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Thursday, July 13, 2017

Expectancy prospects of rangsambhav : रंगसंभव से संभावनाओं की अपेक्षा

रंगसंभव से संभावनाओं की अपेक्षा
किसी भी विधा या कला को जीवित रखने का एक तरीका यह है कि उसकी सजृनात्मकता में नवीनता के साथ उसकी पुनरावृत्ति होती रहे। पुनरावृत्ति से तात्पर्य है-उसका लगातार होना। अर्थात लिखना, सृजन करना, बनाना, गढ़ना, मांढ़ना, रचना या खेलना आदि। रंगमंच की विधा को अलवर में जीवित रखने के इसी उपक्रम में गत एक-दो वर्षों से नाटक प्रस्तुतियों की स्थिति में पुनरावृत्ति हो रही है।

इस वर्ष यानी 2017 में लगातार एक-दो महा के अंतराल में अलवर में नाटकों का होना रंगमंच के लिए एवं विशिष्टतः अलवर रंगमंचके लिए एक सुखद संकेत है। रंगमंच के प्रति अलवर के दर्शकों का रुझान धीरे-धीरे और भी सकारात्मक होगा, ऐसी आशा की अनेक किरणें लगातार होती प्रस्तुतियां प्रस्फूटित करती हैं। इसी कड़ी में 9 जुलाई को प्रस्तुत हुई दो नाट्य प्रस्तुतियां-आदरणीय डैडीएवं रक्तबीज। जिसे प्रस्तुत किया रंगसंभव अलवरने।

आदरणीय डैडीराधेश्याम शर्मा का लिखा हुआ एक हास्य नाटक है। पूर्णतः हास्य से लबरेज आदरणीय डैडी नाटक अपने ढांचे में अनेक स्थितियां या परिस्थितियां, संवाद, यहां तक कि पात्रों के नाम भी हास्य का पुट लिए हुए होते हैं। किंतु बावजूद इसके अनेक जगह पर इन्हीं सबके माध्यम से इस तरह की स्थितियां व संवाद भी हैं जो अनेक सामाजिक रूढ़ियों-परंपराओं के ऊपर एवं बदलते परिवेश में मनुष्य का सिर्फ अपना लाभ देखने वाला दृष्टिकोण किस तरह से हावी होता जा रहा है, कहीं ना कहीं रिश्ते मूल्य, सामूहिकता, संबंध आदि क्षीण होते जा रहे हैं, इन सब पर भी बहुत बारीक ढंग से कटाक्ष करता है आदरणीय डैडी। आदरणीय डैडी की कथा में प्रमुख रुप से तीन पात्र हैं-सुखेन, उसकी पत्नी इंदु और उसका छोटा भाई विजेन। इंदु बगल वाले कमरे में अपने ससुरजी के खांसने की आवाज सुनती है और यह बात अपने पति से कहती है। इंदु का पति सुखेन जग रहा है, कुछ काम कर रहा है। जबकि इंदु सो रही थी। इसी बात को लेकर दोनों बहस करते हैं। सुखेन कहता है मैं जगते हुई आवाज नहीं सुन पाया और तुमने सोते हुए आवाज सुन ली और इसके बाद व्यक्तिगत रुप से एक दूसरे के ऊपर अनेक तरह के आरोप-प्रत्यारोप लगाते हैं। इसी बीच विजेन आता है और वह कहता है कि पापा जी की सांसे बंद हो गई अर्थात उनके पिताजी मर गए हैं। विजेन डॉक्टर को बुलाने जाता है। डॉ. के आने पर भी अनेक हास्यास्पद स्थितियां घटती हैं। उसके बाद तैयारी होती है अगले दिन की। लोग आयेंगे, बैठेंगे। मुर्दे को जलाना है। इन सबके लिए खर्चा होगा तो पैसे चाहिएं। लोग आते हैं, चले जाते हैं लेकिन बहुत कम समय के लिए रुकते हैं। अगले दिन रविवार होता है। बैंक बंद है। पैसे कैसे निकालें। यह एक बड़ी समस्या सुखेन के सामने आती है। वह कुछ लोगों से पैसे मांगता है, तो वे मुकर जाते हैं या कोई बहाना बना लेते हैं। स्वयं उनके चाचाजी आते हैं, वे भी इधर-उधर की बातें करते हैं और जैसे ही उनसे पैसे मांगे जाते हैं वे भी कुछ देर तक बैठने के बाद निकल जाते हैं। एक व्यक्ति गलत पते के कारण अपने बेटे रामचंद्र के साथ आता है और उस बीच भी कुछ गलतफहमियां पैदा होती हैं। इन सबके मध्य अनेक प्रकार की हास्य स्थितियां पैदा होती हैं। अनेक परिस्थितियों पर कटाक्ष किया जाता है। आदरणीय डैडी नाटक लगभग 25-30 वर्ष पहले लिखा गया है। उस समय एटीम की व्यवस्था नहीं थी। अतः बैंक बंद होने वाली प्रक्रिया में रविवार का होना बड़ी समस्या उभर कर आती है।



