड कर देता है। सड़क पर तमाशा दिखाने वाले मदारी की
अभिव्यक्ति में, उसके प्रस्तुतीकरण में यदि उतनी चुंबकीय क्षमता नहीं होगी जैसे कि वह
चलते हुए व्यक्ति को न रोक सके तो उसकी कला को कोई नहीं देखेगा। यह भी सत्य बात है
कि हजारों लोग चलते हैं लेकिन मुश्किल से 50 लोग उसकी कला
को देखने के लिए रुकते हैं। कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि हम हर व्यक्ति को एक
दर्शक के रूप में पाएं। या हर व्यक्ति को नाटक देखने या दिखाने के लिए मजबूर करें।
या जो दर्शक हमारे पास आ गया है, उससे अपेक्षा रखें कि वह सारी चीजों को
उसी रूप में समझेगा जिस रूप में हम बताना चाहते हैं। क्योंकि हमारे पास जो दर्शक
आया है वह अलग-अलग उम्र का, अलग-अलग क्षेत्र का, अलग-अलग
वर्ग का है। लेकिन इतना हम ध्यान रखें हमारे पास जो दर्शक आ गया है, उसके
कॉन्शियस या सबकॉन्शियस में यह बात अवश्य जानी चाहिए की नाट्य कला अन्य कलाओं से
कैसे पृथक है, उसका जो आनंद है वह कहीं अन्य नहीं है। वह आनंद मनोरंजनात्मक रूप से,
संदेशात्मक
रूप से या कलात्मक रूप से उस तक पहुंचना चाहिए। उसका उससे जुड़ाव होना चाहिए। चाहे
आंशिक रूप से ही सही। यह जुड़ाव जब उस दर्शक के साथ होने लग जाएगा तो पूर्णतः नहीं
लेकिन कहीं न कहीं यह दर्शक एक नाटक का दर्शक, आपका दर्शक बन
जाएगा और अन्य दर्शकों को शायद प्रेरित भी करने लगेगा नाटक देखने के लिए।
तकनीकी निर्देशन किया अलवर के वरिष्ठ
कलाकार अविनाश सिंह ने। तकनीकी पक्ष से इस नाटक में दो या तीन फैड आउट पर्याप्त
थे। क्योंकि नाटक की कथा में दो या तीन मोड़ थोड़े से अलग हैं जो कहानी को बदलते
हैं। लेकिन उसके बावजूद भी जो प्रकाश व्यवस्था थी, जिसमें फैड आउट
था वह बहुत बार अनावश्यक थी। कहीं न कहीं वह प्रस्तुति को अप्रभावित करती रही।
दूसरी बात प्रकाश व्यवस्था का संचालन और कलाकारों का मंच पर आना-जाना इसमें भी
तालमेल की कमी दिखाई दी। फैड आउट या किसी दृश्य का समापन या प्रकाष व्यवस्था उस
प्रस्तुति में जीवंतता लाते हैं। नए दृश्य के साथ जोड़ने की उत्सुकता पैदा करते
हैं। कहानी में आगे क्या घटित होगा इसके लिए दर्शक को उत्साहित करते हैं, प्रेरित
करते हैं, जानने के लिए। लेकिन वही फैड आउट यदि आपको बात करने के लिए, आपको
इरिटेट करने के लिए कहानी के जुड़ाव में बाधा उत्पन्न करने के लिए बाधक के रुप में
दिखाई दे तो कहीं न कहीं अनावश्यक है।
नाटक या कोई भी कला एक दिन में प्रमुख
या बेहतर या प्रखरता नहीं ला सकती। प्रतिदिन सीखने की कला है यह। उसे दिन प्रतिदिन
सीखते जाते हैं तो उसमें धीरे-धीरे सुधार होता जाता है और यह अपेक्षा भी नहीं है
कि एक ही दिन में सब कुछ बेहतर हो जाए लेकिन अनेक सालों से काम करने के बाद भी बार
बार उन्हीं कमियों की पुनरावृति दिखाई दे तो सवाल उठता है। इस प्रस्तुति में कुछ
कमियां नजर आईं और इस प्रस्तुति के माध्यम से कुछ अन्य कमियां जो व्यक्तिगत रूप से
मुझे अनुभव हुई और अन्य लोगों से बात करने के बाद जो उनको भी कमियां लगीं उनको
मैंने समीक्षात्मक रूप से यहां प्रस्तुत करने की कोशिश की है। यह समीक्षा थोड़ी सी
कड़वी हो सकती है लेकिन इसका जो भाव है वह कहीं पर भी कड़वाहट पैदा नहीं करेगा,
ऐसी
मुझे आशा है। लगभग 6 माह बाद अलवर में प्रस्तुति देखने का एक अवसर मिला तो उससे भी मुझे
थोड़ी आशा ज्यादा हो गई थी कि अच्छी और बेहतर प्रस्तुतियां होंगी। फिर भी ‘दिग्दर्शन’
नाटक की पूरी टीम को बहुत बहुत बधाई।
प्रस्तुति-प्रदीप प्रसन्न
ग्राम/पोस्ट-बास कृपाल नगर, तहसील-किशनगढ
बास, जिला-अलवर, राजस्थान पिन-301405, मोबाईल-9460142690,
8619238014, मेल- pradeepbas@gmail.com
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ReplyDeleteबहुत स्पष्ट और उपयुक्त समीक्षा है सर । जो पहलू आपने बताये नाटक की प्रस्तुति के दौरान ये लगभग सभी ने महसूस किया होगा । किरदार के संवादों और कलाकार की प्रस्तुति में तालमेल के अभाव को संभवतः नए दर्शक ने भी अवश्य महसूस किया होगा।
ReplyDeleteमेरा व्यक्तिगत अनुभव ये है सर कि हमारे शहर का रंगमंच लक्ष्य विहीन या दिशा विहीन है ।
धन्यवाद हितेश जी, आपकी टिप्पणी बहुत उपयोगी है.
ReplyDelete🙏🙏🙇♂️
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