आदरणीय डैडी नाटक का केन्द्रीय भाव हास्य है। यह परिस्थितिबेस हास्य है। हास्य को प्रस्तुत करना टाइमिंग पर निर्भर है। यदि टाइमिंग गड़बड़ा गई तो हास्य अपना प्रभाव पैदा नहीं कर पायेगा। टाइमिंग अर्थात वह समय सीमा जिसमें आपको संवाद बोलना है, यदि वह पल चूक गया तो संवाद का भावार्थ एवं प्रभाव दोनों ही परिवर्तित हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में दर्शक तो उससे जुड़ ही नहीं पता है बल्कि अभिनेता भी उससे ठीक से नहीं जुड़ पाता है। उस समय दर्शक की प्रतिक्रिया न आने का यही कारण होता है। दूसरे भावों की अपेक्षा हास्य को प्रस्तुत करना आसान काम नहीं है। अभिनेता के लिए एक बड़ी चुनौती है हास्य को प्रस्तुत करना। क्योंकि हास्य में सबसे बड़ी दिक्कत है कि वह हमेशा आरोही क्रम में ही बढ़ना चाहता है। दर्शक जब एक बार हास्य से जुड़ता है तो वह उसके चरमोत्कर्ष की ओर जाने की अपेक्षा रखता है और यही अपेक्षा स्वयं अभिनेता की भी होती है। लेखक के लिखने के बाद उस रस को चरमोत्कर्ष तक पहुंचाने की जिम्मेदारी निर्देशक, अभिनेता और अंत में दर्शक की होती है। इन तीनों के तालमेल में यदि कहीं पर कमी आती है तो नाटक का प्रभाव उत्पादन कहीं न कहीं स्थिल हो जाता है। कहने का तात्पर्य है यह है कि हास्य को प्रस्तुत करना निःसंदेह चुनौती का काम है। उसे निर्देशित करना भी और अभिनीत करना भी और इस चुनौती को स्वीकार किया युवा निर्देशक राजेश महिवाल उर्फ एम.डी ने निर्देशक के रूप में एवं संदीप शर्मा उर्फ सैंडी, अविनाश सिंह, इंदु शर्मा आदि कलाकारों ने अभिनेता के रूप में।

संदीप शर्मा एक बहुत ही संभावनाशील एवं उर्जान्वित अभिनेता हैं। पूर्व में भी अनेक किरदारों को उन्होंने बड़ी खूबसूरती के साथ निभाया है। सुखेन के किरदार में जिस परिवेश, तनाव एवं द्वंद्वात्मक भावों की संभावना है उन्हें संदीप ने अपने सशक्त अभिनय से जीवंत करने की कोशिश की। नाटक के प्रारंभ से लेकर अंत तक सुखेन के किरदार में एक चिड़चिड़ापन दिखाई देता है। संदीप शर्मा सुखेन के किरदार की जटिलता को पकड़ने में काफी हद तक कामयाब रहे और उसे उसी रूप में प्रस्तुत भी किया। लेकिन संदीप में अभिनय की संभावनाएं और भी अधिक हैं। संदीप से अधिक संभावनाओं की अपेक्षा इसलिए भी होती है कि जिस तरह के किरदार वो निभाते हैं या निभाए हैं, उन किरदारों पर निर्देशक की अपेक्षा संदीप की कल्पना ज्यादा प्रभावी दिखाई देती है। जबकि निर्देशक की निर्देशकीय परिकल्पना से और अभिनेता इन दोनों के तालमेल से जो किरदार बनना चाहिए, उसका अभाव संदीप के अभिनीत पात्रों में अक्सर दिखाई देता है। यह संदीप की अपनी एवं निर्देशक की अपनी सीमा हो सकती है। संदीप पात्र को जिस तरह से जितना समझ पाते हैं अपने अनुभव से उसे अभिनीत करते हैं और निर्देशक भी उससे आगे नहीं बढ़ पाता है। किन्तु एक कल्पनाशील निर्देशक अभिनेता से आगे की दृष्टि रखता है। क्योंकि निर्देशक पूरे नाटक को जिस दृष्टि से देखता है, प्रत्येक पात्र को उसके अनुकूल गढ़ने की चेष्टा करता है। हालांकि यह जितना आसान लगता है उतना है नहीं। क्योंकि सैद्धांतिक रूप से किसी कार्य का प्रशिक्षण लेना एवं देखकर सीखने में बहुत अंतर होता है। इसीलिए अनेक स्थितियों एवं भावों को जहां अभिनेता नहीं देख पाता है, वहां निर्देशक देखता है। निर्देशक की इस परिकल्पना का अभाव संदीप शर्मा के साथ आदरणीय डैडी में दिखाई दिया।

इन्दू का किरदार निभाया इन्दू शर्मा ने। इन्दू शर्मा भी कई नाटकों में पूर्व में काम कर चुकी हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि वह भी नई कलाकार नहीं है। लेकिन पूर्व के उनके अभिनय की तुलना में व्यक्तिगत रुप से मुझे आदरणीय डैडी में इंदू के रोल में उनका काम बेहतर लगा, लेकिन अपेक्षाकृत कमजोर। जिस तरह का किरदार सुखेन का है और उसे अभिनीत करने वाले अभिनेता संदीप शर्मा का जो टोन है, उन परिस्थितियां में इन्दू शर्मा अपने रोल के साथ काफी हद तक न्याय कर पाईं। संदीप शर्मा और इन्दू शर्मा दोनों का तालमेल किरदार के अनुसार एक सटीक जोड़ी के रूप में दिखाई दिया। सुखेन कई जगह पर जहां गंभीर दिखाई देते हैं इन्दू उसकी तुलना में काफी सहज रहती हैं। पत्नी की सहज प्रवृत्तियां को बिना संवाद के भी इंदू जब अभिनीत करती हैं तो वहां निर्देशक की एवं अभिनेता दोनों की परिकल्पना साकार होती हुई दिखाई देती है।

विजेन का किरदार निभाया अविनाश सिंह ने। विजेन बहुत सहज सा चरित्र है। एक ऐसा किरदार जो बहुत ही सीधे मन से अपने मन की बात कह देता है। लेकिन परिस्थितिवस घटना के अनुसार उसके संवादों में हास्य की अनेक संभानाएं दिखाई देती हैं। अविनाश सिंह ने विजेन के साथ काफी हद तक न्याय किया। लेकिन अविनाश सिंह की कुछ सीमाएं हैं। जैसे-उनके चलने का ढंग, बोलने का लहजा आदि। इसीलिए विजेन के किरदार में अनेक जगह विजेन की बजाय अविनाश सिंह स्वयं दिखाई दे रहे थे। लेकिन अविनाश ने काफी हद तक दर्शकों को बांधे रखा और सुखेन के किरदार को अभिनीत करने में काफी हद तक कामयाब भी रहे। आदरणीय डैडी परिस्थिति के ऊपर निर्भर हास्य नाटक है। अतः संवाद की बजाय उन परिस्थितियों पर हास्य पुट अधिक पैदा होना चाहिए था। जबकि अधिकतर हास्य उत्पन्न हुआ संवादों पर। यह सवाल अभिनेता पर ही नहीं, निर्देशक पर भी उठता है। मुझे लगता है राजेश महिवाल कि अपनी कुछ सीमाएं रही होंगी। जैसे जहां तक मुझे जानकारी है एक तो यह उनका पहला निर्देशित नाटक है। दूसरा पूर्वाभ्याय में समय का अभाव आदि। इसके अलावा कुछ अन्य कारण भी रहे होंगे। जिनके कारण ये कुछ बारीक कमियां दिखाई दीं।

श्याम चंद्र और डॉक्टर की दोहरी भूमिका को अदा किया दलीप वैरागी ने। दलीप वैरागी आदरणीय डैडी की पूरी टीम में सबसे वरिष्ठ रंगकर्मी हैं। अतः उस नाते उनसे अधिक अपेक्षाएं बढ़ जाती हैं। अभिनय की दृष्टि से तो दलीप वैरागी ने दोनों ही किरदारों को बेहतर तरीके से अभिनीत किया। लेकिन दलीप वैरागी की आवाज भारी होने के कारण शब्दों में अस्पष्टता झलकती है। यह समस्या उनमें पहले नहीं थी। उनकी संवाद अदायगी एक निश्चित पैरामीटर पर चलती है। आवाज थोड़ी भारी होने के कारण बहुत सारे शब्द स्पष्ट नहीं हो पाते। डॉक्टर के किरदार में दलीप वैरागी दर्शकों को काफी प्रभावित कर पाए। व्यक्ति एक और चौकीदार की भूमिका निभाई अखिलेश कुमार ने। अखिलेश के अभिनय में काफी सुधार दिखाई दिया। दोनों ही किरदारों में नाटककार ने जो संभावनाएं प्रस्तुत की हैं, लगभग उसी तरह की संभावनाओं के पास अखिलेश कुमार पहुंचते हैं और दोनों ही किरदारों को भाषा के पृथक पुट से एवं अपने आंगिक अभिनय से चरित्रार्थ करते हैं। अखिलेश का रंगमंच के प्रति लगाव नाटक में अभिनय के साथ-साथ नाटक से बाहर उनकी सक्रियता से दिखाई देता है। नाटक के मंचन से पूर्व एवं बाद में भी वे काफी सक्रिय दिखाई दिए। अभिनय की दृष्टि से सबसे अधिक जिस अभिनेता ने प्रभावित किया वे हितेश जैमन थे। हितेश ने चाचाजी एवं व्यक्ति दो की भूमिका निभाई। चाचाजी के रोल में तो वे ठेठ अलवरी चाचा ही लग रहे थे। वेशभूषा एवं भाषा दोनों स्तरों से। जैसा कि बताया गया हितेश जैमन ने पहली बार किसी नाटक में अभीनय किया है। किंतु चाचाजी की भूमिका को उन्होंने एकदम उसी रुप में उतार दिया, जैसे वे सममुच चाचाजी ही हों और ऐसा लगा ही नहीं कि वे पहली बार नाटक में काम कर रहे हैं। इस काम में मेकअप ने भी उनका बहुत साथ दिया। अलवर की देहाती बोली और उनका गजब का उस बोली पर प्रभाव, उच्चारण, उम्र के तकाजे के अनुसार उसे उसी अंदाज में बोलने का उनका लहजा, इन सबके माध्यम से बहुत कुछ कह गए हितेश जैमन अपने पहले ही नाटक में एवं कम संवादों में। रामचंद्र की भूमिका में संजीव यादव थे। इनका भी प्रथम प्रयास था। लेकिन प्रथम प्रयास में ही यह भी काफी प्रभाव उत्पन्न कर गए। जिस भोलेपन का किरदार रामचंद्र का था, उसे अपने संवादों के माध्यम से, बोलने के तरीके से तथा अपने शरीर के स्ट्रक्चर के माध्यम से संजीव यादव ने अच्छे से अभिनीत किया। फोटोग्राफर की भूमिका में दीपक गुप्ता थे। जो सरदार के वेश में आए थे। उनका मेकअप बड़ा ही जानदार था। लग ही नहीं रहा था कि वे सरदार नहीं है। संवाद उनके पास कम थे लेकिन फिर भी दर्शकों को उनकी एंट्री ने प्रभावित किया। सुखीलाल की छोटी सी भूमिका एवं निर्देशक की बहुत बड़ी भूमिका निभाई राजेश महिवालय ने।

मेकअप, सैट एवं प्रकाश की व्यवस्था देशराज मीणा ने संभाली। नाटक को प्रभावी बनाने में संगीत का भी काफी योगदान रहा। संगीत एवं ध्वनि प्रभाव मनोज सिहं का था। मेकअप, वेशभूषा, सैट एवं प्रकाश आदि प्रस्तुति को बेहतर बनाने में बहुत सहयोगी भूमिका निभाते हैं। मेकअप काफी प्रभावी रहा। ये एक तरह से नाटक के पात्र होते हैं। इन सबका ठीक संयोजन अर्थात प्रस्तुति के साथ बेहतर तालमेल हो तो एक बेहतर प्रस्तुति बनती है। लेकिन यदि इनमें कमियां रह जाएं तो प्रस्तुति पर भी उसका प्रभाव पड़ता है। संगीत का संयोजन काफी प्रभावी रहा। जिस तरह का मूड था नाटक का, उस ताने-बाने के इर्द गिर्द ही संगीत के स्वर निकल रहे थे। लेकिन कुछ जगह पर संगीत की आवश्यकता न होने पर भी संगीत बजा। जैसे-मैयत के लिए फोटो ग्राफर का आना और तुनक-धुन, धुन ताना नाना यह संगीत बजना तथा विविध भारती का रात को दो बजे बजना आदि। यह असंगत लग रहा था। मंच परे कुछ अन्य सहयोगी लोग थे-मंच एवं प्रोपर्टी नियत्रंक-सुनील सैनी, प्रस्तुति नियत्रंक-मनोज जैन। राजेश महिवाल के निर्देशन में हुआ नाटक आदरणीय डैडी एक लंबे प्रयास के बाद मंचित हुआ। कुछ कमियों को छोड़ दें तो एक अच्छी प्रस्तुति के रूप में आदरणीय डैडी अलवर के दर्शक याद करेंगे। इस प्रस्तुति की एक महत्त्वपूर्ण बात यह रही कि महावर ऑडिटोरियम दर्शकों से पूरा भरा हुआ था। नाटक के लिए इतने दर्शक आना निःसंदेह एक सुखद संकेत है|रंगसंभव संस्था ने इस दिन एक विशिष्ट कार्य और किया| कला, साहित्य, सामाजिक एवं संगीत के क्षेत्र से जुड़े हुए कुछ विशिष्ट लोगों को पुरस्कृत किया| पुरस्कार किसी भी व्यक्ति को बड़ा या छोटा मापने का कोई पैमाना नहीं है| किंतु पुरस्कार प्रोत्साहित करता है उसके विगत कार्य की विशिष्टता को एवं साथ ही आगत कार्य की बेहतरी को| पुरस्कार निश्चित रूप से बेहतर, नया तथा करने की ललक पैदा करता है और किए हुए कार्य की एक प्रेरणा के रूप में भी काम करता है| जिन लोगों को पुरस्कार दिया गया वे निम्न हैं-रंगकर्म में-ऊषा शर्मा, मंजू चौहान, इंदु शर्मा एवं उदय लोहिया, संगीत में-मम्मल खान साहब, नृत्य में-अनुरीता झा तथा सामाजिक कार्य में-हेल्पिंग हेंड्स व जोश ग्रुप| इन सभी को बधाई| 
रंगसंभव अलवर एक नवोदित संस्था है। लेकिन जहां तक मैं समझता हूं, ‘रंगसंभव अलवरयह नाम या समूह नया है। इसमें काम करने वाले लोग पुराने हैं। ये गत अनेक वर्षों से थियेटर से जुड़े हुए हैं या थियेटर की अनेक संस्थाओं में जुड़े हुए हैं और गाहे-बगाहे ही सही लेकिन थियेटर कर रहे हैं। शायद अब यह संभव हो कि रंगसंभव अलवरमें काम करने वाले ये कलाकार नये जोश और उमंग के साथ अलवर में नाट्य प्रस्तुतियां देंगे। ऐसी अपेक्षा और संभावना इस संस्था के नाम और काम दोनों से है। अलवर रंगमंच को जीवित रखने के लिए इसी तरह से नाट्य प्रस्तुतियां लगातार होती रहेंगी। नाटक करना अपने आप में बहुत बड़ी चुनौती है। यह आसान कार्य नहीं है। आर्थिक से लेकर अनेक तरह की सामाजिक एवं पारिवारिक समस्याओं का सामना नाटक करने वालों को करना पड़ता है। लेकिन समाधान भी इन्हीं समस्याओं के मध्य से निकलते हैं और निःसंदेह रंगसंभव ने यह सार्थक कोशिश की, उसके लिए पूरी टीम को बधाई।

दूसरी प्रस्तुति थी रक्तबीज। डॉ. शंकर शेष का लिखा हुआ यह नाटक, हेमचन्द तामण्डकर ने निर्देशित किया। रक्तबीज की कहानी कुछ इस प्रकार की है-इस चकाचौंध भरी भौतिकवादी जिंदगी में व्यक्ति हर तरह से आगे बढ़ना चाहता है और उसके आगे बढ़ने, विकास के पैमाने में सबसे महत्वपूर्ण पैसा है। वह किसी भी कारण से आए यानी येेेन, केन, प्रकारेण वह पैसा पाना चाहता है। चाहे उसके लिए उसे कोई भी हद पार करनी पड़े। मूल्य, सिद्धांत, संबंध ये सारी हदें पार करके भी वह पूंजी के पीछे दौड़ता है। कहने को वह सुख के पीछे दौड़ रहा है परंतु वास्तव में इस सुख के पहाड़ के नीचे अनेक संबंधों, रिश्तांे, सामाजिक बंधनों की निर्मम हत्या का अंबार लगा हुआ है। जिसके ऊपर वह खड़ा हुआ है। वह एक ऐसा टापू है जो कुछ ही देर आनंद के पल देता है बाकी उसके गर्त में अनेक अवसाद के लम्हे हैं, दुख है जो उसकी स्मृति में आते हैं तो उसे बेचैन करते हैं। रक्तबीज एक बोल्ड विषय पर लिखा गया नाटक है। यह नाटक 1980 के आसपास का लिखा गया है। लेकिन आज भी प्रासंगिक लगता है। बंटुकलाल शर्मा मिस्टर माथुर के यहां नौकरी करता है और वह अधिक वेतन पाना चाहता है। अतः अपने बॉस के सामने अपनी पत्नी को शराब पीने के लिए, बॉस के साथ बाहर जाने के लिए एवं जैसा बॉस चाहें वैसा उससे करवाने एवं करने के लिए कहता है। अर्थात वह हर तरह का पतन जायज मानता है पैसा, उन्नती और मॉर्डनिटी प्राप्त करने में। बंटुकलाल की पत्नी सुजाता इन सब बातों से सहमत नहीं हो पाती है, लेकिन मजबूर और विवश होकर, आखिर वह स्त्री है कई मायनों में स्त्री को पुरुष की सत्ता के आगे नतमस्तक होना पड़ता है, हुई है, अतः वह भी हो जाती है। लेकिन बंटुकलाल शर्मा और उसकी पत्नी सुजाता दोनों ही अपनी प्रतिछाया या अपने पूर्व प्रेमी-प्रेमिका के माध्यम से यह बार-बार महसूस करते हैं कि वे जो इस उन्नति से, इस प्रगति से पाना चाहते हैं, वह पाकर भी वे संतुष्ट नहीं हैं, खुश नहीं हैं और जिस तरह का व्यवहार बंटुकलाल शर्मा की पत्नी के साथ उसका बॉस करता है लगभग वैसा ही व्यवहार बंटुकलाल शर्मा अपने नीचे काम करने वाले दूसरे लोगों के साथ या उनकी स्त्रियों के साथ करते हैं। सुजाता शर्मा और गंुजन दोनों ही किरदारों को बहुत बेहतरीन तरीके से अदा किया अर्शिया परवीन ने। बंटुकलाल शर्मा और मानस की भूमिका को अभिनीत किया सुमित आशीवाल ने। दोनों ही कलाकारों ने संवाद से लेकर अभिनय तक बेहतर काम किया। निःसंदेह निर्देशक की परिकल्पना इनके अभिनय के साथ-साथ दिखाई दे रही थी। बॉस की सशक्त भूमिका निभाई नाटक के निर्देशक हेमचन्द तामण्डकर जी ने। अपने सशक्त अभिनय के साथ अपनी दमदार आवाज से भी उन्होंने दर्शकों को काफी प्रभावित किया। अर्शिया परवीन ने सुजाता शर्मा का जो किरदार निभाया वह बहुत ही बोल्ड किरदार था। बोल्ड से तात्पर्य यह विषय जिस तरह का है वह बहुत ही खुलापन लिए हुए है। इस तरह के चुनौतिपूर्ण नाटक करना एवं उनमें अभिनय करना अपने आप में चुनौती भरा काम है। इस चुनौती को स्वीकार किया, हेमचन्द तामण्डकर, अर्शिया परवीन एवं सुमित आशिवाल ने। एक बेहतरीन संजीदा सामाजिक समस्या पर प्रहार करने वाली प्रस्तुति रही रक्तबीज। मंच परे में इस नाटक में सहयोग दिया-मंच और प्रोपर्टी करण सिंह टिक्कू, संगीत-कुशल दुबे, रूप सज्जा-विथिका सैनी, प्रस्तुति नियत्रंक-रुद्र आशिवाल, प्रकाश व्यवस्था देशराज मीणा। दोनों ही प्रस्तुतियां यादगार प्रस्तुतियां रहीं।

प्रस्तुति-
डॉ. प्रदीप कुमार
ग्राम/पोस्ट-बास कृपाल नगर,
तहसील-किशनगढ़-बास, जिला-अलवर,
राजस्थान, पिन नं. 301405, मोबाईल नं.-9460142690,
CykWx&http://pradeepprasann.blogspot.in,
youtube chainal-pradeep prasann



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